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से पार लग जाता है।" श्रीमद्भागवत कहता है, "जिन कामों को करने लिखते हैं, "स्वधर्म के प्रति प्रेम, परधर्म के प्रति आदर, अधर्म के प्रति से समस्त प्राणियों का भला होता हो, वही करें।" अर्थात् उपेक्षा यही है धर्म।" महात्मा गांधी ने धर्म को व्यवहार से जोड़ते हुए सर्वकल्याणकारी कार्यों को करना धर्म कहलाता है।
कहा है, "जो व्यवहार में काम न आए वह धर्म कैसे हो सकता है" प्राचीन धर्मशास्त्रों को वेद कहा जाता है। वेद की धारा उपनिषदों, स्वामी विवेकानन्द धर्म को स्वतंत्र बनाने की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, स्मृतियों, भगवद्गीता से होती हुई आगे से "किसी संगठनबद्ध धर्म में प्रवेश मत करो। धर्म केवल तुम और तुम्हारे आगे बढ़ती रही। समय-समय पर अनेक धर्म-दर्शनों का उदय हआ। भगवान के बीच की वस्तु है और किसी तीसरे व्यक्ति को उसमें हरगिज सबने मिलकर धर्म को उन्नत स्वरूप प्रदान किया। संक्षिप्त में धर्मशास्त्रों टाँग नहीं अड़ानी चाहिए।" प्रो. राधाकृष्णन की भाषा में, "धर्म एक में दी गई धर्म की व्याख्याएँ इस प्रकार हैं - ऋग्वेद की भाषा में "धर्म आंतरिक रूपान्तरण है, एक आध्यात्मिक परिवर्तन है, हमारे अपने का मार्ग मानव को सुख देता है, दुःख से मुक्त करता है।"चाणक्य नीति स्वभाव के विसंवादी स्वरों में सामंजस्य लाने की क्रिया है और उसका कहती है, "इस चराचर जगत में लक्ष्मी, यौवन और जीवन सब कुछ यह रूप इतिहास के आरंभ से ही मिलता आया है, यही उसका मूल नाशवान है, केवल धर्म ही अटल है।" योग शास्त्र में लिखा है, "दर्गति स्वरूप है।" इन सब व्याख्याओं से यह स्पष्ट होता है धर्म पंथ-परंपरा, में गिरते हुए प्राणी को धारण करने से धर्म को 'धर्म' कहा जाता है।" सम्प्रदाय, क्रियाओं से ऊपर एकता, समानता, समरसता, सर्वधर्म आगम दशवैकालिक की भाषा में,"अहिंसा, संयम और तप रूपशद्ध सद्भाव, व्यवहार शुद्धि और भीतरी रूपान्तरण में निहित है। धर्म उत्कृष्ट मंगलमय है। जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है, उसे वर्तमान पर गौर करें तो पता चलता है कि आज की धार्मिक स्थिति देवता भी नमस्कार करते हैं।" महाभारत में कहा गया है, "जो प्रवृत्ति बडी विकट है। यद्यपि मंदिरों की व मंदिर जाने वालों की संख्या बढ़ी अहिंसामय है वह निश्चित रूप से धर्म है।" हितोपदेश कहता है, है। दान देने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है। मानवीय उत्थान से "समस्त प्राणियों के प्रति समता भरा व्यवहार करना ही धर्म है।" जडी गतिविधियाँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। फिर भी व्यक्ति के जीवन मनुस्मृति कहती है,"धैर्य, क्षमा, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय दमन, बुद्धि, व धर्म के बीच दूरी बनी हुई है। व्यक्ति की कथनी व करणी समरूप विद्या, सत्य, अक्रोध - ये धर्म के लक्षण हैं।" महाभारत तो यहाँ तक नहीं है। दसरों के कल्याण में तत्पर इंसान माता-पिता की सेवा करना कहता है,"जो धर्म अन्य धर्म को बाधित करता है वह धर्म नहीं,कुधर्म भूल चुका है। अब धर्म त्याग की बजाय धन प्रधान हो गया है। व्यक्ति है। जो सबके साथ अविरोधी भाव बरतता है वही धर्म सत्य पराक्रम धर्म की तुलना धन से करने लगा है। परिणामतः धर्म जीवन का उत्थान वाला है।" इस तरह से धर्म की निम्न विशेषताएँ प्रकट होती हैं - करने की बजाय आडम्बर-प्रदर्शन का रूप धारण कर चुका है। अतः 1.धर्म दु:ख मुक्ति व सुख प्राप्ति का साधन है।
एक तरफ जहाँ धर्म को जीवन से जोड़ने की जरूरत है वहीं दूसरी तरफ 2.धर्म के अलावा सब नाशवान है।
