SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बजाय धर्म का मर्म समझने की कोशिश करता तो धरती का स्वरूप आज कुछ और ही होता श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक संकीर्णता की कटु आलोचना की और धर्म के नाम पर नफरत या दूरी बढ़ाने के बजाय प्रेम और शांति को प्रसारित करने की शिक्षा दी। वे कहते हैं, "हमने पिछले 2500 सालों तक मंदिर मजहब के नाम पर लड़-लड़कर खोया ही खोया, अगर आने वाले 25 सालों तक हम एक हो जाएँ तो हम 2500 सालों में न कर पाए वो हम मात्र 25 सालों में कर लेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अमुक गली से रामनवमी पर राम की शोभायात्रा नहीं जा सकती तो अमुक गली से मोहर्रम पर ताजिया नहीं निकल सकता, पर उन दोनों गलियों से नगरपालिका का कचरे से भरा ट्रेक्टर तो आसानी से निकल जाता है, जिस पर हमें किंचित् भी आपत्ति नहीं होती। हम धर्म के नाम पर नफरत घोलने के बजाय प्रेम घोलें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ धर्म के नाम पर हमें एक-दूसरे के निकट आने का दृष्टिकोण दिया है। धर्म और क्रियाकांड - धर्म और क्रियाकांड परस्पर जुड़े हुए हैं। जब धर्म केवल क्रियाकांड बन जाता है तो उसकी मूल आत्मा खो जाती है। वर्तमान में धर्म क्रियाकांड मूलक विभेदता में उलझ गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस संदर्भ में क्रांतिकारी टिप्पणी करते हुए कहा है, "सौ वर्ष बाद मकान गिरा देना चाहिए और हजार वर्ष बाद हर धर्म मिटा देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि तब धर्म अपने मूल स्वरूप से विछिन्न होकर मत, सम्प्रदाय और क्रियाकांड का रूप ले लेता है।" उन्होंने धर्म को क्रियाकांड से मुक्त कर उसे नई पहचान दी है। धर्म के क्रियागत स्वरूप में आई विभेदता पर चर्चा करते हुए हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "कोई धर्म कहता है सिर मुंडा कर रखो, दूसरा कहता है जटा बढ़ा कर रखो। कोई कहता है चोटी रखो, कोई कहता है चोटी मत रखो। अब चोटी में भी अलग-अलग रूप। कोई दाढ़ी में धर्म मानता है, पर उसमें भी अलग-अलग रूप। कोई चंदन का तिलक लगाता है, कोई भस्म का, तो कोई कुंकुम का। फिर मालाओं की झंझट - तुलसी की, चंदन की या रुद्राक्ष की पहनें। अब झगड़ा वस्त्रों का कहीं पीताम्बर, कहीं श्वेताम्बर, कहीं वस्त्रों का ही निषेध भोजन करना है तो कहते हैं पात्र में या कर - पात्र में, पात्र में भी लकड़ी का, लौह का या ताम्र पात्र का। चलना है तो कोई वाहन यात्रा स्वीकार करता है, तो कोई पदयात्रा में धर्म मानते हैं, धर्म का बाह्य स्वरूप इतना बिगड़ गया है कि मूल आत्मा तो कहीं खो ही गई है। " इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने बाहरी क्रियाकांडों पर चोट की है और उनसे मुक्त होकर सच्चे धर्म को खोजने और जीने की प्रेरणा दी है। उन्होंने मनुष्यों को अंतर्मन को निर्मल करने की प्रेरणा दी है, उनका मानना है, "हमारा जन्म किसी बनी-बनायी लकीरों पर चलते रहने के लिए नहीं हुआ है। अंतर्मन उज्ज्वल न हो, काम-क्रोध-कषाय तिरोहित न हो, तो उस धर्माचरण का मतलब ही क्या है? हम किसी की पूजापाठ के लिए नहीं जन्मे हम स्वयं पूज्य पावन बनें, ऐसा प्रयास व पुरुषार्थ हो।'' इस तरह श्री चन्द्रप्रभ धर्म के बने-बनाए ढर्रे पर चलने के कम समर्थक हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक जड़-क्रियाओं से बचने और सार्थक तथा उद्देश्यपूर्ण धर्म - क्रियाओं को जीने की सलाह दी है। उनका मानना है, "लोग धर्म के नाम पर जड़वादी हो गए हैं। मैं धार्मिक क्रियाओं का Jain Education International विरोध नहीं