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10. सदा उन्हें आत्मविश्वास बढ़ाने वाले वचन कहें।
इस तरह बचपन निर्माण से जुड़ा हुआ यह मार्गदर्शन युगीन संदर्भों में उपयोगी सिद्ध हुआ है।
4. सार्थक बुढ़ापा जीवन के तीन पड़ाव हैं बचपन, यौवन और बुढ़ापा कोई बूढ़ा होना नहीं चाहता, पर बुढ़ापा जीवन की हकीकत है। वर्तमान में वृद्ध लोगों की स्थिति बड़ी दयनीय है। उपेक्षापूर्ण माहौल और कमजोर शारीरिक स्थिति के चलते उनका जीवन जीना कठिन हो जाता है। बुढ़ापे को स्वस्थ बनाना वृद्धजनों के लिए चुनौतिपूर्ण है। भारतीय धर्म-दर्शन में बुढ़ापे को सुख-शांतिपूर्वक जीने के लिए वानप्रस्थ एवं संन्यास के मार्ग पर कदम बढ़ाने की प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ बुढ़ापे को तन से ज्यादा मन से जुड़ा हुआ मानते हैं। मृत्यु, उदय-अस्त, संयोग-वियोग की तरह बुढ़ापा भी जीवन का एक हिस्सा है जो इस तथ्य को समझ लेता है उसके लिए बुढ़ापा समस्या नहीं, शांति और मुक्ति का आधार बन जाता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बुढ़ापे की अनेक तरह से व्याख्याएँ की गई हैं। वे कहते हैं, "आपने जीवन कैसा जीया, बुढ़ापा उसकी परीक्षा है, बुढ़ापा परिपक्वता की निशानी है, बुढ़ापा जीवन के उपन्यास का सार है, जिसने जीवन की धन्यता के लिए कुछ न किया, उसका बुढ़ापा सूना है । " श्री चन्द्रप्रभ ने बुढ़ापे की सार्थकता के लिए निम्न प्रेरणाएँ दी हैं1. घर में ज्यादा हस्तक्षेप न करें।
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2. अति आवश्यक हो तो ही बोलें अन्यथा मौन रहें ।
3. बुढ़ापे को स्वस्थ, सक्रिय एवं सुरक्षित बनाएँ।
4. सात्विक, संतुलित और सीमित आहार लें।
5. कुछ समय प्राणायाम अवश्य करें।
6. सुबह - सुबह खाली पेट धूप का सेवन करें।
7. रात्रि में गहरी नींद लें।
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8. जो होता है उसे होने दें।
9. सदा गतिशील रहें।
10. हँसने की आदत डालें।
11. प्रभु की ओर प्रेम जोड़ें।
5. वसीयत लेखन - वसीयत लेखन आवश्यक कार्य है। बिना वसीयत के परिवारों में बँटवारे की समस्या आ जाती है। परिणामस्वरूप परिवार टूट जाते हैं और रिश्ते बिखर जाते हैं। वास्तव में माता-पिता द्वारा लिखी गई वसीयत बच्चों के लिए भविष्य निधि है। हर व्यक्ति वसीयत में संतानों को दिया जाने वाला हिस्सा लिखता है, पर श्री चन्द्रप्रभ ने नए तरीके से वसीयत लिखने की सिखावन दी है। वे वसीयत लेखन को सामान्य बात न कहकर कला मानते हैं। उन्होंने वसीयत लिखने से पूर्व जीवन को महान बनाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, " हर व्यक्ति यह सोचे कि क्या उसने अपनी वसीयत लिखने की तैयारी कर ली है, अगर कर ली है तो उसके पास अपने बच्चों को वसीयत में देने के लिए क्या है केवल जमीन-जायदाद, धन-दौलत
है या और भी कुछ है? क्या आपने जीवन में धन के अलावा भी कोई पूँजी कमाई है? क्या आपके वाणी व्यवहार, सोच-स्वभाव, त्यागआदर्श, यश- इज्जत से जुड़ी ऐसी जीवन-शैली है जिसे देखकर लोग आप पर गर्व करें।" श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन वसीयत लेखन के संदर्भ में निम्न सुझाव व मार्गदर्शन देता है
70 संबोधि टाइम्स
