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नम्रता से जीता दिल - दीक्षा लेने के बाद श्री चन्द्रप्रभ पढ़ने हेतु बड़प्पन से जीता दिल- काफी वर्ष पुरानी बात है। श्री चन्द्रप्रभ बनारस गए। वहाँ पर उन्होंने लगातार तीन साल तक दर्शन, व्याकरण, का एक विशेष शहर से विहार होने वाला था। संयोग से उसके दो दिन संस्कृत, प्राकृत, आगम, पिटक, वेद, उपनिषद् व गीता जैसे शास्त्रों का बाद ही एक बड़े संत उस शहर में आने वाले थे। वे उनसे प्रेमभाव नहीं गहन अध्ययन किया। इस दौरान वे संस्कृत-साहित्य और दर्शन-शास्त्र का रखते थे। उन्होंने कई बार उनके विरोध में श्रावकों को पत्र भी लिखे थे, अध्ययन वाराणसी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. पर श्री चन्द्रप्रभ चाहते थे कि यह विद्वेष-भाव यहीं खत्म हो जाए सो नारायण मिश्र से करना चाहते थे। उन्हें पढ़वाने के लिए निमंत्रण भेजा गया। उन्होंने विहार का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। श्री चन्द्रप्रभ ने श्रावकों उन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि सप्ताह में तीन दिन आऊँगा, एक घंटे से को प्रेरणा दी कि संतप्रवर का स्वागत बैंडबाजे के साथ करवाया जाए। ज़्यादा नहीं पढ़ाऊँगा, किसी दिन छुट्टी कर ली तो पैसे नहीं करेंगे और जब यह खबर उनके पास पहुँची तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना ही महीने के छह सौ रुपए लूँगा। इन शर्तों के साथ भी श्री चन्द्रप्रभ को पढ़ना नहीं श्री चन्द्रप्रभ दो कि.मी.चलकर उनकी अगवानी करने के लिए भी पड़ा क्योंकि 30 साल पहले बनारस में उनके जैसा कोई विद्वान प्रोफेसर था पहुँचे। उनको सामने देखकर वे अभिभूत हो उठे। जैसे ही वे उन्हें वंदन नहीं, पर मात्र एक महीने के बाद वे सप्ताह में सातों दिन आने लगे, यहाँ करने के लिए चरणों में झुके तो उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने कहातक कि रविवार को भी छुट्टी नहीं करते, एक घंटे की बजाय दो-दो, चार- आपके बड़प्पन ने मेरा दिल जीत लिया। चार घंटे तक पढाते और महीना होने पर फीस भी नहीं मांगते,आखिर सब प्रेम के प्रबल पक्षधर कुछ ऐसा कैसे हो गया?
श्री चन्द्रप्रभ जितने ज्ञान और ध्यानयोगी हैं उतने ही प्रेम मूर्ति भी। प्रोफेसर के आते ही संत होने के बावजूद श्री चन्द्रप्रभ द्वारा खड़े वे विश्व की सारी समस्याओं का समाधान प्रेम में देखते हैं। उन्होंने हाकर उनका आभवादन करना, पिछलादन पढ़ाए गए पाठा का पूरा भक्ति, श्रद्धा, प्रार्थना, पूजा को प्रेम के ही अलग-अलग रूप माने हैं। तरह याद रखना, आगे के अध्यायों का पढ़ाने के पूर्व अभ्यास कर लेना,
शास्त्रों में साधना के तीन मार्ग बताए गए हैं - (1) ज्ञान (2) श्रद्धा और वाणी-व्यवहार से सदैव उन्हें प्रसन्न रखना जैसे गुणों व श्री चन्द्रप्रभ
(3) आचरण । श्रद्धा को धर्म की आत्मा माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ का की विनम्रता, अभिरुचि, लगन व समर्पण देखकर वे अभिभूत हो गए
हृदय प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की त्रिवेणी से भरा हुआ है। वे स्वयं प्रेम की और तब उन्होंने किसी गुरु की तरह नहीं, अपितु एक पिता की भाँति
साक्षात प्रतिमा हैं। उनके द्वारा रचित प्रेम और भक्ति से भरे गीत गाने पढ़ाना शुरू कर दिया।
योग्य हैं। उनका नेमि-राजुल गीत तो विश्व स्तर पर चर्चित हुआ है, गुरुजी की विनम्रता - सन् 2008 के अगस्त माह में श्री चन्द्रप्रभ जिसके प्रथम बोल है - की जोधपुर के गाँधी मैदान में प्रवचनमाला चल रही थी। किसी संस्था
