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है। श्री चन्द्रप्रभ ने राग से वीतराग और द्वेष से वीतद्वेष की ओर बढ़ने होती है। जन्म और मृत्यु की परिभाषा देते हुए कहते हैं, "जीवन की की प्रेरणा दी है। यद्यपि उन्होंने राग की बजाय द्वेष से मुक्त होना सरल जड़ है आत्मा। आत्मा का बुद्धि, इन्द्रिय, देह के साथ संगठन ही जन्म है माना है। वे विरागी बनकर संन्यास लेने की बजाय रागमुक्त होकर और इनका विघटन होना ही मृत्यु है।"यद्यपि व्यक्ति को मृत्यु से बड़ा संन्यास लेने के पक्षकर हैं। वे कहते हैं, "जो व्यक्ति राग को तोड़कर भय लगता है, पर मृत्यु जीवन का यथार्थ है, दुनिया में सब कुछ असली वैराग्य नहीं पाता और संन्यास ले लेता है, वह जिंदगी भर राग अनिश्चित है, पर मृत्यु निश्चित है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है कि को तोड़ने की चेष्टा ही करता है। वह राग को तोड़ता नहीं है, अपितु द्वेष मृत्यु-भय से मुक्त होने के लिए मृत्यु-बोध आवश्यक है। मृत्यु को की ग्रंथियों को और अधिक मज़बूत कर लेता है।" श्री चन्द्रप्रभ का समझना जीवन को सार्थक करने की मानसिक तैयारी है। उनकी दृष्टि मानना है कि वीतरागता की साधना हेतु संन्यास आश्रम अनिवार्य नहीं में, "मृत्यु और कुछ नहीं, जीवन का एक चरण है, जीवन रूपी है अपितु गृहस्थ आश्रम में भी इसकी साधना की जा सकती है। श्री उपन्यास का उपसंहार है, यह जीवन की परीक्षा है। अगर धरती पर चन्द्रप्रभ के दर्शन में वीतराग और वीतद्वेष बनने हेतु निम्न प्रेरणा सूत्र किसी भी प्राणी की मृत्यु न होती तो धरती का रूप कितना भयानक हो प्रदान किए गए हैं -
जाता।"इसलिए श्री चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति को हँसते हुए जीने, हँसते हुए 1.इन्द्रिय विषयों का सजगतापूर्वक सेवन करें।
मरने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "ययाति मत बनो, महावीर और 2.शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श से जुड़े सुख के निमित्तों में राग-द्वेष बुद्ध बनो। हँसते-हँसते जीयो और हँसते-हँसते मरो। गाँधी की तरह न करें।
जीये तो भी धन्य है और मरे तो भी धन्य है। अमरता के राज इस तरह 3.जीवन के द्वार पर मृत्यु को पल-प्रतिपल उतरते हुए देखें। की मृत्यु में ही छिपे हैं।" इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ ने मृत्यु का जीवन
4.वीतरागता का ध्यान करें, उसी का अनुचिंतन करें और किसी से सापेक्ष बोध दिया है। भी द्वेष न करने का संकल्प लें।
श्री चन्द्रप्रभ ने मृत्यु से भयभीत होने की बजाय मृत्यु की ____5. सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, सोना-माटी में स्वयं को सहज- वास्तविकता को समझने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जो व्यक्ति संतुलित रखें।
मृत्यु से डरकर भागता है वह वास्तव में जीने की कला से अनभिज्ञ 6. वासना को विचारों में मूल्य न दें।
है।"उन्होंने मृत्यु-बोध के साथ जीवन-बोध को भी महत्व दिया है। वे इस विवेचन से स्पष्ट है कि मुक्ति और निर्वाण को साधने के लिए कहते हैं, "मृत्यु-बोध से भी बढ़कर है जीवन-बोध। मृत्यु-बोध वीतरागता और वीतद्वेषता अमृत मार्ग है। श्री चन्द्रप्रभ ने वीतरागता को असार को समझने के लिए है और जीवन का बोध सार को उपलब्ध साधने हेतु समता को पहला सोपान माना है। उन्होंने वीतरागता को करने के लिए।"