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________________ बनाने में, संघ प्रतिष्ठा करवाने में लगे हुए हैं। समाज में एक तरफ 'सहधर्मी वात्सल्य' को लड्डू-पेड़े-सिक्के-वस्तुएँ बाँटने और जीमणों और पत्थरों पर करोड़ों का खर्चा हो रहा है, तो दूसरी तरफ जीमणवारी अर्थात् भोजन प्रसादी करने से जोड़ लिया है। लोगों को दो समय की रोटी और सोने के लिए छप्पर भी नसीब नहीं हो परिणामस्वरूप ये सिद्धांत समाजोत्थान में सहयोगी बनने की बजाय रहे हैं। हम मंदिरों का पैसा बैंकों में डालने की बजाय मानव-हित में प्रलोभन और फिजूलखर्ची भर बनकर रह गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने लगाएँ। हम पत्थरों में भले ही करोड़ों खर्च करें, पर गरीब भाइयों को प्रभावना' और 'सहधर्मी वात्सल्य' जैसे सिद्धांतों का मूलार्थ ऊपर उठाने में खर्च करने का बड़प्पन अवश्य दिखाएँ, नहीं तो हमारे समझाकर इनसे जुड़ी वर्तमान व्यवस्थाओं को अर्थहीन व अनुचित भाई अपने धर्म से दूर हो जाएँगे और दूसरे धर्मों को अपना लेंगे।" बताया है। उनका कहना है, "लोगों ने सहधर्मी वात्सल्य को __आर्थिक दौर के इस युग में अर्थ का प्रभाव बहुत बढ़ चुका है। जीमणवारी के साथ जोड़ दिया है। प्रभावना शब्द को भीड़ इकट्ठी समाज में भी सम्पन्न लोगों का प्रभाव दिनोंदिन बढ़ रहा है। श्री चन्द्रप्रभ करने लिए लड्डू या पेड़े बाँटने के साथ संकुचित कर दिया है। ने पैसे की महत्ता को समाज के लिए घातक माना है। इस संदर्भ में चिंता प्रभावना के नाम पर धार्मिक प्रलोभन बढ़ गया है। सहधर्मी वात्सल्य जाहिर करते हुए वे कहते हैं, "नाम खुदवाने के चक्कर में मंदिर पर का अर्थ है : धर्म-मार्ग पर चलने वाले सज्जन लोगों के साथ प्रीति मंदिर बनते जा रहे हैं, प्रतिष्ठा के समय सालभर प्रभुभक्ति करने वाला तो निभाना और उनके प्रति सहयोग की भावना रखना।" कोने में रह जाता है, और पैसा लगाने वाला एक दिन में समाज का श्री चन्द्रप्रभ ने 'जीवित महोत्सव' के नाम पर जीमणवारियों में सिरमौर बन जाता है। उससे पूछो क्या वह 365 दिनों में 65 दफा भी पच्चीस-पचास लाख रुपये खर्च कर लेने भर को धर्म की इतिश्री मान मंदिर जाता है? पैसा लगाने वालों और इकट्ठा करवाने वालों की तो लेना अनुचित बताया है। वे समाज में चंदा एकत्रित कर चार-पाँच समाज में पूछ होती है, लेकिन चरित्रवान और ज्ञानी लोगों को कोई नहीं मिठाइयों का जीमण करने को गलत मानते हैं। उनकी दृष्टि में,"भोज पूछता।" उन्होंने धन से ज्यादा चरित्र को महत्व देने की प्रेरणा दी है। और जीमणवारी केवल सामाजिक व्यवस्था है। यह धार्मिक व्यवस्था उन्होंने चढ़ावा लेने वालों की चारित्रिक प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न तो तब होगी, जब हम इनका उपयोग गरीब और जरूरतमंद लोगों के खड़ा करते हुए कहा है, "जब समाज में किसी तरह का चढ़ावा या लिए करेंगे।" उन्होंने किसी भाई-बहिन के भूखा सोने या शिक्षा और बोलियाँ बोली जाती हैं, तो चढ़ावा लेने वाले को समाज के पदाधिकारी चिकित्सा से वंचित रहने को समाज के लिए कलंक माना है। वे भाग्यशाली घोषित करते हैं, मगर यह तफ्तीश नहीं करते कि वह दान उदाहरण के माध्यम से सहधर्मी वात्सल्य और प्रभावना का अर्थ बताते या चढ़ावा कितनी ईमानदारी या कितनी बेईमानी से आया है। कुछ हुए कहते हैं, "आप जिस मोहल्ले में रहते हैं, उसमें कुछ परिवार ऐसे लोग केवल दिखाने के