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देखना और द्रष्टा भाव का अर्थ है अंतर्दृष्टिपूर्वक देखना, तटस्थ भाव से आचार्य कुंदकुंद ने 'समयसार' में कर्ता मुक्त आत्मा को ज्ञानी देखना। द्रष्टाभाव से देखने पर वस्तुओं के अनेक रहस्य उद्घाटित होते कहा है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "जब व्यक्ति करने वाला 'मैं हूँ' हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने साधना के तीन चरण माने हैं - समर्पण, चेतना में की बजाय 'मेरे द्वारा हो रहा है' का भाव लाता है तो कर्ताभाव स्वतः स्फुलिंगों का प्रकटीकरण और साक्षीत्व का बोध । श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि शिथिल हो जाता है।" इस तरह कर्ताभाव मुक्ति पाने में महत्त्वपूर्ण में,"भीतर की आँखों से सजगतापूर्वक, ध्यानपूर्वक देखना ही साक्षीत्व भूमिका निभाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने साक्षीत्व की साधना व द्रष्टाभाव का है। जब साक्षित्व घटित होता है, तब व्यक्ति को शरीर से, मन से, विकास करने के लिए निम्न सूत्रों को आत्मसात करने की प्रेरणा दी है - विचारों से अलग होकर हर चीज़ को सिर्फ देखना होता है।" उन्होंने 1.संबोधि ध्यान के प्रयोग करें। द्रष्टाभाव को अध्यात्म की बुनियाद, आत्म-भावना का जनक और 2. आकाश को देखें। भेद-विज्ञान का सूत्रधार माना है। मन का काम है संकल्प-विकल्प 3. बाहरी घटनाओं का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें। करना और अध्यात्म का उद्देश्य है संकल्प-विकल्पों से ऊपर उठना। 4. हृदयवान होकर जीवन जीएँ। इस उद्देश्य हेतु द्रष्टाभाव सहयोगी है। भाषा-विज्ञान में भाषा के चार
इस विवेचन से स्पष्ट है कि द्रष्टाभाव अध्यात्म की साधना है। चरण स्वीकार किए गए हैं - बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा।
द्रष्टाभाव से व्यक्ति भीतरी व बाहरी सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। द्रष्टाभाव का संबंध पश्यन्ति से है। जो हमें परा' अर्थात् महाशून्य की,
द्रष्टाभाव से शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक आघातों से उपरत होना परम चैतन्य की स्थिति से साक्षात्कार करवाता है।
संभव है। द्रष्टाभाव की साधना से व्यक्ति सहज ही निर्ग्रन्थता, समता, अष्टावक्र गीता में अष्टावक ने जनक को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु । कर्ताभाव-मुक्ति, वीतरागता जैसी स्थितियों की अनुभूति करने लगता और आकाश से स्वयं को भिन्न अर्थात् साक्षी रूप जानने की और दर्शक है। की बजाय द्रष्टा बनने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "दर्शक
आत्म-दर्शन व भेद-विज्ञान वह है जो स्वयं को देखता है। देखने वाले को देखना ही ध्यान है, उसे उपलब्ध होना ही मुक्ति है।" व्यक्ति भौतिक जगत में उलझा है,
जीवन शरीर और आत्मा दोनों का मिलाप है। यों तो दोनों एकसांसारिक-पारिवारिक संबंधों को अपना मान बैठा है। व्यक्ति को
दूसरे के आश्रित हैं । आश्रित इस रूप में कि आत्म-चेतना के कारण ही साक्षी भाव की गहराई में यह अनुभूति होने लगती है कि मैं देह से भिन्न
शरीर मूर्त रूप लेता है और शरीर के माध्यम से ही आत्मा साकार होती हूँ, पंचभूतों से रहित हूँ फिर कैसे संबंध व किसके संबंध ! मैं तो मात्र
है।शरीर जड़तत्त्व है और आत्मा चेतन-तत्त्व। जड़ और चेतन दोनों को संयोग भर हूँ। श्री चन्द्रप्रभ ने शरीर, विचार, विकार, वृत्ति, भाव और
एक दूसरे से भिन्न देखना, भिन्न जानना ही भेद-विज्ञान है। सांख्य दर्शन अनुभवों का द्रष्टा बनने की प्रेरणा दी है। उन्होंने मुक्ति हेतु त्याग रूप
