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________________ विचक्षण श्री जी महाराज के पास भी काफी निकटता से रहने का अवसर बना। साध्वी जी को कैंसर था, पर उसके बावजूद 'तन में व्याधि मन में समाधि' के आध्यात्मिक मंत्र को उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ किया। श्री चन्द्रप्रभ ने उनके पास रहकर भेद-विज्ञान के मर्म को समझा जिसे उन्होंने जीवन भर जीने की सजगता रखी। कुल मिलाकर श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और अध्यात्म की नई उर्मि को हृदय में सैंजोते हुए दीक्षा के रूप में प्रभु के पवित्र पथ पर कदम बढ़ाने का निर्णय कर लिया। श्री चन्द्रप्रभ की दीक्षा माघ शुक्ला एकादशी, विक्रम संवत् 2036 सन् 1980 में 27 जनवरी को साढ़े सतरह वर्ष की अल्पायु में राजस्थान के बाड़मेर शहर में जैन जगत के परम प्रभावी आचार्य प्रवर श्री जिन कांतिसागर सूरिजी महाराज के कर कमलों से सम्पन्न हुई। आचार्य प्रवर ने नवदीक्षित मुनि का नाम चन्द्रप्रभ सागर घोषित किया। खुद उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए भी अंधेरी दुनिया को शांत, शीतल रोशनी प्रदान करना चन्द्रमा का मूल गुण है। इनकी दीक्षा के चार दिन बाद ही बाड़मेर से पालीताणा के लिए विशाल पैमाने पर चतुर्विध पदयात्रा संघ निकला जो कि इनके पुण्योदय का शुभ संकेत था । गुरु चरणों में समर्पण दुनिया में सबसे बड़ा आध्यात्मिक रिश्ता गुरु-शिष्य का होता है। हमारे जीवन में गुरु अवश्य होना चाहिए। गुरु बनाना जितना सौभाग्यदायी होता है, उतना ही शिष्य बनना भी संसार में ज्ञानदाता को गुरु कहा जाता है। माता-पिता और उपकारी जन भी गुरु माने जाते हैं। महोपाध्याय ललितप्रभ सागर महाराज गुरु की व्याख्या करते हुए कहते हैं, " जो शिष्य को शिष्य नहीं रहने देता वरन् अपने समान बना देता है वही सच्चा गुरु है। गुरु गंगा, गायत्री, गाय, गीता और गोविंद से भी बढ़कर है। गुरु उस शिल्पकार की तरह है जो शिष्य रूपी अनघड़ पत्थर को पत्थर नहीं रहने देता वरन् प्रतिमा बना देता है। " श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "गुरु धरती का चलता-फिरता मंदिर है। गुरु कोई व्यक्ति या वेश का नहीं, शांत सरोवर और ज्ञान सागर का नाम है जो जीवन में आता है और सोई हुई चेतना को जगा जाता है।" दीक्षा लेते ही श्री चन्द्रप्रभ धार्मिक एवं शास्त्रीय अध्ययन में संलग्न हो गए। उन्होंने लगभग एक वर्ष तक आचार्यश्री के सान्निध्य में अध्ययन एवं प्रवास किया। फिर उनका अपने पिता संत शासनप्रभावक मुनिराज श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज तथा अपने बंधुवर्य मुनिवर श्री ललितप्रभ सागर जी महाराज के साथ अलग विहार-क्रम चालू हो गया। उन्होंने अहमदाबाद में लगभग एक वर्ष तक अध्ययन किया एवं दिल्ली में अनेक प्रोफेसरों के मार्गदर्शन में उन्होंने सात महीनों तक अध्ययन किया. फिर वे गहन अध्ययन के लिए बनारस आ गए, जहाँ पार्श्वनाथ शोध संस्थान में उन्होंने लगातार तीन वर्ष तक संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं के अतिरिक्त प्राचीन लिपी, भाषा विज्ञान, आगम, शास्त्र, दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, काव्यशास्त्र पिटक, उपनिषद्, विधिविधान, व्याकरण शास्त्र आदि विषयों पर गहन अध्ययन के साथ } अनुसंधान भी किया। श्री चन्द्रप्रभ ने अपनी विहार यात्राओं में प्रबुद्ध मनीषियों से विद्याध्ययन एवं मार्गदर्शन का सुअवसर प्राप्त किया, जिनमें मुख्य रूप से शोध-निदेशक डॉ. सागरमल जैन, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. ओमप्रकाश