करता, जब तक मनुष्य उन क्रियाओं के अर्थ और उद्देश्य को न समझ ले तब तक क्रिया केवल क्रिया है। जैसे सामायिक करना क्रिया है और शांति-समता रखना धर्म है, प्रतिक्रमण करना क्रिया है, लेकिन पाप नहीं करना धर्म है, प्रार्थना करना क्रिया है, पर प्रभु से प्रेम करना धर्म है।" वे कहते हैं, "मुस्लिम रमजान में रोजे रख लेते हैं, ईद को गले मिल लेते हैं, जैनी संवत्सरी पर क्षमापना कर लेते हैं। यह एक ढर्रा - सा बन गया है। अच्छा होगा पहले व्यक्ति एकांत में बैठकर सालभर का चिंतन करे तभी कुछ करना सार्थक होगा।" इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक क्रियाओं को जीवंत करने की प्रेरणा दी है। धर्म और मूर्तियाँ - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मंदिर और मूर्तियों से जुड़ी धर्म-परंपरा पर भी नई दृष्टि प्रदान की गई है। आज धर्म की तरह मंदिर भी बँट गए हैं। मंदिरों में मूर्ति से जुड़े भेद भी बढ़ गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने इन भेदों को अर्थहीन बताया है और भेदों से पार होने का मार्गदर्शन दिया है। वे कहते हैं, "मंदिरों में मूर्तियों के भेद भी निराले हैं, किसी मूर्ति के हाथ में धनुष टाँग दिया तो वह राम की मूर्ति हो गई और उसी हाथ में चक्र रख दिया तो वह कृष्ण में बदल गई। किसी मूर्ति के कंधे पर दुपट्टा रख दिया तो उसे बुद्ध समझ लिया और दुपट्टा हटा दिया तो वे महावीर बन गए। अगर आज का मनुष्य पत्थर पर उकेरी गई दो-चार रेखाओं के आधार पर अपने आपको बाँट बैठा, तो फिर उसकी बुद्धि वैज्ञानिक कहाँ हुई, उसमें दिमागी परिपक्वता कहाँ आई?" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य की संकीर्ण बुद्धि को वैज्ञानिक बुद्धि बनाने की पहल की है। श्री चन्द्रप्रभ नेमंदिरों के साथ परम्परा विशेष और व्यक्ति विशेष के नाम जोड़े जाने पर भी आपत्ति उठाई है। वे कहते हैं, "मंदिर पर तो भगवान का स्वामित्व होता है, लेकिन हमने अपने पंथों का मालिकाना हक उस पर थोप दिया है। अब तो लक्ष्मी या विष्णु के मंदिर नहीं, बिड़ला मंदिर बनते हैं; महावीर या पार्श्वनाथ के मंदिर नहीं, जैन मंदिर कहलाते हैं। सब अपने-अपने नामों के मंदिर बना रहे हैं, सब अपनी ही पूजा-आराधना में लगे हैं, परमात्मा की फिक्र ही किसे है?" श्री चन्द्रप्रभ ने अल सुबह मंदिरों के शिखरों पर स्पीकर लगाकर भजन चलाना, कोई न होने के बावजूद उसे जोर से चलाते रहने को अनुचित माना है। उन्होंने मनुष्य को मंदिर में भौतिक इच्छाओं की परिपूर्ति के लिए जाने के बजाय जीवन में नैतिकता व आध्यात्मिक शांति पाने के लिए जाने की सलाह दी है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मंदिरों से जुड़ी अर्थहीन धारणाओं से बचने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने मंदिरों के प्रतिरा महोत्सव के नाम पर होने वाले अनियंत्रित खर्चों पर भी अंकुश लगाने पर जोर दिया है, वे इसे धर्म और त्याग परम्परा के विरुद्ध मानते हैं। उनका मानना है, "मंदिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर हैलीकॉप्टर या हवाई जहाज से फूलों की वर्षा करना, दो-दो सौ, पाँच-पाँच सौ रुपये मूल्य की महँगी पत्रिकाएँ छपवाना, प्रतिस्पर्द्धा में करोड़ों के चढ़ावे बोलना धर्म की कौन-सी मर्यादा और महोत्सव है ? अब प्रतिष्ठा रात-दिन भगवान की पूजा करने वाले व्यक्ति के बजाय करोड़ों का चढ़ावा बोलने वालों से करवाई जाती है। इससे तो लोग धर्म, मर्यादा, नैतिकता और ईमान से दूर होंगे और जैसे-जैसे संबोधि टाइम्स porg ➤ 125 For Personal & Private Use Only
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy