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________________ पुरुष का देह-आकर्षण व्यक्ति के भीतर कामेच्छा को जन्म देता है। यह लेना आत्मज्ञान कहलाता है। अध्यात्म की शुरुआत इसी आत्मज्ञान से कामेच्छा का अन्तर्द्वन्द्व व्यक्ति के मानसिक तनाव का कारण है। शरीर और होती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "अध्यात्म की शुरुआत किताबों से आत्मा का भेद-विज्ञान व्यक्ति को इस अन्तर्द्वन्द्व से मुक्त करता है। श्री नहीं, व्यक्ति के अपने ही जीवन से, अपनी ही आत्मा से होती है।" चन्द्रप्रभ का मानना है, "स्त्री और पुरुष के शरीर में जो भेद देखता है उसकी उन्होंने शास्त्र पढ़ने से पहले स्वयं को पढ़ने की प्रेरणा दी है। उनकी वासनाएँ समाप्त नहीं होती। भेद मात्र आकार-प्रकार का है, शेष सब समान दृष्टि में, "अगर सारे शास्त्रों को पढ़ा, पर स्वयं के पठन से वंचित रह हैं।व्यक्ति जड़ से नहीं, चैतन्य से जुड़े, देह में आत्मवान होकर जिए।" गए, तो निर्ग्रन्थ नहीं हो पाएँगे।" वे आत्मा का अर्थ जीवन से जोड़ते श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार भेद-विज्ञान की दृष्टि से देह में आत्मा हैं। उनके अनुसार, "आत्मा अर्थात् हम स्वयं, आत्मा अर्थात् मैं,आत्मा और भौतिकता में भगवान् को पहचानना संभव है। उन्होंने पंचभूतों में अर्थात् जीवन।" इस तरह आत्मज्ञान स्वयं का ज्ञान है, जीवन का निहित भगवान की व्याख्या करते हुए कहा है, "भगवान् का भ' भूमि अतबोध है । आत्मज्ञान की उपयोगिता के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ ने कहा का वाचक है जो पंचभूतों का पहला रूप है, 'ग' अक्षर गगन का सूचक है, "आत्मज्ञान जीवन का सबसे बड़ा पुण्य है और आत्मअज्ञान ही है. 'वा' अक्षर से वाय का बोध होता है. 'न' अक्षर नीर से जड़ा है और सबसे बड़ा पाप है।" आत्मज्ञान व्यक्ति को अच्छे रास्ते पर चलने की न के नीचे हनन्त का चिहन अग्नि तत्त्व का बोधक है। पंचभूत स्थूल है प्रेरणा देता है वहीं आत्मअज्ञान के चलते व्यक्ति ग़लत रास्ते पर चला और 'भगवान्' स्थूल में निहित सूक्ष्म शक्ति है।" श्री चन्द्रप्रभ की यह जाता है इसीलिए भगवान महावीर ने आत्मा को ही मित्र और शत्रु मानते अंतर्दृष्टि अध्यात्म को नई देन है। श्री चन्द्रप्रभ ने भेद-विज्ञान हेतु हुए कहा था- अच्छे रास्तों पर ले जाने वाली आत्मा हमारा मित्र है और आध्यात्मिक विकास एवं न जन्म न मृत्यु नामक पुस्तकों में अलगाव ग़लत रास्तों पर ले जाने वाली आत्मा हमारी शत्र है।" बोध' की प्रक्रिया का विवेचन किया है। इस प्रक्रिया से शरीर से भिन्न दुनिया के अनेक धर्मों में अनेक देवताओं की पूजा की परम्परा है। आत्मा का बोध संभव है और जिसके द्वारा व्यक्ति शरीर को महसूस पर श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्मा को सबसे बड़ा देव माना गया है। श्री होने वाले सुख-दुःख से मुक्त हो सकता है। चन्द्रप्रभ कहते हैं, "लोग ब्रह्मा की पूजा करते हैं, महावीर की पूजा अलगाव-बोध की प्रक्रिया के अंतर्गत श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं. करते हैं, बुद्ध-कृष्ण को पूजते हैं, जबकि आत्मा में सारे देव समाहित "क्रोध आए तो क्रोध को देखें और अनुभव करें कि क्रोध करने वाला हैं। मनुष्य की आत्मा ही सबका ब्रह्मा है। जो उसे जन्म देती है, वह मैं नहीं हैं। क्रोध क्षणिक है और मैं क्रोधी नहीं हैं। चोट लगने पर विष्णु भी है क्योंकि उसका पालन करती है और आत्मा ही उसका शिव अहसास करें चोट शरीर को लगी है और मैं शरीर से भिन्न हैं। भख है जो उसका उद्धार करती है इसीलिए हमारा आत्मदेव ही हमारा लगने पर भोजन करें और यह सोचें कि.