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दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया जा रहा है जो इस प्रकार है
सिखावन दी है। उनका दृष्टिकोण है, "आज राम का नाम जपने और 1.धर्म और जीवन - "धम्मो वत्थु सहावो" वस्तु का स्वभाव ही
पूजा करने की जरूरत कम है, ज्यादा जरूरत रामायण को जीवन से धर्म है। जैसे पानी का धर्म शीतलता, अग्नि का धर्म उष्णता, फूल का
जोड़ने की है। जहाँ घर-परिवार की समृद्धि के लिए राम आदर्श हैं वहीं धर्म खिलना और काँटे का धर्म गड़ना है वैसे ही व्यक्ति सोचे कि उसके
व्यापार की समृद्धि के लिए कृष्ण और आत्म-समृद्धि के लिए महावीर जीवन का क्या धर्म है? माला फेर लेना, मंदिर चले जाना, पूजा-पाठ
स्वर्ण-स्तम्भ हैं। तीनों को जीवन से जोड़कर ही समग्र जीवन का कर लेना आदि दो-चार क्रियाएँ करने का नाम धर्म है या फिर जीवन
निर्माण संभव है।" इस तरह उन्होंने तीनों महापुरुषों का समन्वय का धर्म कुछ और है। श्री चन्द्रप्रभ क्रियागत धर्म से पहले जीवन के
है। श्री चन्टभ कियागत धर्म से पहले जीवन के स्थापित कर धर्म-सद्भाव की अनूठी पहल की है। कर्तव्यों-दायित्वों को निभाने की सीख देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में विश्व-प्रेम से पहले परिवारिक-प्रेम की दृष्टिकोण है,"धर्म पहले चरण में कर्तव्य, दूसरे चरण में नैतिकता और बातें सिखाई गई हैं। उन्होंने मकानों को बड़ा बनाने के साथ दिल को तीसरे चरण में आत्मिक उन्नति है।" इससे स्पष्ट होता है वे धर्म के तीन छोटा बना लेने पर व्यंग्य किया है। वे टूट रहे परिवारों में एकता का पाठ मापदंड स्वीकार करते हैं - पहला, कर्तव्य का पालन करना; दसरा, पढ़ाते हैं। उन्होंने माँ-बाप की सेवा करने की प्रेरणा देते हुए सच्चे बेटे सत्य, प्रामाणिकता, सहयोग आदि नैतिक मूल्यों को धारण करना और की परिभाषा बताई है, वे कहते हैं, "सच्चा बेटा वह नहीं होता जिसे तीसरा, स्वयं के सद्गुणों का विकास करना।
माता-पिता जन्म देते हैं वरन् माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा सँभालने व्यक्ति धर्म के नाम पर प्रतिमा को भगवान मानकर पूजा कर लेता
वाला ही सच्चा सपूत कहलाता है।"वे माँ-बाप को वृद्धाश्रम भेजने पर है, पर मंदिर के बाहर कोई भिखारी दिख जाए तो उसकी उपेक्षा कर
आपत्ति उठाते हैं और माँ-बाप के जीते-जी भाइयों का अलग होना भी देता है। जीते-जी माता-पिता को सताता है और मरने के बाद उनकी
अनुचित मानते हैं। उन्होंने माँ-बाप की सेवा नौकरों के भरोसे छोड़ने तस्वीर पर रोने का, धूप-दीप-फल-फूल चढ़ाने का दिखावा करता है।
की बजाय स्वयं अपने हाथों से करने की प्रेरणा दी है। एक समर्थ भाई व्यक्ति पूजा-पाठ, आराधना-साधना,सत्संग-स्वाध्याय जैसे धर्म करने
द्वारा अपने कमजोर भाई की तो उपेक्षा कर देना, पर अपनी पद-प्रतिष्ठा के बावजूद उसमें किसी के दो कड़वे शब्दों को सहन करने की ताकत
के लिए समाज में लाखों का दान कर देने को वे धर्म नहीं, दान का नहीं है। ऐसे धर्म को जीने वाले लोगों पर श्री चन्द्रप्रभ ने टिप्पणी करते
अपमान करना बताते हैं। उनकी ये टिप्पणियाँ आज के कडवे हुए कहा है, "धर्म का अनुसरण करने पर भी मन निर्मल न हआ तो वह
पारिवारिक सच को उजागर करती हैं व जीवंत धर्म अपनाने की प्रेरणा धर्म किस काम का! व्यक्ति या तो धर्म बदले या जीवन जीने की
देती हैं। शैली।" व्यक्ति दो-चार क्रियाओं को धर्म मानकर, उन्हें कर लेने भर
श्री चन्द्रप्रभ ने इसी तरह पति-पत्नी, सास-बहू, देरानी-जेठानी को धर्म की इतिश्री समझ लेता है और स्वयं को बहत बडा धार्मिक आदि विभिन्न परिवारिक रिश्तों में प्रेम व मिठास के धर्म को अपनाने समझने लग जाता है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ प्रेरणा देते हैं कि व्यक्ति की सीख दी है। धर्म के अंतर्गत तपस्या करने की प्रेरणा धर्मशास्त्रों में स्वयं सोचे कि धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है? धर्म का सरल दी गई है, पर श्री चन्द्रप्रभ इससे पहले पारिवारिक तपस्या पर जोर देते स्वरूप प्रकट करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "इंसान होकर इंसान के । हैं। उनका दृष्टिकोण है, "अगर हम परिजनों को सुख नहीं पहुँचा सकते काम आना और भीतर की कमजोरियों पर विजय पाना ही धर्म है।"वे तो किसी भी सदस्य को दुःख न पहुँचाएँ। अगर कभी हमसे ऐसा हो स्वयं की कमियों को देखने व सुधारने को पुण्य व दसरों की कमियों को जाए तो अगले दिन प्रायश्चित स्वरूप व्रत करें। सबको खुश रखना और देखने को पाप कहते हैं।
किसी के दल को ठेस न पहुँचाना जीवन की सबसे बड़ी तपस्या है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ कर्तव्य-पालन एवं जीवन-शुद्धि से जुड़े श्री चन्द्रप्रभ के पारिवारिक धर्म के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि धर्म को आत्मसात् करने के पक्षधर हैं जो व्यक्ति के जीवन में त्याग, वे कर्तव्यपालन को सबसे पहला धर्म मानते हैं। उनके द्वारा दिया गया संयम और शांति के रूप में विकसित होता हो।
यह संदेश कि "धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्ज़िद से नहीं, घर से करो" 2. धर्म और परिवार - धर्म के संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न
आज की मुख्य आवश्यकता है। उनका मानना है, "जब तक परिवार में यह है कि धर्म का प्रारंभ कहाँ से हो? प्रायः धर्म का प्रारंभ मंदिर,
धर्म को नहीं जिया जाएगा तब तक बाहरी धर्म-कर्म व्यर्थ हैं।" मस्जिद, गुरुद्वारा अथवा चर्च से माना जाता है। श्री चन्द्रप्रभ का
'व्यक्ति बाहर का धार्मिक बाद में बने, पहले घर का बने' जैसी उनकी दृष्टिकोण इससे भिन्न है। उनका मानना है, "व्यक्ति के धर्म का प्रारम्भ
मूल्यवान बातें आज की स्थितियों में संस्कारी परिवारों का निर्माण करने घर-परिवार से होता है। जिन माता-पिता ने हमें जन्म दिया है, जिन
के लिए रामबाण औषधि का काम करती हैं। भाई-बहिन-पत्नी के साथ हम रहते हैं, जिन बच्चों को हमने जन्म 3.धर्म और समाज - वह समाज श्रेष्ठ समाज कहलाता है जहाँ दिया है, जिन लोगों से हम सेवाएँ लेते हैं. उनके प्रति होने वाले कर्तव्यों मानवीय व सामाजिक मूल्यों को जीवन में जिया जाता है, इंसान, इंसान का निर्वाह करना ही हमारा पहला धर्म है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में के काम आता है, सुख-दुःख में साथ रहता है और संगठित रहकर घर में मंदिर बनाने की बजाय घर को ही मंदिर बनाने की सीख दी गई एक-दूसरे के विकास के लिए तत्पर रहता है। भगवान महावीर ने है। वे जीवन में महात्मा व परमात्मा से पहले माता-पिता को महत्त्व देने समाज का ताथ का संज्ञा दी है। उन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और की प्रेरणा देते हैं। जहाँ उन्होंने एक ओर परिवार को स्वर्ग सरीखा बनाने अनेकांत जैसे सिद्धांतों को सामाजिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया के लिए रामायण को आदर्श मानने की सलाह दी है वहीं दसरी ओर है। वर्तमान समाज का स्वरूप पहले की बनिस्बत अब काफी जीवन-निर्माण के लिए कृष्ण व महावीर को भी आत्मसात करने की सकारात्मक हुआ है। जातिवाद, छुआछूत, अंधविश्वास, सती-प्रथा,
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