________________
जोड़े रखने की प्रेरणा दी है। ये प्रवृत्तियाँ मन को स्थिर व निर्मल करने संसार को बंधनरूप और त्याज्य बताया है, पर श्री चन्द्रप्रभ संसार को में सहयोगी बनती हैं। श्री चन्द्रप्रभ 'मैं कौन हूँ' नामक जिज्ञासा को बंधन का कारण नहीं मानते हैं। बंधन के कारण का विवेचन करते हुए प्रकाशमय प्रवृत्ति की प्राथमिक पहल बताते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने 'जागो वे कहते हैं, "संसार कभी बंधनकारी नहीं होता। मन की माया का मेरे पार्थ', 'अपने आप से पूछिए : मैं कौन हूँ','महाजीवन की खोज', संसार ही बंधन है और मन की माया से मुक्त हो जाना ही जीवन में मोक्ष 'आध्यात्मिक विकास' नामक पुस्तकों को इस आत्म-जिज्ञासा का का महोत्सव है।" इस तरह उन्होंने मन में पलने वाली मूर्छा और विस्तृत विवेचन किया है। उन्होंने इस जिज्ञासा का समाधान पाने की आसक्ति को ही भव-बंधन का आधार माना है। पूर्व भूमिका के रूप में निम्न सूत्र प्रदान किए हैं -
श्री चन्द्रप्रभ ने गृहस्थ अथवा संन्यास जीवन का मूल्यांकन भी 1.स्वयं पर आस्था रखें।
आसक्ति-अनासक्ति के आधार पर किया है। उन्होंने संन्यास जीवन 2.अंत:करण की शुद्धि करें।
अंगीकार करने से पहले आसक्तियों से उपरत होने की सीख दी है 3.जीवन-जगत को पढ़ें।
इसलिए वे व्यक्ति को पहले गृहस्थ-संत बनने की प्रेरणा देते हैं। 4.शास्त्रों का पठन के साथ मनन करें।
उनकी दृष्टि में, "पुत्र-पुत्री, पत्नी-धन की ऐषणा का त्याग करना 5. प्रज्ञावान बनें।
अथवा नाम, रूप, रूपाय बदल लेना आसान है, परंतु लौकेषणा का 6.'मैं कौन हूँ' मंत्र का सतत जप करें।
त्याग करना, आसक्तियों को तोड़ना कठिन है।" इस तरह उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अध्यात्म की शुरुआत 'मैं कौन हूँ' की अनासक्त चेतना के निर्माण की मुख्य पहल की है। श्री चन्द्रप्रभ ने जिज्ञासा से होती है। महावीर, बुद्ध जैसे महापुरुषों ने भी सतत इसका आसक्ति-अनासक्ति के परिणामों का भी विवेचन किया है। पति के चिन्तन-मनन किया और वे आध्यात्मिक बोध को उपलब्ध हए। श्री बीमार हो जाने पर पत्नी का दुःखी होना, गलती होने पर पिता द्वारा बेटे चन्द्रप्रभ हर साधक के लिए 'मैं कौन हूँ' को मुख्य साधना-मंत्र मानते को चाँटा मारना, जन्मने पर खुश और मरने पर पीड़ित होना, इन सबके हैं। अध्यात्म के रहस्यों को उपलब्ध करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने 'मैं पीछे उन्होंने मुख्य कारण आसक्ति को माना है। उदाहरण के माध्यम से कौन हूँ' की सतत स्मृति को सहयोगी माना है।
आसक्ति को व्याख्यायित करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "पड़ोस में
किसी की मृत्यु हो जाए तो व्यक्ति नाश्ता करके शवयात्रा में जाने की आत्मा, बंधन और उससे मुक्ति ।
सोचता है और घर में किसी की मृत्यु हो जाए तो नाश्ता नहीं सुहाता, संसार में प्रत्येक जीव बंधनों से आबद्ध है। बंधन ही दुःख का मूल
अंतर में पीड़ा होती है। मृत्यु तो दोनों जगह समान है, पर पड़ौसी के कारण है। कार्य कारण सिद्धांत के अनुसार हर कार्य का कोई-न-कोई
साथ रागात्मक संबंध जुड़े हुए नहीं हैं इसलिए मृत्यु दुःख नहीं देती, पर कारण अवश्य होता है वैसे ही बंधनों का भी कोई-न-कोई आधार परिवार में अनरक्ति होने के कारण किसी की भी मत्य हमारे शोक का अवश्य है। सभी धर्म-दर्शनों में बंधनों के अलग-अलग कारण बताए।
कारण बन जाती है।" गए हैं। सांख्य दर्शन में अविवेक को बंधन का कारण माना गया है तो
