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________________ जाता है और चालीस प्रतिशत श्रावकों को भगवान द्वारा प्ररूपित श्रावक जीवन को जीने वाले न तो अब कोई श्रावक बचे और न ही शुद्ध श्रमण धर्म को पालन करने वाले कोई साधु बचे हैं।" इससे स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने संत जीवन की महत्ता के साथ उससे जुड़ी हकीकतों को भी उजागर किया है। वे सत्य को स्वीकार करने व कहने पूर्ण निष्पक्ष हैं। । I 13. धर्म और सम्प्रदाय धर्म चेतना है और सम्प्रदाय जड़ सम्प्रदाय का जन्म धर्म को व्यवस्थित और विकास देने के लिए हुआ है । लेकिन जब-जब सम्प्रदाय की संकीर्ण दृष्टि जन्म लेती है तब-तब धर्म का मूल अस्तित्व खंडित होने लग जाता है। इसी साम्प्रदायिक संकीर्णता के चलते धर्म के नाम पर अनेक दंगे-फसाद, युद्ध तक हुए। श्री ललितप्रभ ने लिखा है, "हमने पच्चीस सौ सालों तक धर्म के नाम पर लड़-झगड़कर खोया ही खोया है अगर अब मात्र पच्चीस साल मानव जाति संगठित हो जाए तो भारत का पुनः कायाकल्प हो सकता है हमसे तो वे कबूतर अच्छे हैं जो मंदिर के शिखर पर और मस्जिद की मीनार पर बिना किसी भेदभाव के गुटर-गुँ कर लेते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन धर्म के प्रति विराट नजरिया रखने की प्रेरणा देता है। उन्होंने पंथ और सम्प्रदाय से बँधे इंसान को धर्म की मूल सीख देते हुए कहा है, “जब से व्यक्ति ने धर्म के नाम पर बने पंथ और सम्प्रदाय से स्वयं को बाँधना शुरू किया है तब से धर्म संकुचित होकर रह गया। दुनिया के जिन महापुरुषों ने हमें धर्म की जलती हुई मशाल थमाई थी, हमने मशाल की आग को तो बुझा दिया और खाली डंडे लेकर नारेबाजी करते रहे और अपने-अपने धर्म की डफली बजाते रहे। परिणाम बुझी हुई मशाल के डंडे लड़ने-लड़ाने के सिवा और क्या काम आएँगे" आज विश्व में जितने धर्म हैं उससे भी कई गुना अधिक सम्प्रदाय हैं। चाहे सनातन धर्म हो या बौद्ध धर्म, जैन धर्म हो या मुस्लिम धर्म, सबमें सम्प्रदायों के अनेकानेक भेद-प्रभेद हैं। लोग अपने-अपने पंथ और सम्प्रदायों में सिमट गए हैं। वे सम्प्रदायगत धर्म को ही सही मानने लगे हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने सम्प्रदायों से ऊपर उठने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "अगर सांसारिक संबंध राग है तो सम्प्रदायों में बँधना भी राग है, यह अनुराग भला मुक्ति का आधार कैसे बन पाएगा? व्यक्ति पंथपरंपरा से नहीं, धर्म और धार्मिकता से प्रेम करे। धर्म हमें एक-दूसरे से प्यार करना सिखाता है लड़ना लड़ाना नहीं।" उन्होंने पंथ-परंपरा और सम्प्रदाय से मुक्त होकर धर्म की सार्वजनिक व्याख्या की है। इस संदर्भ में वे कहते हैं, "धर्म का मतलब हिन्दू धर्म, जैन धर्म, ईसाईइस्लाम या सिक्ख पारसी धर्म नहीं है। ये सब तो पगडंडियाँ हैं, धर्म तो निष्पक्ष है, जीवन की अनुगूँज है, आत्मशुद्धि का उपाय है - धर्म न हिंदू, बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम, जैन । धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन ॥ इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ का धर्म के प्रति विराट दृष्टिकोण है। वे सम्प्रदाय विशेष तक सीमित रहने वालों को धर्म की वास्तविकता से बोध कराते हैं जहाँ वर्तमान में साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए प्रयत्न हो रहे हैं ऐसी स्थिति में उनका दृष्टिकोण इसको स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 14. धर्म और महापुरुष धरती पर ऐसे अनेक महापुरुष हुए जिन्होंने सत्य की खोज की और उसे उपलब्ध किया। राम, कृष्ण, Jain 76 > संबोधि टाइम्स महावीर, बुद्ध, जीजस नानक, मोहम्मद, कबीर, सुकरात आदि सभी महापुरुषों ने अपने-अपने ढंग से धर्म