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________________ नहीं कर पाएगा। जीवन प्रबंधन की कला सीखे बिना व्यक्ति समृद्ध हो त्याग अथवा उपवास से जोड़ा जाता है, पर यह इसका सामान्य अर्थ है। सकता है, पर सुखी नहीं। श्री चन्द्रप्रभ अर्थशिक्षा प्रदान करने के साथ- तपस्या के संदर्भ में महोपाध्याय ललितप्रभ सागर ने लिखा है, "तपस्या साथ धर्म-मूल्यों की शिक्षा देने के भी पक्षधर हैं। उनका मानना है, का मतलब मात्र उपवास या भोजन का त्याग नहीं है वरन् मन को "शिक्षा जब तक जीवन की दीक्षा के रूप में न ढले, तब तक वह अधूरी निर्मल रखते हुए नैतिक और पवित्र जीवन जीना तथा दुर्व्यसनों का ही है।" "जो शिक्षा और संस्कार हमें सुव्यवस्थित रहना सिखाए, वह त्याग कर वासना व रसना पर नियंत्रण करना असली तपस्या है।" इस सही शिक्षा है।" व्यक्ति पैसा अर्जित करना तो सीख गया है, पर पैसा तरह उन्होंने तपस्या में तन के साथ मन को भी साधने की प्रेरणा दी है। जीवन का हिस्सा है सम्पूर्ण जीवन नहीं, यह बात उसे सीखनी होगी। श्री चन्द्रप्रभ ने तप की व्याख्या में कहा है, "तप का अर्थ काया को हमें शिक्षा के साथ जीवन-मूल्यों की भी शिक्षा अर्जित करनी होगी। श्री कष्ट देना नहीं है, वरन् मन की वासना और कामना का निग्रह करना ही चन्द्रप्रभ कहते हैं, "समृद्धि देश, समाज और परिवार की आवश्यकता तप है।" है, पर इसके साथ-साथ संस्कार, सामाजिक मूल्य, धर्म और अध्यात्म भारत में दो तरह की संस्कृति है - एक है भोग-प्रधान संस्कृति की भी समृद्धि होनी चाहिए।" इससे स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ और दूसरी है त्याग-प्रधान संस्कृति। श्री चन्द्रप्रभ अतिभोग अथवा भौतिक समृद्धि के साथ आध्यात्मिक समृद्धि पाने की भी प्रेरणा देते हैं। अतित्याग की बजाय मध्यम मार्ग के समर्थक हैं। उनका मानना है, वे इस उद्देश्य को साधने के लिए शिक्षा के साथ स्वाध्याय को अपनाना "शरीर के साथ अतिभोग नकसानदायक है और अतितप-त्याग भी आवश्यक मानते हैं। लाभदायक नहीं है।" वर्तमान में तपस्या आडम्बर युक्त हो गई और तप 9.धर्म और विज्ञान - धर्म श्रद्धा की चीज है और विज्ञान जिज्ञासा धन के लेन-देन के साथ जुड़ गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इसे अनुचित माना से पैदा होता है। अगर धर्म श्रद्धा के साथ जिज्ञासा युक्त न हो तो यह है। उपवास में व्यक्ति को क्या करना चाहिए इसका मार्गदर्शन देते हुए अंधविश्वास बन जाता है इसलिए धर्म भी वैज्ञानिकता लिए हुए होना श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान रखिए, उपवास से पहले दो काम मत चाहिए। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "बगैर वैज्ञानिकता के धर्म कीजिए : गुस्सा और निंदा, पर उपवास में दो काम अवश्य कीजिए : अंधविश्वास की तलहटी है।" आज कोई भी चीज प्रामाणिक तभी शास्त्र का पठन और आत्मस्वरूप का चिंतन।" जो लोग उपवास नहीं मानी जाती है जब उसमें वैज्ञानिकता का अंश होता है, श्री चन्द्रप्रभ द्वारा कर सकते, वे तपस्या को किस तरह आत्मसात् कर सकते हैं, इसका धर्म को वैज्ञानिक कसौटी से कसकर प्रस्तुत करने की कोशिश मानवता व्यावहारिक मार्गदर्शन देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "भाई-भाई के लिए मंगलकारी सिद्ध हुई है। अथवा सास-बहू में आ चुकी दूरियों को कम करना, जीवन में पलने 10.