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________________ शोभायात्रा निकालने का सुझाव दिया। संघ के वरिष्ठ श्रावकों ने उनसे कहा - यह अच्छा नहीं रहेगा, कहीं उसने कुछ गलत कह दिया, या गलत कर दिया तो रंग में भंग पड़ जाएगा। उन्होंने सबको निश्चित रहने को कहा। जैसे ही वह घर आया, शोभायात्रा रुकवाई गई और श्री चन्द्रप्रभ सहयोगी संतों के साथ उसके घर गए। विरोधी श्रावक यह देखकर हक्का-बक्का रह गया। उनकी मुस्कान और नमस्कार मुद्रा देखकर उसकी विरोधी भावनाएँ गायब हो गईं और वह भी हाथ जोड़े खड़ा हो गया। श्री चन्द्रप्रभ ने कहा- हमारे जीवन का सौभाग्य है कि इस शहर में हमें एक श्रेष्ठ और गरिमापूर्ण श्रावक के घर से प्रथम आहार लेने का अवसर मिल रहा है। यह शब्द सुनते ही वह उनके चरणों में गिर पड़ा, उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। वही व्यक्ति उस चातुर्मास में उनका निकटवर्ती भक्त बन गया। परम मातृभक्त एवं भ्रातृत्व प्रेम की अनोखी मिसाल श्री चन्द्रप्रभ के माता-पिता की कुल पाँच संतानें हैं। जब मातापिता ने बुढ़ापे में संन्यास के मार्ग पर कदम बढ़ाने का दृढ़ निश्चय कर लिया तो पाँच संतानों में से सबसे छोटी दो संतानों में श्री चन्द्रप्रभ एवं श्री ललितप्रभ ने भी माता-पिता की सेवा के लिए संन्यास धारण कर लिया। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "हमने न तो वैराग्य की भावना से न मोक्ष पाने की तमन्ना से संन्यास लिया। हमने संन्यास माता-पिता की सेवा करने के लिए लिया है। हमारे लिए समाज बाद में है, पहले मातापिता की सेवा है।" पिता संत श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज का देवलोकगमन मई 2005 में हो गया। साध्वी माँ श्री जितयशा जी अभी संबोधि धाम, जोधपुर में विराजमान हैं और उनकी सेवा में दोनों भ्राता संत अहर्निश समर्पित हैं। दोनों को संन्यास लिए लगभग 35 साल हो चुके हैं और ये दोनों संत पूरे देश में भ्रातृत्व प्रेम की मिसाल बने हुए हैं। ये दोनों कलयुग के राम-लक्ष्मण हैं। ये हर समय सदा साथ रहते हैं और हर कार्य मिलजुलकर करते हैं। वे शरीर से भले ही दो हैं, पर आत्मा दोनों की एक है। , श्री चन्द्रप्रभ का मातृ-प्रेम चमत्कारिक है। जब वे माँ पर बोलते हैं तो सुनने वालों की आँखों से गंगा-जमुना बहने लगती है। उनका 'माँ की ममता हमें पुकारें प्रवचन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है। वे माँ को महात्मा व परमात्मा से भी महान बताते हैं। उन्होंने संतों की साधना व योगियों के योग को भी माँ की साधना के आगे फीका बताया है। उन्होंने माँ को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति माना है। वे कहते हैं - हर व्यक्ति सोचे, अगर माँ न होती तो....! उन्होंने माँ पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी हैं। माँ की सेवा करने की सीख उन्होंने इस प्रकार दी है, "जिस प्रतिमा को हमने बनाया, हम उसकी तो पूजा करते हैं, पर जिस माँ ने हमें बनाया हम उसकी पूजा क्यों नहीं करते?" संत होकर भी माँ पर इतनी गहराई से बोलना आश्चर्यकारी है। वे माँ-बाप को निभाने, उनकी सेवा करने को जीवन में संन्यास लेने से भी ज्यादा कठिन मानते हैं । उनके मातृत्व-प्रेम से जुड़ी घटनाएँ इस प्रकार हैं छाती परकाले निशान क्यों जब मैंने श्री चन्द्रप्रभ की छाती पर जले हुए के हल्के निशान देखे तो उनसे इसका कारण पूछा। उन्होंने