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श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य पर समीक्षा करते हुए डॉ. नागेन्द्र ने लिखा सकारात्मक पहलू का स्पर्श करते हुए धर्म, शिक्षा, नारी, अध्यात्म, है,"उनका साहित्य कोई मनोरंजन का छिछला और सस्ता साधन नहीं ध्यानयोग, व्यक्तित्व-निर्माण, परिवार, स्वास्थ्य, मानवीय एकता, प्रेम, है, वह तो जीवन के सूक्ष्म रहस्यों को उद्घाटित करने वाला स्रोत है।" विश्वशांति, राष्ट्र-निर्माण जैसे हर क्षेत्र में नई एवं मौलिक अंतर्दृष्टि उनके साहित्य से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे सत्यग्राही हैं। वे देश- प्रदान की है। हर विषय पर उनकी अद्भुत पकड़ है। जहाँ तक लेखनकाल-जाति-धर्म की ग्रंथियों से मुक्त हैं। चारों तरफ उनका साहित्य- शैली का प्रश्न है, गद्य हो या पद्य दोनों में वे सिद्धहस्त नजर आते हैं। प्रवाह गतिशील रहा है। उनकी प्रवचन शैली लीक से हटकर एवं उन्होंने तार्किक शैली, संवाद शैली, दृष्टान्त शैली, प्रेरक प्रसंग और दिल-दिमाग को सीधी छूने वाली है। संतों के साहित्य मुख्यतया ईश्वर व्याख्यात्मक शैली का प्रभावी उपयोग किया है। भाषा, गुण, शैली, की उपासना, मोक्ष-प्राप्ति, वैराग्य, ध्यान साधना अथवा धर्म-अध्यात्म वर्णन-कौशल, रस, अलंकार, छन्द, सुभाषित, विचार इत्यादि सभी तक ही सीमित रहते हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ ऐसे पहले संत हैं जिन्होंने इन दृष्टियों से श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य भारतीय साहित्य एवं दर्शन के गगन सब पर तो गहरा चिंतन दिया ही है, साथ ही भटकती युवा पीढ़ी के में चार चांद लगा रहा है। हिंदी साहित्य एवं भारत की ज्ञानमनीषा उनके लिए उन्होंने कॅरियर-निर्माण, व्यक्तित्व-निर्माण और संस्कार-निर्माण गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर गौरवान्वित है। पर भी अपनी महान सोच दी है। यही कारण है कि सम्पूर्ण देश में श्री उपाधियों का किया विसर्जन चन्द्रप्रभ एक ऐसे संत हैं जिनका साहित्य सबसे ज्यादा युवा पीढ़ी पसंद
__भारतीय संस्कृति में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मान' प्रदान करती है और उसे अपने जीवन के लिए किसी रोशनदान की तरह
करने की गरिमामय परम्परा रही है। जिन्होंने धर्म, समाज, राष्ट्र के मानती है। इससे जुड़ी कई घटनाएँ उनके पास रहने के कारण मुझे
विकास में महत्त्वपूर्ण आहुतियाँ समर्पित की, उन्हें विशेष सम्मान देकर सुनने को मिली हैं जिसमें से एक घटना है -
उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित की जाती है। उपाधि से व्यक्ति महान नहीं एक 20 साल की बालिका ने श्री चन्द्रप्रभ को पंचांग प्रणाम कर
बनता, वरन् महापुरुषों को पाकर उपाधियाँ स्वयं गौरवान्वित होती हैं। कहा,"आपके मार्गदर्शन से मैं कॉलेज में प्रथम आने में सफल हुई हूँ
श्री चन्द्रप्रभ अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से मानव समाज के जिसके कारण आज पूरा परिवार और समाज मुझ पर गर्व कर रहा है।"
विकास में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं वह अद्भुत है। उनके उन्होंने आश्चर्य से पूछा, "आप तो मुझे अपरिचित नज़र आ रही हैं,
ओजस्वी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण अनेक संघों एवं संस्थाओं फिर आपको मेरा मार्गदर्शन कैसे प्राप्त हुआ?" बालिका ने रहस्य
द्वारा समय-समय पर उन्हें प्रवचन-प्रभाकर, कविरत्न, व्याख्यानउद्घाटित करते हुए कहा कि कुछ महीने पहले मेरा जन्मदिन था। मेरी
