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समाधान देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "इसका समाधान हमारे भीतर के लिए स्वयं को ही शोध करनी पड़ती है। आत्मज्ञान स्वयं की ही में है। जब व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध हो जाएगा, तब यह प्रश्न स्वयं परिणति है, वह किसी और का अनुदान नहीं हो सकता।"व्यक्ति स्वयं ही तिरोहित हो जाएगा अर्थात् व्यक्ति की परितृप्ति ही इस प्रश्न का को पढ़े, स्वयं को जाने । जीवन-जगत को पढ़ना किसी भी पुस्तक को ज़वाब है।" श्री चन्द्रप्रभ का मानना है कि ऐसे प्रश्नों का ज़वाब शब्दों पढ़ने से अधिक बेहतर है। भगवान महावीर ने कहा था, "जो एक को में नहीं, अनुभूतियों में है। जब हम 'ध्यान' द्वारा भीतर उतरेंगे तब ही जान लेता है सबको जान लेता है।" गीता के पन्द्रहवें अध्याय में हमें इसका सही जवाब मिल पाएगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने हृदय में स्थित आत्मा को तत्त्व से जानने की बात आत्म तत्त्व की सिद्धि
कही है। आत्मा संबंधी सिद्धांत को सभी दार्शनिकों ने किसी-न-किसी रूप
स्वयं को जानने के लिए 'कोऽहं' शब्द अति महत्त्वपूर्ण है। में स्वीकार किया है। मुख्य रूप से आत्मा को एकात्मवाद,
'कोऽहं' अर्थात् मैं कौन हूँ। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "मैं कौन हूँ, अनेकात्मवाद, ईश्वरीय अंश और स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्वीकार किया
कहाँ से आया हूँ, जीवन का स्रोत क्या है? अंतर्मन में ऐसे प्रश्नों का गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को अनेक व स्वतंत्र अस्तित्त्व के रूप में
उठना ही जीवन में अध्यात्म की शुरुआत है।" आचारांग सूत्र जिसमें स्वीकार किया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैं आत्मवादी हूँ, मुझे अपने
महावीर की साधना का उल्लेख है, उसकी शुरुआत भी मैं कौन हूँ, आप पर विश्वास है। मैं किसी का अंश नहीं हैं, ईश्वर का भी नहीं।
कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा जैसे प्रश्नों से, स्वयं के प्रति जिज्ञासा से
हुई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "महावीर ने अपने आप से प्रश्न किये, मैं आत्मा पूर्ण है, अंश अपूर्ण है।" उन्होंने 'जीवन यात्रा' नामक पुस्तक में आत्मा की अनेकात्मकता का एवं स्वतंत्रता का समर्थन कर अन्य रूपों
कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है तथा जीवन का तर्कयुक्त खण्डन किया है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्म तत्त्व
और जगत का वास्तविक सत्य व स्वरूप क्या है? महावीर ने इन प्रश्नों की सिद्धि हेतु अनेक प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। 'जीवन यात्रा'
को अपने अंतर-भाव में उतरने दिया, गहराई तक। इतनी गहराई तक पुस्तक में इस संदर्भ में विस्तृत विश्लेषण किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ
कि प्रश्न मिट गए, केवल आत्मबोध रह गया।" श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आत्मा अमूर्त है, इसीलिए नित्य है, आत्मा सविशेष है,
आध्यात्मिक क्रांति के लिए आत्म-जिज्ञासा को पहली शर्त मानते हैं। दर्शन को नैतिकता के शिखर पर प्रतिष्ठित मानना आवश्यक है।
'कोऽहं' और कुछ नहीं स्वयं की स्वयं से जिज्ञासा है, मुमुक्षा का नैतिकता शुभ-अशुभ का विवेक है और वह विवेक सचेतन में ही
जागरण है, अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य का अवलोकन है, संभव है, आत्मा के बिना पुनर्जन्मादि क्रियाएँ संभव नहीं हैं, आत्मा ही
अंतर्यात्रा की शुरुआत है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'कोऽहं को जीवन के चरम है जो इन्द्रियों के साधन से ज्ञान प्राप्त करती है, पाँचों इन्द्रियों के विषय