श्री चन्द्रप्रभ आसक्त व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करते हुए योग दर्शन में अविद्या को। न्याय-वैशेषिक और वेदान्त में अज्ञान को
कहते हैं, "व्यक्ति सोचता है कि मैं इस माया-संसार का और अधिक बंधन का आधार स्वीकार किया गया है तो बौद्ध दर्शन में तृष्णा और जैन
रस और अधिक स्वाद लूँ, एक और फैक्ट्री लगाऊँ, और ज़्यादा धन दर्शन में मिथ्यात्व तथा राग-द्वेष को बंधन का कारण माना गया है। श्री
कमाऊँ, और अधिक सुंदर पत्नी की तलाश करूँ, इस तरह वह जहाँ है चन्द्रप्रभ बंधनों से छुटकारा पाने के लिए बंधनों का बोध होना
उसे तृप्ति नहीं मिलती। वह कुछ और पाना चाहता है, कहीं और होना अपरिहार्य बताते हैं। वे कहते हैं,"मनुष्य तब तक दुःखी रहेगा, जब
चाहता है इसी का नाम आसक्ति है।"आसक्त व्यक्ति अगर प्रभु की तक बंधन उसे घेरे रहेंगे और बंधनों से वह तब तक घिरा रहेगा, जब
आराधना भी करता है तो उसमें भी राग मूलक प्रार्थनाएँ ही प्रकट करता तक वह ख़ुद उन बंधनों से बाहर निकलने की मानसिकता नहीं
है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "व्यक्ति प्रभु-आराधना में बनाएगा। बंधन को बंधन रूप में जान लेना ही बंधनों से मुक्ति का
वैराग्य और वीतरागता की प्रार्थना करता है लेकिन उसका व्यावहारिक प्रथम सूत्र है।"
जीवन राग के अनुबंधों से ही घिरा हुआ है। परमात्मा के मंदिर में जाकर श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'मूर्छा' को बंधन का मुख्य कारण कहा भी लोगों के द्वारा राग से जुड़ी प्रार्थना ही होती है, परिणामस्वरूप मंदिर गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मूच्छी मे होना हा बधन है।" उन्होंने जाना भी बाजार में घूमने जैसा हो जाता है। ईश्वर से दिव्य प्रेम और ज्ञान अनैतिक कार्यों के पीछे भी मूर्छा की स्थिति को उत्तरदायी माना है।
की रश्मि चाहने वाला तो कोई-कोई ही होता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने उनका मानना है कि मूर्छा के कारण ही मनुष्य सैकड़ों पाप करता है,
अनासक्त व्यक्ति की स्थिति का विवेचन करते हुए लिखा है, "वह घर मूर्छा के कारण ही वह स्वार्थ से घिरा रहता है। मूर्छा के कारण ही
में रहते हुए भी निर्लिप्त जीवन जीता है, कर्त्तव्यों का पालन करते हुए व्यक्ति सारे छल-प्रपंच, मिलावट, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार इत्यादि
हर कर्त्तव्य-कर्त्ताभाव से मुक्त रहता है। वह अंतर्द्वन्द्व से बचा रहता है। करता है। मूर्छा को आसक्ति भी कहा जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने
द्वन्द्व से उपजे तनाव, अस्वास्थ्य, बीमारी, रक्तचाप उस पर हावी नहीं आसक्ति को संसार का कारण व मुक्ति में बाधक माना है। वे कहते हैं,
होते।वह मन में शांति व निरपेक्षता का अनुभव करता है।" "आसक्ति संसार का पथ है और अनासक्ति निर्वाण का। जहाँ
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आसक्तियों के अनेक रूपों का उल्लेख आसक्ति मूर्छा और मृत्यु की ओर ले जाती है वहीं अनासक्ति आत्म-
प्राप्त होता है। आसक्तियों के विभेदों के संदर्भ में उनका कहना है,
तामा जागरूकता और मुक्ति की ओर बढ़ाती है।"इस तरह आसक्ति में ही
“आसक्तियों के सौ रूप हैं । जहाँ भी जुड़े, जो भी चीज़ मन पर हावी
आसक्तियों के सौ रूप हैं।ज संसार और अनासक्ति में ही निर्वाण छिपा हुआ है। प्रायः धर्मशास्त्रों ने तालियेपनलिन तटन जगी जिसका वियोग होने
संबोधि टाइम्स > 93 For Personal & Private Use Only
Jain Education International