सौभाग्य कहाँ सहगमन करूँ, अनुगमन करूँ ऐसा वर दो। का वहाँ दोपहर में नाश्ते का कार्यक्रम था। लोग नाश्ता करके कचरा
जो हाथ हाथ में नहीं दिया, वो हाथ शीष पर तो रख दो॥ वहीं फेंककर चले गये। उसके अगले दिन जब वे मैदान पहुँचे तो
श्री चन्द्रप्रभ प्रेमरहित जीवन को अपाहिज के समान और प्रेम कचरा देखकर उसे पांडाल से बाहर फेंकने लगे। मैंने उनसे कहा
युक्त जीवन को अमृत के समान मानते हैं। वे प्रेम रहित प्रार्थना को आप यह क्या कर रहे हैं, हमें कह दिया होता। उन्होंने कहा - क्यों
शब्दजाल, प्रेम रहित पूजा को केवल चंदन का घिसना और प्रेम रहित कचरा उठाना कोई हल्का काम है? भगवान कृष्ण ने भी तो जूठी पत्तले
समाज को उठक-बैठक भर मानते हैं। उनके द्वारा प्रेम की महिमा उठाई थीं, फिर मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकता? उनके इन शब्दों को
अनेक जगह वर्णित हुई है। उन्होंने पत्नी से जुड़ा प्रेम सामान्य कोटि सुनकर वहाँ खड़े लोगों को न केवल कचरा हटाने की प्रेरणा मिली
का, माँ से जुड़ा प्रेम पवित्र कोटि का और परमात्मा से जुड़े प्रेम को प्रेम वरन् जिन्होंने कचरा फेंका था उन्हें भी अपनी गलती का अहसास
की पराकाष्ठा माना है। वे कहते हैं, "प्रभु को माइक पर नहीं, मन में हुआ।
पुकारिए। माइक पर उठी पुकार भीड़भाड़ के शोर में खो जाती है, पर शिष्टता और मर्यादा की जीवंत मूर्ति
मन में उठी पुकार सीधे प्रभु से लौ लगाती है।" उनकी प्रेम और श्री चन्द्रप्रभ दार्शनिक, विचारक और तत्त्ववेत्ता होने के साथ अहिंसा से जुड़ी यह बात कितनी सुंदर है, "चाँटा न मारना अहिंसा हो शिष्टता और मर्यादा की जीवंत मूर्ति हैं। वे वेश बदलकर संत बनने को सकता है लेकिन स्नेह से माथा चूमना अहिंसा का विस्तार और प्रेम की आसान मानते हैं, पर स्वभाव बदलकर संत बनने को वे असली साधना प्रगाढ़ता का ही परिणाम है।" उन्होंने आध्यात्मिक विकास के दो मार्ग मानते हैं। वे उसी आचार-विचार को श्रेष्ठ मानते हैं जिसका परिणाम बताए हैं - एक ध्यान, दूसरा प्रेम। वे ध्यान को स्वयं के साथ और प्रेम सुख,शांति और समाधि के रूप में आता है एवं जो व्यक्ति को परिवार, को इस जगत के साथ जीने के लिए बताते हैं। उनके प्रेमी-हृदय को समाज और देश का कल्याण करने की प्रेरणा देता है। वे जीवन को प्रकट करने वाली एक घटना है - खली डायरी की तरह रखने के समर्थक हैं। उन्होंने लिखा है, "सोचिए प्रेम की ताकत - एक बार श्री चन्द्रप्रभ ने सहयोगी संतों के वही जिसे बोला जा सके और बोलिए वही जिस पर हस्ताक्षर किये जा साथ अपना चातुर्मास मध्यप्रदेश के एक शहर में करने की घोषणा सकें।" उनकी नजरों में, आचार-विचार और कथनी-करणी में दूरी की। वहाँ पहँचते ही उन्हें लगा कि एक अन्य सम्प्रदाय का श्रावक रखना न केवल दूसरों को वरन् खुद को खुद के द्वारा धोखा देना है। वे उनका कट्टर विरोधी बना हुआ है। वह जगह-जगह उनके विरुद्ध सबके साथ प्रेम और मर्यादा से पेश आते हैं। वे विरोधियों के दिल को टीका-टिप्पणी व उल्टी-सीधी बातें करता रहता है। उन्होंने उस भी बड़प्पन भरे व्यवहार से जीतने की कोशिश करते हैं। इस संदर्भ में शहर में चातुर्मास प्रवेश हेतु उसी व्यक्ति के घर से होते हुए श्री चन्द्रप्रभ के जीवन से जुड़ी निम्न घटना उल्लेखनीय है - Jain Education International
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