में जीवन का आधार प्रकृति व पुरुष दो तत्त्वों को माना गया है। आत्मा बाह्य क्रियाकांडों में उलझने की बजाय द्रष्टा-भाव को अर्थात् 'मैं
पुरुष है और शरीर प्रकृति। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "आत्मा और सबसे भिन्न हूँ' को गहरा करने की सीख दी है। द्रष्टा-भाव वीतरागता
शरीर, पुरुष और प्रकृति - दोनों में अंतर समझ लेना ही भेद-विज्ञान की साधना में भी सहयोगी है। राग संसार है और विराग संन्यास।
है।" जैसे सूर्य-किरण के झलके को जलस्रोत मान लेना और पेड़ की वीतराग राग-विराग दोनों से ही पार है। श्री चन्द्रप्रभ ने द्रष्टा-भाव को
छाया को तलैया समझ लेना अज्ञान है, वैसे ही शरीर को आत्मा अथवा वीतराग होने का पहला चरण माना है। द्रष्टाभाव से तटस्थता व समता
प्रकृति को पुरुष मान बैठना तृष्णा और मूर्छा है। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में अभिवृद्धि होने लगती है। गीता में समत्व को योग कहा है। श्री
में,"भेद विज्ञान तृष्णा और मूर्छा का बोध है।" योग दर्शन ने प्रकृति चन्द्रप्रभ ने साधना का मूलभाव समता बताया है। वे कहते हैं,
के गुणों में तृष्णा के सर्वथा समाप्त हो जाने को 'पर वैराग्य' कहा है। "आंतरिक विक्षेप, उत्तेजना व संवेदनाओं को शांत करने में भी
इसी पर वैराग्य में स्व और पर की, जड़ और चेतना की, प्रकृति और समभाव उपयोगी है। समभाव के लिए जहाँ तटस्थता आवश्यक है
पुरुष के भेद-विज्ञान की अनुभूति होती है। वहीं तटस्थता के लिए द्रष्टाभाव।"
व्यक्ति के दुःख का मुख्य कारण सांसारिक संबंधों, पदार्थों एवं पतंजलि ने कहा है, "द्रष्टा स्व-स्वरूप में स्थित हो जाता है।"
मानसिक संस्कारों को अपना मान बैठना है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, अर्थात् द्रष्टाभाव की साधना व्यक्ति को चित्त वृत्तियों से उपरत करवाती
"आत्मा के अतिरिक्त जितने भी संबंध और संपर्क-सूत्र हैं वे सब-केहै और स्व-स्वरूप का बोध देती है। यहीं से आत्मबोध के अनुभव की
सब विजातीय हैं। जिसे तुम अपना समझते हो, वे तो मात्र एक अमानत हैं। अपूर्व घटना प्रत्यक्ष होती है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "द्रष्टाभाव ही
बेटा बहू की अमानत है, बेटी दामाद की अमानत है, शरीर श्मशान की आधार है ध्यान का। जो होना है, वह हो, हम मात्र द्रष्टा रहें - हर
अमानत है और जिंदगी मृत्यु की अमानत है। अमानत को अमानत समझें स्थिति-परिस्थिति और कर्म के प्रति द्रष्टा-भाव की स्थिति निर्मित हो
और मुक्त हो जाएँ।" उन्होंने आत्मा के अलावा 'मेरा और कोई नहीं, यह सके।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में द्रष्टाभाव को
शरीर भी नहीं', इस सूत्र को चैतन्य-बोध और भेद-विज्ञान का आधार कहा साधने के लिए साधना विधि का भी उल्लेख किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने
है। भेद-विज्ञान के बोध से व्यक्ति आसक्तियों में नहीं उलझता। उसे द्रष्टाभाव को कर्त्ताभाव से मुक्ति दिलाने में सहयोगी माना है। उनका
आवश्यकता व आसक्ति का अंतर समझ में आ जाता है। श्री चन्द्रप्रभ दृष्टिकोण है, "जब तक द्रष्टाभाव नहीं आता हम लोग विचारों के
कहते हैं, "रहने के लिए मकान बनाना आवश्यक है, पर मकान के प्रति धरातल पर चलते रहते हैं। द्रष्टाभाव के आते ही 'मैं' और 'मेरे' की
आसक्ति अनुचित है। शरीर को चलाने के लिए भोजन आवश्यक है, पर आसक्ति बिखर जाती है और अनासक्ति के धरातल से कैवल्य का,
भोजन के प्रति आसक्ति अनिवार्य नहीं है। पहनने के लिए कपड़े बुद्धत्व के कमल का बीज अंकुरित होने लगता है।"
आवश्यक हैं, पर कपड़ों के प्रति राग करना आवश्यक नहीं है।" स्त्रीFor Personal & Private Use Only
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