उसे वैज्ञानिक स्वरूप देना आवश्यक है। वर्तमान में ऐसा धर्मदर्शन 3. धर्म दुर्गति में जाने से हमारी रक्षा करता है।
अपेक्षित है जो जीवन और धर्म के बीच संतुलन स्थापित कर सके, 4.धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप है।
जीवन की समस्याओं का प्रायोगिक समाधान दे सके और व्यक्ति को 5.अहिंसा धर्म की आत्मा है।
व्यक्ति से जोड़ सके। 6.सबके साथ समता भरा व्यवहार करना धर्म है।
श्री चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन का स्वरूप 7.सच्चा धर्म सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाता है। 8.धर्म काल या अवस्था विशेष से परे है।
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन सापेक्ष धर्म की अभिव्यक्ति हुई है। वे 9. धर्म का संबंध क्षमा, संयम, सरलता, सत्य से है।
धर्म के कठिन सिद्धांतों की चर्चा करने की बजाय जीवनोपयोगी बातों पर
विश्लेषण करने पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि "धर्म का संबंध समय की दृष्टि में : धर्म की स्थिति
जीवन के साथ जोड़ा जाना चाहिए।हमारे चित्त की जो विकृत्तियाँ हैं उनको धर्म के स्वरूप में समय-समय पर परिवर्तन हुआ है। मध्यकालीन धुलाने और मिटाने के साथ जोड़ा जाना चाहिए तभी धर्म हमें आनंद देगा।" युग में पहुँचते-पहुँचते धर्म के मूल्यों में रिक्तता महसूस की गई। धर्म अर्थात् वे धर्म को क्रियाओं के घेरे से मुक्त कर आंतरिक पवित्रता व संकीर्णतावाद, पंथ-परम्परावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद एवं रूढ़ निर्मलता से जोड़ने की प्रेरणा देना चाहते हैं। उन्होंने धर्म की उन्हीं बातों को मान्यताओं व अंधविश्वासों में उलझ गया। मानवता के कल्याण की महत्व दिया है जो आज के इंसान के लिए उपयोगी हैं। उन्होंने धर्म के क्षेत्र प्रेरणा देने वाला धर्म मानवीयता में विभेद करने वाला बन गया। दंगे- में चल रही अर्थहीन परम्पराओं का निर्भीक होकर खण्डन किया है। वे फसाद होने लगे, देश के राजनेताओं ने भी वोट-बैंक के खातिर धर्म का भय, प्रलोभन और प्रदर्शन को धर्म का शत्रु मानते हैं। उन्होंने धर्म को इन दुरुपयोग किया। परिणामस्वरूप धर्म का नैतिक स्वरूप विखंडित हो तत्त्वों से बचाने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "धर्म को इतना भी बाह्य मत गया। तत्कालीन दार्शनिकों ने मानवमात्र को सत्य, मानवीय एकता, बनाओ कि वह केवल प्रदर्शन और प्रलोभन भर बन जाए।" उनके दर्शन में मानव-प्रेम से जुड़े हुए धर्म का मार्गदर्शन दिया।
धर्म की वास्तविकता प्रकट हुई है। वे केवल हमें धर्म-अंधानुसरण करने प्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचंद ने धर्म को एकता के स्वरूप में की बात नहीं सिखाते वरन् मानवीय गरिमा को बढ़ाने वाले रास्ते पर कदम प्रतिपादित करते हुए कहा है, "जो धर्म के मूल तत्त्व को नहीं समझता, बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने जिस धर्म का मार्ग बताया वह आज के धर्म वह वेदों और शास्त्रों का पंडित होकर भी मूर्ख है, जो दुःखियों के दुःख से नया व हटकर है। वे धर्म के नाम पर मनुष्य को संकीर्ण बनाना गलत से दुःखी नहीं होता, जो समाज में ऊँच-नीच, पवित्र-अपवित्र के भेद मानते हैं। एक तरह से उन्होंने जीवन को धर्म से उत्कृष्ट सिद्ध किया है। को बढ़ाता है, वह पंडित होकर भी मूर्ख है।" आचार्य विनाबा भावे चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन को विस्तृत रूप से समझने के लिए उसका विभिन्न
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