सत्यों की खोज़ का पहला मंत्र माना है। का समन्वित रूप में ज्ञान प्राप्त करने वाली शक्ति आत्मा है। जैसे फूल
स्वयं के साथ घटे'कोऽहं' के अनुभव की व्याख्या करते हुए श्री में सुगंध, तिलों में तेल, काष्ठ में आग, दूध में घी व गन्ने में गुड़ है वैसे
चन्द्रप्रभ बताते हैं, "मैंने भी कई उपाधियाँ हासिल की,प्रवचन भी खूब ही शरीर में छिपे आत्मा के अस्तित्व को विवेक से जाना जा सकता
दिए, पर जब यह प्रश्न उठा कि क्या यह सब सच है, क्या है आत्मा है।" वैज्ञानिकों ने भी आत्मा को जानने, पकड़ने का प्रयास किया, पर
और कैसी है आत्मा, कहीं मैं स्वयं को व औरों को दिग्भ्रमित तो नहीं वे अभी तक इसमें पूर्ण सफल नहीं हो पाए हैं, वे उस शक्ति को अवश्य
कर रहा हूँ या जैसा औरों ने कहा है, वैसा ही मैं भी तो नहीं कह रहा हूँ, स्वीकार करते हैं जिसके अभाव में मनुष्य जीवित नहीं रह पाता है।
इन्हीं प्रश्नों के चलते किताबी व वाणीगत सत्य अंतर्मार्ग की ओर मुड़ श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्मा की विशेषताओं का भी विस्तार से
र गया, ध्यानयोग से अध्यात्म की कई गहराइयाँ स्पष्ट हुईं।" श्री चन्द्रप्रभ जिक्र हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आत्मा चैतन्य रूप, सगुण धारा
यह स्वीकार करते हैं कि जब तक हम अपने आपको न जान पाए, तब की प्रतिनिधि, चिरस्थायी, स्वतंत्र, ज्ञायक, आनंदस्वरूप, अमर, अशुद्ध
तक दूसरों के कल्याण की बातें करना कथाकार व प्रवचनकार का रूप में कर्ता व भोक्ता, शुद्ध रूप में अकर्ता-अभोक्ता, बंधन व मुक्ति
दायित्व निभाना भर है। श्री चन्द्रप्रभ 'मैं कौन हूँ' के प्रश्न को जीवन
और जगत की भौतिकता और आध्यात्मिकता की बुनियाद मानते हैं। युक्त है।" इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है भारतीय धर्म-दर्शनों में 'आत्मा' का विविध रूपों में विश्लेषण हुआ है। दर्शन की सारी
उन्होंने इस प्रश्न को गहराईपूर्वक जानने व जीने की प्रेरणा दी है। वे इस प्रणालियाँ, जीवन की सारी अपेक्षाएँ आत्म-सापेक्ष हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने
प्रश्न के साथ सावधान करते हुए कहते हैं, "ध्यान में बैठते ही स्वयं से आत्मा को जीवन के साथ जोड़कर उसे बेहतर व सरल ढंग से समझाया
पूछा -- मैं कौन हूँ? और भीतर से आवाज़ आयी कि मैं आत्मा हूँ, है। विज्ञान व अध्यात्म की धाराओं का समन्वय भी भविष्य के लिए
परमात्मा हूँ, मैं ईश्वर अंश हूँ या मैं कुछ भी नहीं हूँ। ये सारे उत्तर सुने
सुनाए, रटे-रटाये हैं। व्यक्ति पहले आरोपित उत्तरों से स्वयं को मुक्त अच्छा संकेत है। अब हम श्री चन्द्रप्रभ द्वारा आत्मा की अन्य तत्त्वों के साथ की गई व्याख्या को समझने की कोशिश करते हैं।
करे, अंतर्मन को खाली करे ताकि वह भीतर के निर्विकल्प वातावरण
से मौलिक सत्य को उपलब्ध कर सके।" आत्म-दर्शनवकोऽहं
श्री चन्द्रप्रभ ने अपने आप से पूछिए : मैं कौन हूँ' नामक पुस्तक अध्यात्म की शुरुआत आत्मा से होती है और आत्मबोध के लिए में भगवान महावीर को कोऽहं प्रश्न के रूप में मिले 'सोऽहं के उत्तर स्वयं में उतरना ज़रूरी है। स्वयं में उतरे बिना रूपांतरण संभव नहीं है। की विस्तारपूर्वक व्याख्या को है। श्री चन्द्रप्रभ ने पुनः-पुनः 'कोऽहं' जीवन में साधनामूलक परिवर्तन विद्यालयी पुस्तकों को रटने या शास्त्रों की जिज्ञासा को मंत्र रूप में आत्मस्मृति के साथ जोड़े रखने की प्रेरणा को पढ़ने मात्र से नहीं हो सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "शास्त्रों दी है। उन्होंने 'कोऽहं' को अहंकार नहीं, अस्तित्व का बोध कहा है।
का ज्ञान हमें कुछ संकेत दे सकता है, पर स्वयं के अस्तित्व की पहचान पतंजलि ने योग सूत्र में शोकरहित और प्रकाशमय प्रवृत्तियों में मन को 1892 » संबोधि टाइम्स
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