मैं नहीं कर रहा हूँ, शरीर को महादेव है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को जानने, जीतने और करा रहा हैं। वासना उठे तो जानें वासना शरीर की उपज है. मैं आराधना करने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है, "जो अपने आपको वासनाग्रस्त नहीं हैं। हर कार्य इस स्मति के साथ करें कि यह सब मैं जान लेता है, वह सबको जान लिया करता है और जो अपने आप पर नहीं हैं। चलते समय बोलते समय भी स्वयं को साक्षीभर समझें। स्वप्न विजय प्राप्त कर लेता है, वह दूसरों पर भी विजय पाने का अधिकारी के प्रति भी जागरूक रहें। स्वप्न टूटने पर उसका सम्यक निरीक्षण करें हो जाता है।" व स्वयं को उससे भिन्न देखें। उन्होंने इस बोध को आत्मज्ञान, समाधि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में परमात्मा पर विश्वास करने से पहले व तुर्यावस्था घटित करने में सहयोगी माना है।" स्वयं अष्टावक्र गीता आत्मा पर विश्वास करने की बात कही गई है और आस्तिकतामें भी आत्मबोध के लिए स्वयं को देह से पृथक् जान कर चैतन्य में नास्तिकता को भी आत्मश्रद्धा से जोड़ कर देखा गया है। श्री चन्द्रप्रभ विश्राम करने की प्रेरणा दी गई है। भगवान महावीर ने इसे कायोत्सर्ग कहते हैं, "मैं आपको अपने-आप पर विश्वास दिलाना चाहता हूँ। ध्यान कहा है। इस प्रकार व्यक्ति भेद-विज्ञान के बोध को सहजतया व्यक्ति का अपने पर विश्वास उठ गया है। परमात्मा का क्रम तो दूसरा साध सकता है। है, पहला विश्वास तो अपने-आप पर ही चाहिए। वस्तुत: आस्तिक श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में वैराग्य, वीतराग दशा. मोक्ष, निर्वाण.योग वही है जिसका खुद पर विश्वास है और जिसका अपने पर से ही में वर्णित चित्त की चौथी तर्या अवस्था, ध्यान-साधना. देहासक्ति से विश्वास उठ गया है वह नास्तिक है।"इस तरह उन्होंने आस्तिकता की मक्ति व देहाभिमान के त्याग हेत भेद-विज्ञान के बोध को आवश्यक नई व्याख्या कर व्यक्ति को स्वयं के निकट लाने की कोशिश की है। माना गया है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भेद-विज्ञान अध्यात्म श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्म-ज्ञान के संदर्भ में पूर्वजन्म, पुनर्जन्म का आधार है। भेद-विज्ञान के बोध के बिना आसक्तियों से छुटकारा और पूर्णजन्म का भी विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है। श्री चन्द्रप्रभ संभव नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "स्वयं को स्वीकार करना, स्वयं पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। उन्होंने इसका मूल कारण में स्थित होना, स्वयं में विहार करना ही भेद-विज्ञान को जीने का मार्ग कर्मबंधन को माना है। वे आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति के लिए हर है।" उनके द्वारा भेद-विज्ञान को आत्मसात् करने के लिए दी गई तरह के कर्म-बंधन से छुटकारा आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में, अलगाव-बोध की प्रक्रिया भी अध्यात्म जगत में उपयोगी है। "व्यक्ति द्वारा इस जन्म में लिए गए संकल्प, किये गए विकल्प, आत्म-दर्शन व आत्मज्ञान इच्छाएँ, बाँधे गए संस्कारों से नए कर्म बँधते हैं, जो पुनर्जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इस तरह पूर्वजन्म के कर्म जीव के पुनर्जन्म जीवन शरीर और आत्मा दोनों के संयोग का नाम है। शरीर भौतिक का कारण बनते हैं। उन्होंने पूवर्जन्म की स्मृति अवचेतन अथवा गूढमन तत्त्वों की संरचना है और आत्मा चैतन्य-ऊर्जा है। दोनों का परस्पर की परतों के उधड़ने से होना माना है। वे पूर्णजन्म का अभिप्राय एकत्व भी है और भिन्नत्व भी। शरीर से आत्मा की भिन्नता को जान कर्मबंधन से,जन्म-मृत्यु से मुक्ति बताते हैं।" इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ 1-98 » संबोधि टाइम्स www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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