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________________ विकास के लिए ध्यान जरूरी है वहीं जीवन के बाहरी विकास के लिए विज्ञान जीवन का सम्पूर्ण विकास दोनों के होने से ही हो सकता है।" वर्तमान पर गौर करें तो विज्ञान ने मनुष्य का ख़ूब विकास किया है, उसे सुख-सुविधाओं से समृद्ध किया है, इतना ही नहीं वह पहले से और अधिक बौद्धिक हुआ है, पर ध्यान साथ में न जुड़ने के कारण विज्ञान उसके लिए भारी पड़ गया है। दो महायुद्ध इसी के परिणाम थे । आत्मरक्षा के नाम पर इतने अणु-परमाणु शस्त्र बन चुके हैं कि धरती का विनाश कभी भी हो सकता है। इसलिए समय रहते व्यक्ति की मानसिकता का सुधार होना जरूरी है इसमें ध्यान शत-प्रतिशत उपयोगी है। ध्यान से मानसिक शुद्धि होगी और व्यक्ति पराशक्ति के सान्निध्य से लाभान्वित होगा । 1 ध्यान का अर्थ : मानक हिन्दी कोश के अनुसार ध्यान शब्द की उत्पत्ति 'ध्यै' धातु में 'अन' प्रत्यय लगने से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है लगना या होना। मन का किसी विशिष्ट काम या तत्त्व की ओर लगना या होना ही ध्यान है।" ध्यान शतक में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने ध्यान के संदर्भ में कहा है, "जो स्थिर अध्यवसाय है, वह ध्यान है।" यह परिभाषा चित्त की एकाग्रता को ध्यान बताती है । तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि " अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिंता का निरोध ही ध्यान है।" इस प्रकार ध्यान चित्त की चंचलता को समाप्त करने का अभ्यास है। पतंजलि ने योगदर्शन के समाधिपाद में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है।" ध्यान योग का महत्त्वपूर्ण अंग है । चित्त वृत्ति का निरोध ध्यान के बिना संभव नहीं है, अतः ध्यान को साधना का अनिवार्य अंग माना गया है। बौद्ध दर्शन में ध्यान के लिए महासत्तिपट्टान सुत्त में अनुपश्यना शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है लगातार देखना अर्थात् साढ़े तीन हाथ की काया में इस क्षण जो कुछ प्रकट हो उसे जागरूकता और बोधपूर्वक जानना, ऐसे ही आगे से आगे क्षण-प्रतिक्षण प्रकट होने वाली सच्चाइयों को जानते चले जाना अनुपश्यना कहलाती है।" ध्यान की ये परिभाषाएँ सार रूप में जहाँ ध्यान को चित्त की एकाग्रता, चित्तनिरोध अथवा चित्त के साक्षात्कार से जुड़ा प्रयोग मानती हैं वहीं श्री चन्द्रप्रभ ध्यान को मानसिक शांति, विकार मुक्ति एवं विचार शुद्धि का अभियान मानते हैं। उनकी दृष्टि में, " ध्यान मन को स्थित करने की तकनीक है।" वे कहते हैं, "ध्यान जीवन की पाशविक और उग्र वृत्तियों के दिव्य रूपांतरण के लिए श्रेष्ठ प्रयोग है।" उन्होंने ध्यान को अनेक तरह से व्याख्यायित किया है, जैसे ध्यान मूर्च्छा से जागरण की क्रांति है। ध्यान चित्त को चैतन्य बनाने की गुंजाइश है। ध्यान शरीरशुद्धि नहीं, बल्कि चित्त-शुद्धि है। ध्यान स्वयं की मौलिकता में वापसी हैं। ध्यान मन को समझने का मनोविज्ञान है। 'मैं हूँ, इस शांत शून्य बोध का नाम ध्यान है। ध्यान का अर्थ जीवन विमुख होना नहीं है, वरन यह जीवन के प्रति और अधिक सजग और आनंदित रहने की कला है। ध्यान विजय का मार्ग है, इन्द्रिय-विजय, कषाय-विजय. कर्म - विजय, आत्म-विजय का मार्ग है। ध्यान विश्राम है, अपने आप में विश्राम। ध्यान जंगल की प्रेरणा नहीं, जंगलीपन को मिटाने की प्रेरणा है। ध्यान देह में रहते हुए देहातीत होने की प्रक्रिया है। ध्यान जीवन में सोई हुई संभावनाओं को जगाने का प्रयास है। इस तरह चन्द्रप्रभ ने • संबोधि टाइम्स JainZ8&cation ध्यान की अनेक दृष्टिकोण से