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1. जीवन को महान बनाएँ, कहीं ऐसा न हो कि हमारे जीवन का परिणाम केवल एक मुट्ठी राख मात्र हो। हम कुछ ऐसा करके जाएँ या लिख के जाएँ कि आपका फोटू केवल घर में नहीं, औरों के दिल में लग सके।
2. व्यक्ति जिंदगी की वसीयत में संस्कारों के ऐसे वृक्ष लगाकर जाए जिससे उसकी नई पीढ़ी गर्व कर सके एवं कुल को रोशन करने वाले काम कर सके
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3. सबसे पहले व्यक्ति वसीयत में ईश्वर, माता-पिता, गुरुशिक्षक, मकान, पति-पत्नी, नौकरों व दोस्तों के प्रति कृतज्ञता समर्पित
करे ।
4. मरने के बाद नेत्रदान करवाने की घोषणा करके जाए।
5. संपत्ति का आधा हिस्सा बच्चों के नाम व आधा हिस्सा खुदपत्नी के नाम करके जाए और जाने के बाद अपने हिस्से को पुन: बच्चों में बाँटने की बजाय ईश्वर व इंसानियत के नाम करके जाए ताकि हमारे साथ पुण्य की दौलत भी रह सके।
6. अंत में जीवन के अनुभव व संस्कार लिखकर जाए और बच्चों को प्रेरणा देकर जाए कि वे उनको जीने के साथ आगे भी बढ़ाएँ ताकि आगे वाली पीढ़ियाँ जीने की कला सीख सकें।
परिवार - निर्माण से जुड़े हुए श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि वे पारिवारिक समन्वय पर बल देते हैं। परिवार से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर इतना व्यावहारिक विश्लेषण अन्यत्र अप्राप्य है । आज विश्व प्रेम से पहले पारिवारिक प्रेम की आवश्यकता है, इसकी सीख देने और पुष्टि करने में यह दर्शन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
धर्म दर्शन
भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गए हैं- 1. धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. मोक्ष | धर्म सभी पुरुषार्थों की नींव है। धर्म के बिना भारतीय संस्कृति निष्प्राण है। भारत में जितने भी महापुरुष हुए सबने अपने-अपने ढंग से धर्म की व्याख्या की और धर्ममय जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया। भारत में धर्म की अनेक परम्पराओं का अभ्युदय हुआ, जैसे सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म आदि। धर्म की इस विविधता के बीच बाह्य तौर पर भेद भले ही दिखाई देता हो, पर धर्म के शाश्वत मूल्य में अभेदता नजर आती है । सत्य, अहिंसा, भाईचारा और गुणानुरागिता जैसे मूल्य सभी धर्मों के द्वारा प्रेरित हैं। धर्म और दर्शन एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ दर्शन हमें धर्म की अंतर्दृष्टि प्रदान करता है वहीं धर्म दर्शन का व्यावहारिक मार्ग सिखाता है। समय-समय पर दर्शन की व्याख्याएँ नए स्वरूप में प्रस्तुत हुईं। परिणामस्वरूप धर्म के स्वरूप में भी कई परिवर्तन हुए। धार्मिक क्रियाओं में आई रूढ़िवादिताओं एवं अंधविश्वासों के चलते उसे नए स्वरूप में प्रस्तुत करने की मानव में प्रेरणाएँ जगीं । धर्म का स्वरूप
प्रसिद्ध वाक्य है धारयति इतिधर्मः' अर्थात् जो धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। प्रश्न है किसे धारण किया जाए? उत्तराध्यवन आगम में कहा गया है, " अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह धर्म के ये पाँच चरण हैं, जिन्हें बुद्धिमान मनुष्य स्वीकार करके भव-सागर
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