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सकता है।
अछूते पड़े हैं? किसी पाताल में बने हुए नरक से बचने के लिए धर्म न
ध्यान दर्शन करें, वरन् अपनी अंतआत्मा में पल रहे नरक से बचने के लिए धर्म को आत्मसात् करें, अपने ही भीतर स्वर्ग को ईजाद करने के लिए धर्म का
ज्ञान और ध्यान भारत की सभी धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं आचरण करें।"
के अंग रहे हैं। वैदिक परम्परा और श्रमण परम्पराओं में साधना की
दृष्टि से ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । वैदिक ऋषिगण और श्रमण इससे स्पष्ट होता है कि वे स्वर्ग-नरक को आसमान-पाताल में
साधक अपने आध्यात्मिक विकास के लिए ध्यान साधना की विभिन्न नहीं, जीवन में ही देखते हैं और परलोक के नरक से बचने के लिए
पद्धतियों का अनुसरण किया करते थे। पतंजलि, महावीर और बुद्ध को वर्तमान जीवन में पल रहे नरक से बचने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं,
ज्ञान का जो प्रकाश उपलब्ध हुआ, वह उनकी ध्यान-साधना का ही "मनुष्य के जीवन में ही स्वर्ग है और मनुष्य के जीवन में ही नरक है। प्रेम और शांति के क्षणों में स्वर्ग है और आक्रोश और उत्तेजना के क्षण
परिणाम था। उनकी साधना पद्धतियों के कुछ अवशेष आज भी हमें नरक हैं। जितनी देर हम क्रोध में जी रहे हैं, उतनी देर हम नरक की
योग परम्परा के साथ-साथ जैन और बौद्ध परम्पराओं में मिलते हैं। वैसे मुँडेर पर खड़े हैं और जितनी देर हम प्रेम में जी रहे हैं उतनी देर स्वर्ग में
ध्यान का मार्ग बहुत प्राचीन है। उपनिषद, पालि-त्रिपिटक और जी रहे हैं।" एक तरह से वे हमें इसी जीवन को स्वर्ग बनाने की प्रेरणा
प्राकृत-आगम ध्यान के उल्लेखों से भरे पड़े हैं। महर्षि पतंजलि ने योग दे रहे हैं।
सूत्र में योग के आठ अंगों की चर्चा की है - यम, नियम, आसन,
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उन्होंने इन्हें दो भागों 16. धर्म और मुक्ति - भारतीय दर्शनों का अंतिम ध्येय मुक्ति
में विभक्त किया है - बहिरंग और अंतरंग। यम से प्रत्याहार बहिरंग में है। मुक्ति पाए बिना व्यक्ति जन्म-मरण के दु:खों से छुटकारा नहीं पा सकता है। धर्म मुक्ति पाने का साधन है। मुक्ति कल्पना है या
और शेष तीन अंतरंग में आते हैं। ध्यान अंतरंग साधना का दूसरा बिन्दु हकीकत? यह मरने के बाद मिलता है या जीते-जी भी उपलब्ध
है। भगवान महावीर ने ध्यान को तप के बाहर भेदों में अंतरंग तप का किया जा सकता है? क्या वर्तमान में मुक्ति उपलब्ध हो सकती है?