बताया कि ये निशान नहीं माँ की ममता के अमिट चिह्न हैं। बचपन से जुड़ी हुई घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा - माँ के ननिहाल में 24 संबोधि टाइम्स Jain Education International - किसी की बरसी का कार्यक्रम था। एक बड़ी कढ़ाई में खीर उबल रही थी। मैं पास में ही लेटा हुआ था। अचानक कढ़ाई के नीचे रखी एक भाग की ईंट खिसक गई। उबलती हुई खीर मुझ पर उछल पड़ी। जिससे शरीर के आगे वाले पूरे भाग पर फफोले हो गए। मुझे डॉक्टर के पास ले जाया गया। इलाज हुआ। डॉक्टर ने माँ से साफ-साफ कह दिया जब तक फफोले के घाव न भरें तब तक बच्चे को सीधा रखना होगा। अगर एक भी फफोला फूट गया तो उस स्थान पर जिंदगी भर के लिए निशान बन जाएगा। माँ ने अपना सुख-दुःख भूलकर मुझे लगभग डेढ़ साल तक सीधा पकड़कर रखा। फिर भी कुछ फफोले फूट गए और ये निशान उसी कारण बने हुए हैं। माँ ने इसके लिए मुझसे माँफी माँगते हुए कहा बेटा, मैंने कोशिश तो बहुत की, पर फिर भी मैं तुझे पूरा बेदाग रखने में सफल न हो सकी। उन्होंने बताया जब मैंने माँ के मुख से ये शब्द सुने तो मेरी आँखें झर-झर बहने लगीं। मैंने माँ से कहा धन्य है आपकी इस ममता को। उस दिन के बाद मुझे माँ की मूरत में ही महावीर और महादेव के दर्शन होने लगे । - माँ की भावना को माना आदेश सन् 1981 की बात है। माँ साध्वी श्री जितयशा जी महाराज के पालीताणा में वर्षीतप चल रहा था। उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ एवं श्री ललितप्रभ को पत्र लिखा कि मेरी बार-बार इच्छा हो रही है कि मैं अपने वर्षीतप का पारणा आप दोनों पुत्र-संतों के हाथों से करूँ, पर मुझे मालूम है कि आप अभी आगरा में हैं और कोलकाता चातुर्मास करने की हाँ भर चुके हैं, अगर संभव हो तो आखातीज पर पालीताणा आ जाओ। उन्होंने पत्र पढ़ा और चिंतन किया कि अब क्या किया जाए। एक तरफ समाज में चातुर्मास खोला हुआ और दूसरी तरफ माँ की भावना । उन्होंने कोलकाता समाज को कहलवाया कि इस साल में हमारा आना संभव नहीं है। वे आगरा से 1500 किलोमीटर की दूरी तय कर प्रतिदिन पचास-पचास किलोमीटर पैदल चलकर ठेठ आखातीज के दिन 11 बजे पालीताणा पहुँचे और माताजी महाराज को अपने हाथों से पारणा करवाया। वास्तव में, उनका मातृत्व - प्रेम सबके लिए आदर्श है। पारिवारिक प्रेम एवं सामाजिक समरसता के अग्रदूत श्री चन्द्रप्रभ पारिवारिक प्रेम एवं सामाजिक समरसता के सूत्रधार हैं। उन्होंने घर-परिवार को स्वर्गनुमा बनाने की सीख दी है। घर के प्रत्येक सदस्य को उसका दायित्व बोध करवाया है एवं हर रिश्ते को मधुरतापूर्ण बनाने के सरल सूत्र दिए हैं। उनके मार्गदर्शन से प्रभावित होकर हजारों युवक-युवतियाँ माता-पिता, सास-ससुर एवं बड़ेबुजुर्गों की सेवा करने लगे हैं। सास-बहू, भाई-भाई, देवरानीजेठानियाँ हिल-मिलजुलकर रहने लगी हैं। माता-पिता बच्चों के संस्कारों के प्रति सजग हुए हैं। उनके द्वारा पारिवारिक प्रेम पर निर्मित यह भजन घर-परिवार के लिए गीता का काम करता है आओ कुछ ऐसे काम करें, जो घर को स्वर्ग बनाए । हमसे जो टूट गए रिश्ते, हम उनमें साँध लगाएँ । हम अपना फर्ज निभाएँ ।। जिस घर को हमने घर माना, उसको हम मंदिर मानें। और मात-पिता को इस मंदिर की पावन प्रतिमा जानें। जितना उन्होंने हमें निभाया, उतना उन्हें निभाएँ । । , For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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