वाचस्पति, सिद्धांत-प्रभाकर, साहित्य-विशारद, महामहोपाध्याय, सहेली ने मुझे जन्मदिन पर आप द्वारा लिखी पुस्तक 'लक्ष्य बनाएँ,
राष्ट्र-संत जैसी अनेक सम्माननीय उपाधियों से अलंकृत किया गया, पुरुषार्थ जगाएँ' उपहार में दी थी। मैंने उसको पढ़ा तो मेरा खोया
पर वे सदा उपाधियों से उपरत रहे। उन्होंने पद को भी परिग्रह माना और आत्मविश्वास जागृत हो गया, साथ ही कॅरियर बनाने के कुछ सरल
सन् 1988 में हम्पी की गुफा में साधना करते हुए उपलब्ध हुए आत्मटिप्स मिल गए। उन्हीं टिप्स की बदौलत मैं इस बार कॉलेज में प्रथम
प्रकाश के बाद उन्होंने समस्त उपाधियों का त्याग कर दिया। वे अपने आ पाई।
नाम के साथ किसी भी तरह की उपाधि का उपयोग करने के लिए मना इसी के साथ ही श्री चन्द्रप्रभ ने पंथ-परम्पराओं में पाये जाने वाले
करते हैं। वे कहते हैं, "संत-पद अपने आप में सबसे बड़ा सम्मान है। आडम्बरों और भेदों पर भी कबीर की तरह निर्भीकता से चोट की है।
। इससे अधिक सम्मान की मुझे जरूरत नहीं है।" उनका दृष्टिकोण है - उन्होंने अपने साहित्य और जीवन-दृष्टि को साम्प्रदायिकता से पूरी ।
कुदरत ने सम्मान सदा औरों को देने के लिए बनाया है, लेने के लिए तरह मुक्त रखा है। उनका साहित्य हर जाति-कौम द्वारा पढ़ा जाता है।
नहीं। मान-सम्मान से खुद को मुक्त रखना निश्चय ही श्री चन्द्रप्रभ की उन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति उन्हें महज किसी संत या धर्माचार्य के रूप में
एक महान साधना है। नहीं देखता। उसे लगता है कि मानो एक मैनेजमेंट गुरु उसे जीवन जीने
मंदिरों की प्राण-प्रतिष्ठा की कला सिखा रहा है। श्री चन्द्रप्रभ चिंतक एवं दार्शनिक होने के साथ-साथ महान कवि,
नूतन मंदिरों में तीर्थंकर परमात्मा, गुरु, आचार्य, देवी-देवताओं गीतकार एवं कहानीकार भी हैं। उन्होंने अतीत को ध्यान में रखकर
की प्रतिमा को मंत्रोच्चार एवं विधि-विधान द्वारा स्थापित करना वर्तमान को चिंतनधारा में मिलाते हुए उज्ज्वल भविष्य के आदर्श
प्रतिष्ठा कहलाता है। गृहस्थों के मन में प्रभु-भक्ति के प्रति श्रद्धा पैदा
करना ही इसका मुख्य लक्ष्य है। इससे धर्म की प्रभावना भी होती है। स्थापित करने में शत-प्रतिशत सफलता पाई है। श्री चन्द्रप्रभ की काव्य पुस्तिका प्रतीक्षा' का अवलोकन करते हुए महान कवयित्री महादेवी
इसी उद्देश्य को लेकर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठा वर्मा ने कहा था, "इन कविताओं ने मेरी आत्मा को छू लिया है।" श्री
कार्यक्रम सम्पन्न हुए हैं। उन्होंने सन् 1989 में गुजरात के सूरत में चन्द्रप्रभ ने उड़ीसा राज्य की यात्रा के दौरान उदयगिरि-खण्डगिरि की
विश्वविख्यात सहस्रफणा पार्श्वनाथ मंदिर, नागेश्वर पार्श्वनाथ मंदिर गुफाओं में साधना के लिए प्रवास किया। पूरे देश में लोकप्रिय "जहाँ
और हरिपुरा दादावाड़ी की, सन् 1994 में मध्यप्रदेश के भोपाल स्थित नेमि के चरण पड़े गिरनार की धरती है, वह प्रेम मूर्ति राजुल उस पथ पर
आस्टा में श्री सीमंधर स्वामी मंदिर की, राजस्थान के जोधपुर में सन्
1995 में अजीत कॉलोनी कुंथुनाथ मंदिर की, सन् 1996 में सिंहपोल चलती है" भजन की रचना भी उन्होंने वहीं की थी।
जैन मंदिर की, सन् 2002 में संबोधि धाम अष्टापद मंदिर की, सन् श्री चन्द्रप्रभ की अब तक शताधिक पुस्तकें छप चुकी हैं, जिनका
2008 लालसागर जैन मंदिर की प्रतिष्ठाएँ करवाई। विस्तार से अध्ययन हम दूसरे अध्याय में करेंगे। उन्होंने जीवन के हर
संबोधि टाइम्स -9
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