धर्म और पर्यावरण - धर्म और पर्यावरण का अंतर्संबंध है। वाले दुर्गुणों और दुर्व्यसनों का त्याग करना और व्यापार में छल-प्रपंच भारतीय संस्कति द्वारा उपदिष्ट नियम-उपनियम यथा : पेडों की पूजा से परहेज रखना तपस्या के ही अलग-अलग रूप हैं। आप कुछ ऐसा करना, नदियों को पवित्र मानना, गंगा स्नान को महत्त्व देना, सूर्य को कीजिए कि आपका सारा जीवन ही तपस्या बन जाए और आपका घर अर्घ्य चढाना आदि प्रकृति प्रेम के ही उदाहरण हैं। भगवान महावीर ने भी आपका तपोवन।" इससे स्पष्ट होता है कि वे तप के संदर्भ में तो पृथ्वी, पानी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक में जीव तत्त्व को मध्यम-मार्ग स्वीकारते हैं और तन की बजाय मनो-शुद्धि के प्रति माना और उनके छेदन-भेदन को बहुत बड़ी हिंसा बताया। वर्तमान में ज्यादा जागरूक करते हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों और औद्योगिक प्रगति के चलते जिस तरह 12. धर्म और संत - धर्म को जीने के दो मार्ग है - गृहस्थ जीवन पर्यावरण को क्षति पहुँची है वह चिंता का विषय है। इसी आशंका के और संत जीवन। भारतीय संस्कृति में संत-जीवन की विशेष महिमा चलते वैज्ञानिक भी पर्यावरण-रक्षा की प्रेरणा देने लगे हैं। श्री चन्द्रप्रभ है। भारत में वैभव की बजाय त्याग-प्रधान संस्कृति रही है। महावीर भी पर्यावरण प्रेमी हैं। वे पर्यावरण की रक्षा को बहुत बड़ा धर्म और और बुद्ध जैसे पुरुषों ने भी राजमहलों का त्याग कर संन्यास का जीवन उसके विनाश को बहुत बड़ा पाप मानते हैं। उनका दृष्टिकोण है, जीया था। संत जीवन केवल सिर का मुंडन या कपड़ों का बदलाव नहीं "पर्यावरण का रक्षण अहिंसा का जीवन्त आचरण है। हमारे किसी है। भगवान महावीर ने कहा है, "सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, क्रिया-कलाप से उसे क्षति पहुँचती है, तो वह आत्म-क्षति ही है।" ओम का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई उन्होंने प्रेरणा देते हुए कहा है, "हम पर्यावरण के किसी भी अंग को मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता। नष्ट न करें, न किसी और से नष्ट करवाएँ और न ही नष्ट करने वाले का समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता समर्थन करें।" इससे स्पष्ट होता है कि वे पर्यावरण रक्षा के समर्थक हैं है और तप से तपस्वी होता है।" इससे स्पष्ट होता है कि भगवान एवं उन्होंने इसकी रक्षा को धर्म-रक्षा माना है। महावीर ने साधुता का अर्थ वेश से नहीं मनोदशा से जोड़ा है। श्री 11. धर्म और तपस्या - भारतीय संस्कृति ऋषि एवं कृषि-प्रधान चन्द्रप्रभ का संत जीवन के संदर्भ में दृष्टिकोण है, "जो संत क्रोध करते है। यहाँ के ऋषि-मुनियों ने त्याग और तपस्या पर अधिकाधिक बल हैं, वे ऐसा करके अपनी साधुता खण्डित करते हैं। जो संत समाज को दिया। उन्होंने स्वयं भी इसे जिया और औरों को भी इसे जीने की प्रेरणा लड़वाने और तोड़ने का काम करते हैं, वे साधुता को नष्ट और भ्रष्ट दी। तपो-साधना के बल पर ही संतों ने ऋद्धि-सिद्धि को उपलब्ध करते हैं। जो संत अपना जीवन खाने-पीने में बिता देते हैं, वे साधुता के किया। धर्म का मख्य आधार तपस्या को माना गया। खाओ.पियो और मार्ग से स्खलित हैं।" संत-समाज में आज जिस तरह से परिग्रह. मौज करो यह जीवन की विकति है और त्याग करो, तप को जियो यह देहपोषण, यश-कामना बढ़ी है उसे श्री चन्द्रप्रभ ने स्वीकार किया है। भारत की संस्कृति है। यहाँ वैभव की बजाय सदा त्याग पजा गया। इसी संत-समाज की वास्तविकता बताते हुए उन्होंने कहा है, "समाज को तप त्याग के चलते भारत विश्व का गरु बन पाया। तपस्या को भोजन के विभिन्न पंथों और सम्प्रदायों में बांटने का साठ प्रतिशत श्रेय साधुओं को संबोधि टाइम्स 75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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