व्याख्या की है। निष्कर्षतः ध्यान अंतःकरण की शुद्धि व जीवन को भीतरी ऊँचाइयाँ देने का मार्ग है। व्यक्ति की सारी गतिविधियाँ मनो-मस्तिष्क से संचालित होती हैं । ध्यान इसी मनोमस्तिष्क को बेहतर बनाने की प्रक्रिया है। ध्यान योग की परम्पराएँ 4 भारतीय दर्शनों में आध्यात्मिक उत्थान के लिए ध्यान योग' को अनिवार्य मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। यद्यपि ध्यान-योग के अलावा भी ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, सांख्ययोग, कुण्डलिनीयोग, अनाहतनादयोग के मार्ग भी बताए गए हैं, जिनसे अनेक साधक-साधिकाओं ने परमात्म पद को प्राप्त किया, पर इन सब मार्गों की पूर्णता भी अंततः ध्यान योग के मार्ग पर ही जाकर होती है। प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनि गुरुकुल व्यवस्था, राजकाज और यज्ञादि कार्यों को देखा करते थे, फिर भी वे निजी जीवन में ध्यानसाधना को महत्व देते थे। वेद, उपनिषद, आगम, पिटक आदि शास्त्रों ध्यान-योग से संबंधित सामग्री बहुतायत मात्रा में प्राप्त होती है, पर व्यवस्थित न होकर सर्वत्र बिखरी हुई है। वैदिक परम्परा में ' ध्यानयोग' पर सर्वप्रथम व्यवस्थित व्याख्या पतंजलि के योगदर्शन में प्राप्त होती है, इसी कारण वैदिक परम्परा में आज तक जितने भी महापुरुष हुए अथवा ध्यानयोग से जुड़े मत प्रतिपादित हुए उन सब पर पतंजलि योग-दर्शन का प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य दृष्टिगोचर होता है। भगवान महावीर ने 12 वर्ष तक लगातार एकांत में मौन रहकर घोर ध्यान साधना की, जिसके बाद उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई। इनका धर्म आगे चलकर जैन धर्म कहलाया। जैन आगम 'आचांराग' में महावीर की साधना वर्णित है। पर उनकी ध्यान पद्धति का व्यवस्थित उल्लेख एक जगह प्राप्त नहीं होता है। यह कार्य बाद में हुआ। जैन आगमों के विशाल साहित्य में बिखरी ध्यान-योग की सामग्री को जिन आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखकर व्यवस्थित किया, उनमें आचार्य पूज्यपाद कृत 'समाधि तंत्र', आचार्य हरिभद्र सूरि कृत 'योगविंशिका' और 'योग दृष्टि समुच्चय', आचार्य शुभचंद्र कृत ज्ञानार्णव, आचार्य हेमचंद्र कृत योगशास्त्र, जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण कृत 'ध्यान शतक' आदि प्रमुख हैं। बाद में आनंदघन, चिदानंद, देवचंद्र जैसे योग और तत्त्ववेत्ता भी हुए जिनसे जैन परम्परा में ध्यान योग, मंत्र साधना एवं जप योग का विकास हुआ भगवान बुद्ध ने भी ध्यान पर अत्यधिक बल दिया। बौद्ध दर्शन के 'अभिधम्म कोष' और 'विशुद्धिमग्ग' में वर्णित साधना मार्ग आज 'विपश्यना' ध्यान-पद्धति के रूप में चल रहा है। ध्यान-योग से जुड़ी वर्तमान धाराओं पर दृष्टिपात करें जो आज देश व विश्वभर में चल रही हैं वे निम्न हैं- पूर्ण योग, सहज मार्ग, निर्विचार ध्यान, सक्रिय ध्यान, राजयोग, भावातीत ध्यान, पश्य ध्यान, प्रेक्षाध्यान, आर्ट ऑफ लिविंग, पतंजलि योग, समीक्षण ध्यान, संबोधि ध्यान आदि। महर्षि अरविंद 'पूर्ण योग' के संस्थापक हैं। श्री अरविंद ने हृदय पर ध्यान करने की प्रेरणा दी है। श्री रामचन्द्र महाराज ने 'सहज मार्ग' का प्रवर्तन किया जिसमें गुरु ऊर्जा आज्ञान हो प्रमुखता दी जाती है। जे. कृष्णमूर्ति ने 'निर्विचार ध्यान' मार्ग का प्रवर्तन किया। सक्रिय ध्यान की पद्धति का प्रतिपादन आचार्य रजनीश (ओशो) ने किया। उन्होंने 'ध्यान विज्ञान' पुस्तक में ध्यान की 115 विधियाँ प्रदान की हैं जिसमें For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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