श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को ईश्वर का पुरस्कार माना है मूल्य देने की अनिवार्यता प्रतिपादित की है। राग और प्रेम में विभेद कर और इसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रेरणा दी है। उनका कहना है, "ईश्वर ने श्री चन्द्रप्रभ ने अध्यात्म-जगत को नई दृष्टि प्रदान की है। उनकी हमें जीवन पुरस्कार के रूप में दिया है। जैसा श्रेष्ठ जीवन हम जीएँगे, संन्यास से पूर्व विराग की बजाय राग मुक्ति की प्रेरणा ममक्षओं के लिए हमारी मृत्यु उतनी ही श्रेष्ठ होगी। मरना भी एक कला है परंतु मरना उपयोगी है। वीतराग से पहले वीतद्वेष बनने की प्रेरणा उनके जीवन- तभी आएगा, जब हमें जीना आ जाएगा। मैं मरना सिखाता हूँ, पर यह सापेक्ष नज़रिये को व्यक्त करती है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ के आत्म- भी तभी संभव है जब आप पहले जीना सीख जाएँ।" दर्शन में वीतरागता व वीतद्वेषता के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मृत्यु भय का मूल कारण जीवैषणा को हुआ है।
माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "हमारी जीवैषणा अनन्त है। आत्मदर्शनवमृत्यु-बोध
हमारे भीतर जब तक जीवैषणा रहेगी तब तक हमारी मृत्यु कभी भी
महोत्सव नहीं हो पाएगी।"व्यक्ति ने जीवन के नाम पर देह को ही सब ___जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं : जन्म और मृत्यु । जन्म जीवन
कुछ मान लिया है। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ देह-पोषण से जुड़ गई हैं। की शुरुआत है तो मृत्यु जीवन का समापन। जैसे सूर्योदय होते ही
परिणामस्वरूप इन्द्रिय-विषयों को भोगने में ही उसका जीवन पूर्ण हो सूर्यास्त की यात्रा शुरू हो जाती है वैसे ही जन्म लेने के साथ ही मृत्यु की
रहा है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "खा-खाकर हमने कितनी ओर क़दम बढ़ जाते हैं। जन्म जीवन का पहला सत्य है और मृत्यु
विष्टा कर दी, पी-पीकर हमने कितने कुएँ खाली कर दिए, भोगजीवन का अंतिम। इसलिए जीवन में जन्म के बोध के साथ-साथ
भोगकर हमने स्वयं के शरीर को कृशकाय कर दिया, पर क्या कोई इन मृत्यु-बोध होना भी आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जीने की
सबसे तृप्त हो पाया?" इसलिए जब तक व्यक्ति के भीतर पलने वाली कला के साथ मरना भी एक कला है, जिसे विरले लोग ही जानते हैं।"
देह-मूर्छा नहीं टूटेगी तब तक वह मृत्यु-भय से उपरत होने में सफल उनकी दृष्टि में, "मृत्यु जीवन को समाप्त नहीं करती, अपितु जीवन
नहीं हो पाएगा। श्री चन्द्रप्रभ ने देहभाव से उपरत होने के लिए शरीर व की धाराओं को नए-नए आयाम देती है। जैसे कोई इंसान सीढ़ी से
आत्मा की भिन्नता को समझने की भी प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने देहऊपर चढ़ता है, तो सीढ़ी उसे ऊँचाइयों पर ले जाती है, लेकिन नीचे
मूर्छा से उपरत होने के लिए निम्न सूत्रों को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा उतरने वाले को वह नीचे भी ले आती है। वैसे ही मृत्यु भी एक सीढ़ी है
दी है - जो मानव-जीवन को नए आयाम देती है।"
1. जीवन के हर निमित्त को सहजता, सरलता और समरसता से जीवन वस्तुतः प्रकृति और पुरुष, जड़ और चेतन, शरीर और
स्वीकार करें। आत्मा के संयोग का नाम है। इनका संयोग जन्म है और वियोग मृत्यु।
2.साक्षी भाव को गहरा करें। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को अव्यक्त कहा है जो जीवन के रूप में व्यक्त
3.स्वयं को शरीर,शरीर-भाव और चित्त की तरंगों से अलग देखें। 1.100 » संबोधि टाइम्स
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