लिए, किए गए पापों को ढकने के लिए अथवा हैं, जो कमाने में अक्षम हैं, उनके घरों में कमाने वाला कोई नहीं है, समाज में नाम कमाने के लिए धर्म के नाम पर चढ़ावा या बोली बोलते अथवा वे नहीं के बराबर कमा पाते हैं, ऐसी स्थिति में मोहल्ले वालों के द्वारा उन घरों को गोद लेकर उनके भोजन, शिक्षा, चिकित्सा की आजकल संतों के द्वार पर भी अमीरों को जगह मिलने लगी है। वे व्यवस्था की जवाबदारी लेना सच्चा 'सहधर्मी वात्सल्य' और अमीरों से घिरे रहते हैं, उनका ध्यान गरीबों की ओर कम ही जाता है। 'प्रभावना' है। और यही समाज में सामाजिक मूल्यों को लागू करने का इस संदर्भ में महोपाध्याय श्री ललितप्रभसागर ने विचार प्रस्तुत करते वास्तविक तरीका है।" इस तरह उन्होंने समाजोत्थान की जीवंत हुए कहा है, "संत अमीरों को सम्मान जरूर दें, पर गरीबों को व्याख्या कर नई क्रांति लाने की कोशिश की है। नजरअंदाज कदापि न करें। अमीरों के बल पर सत्संग का आयोजन तो श्री चन्द्रप्रभ ने समाज की विविध संस्थाओं के पदाधिकारियों को हो सकता है, पर उसकी सफलता मध्यम और गरीब लोगों के आने से चुनने के लिए होने वाले चुनावों को भी अनुचित ठहराया है। वे कहते ही होगी।अमीर तो हर जगह सम्मान पा लेगा, पर कम से कम संतों का हैं, "समाज सेवा के लिए है, नेतागिरी के लिए नहीं। समाज में कोई द्वार तो ऐसा होना चाहिए, जहाँ गरीबों को भी सम्मान मिल सके उन्हें लड्डू खाने को मिलते हैं, जो तुम आगे आकर चुनाव में खड़े होते हो? भी महसूस हो कि उनका भी समाज में महत्व है। संत लोग अमीरों के समाज में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि समाज के पच्चीस वरिष्ठ लोग साथ गरीबों को भी आशीर्वाद दें ताकि वे भी आगे बढ़ सकें। मंच पर मिलें और रिटायर्ड, अनुभवी, सेवाभावी अथवा समय का भोग देने केवल अमीरों का ही सम्मान न हो, गरीबों को भी अवसर दिए जाएँ, वाले व्यक्ति के पास जाकर कहें कि आप हमारे समाज के अत्यन्त ताकि उन्हें कभी धर्म के द्वार पर अपमान न महसूस करना पड़े।" आदरणीय व्यक्ति हैं। हम चाहते हैं कि अब समाज का मुखिया पद ___ अतीत में कभी भगवान महावीर ने समाजोत्थान के लिए आप सँभालें। जहाँ चुनावी रणनीति को अपनाकर मुखिया पद हासिल व्यसनमुक्ति, अहिंसा, सहयोग और सहभागिता के सिद्धांतों को करना किसी-न-किसी स्वार्थ का बहाना है, वहीं समाज के लोग अनिवार्य बताया था। उन्होंने स्वस्थ समाज की संरचना के लिए किसी व्यक्ति को निवेदन करते हैं और वह व्यक्ति अगर संघ का अपरिग्रह का सिद्धांत अपनाने की भी प्रेरणा दी थी, ताकि अमीर लोग मुखिया बनता है तो उसका मुखिया बनना गरिमापूर्ण है।" इस तरह परिग्रह-बुद्धि का त्यागकर जरूरतमंद भाइयों को सहयोग देकर उन्हें उन्होंने चुनाव-व्यवस्था के संदर्भ में नई नीति प्रदान की है। आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दे सकें। इसी को दूसरे शब्दों में श्री चन्द्रप्रभ समाजों में होने वाली अति मीटिंगों के भी कम 'प्रभावना' और 'सहधर्मी वात्सल्य' भी कहा जाता है। वर्तमान में ये समर्थक हैं। वे मीटिंगों को केवल नेतागिरी और समय की बर्बादी शब्द अपना मूलार्थ खो चुके हैं। संतों और लोगों ने 'प्रभावना' और मानते हैं। उनका कहना है, "लोग समाज में केवल मीटिंगें करते हैं। संबोधि टाइम्स »1290 Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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