शास्त्री, डॉ. छगनलाल शास्त्री, आचार्य विश्वनाथ द्विवेदी, श्री भँवरलाल नाहटा, प्रो. श्रीनारायण मिश्र आदि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। " श्री चन्द्रप्रभ की भारतीय चिंतन, साहित्य एवं साधना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने तर्क-वितर्क भरी दार्शनिक शैली से मुक्त होकर चिंतन को जीवन सापेक्ष स्वरूप प्रदान किया और पारलौकिक स्वर्ग-नरक की परिभाषा से बाहर निकलकर इसी जीवन को स्वर्ग बनाने एवं इसी जीवन में नरक से बचकर रहने की प्रेरणा दी। वे न केवल एक महान गुरु महाश्रमण और समाज सुधारक हैं, अपितु विलक्षण प्रतिभा तथा सृजन क्षमता से सम्पन्न महामनीषी भी हैं । उन्होंने चिंतन, दर्शन, काव्यशास्त्र आदि वाङ्गमय के समस्त महत्त्वपूर्ण अंगों पर साहित्य का निर्माण कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है । वास्तव में न केवल जैन साहित्य में अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के प्रमुख साहित्यकारों में श्री चन्द्रप्रभ का नाम गौरव के साथ लिया जाता है । फुल सर्कल और हिन्द पॉकेट बुक जैसे राष्ट्रीय प्रकाशकों ने देश के महान पचास साहित्यकारों में श्री चन्द्रप्रभ को बड़े सम्मान के साथ समाहित किया है। फुल सर्कल, पुस्तक महल, हिन्द पॉकेट बुक, श्री चन्द्रप्रभ के दीक्षागुरु प्रसिद्ध आचार्य श्री जिन कांतिसागर सूरि मनोज पब्लिकेशन जैसे राष्ट्रीय स्तर के प्रकाशकों ने उनका साहित्य जी म. थे जो जैन धर्म के खरतरगच्छ आम्नाय से थे । शास्त्रीय अध्ययन विपुल मात्रा में प्रकाशित किया है। देश की सभी बुकस्टालों पर उनका साहित्य आम व्यक्ति को उपलब्ध रहता है। उनके साहित्य ने लोगों में किताबें पढ़ने की रुचि जगाई। लोगों को शिव खेड़ा और प्रमोद बत्रा जैसे बड़े लेखकों के स्तर की किताबें श्री चन्द्रप्रभ के जरिये सहज सुलभ हो गई। 8 संबोधि टाइम्स Jain Education International अपनी नैसर्गिक प्रतिभा को प्रखर करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने विद्याअध्ययन में साहित्य - विशारद, साहित्य रत्न, जैन सिद्धांत प्रभाकर तक की उच्चतम परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं और जैन जगत के अद्भुत अष्टलक्षी महाकाव्य के रचयिता महोपाध्याय समयसुंदर पर महत्त्वपूर्ण शोध कार्य किया, जिस पर उन्हें हिन्दी विश्वविद्यालय, प्रयाग ने 'महोपाध्याय' की उपाधि से अलंकृत किया। उनका शोध-प्रबंध महोपाध्याय समयसुंदर व्यक्तित्व एवं कृतित्व के रूप में प्रकाशित है जो विद्वत जगत में बहुत सम्मानित हुआ है। शोध-प्रबंध की शैली सीखने के लिए शोधार्थी आज भी इसका उपयोग करते हैं। साहित्य-सृजन - जीवन-निर्माण, पारिवारिक प्रेम व्यक्तित्व विकास और जीवन की सफलता से जुड़ी श्री चन्द्रप्रभ की शताधिक पुस्तकों ने घर-घर में प्रेम और प्रज्ञा के दीप जला दिये। देश भर के संतों में भी श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है। संत लोग अपने प्रवचन श्री चन्द्रप्रभ की पुस्तकों के आधार पर देते हैं क्योंकि श्री चन्द्रप्रभ की किताबें और उनके विचार पूरी तरह से जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से जुड़े होते हैं इसलिए सीधे दिल को छूते हैं और जीवन के साथ लागू होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य एक तरह से एक बहुत बड़ी क्रांति है, आम समाज के लिए दीप शिखा की तरह मार्गदर्शक है, मील के पत्थर की तरह आगे से आगे रास्ता दिखाने वाला है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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