अनिवार्य चरण माना है। पातंजल योग और जिन परम्परा में ध्यान तथा इत्यादि सभी प्रश्नों को लेकर धर्मशास्त्रों में विस्तृत विवेचन है साथ
समाधि के प्रसंग में दो शब्दों का प्रयोग हुआ है - निर्वितर्क और ही आपस में मतभेद भी। श्री चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन में मुक्ति का
निर्विचार । वर्तमान में वितर्क-विचार तो खूब चल रहे हैं परंतु मात्र तर्क जीवन सापेक्ष विवेचन मिलता है । वे कहते हैं, "वह मुक्ति, मुक्ति ही
और विचार से सत्य और निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा जा सकता, इसलिए क्या, जिसे हम शरीर को छोड़ने के बाद उपलब्ध करें।"इस तरह वे
ध्यान ही एक ऐसा विकल्प है जो सत्य व निष्कर्ष तक हमें पहुँचा देह मुक्ति की बजाय जीवन मुक्ति में विश्वास रखते हैं। उन्होंने मुक्त होने के लिए स्वयं के भीतर उतरना आवश्यक माना है। उनका ध्यान की महत्ता दृष्टिकोण है, "आदमी को मुक्ति के लिए उतना ही गहरा जाना
मनुष्य के सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए जितनी आवश्यकता सम्यक् पड़ता है, जितनी गहरी हमारे मन में वासना, उत्तेजना और काम
__ भोजन एवं औषधि की है उतनी ही ध्यान और योग की भी है। ध्यान में प्रवृत्ति है।" श्री चन्द्रप्रभ ने भीतर से मुक्त होने पर अधिक बल दिया
मनुष्य के जीवन का सम्पूर्ण विज्ञान छिपा हुआ है। हमारे अतीत को है। उनका मानना है, "जब तक मूर्छा के लंगर न खुलेंगे, तब तक
सँवारने, वर्तमान को बनाने और भविष्य को सुधारने के लिए ध्यान से जीवन की नौका मुक्ति की ओर नहीं बढ़ेगी।" इससे स्पष्ट होता है
बढ़कर कोई साधन नहीं है। अगर हम मन के सारे समाधानों का कोई कि वे बाहर से या देह से मुक्त होने की बजाय भीतर की वृत्तियों से
भी नाम और मार्ग देना चाहें तो वह है ध्यान । ध्यानशतक में भी मोक्ष के मुक्त होने पर ज्यादा जोर देते हैं।
हेतु रूप तप में ध्यान को प्रधान अंग माना गया है। ऋषिभासित सूत्र में निष्कर्ष
ध्यान के महत्व को उजागर करते हुए कहा गया है,"जैसे शरीर में सिर श्री चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि का और वृक्ष में जड़ का महत्व है, वैस ही साधु के समस्त धर्मों में ध्यान धर्म के क्षेत्र में श्री चन्द्रप्रभ सूक्ष्म पकड़ रखते हैं। उन्होंने धर्म की का महत्त्व है।" सक्षमताओं को सरलता के साथ व्याख्यायित किया है। श्री चन्द्रप्रभ संसार के सभी धर्मों का सार है ध्यान। ध्यान हर धर्म-कर्म की का धर्म-दर्शन किसी पंथ, परम्परा या शास्त्र तक सीमित नहीं है। सफलता की आत्मा भी है और आध्यात्मिक सौन्दर्य को उपलब्ध करने उन्होंने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं वे परम्परागत मान्यताओं से।
का आधार भी। ध्यान के बिना न तो मानसिक शांति एवं एकाग्रता को ऊपर हैं। उन्होंने धर्म को जीवन-शुद्धि, आत्मशुद्धि से जोड़ा है। पाया जा सकता है. न ही आध्यात्मिक ऊँचाइयों को। राज. पत्रिका के उनका धर्म सबधा विवचन जावन का कतव्यपरायण, नातक, सम्पादक गुलाब कोठारी श्री चन्द्रप्रभ की 'ध्यान का विज्ञान' पुस्तक व्यवस्थित और प्रगतिशील बनाता है। उन्होंने धर्म को जीवन,
की भूमिका में लिखते हैं, "ध्यान के महत्व को आज पूरे विश्व ने परिवार, समाज, मानवीय मूल्य, राजनीति, नारी-शिक्षा, विज्ञान,
स्वीकार किया है। अतिविकसित कहे जाने वाले देश और भोगवाद की पर्यावरण, तपस्या, युवावर्ग, सम्प्रदाय,स्वर्ग-नरक और मुक्ति आदि
चरम परिणति में जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को असीम शांति और विविध बिन्दुओं के साथ विश्लेषण किया है। उनके द्वारा की गई
परम सुख ध्यान में ही प्राप्त हो रहा है।"ध्यान न केवल हमें दुःखों से व्याख्याओं में हर पहलू नई दृष्टि एवं नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
मुक्त करता है वरन् परिपूर्ण चेतना और दिव्य शक्तियों के साक्षात्कार में निष्कर्षत: उनका धर्म जीवंत, सरल और मानवीय उत्थान की आभा
भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ध्यान से ही मानव में सम्पूर्णता का लिए हुए है।
उदय होता है। चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है,"जहाँ जीवन के आंतरिक For Personal & Private Use Only
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