की व्याख्या की। ये सभी महापुरुष किसी पंथ परम्परा से बँधे हुए नहीं थे। इनके उपदेश भी आमजनता के लिए थे, पर धीरे-धीरे इन्हें पंथ-परंपरा या किसी विशेष धर्म तक सीमित कर दिया गया। परिणामस्वरूप धर्म संकीर्णता के दायरे में आ गया। श्री चन्द्रप्रभ ने लोगों को इस संकीर्ण मानसिकता से मुक्ति दिलाने की कोशिश की है और हर धर्म व हर महापुरुष के निकट जाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, " भेद दियों में होते हैं, पर ज्योति में कहीं कोई फर्क नहीं होता। जो मिट्टी के दियों पर ध्यान देते हैं वे मृण्मय हो जाते हैं, पर जो ज्योति पर ध्यान देते हैं वे ज्योतिर्मय हो जाया करते हैं जैसे उपवन में खिले अलग-अलग फूल बगीचे की शोभा बढ़ाते हैं वैसे ही महापुरुष भी धरती पर खिले हुए अलग-अलग फूल हैं, जो प्रेम, सत्य, मोहब्बत और भाईचारे की खुशबू फैला रहे हैं।" उनका मानना है कि " जब तक मानव समाज में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद जैसे महापुरुषों के प्रति सकारात्मक दृष्टि नहीं आएगी तब तक समाज चारदीवार में ही बँधकर रह जाएगा और समग्र मानव समाज के लिए सार्थक उपयोग नहीं हो पाएगा।" श्री चन्द्रप्रभ के द्वारा राम प्रभु पर की गई व्याख्या तो सर्वत्र समदृत हुई है। वे कहते हैं, "राम को अगर आप हिन्दू धर्म तक ही सीमित कर देंगे तो वे समग्र मानवता के भगवान नहीं हो पाएँगे राम को विराटता के अर्थों में देखें तो राम का 'र' जैनों के प्रथम तीर्थंकर रिषभ का वाचक है और 'म' अंतिम तीर्थंकर महावीर का परिचायक है। अगर राम को इस्लाम के साथ जोड़ा जाए तो राम का 'र' रहमोदीदार अल्लाह का वाचक है और 'म' अंतिम पैगम्बर मोहम्मद साहब का सूचक है। समन्वय दृष्टि रखें तो राम कहने से समूचे इस्लाम की इबादत हो जाती है । बिखराब का नजरिया रखेंगे तो सभी ओर बिखराव ही बिखराव नजर आएगा।" इससे स्पष्ट होता है कि वे हर महापुरुष से प्रेम रखते हैं। और उनसे दो अच्छी बातें सीखने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने महापुरुषों से जुड़ी संकीर्णताओं को दूर कर एक-दूसरे के निकट आने व सबको निकट लाने की जो पहल की है वह समादरणीय है। 15. धर्म व स्वर्ग-नरक स्वर्ग-नरक भारतीय संस्कृति के चर्चित शब्द रहे हैं। धर्म-शास्त्रों की धूरी इन्हीं के आस-पास घूमती है। हर धर्म के शास्त्रों में स्वर्ग-नरक के स्वरूप की विस्तार से व्याख्याएँ मिलती हैं। व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा तो मरने के बाद उसे स्वर्ग मिलेगा, जहाँ सुख ही सुख है और बुरे कर्म करेगा तो मरने के बाद उसे नरक मिलेगा, जहाँ दुःख के सिवाय और कुछ नहीं है, पर आज के इंसान को मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग का न तो लोभ है न नरक का भय, वह तो वर्तमान जीवन को सुखी बनाना चाहता है और दुःखों से बचना चाहता है। वह ऐसे मार्ग की तलाश में है जो उसके वर्तमान जीवन को स्वर्ग बनाए। श्री चन्द्रप्रभ का धर्म-दर्शन इसी जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करता है। श्री चन्द्रप्रभ आसमान में बने स्वर्ग और पाताल में बने नरक में अधिक विश्वास नहीं रखते हैं। वे वर्तमान जीवन को स्वर्गमय बनाने के लिए कटिबद्ध हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और स्वर्ग-नरक को रूढ़िवादी परिभाषाओं से मुक्त किया है। उसे वर्तमान सापेक्ष बनाने व उनकी नई व्याख्याएँ देने की पहल की है। उनका स्वर्ग-नरक वर्तमान जीवन से जुड़ा हुआ है। उनका दृष्टिकोण है, "कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम स्वर्ग और नरक के नक्शे बना रहे हैं और अपने अंतर्मन से बिल्कुल For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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