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विज्ञान को परस्पर विरोधी नहीं,सहयोगी माना गया है। उन्होंने दोनों के और स्वरूप, समाज और मानवता, समाज-निर्माण में सेवाभावी समन्वय पर जोर दिया है। वे कहते हैं, "विज्ञान भौतिकता से जुड़ा है संस्थाओं का योगदान, समाज की वर्तमान विसंगतियाँ और सामाजिक और अध्यात्म भगवत्ता से जुड़ा है। जीवन में खोज की पूर्णता तभी उत्थान, समानता, संगठन और समन्वय के महत्त्व पर विस्तार से आती है, जब भौतिकता और भगवत्ता - दोनों की खोज पूर्ण होती है। विवेचन हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने समाज को क्या दिया, समाज को सामान्यतया धर्म परम्पराओं ने भौतिकता की, भौतिकता ने धर्म- कौनसी क्रांति दी इत्यादि बिन्दुओं का आगे विवेचन किया जा रहा है। अध्यात्म की उपेक्षा की है, पर मैं दोनों को समान महत्व देता हूँ।"
समाज का स्वरूप - श्री चन्द्रप्रभ ने समाज को नए अर्थ एवं धर्म और ध्यान - श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और ध्यान को परस्पर पूरक स्वरूप में परिभाषित किया है। वे समाज को मात्र जाति विशेष का मानते हुए ध्यानयुक्त धर्म को आत्मसात करने की शिक्षा दी है। उनका समूह कहना उचित नहीं मानते हैं। उनकी दृष्टि में, "समाज उसे नहीं मानना है, "जब तक व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध नहीं होता, धर्म का कहा जाता है, जहाँ मनुष्यों का समूह रहता है, बल्कि समाज तो उसे जन्म नहीं हो सकता। ध्यान धर्म की आत्मा है, धर्म की कुंजी है, धर्म कहा जाता है, जिसके सदस्यों के द्वारा मानवीय और सामाजिक मूल्यों की वास्तविकता है। जिस धर्म का प्राण ध्यान है, उस धर्म का वट-वृक्ष को अपने जीवन के साथ जिया जाता है। वह समाज, समाज होता है, दुनिया को शीतल छाँह देता है। ध्यानविहीन धर्म प्रदर्शन भर है। जीवन जहाँ इंसान, इंसान के काम आता है, जहाँ पर एक इंसान दूसरे के की हर गतिविधि, हर कार्यकलाप ध्यानपूर्वक संपादित होता चला दःख-दर्द में मदद का हाथ बढ़ाता है, एक-दूसरे के साथ संगठित जाए, तो हर कार्य अपने आप में धर्म का स्वस्थ आचरण होगा।" इस होकर अपना आत्म-विकास देखा करता है।" इस तरह उन्होंने परस्पर तरह उन्होंने ध्यान को धर्म की नींव बनाने की आवश्यकता सिद्ध की है। सहयोग एवं संगठन को समाज निर्माण के लिए आवश्यक माना है।
श्री चन्द्रप्रभ ने विवेक को धर्म की आत्मा बताया है और प्रत्येक सामान्यतया व्यक्ति मानव समाज से अधिक ईंट-चूने-पत्थर से निर्मित कार्य विवेकपूर्वक करने की प्रेरणा दी है। उनका कहना है, "खाना- मंदिरों और तीर्थों से पहले मानव समाज को रखते हैं, और उसे धरती पीना, उठना-बैठना सभी धर्म से जुड़े हुए हों, अस्पताल से गुजरते हुए का जीता-जागता मंदिर और तीर्थ कहते हैं। उनका मानना है, "मनुष्य दीवार पर पीक गिराना या पीकदान में, सिगरेट लोगों के बीच जाकर से बढकर कोई मंदिर और मानवता से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं।" पीना या किनारे जाकर, चूल्हा जलाने से पहले बर्नर में बैठे जीवों को
अतीत में महावीर-बुद्ध जैसे महापुरुषों ने भी मानव समाज को, हटाया या नहीं, इन्हीं सब छोटी-छोटी बातों में धर्म के प्राण समाए रहते
साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को धर्म-संघ और हैं।" उन्होंने धर्म को जीने के लिए चार सूत्र दिए हैं - सत्यनिष्ठ जीवन
तीर्थ की उपमा दी थी। श्री चन्द्रप्रभ ने भी मंदिरों का निर्माण करने वालों जीएँ, जरूरत से ज्यादा संग्रह न कर वक्त-बेवक्त औरों के काम आने
की बजाय मानव-समाज का कल्याण करने वालों को महान माना की भावना रखें, अपने शील, चरित्र और प्रामाणिकता पर दृढ़ता से
है।" उन्होंने एक तरफ समाजोत्थान से जुड़ी सेवा-संस्थाओं का कायम रहें और अपने विचारों को किसी पर न थोपें। यदि कोई बुरा
अभिनंदन किया है, तो दूसरी तरफ लक्ष्य से भटक चुकी सामाजिक व्यवहार कर दे, तब भी अपनी ओर से सदा सकारात्मक व्यवहार
संस्थाओं को जागरूक भी किया है। वे कहते हैं, "मैं रेडक्रॉस, रोटरी करें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को व्यावहारिक बनाया है और उसे
क्लब, महावीर इंटरनेशनल, लॉयन्स क्लब जैसी सेवा संस्थाओं, जीवन की प्रत्येक गतिविधि के साथ जोड़ा है। उन्होंने छोटी-छोटी
संगठनों और समूहों का अभिनंदन करना चाहूँगा, जिन्होंने मानव बातों में भी धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि रखते हुए जीवन को
समाज के दुःख-दर्द को कम करने के लिए अनेक कार्य किए हैं और धर्ममय बनाने का संदेश दिया है।
मनुष्य को एक मंदिर मानते हुए नर की सेवा में नारायण की सेवा श्री चन्द्रप्रभ की समाज को देन स्वीकार की है।" उन्होंने मंदिरों और बैंक-बैलेन्सों की व्यवस्थाएँ सोनोवास करने तक सिमट चुकी सामाजिक संस्थाओं को समाज का कल्याण दर्शन में सामाजिक उत्थान के अनेक नए पहलू उजागर हुए हैं। श्री
करने का भी मार्गदर्शन दिया है। उनका मानना है, "निश्चय ही मंदिर चन्द्रप्रभ समाज-निर्माण के प्रति जागरूक हैं। उन्होंने समाज को
भगवान का पूजास्थल है, पर उनका निवास अनाश्रित, बेसहारा लोगों विकासमूलक दिशा देने की कोशिश की है। उन्होंने समाज में प्रचलित
के पास है। मंदिरों में भगवान कभी-कभी साकार होते हैं, पर अंधेअर्थहीन परम्पराओं का निर्भीक होकर खण्डन किया है। विद्यालय
बहरों-गूगों, अनाश्रितों और गौशालाओं में तो उन्हें खड़ा ही रहना और चिकित्सालय जैसे सेवापरक कार्य करने की बजाय केवल मंदिर
पड़ता है, ताकि उन बेसहारों को सहारा दिया जा सके।" बेसहारों का स्थानक-धर्मशाला बनाने, जीमणवारियाँ करने और बैंक-बैलेंसों की
सहारा बनना ही ईश्वर की सेवा बताते हुए उन्होंने दूसरों के काम आने
सहारा बनना व्यवस्थाओं में सिमट चुके समाज को श्री चन्द्रप्रभ ने झकझोरा है।
की सीख दी है। उन्होंने समाज को धार्मिक दृष्टि से ऊपर उठाने के साथ आर्थिक,
सामाजिक विसंगतियाँ- श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान समाज में आ सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक स्तर से भी ऊपर उठाने का चुकी अनेक विसंगतियों का विरोध किया है। उन्होंने समाज में चल मार्गदर्शन दिया है। वे वर्तमान समाज को भगवान महावीर द्वारा स्थापित रहा निरर्थक धार्मिक परम्पराओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है धर्मसंघ से तुलना करते हुए आदर्श समाज के अनेक प्रतिमान प्रस्तुत
समाज के निचले तबके को ऊपर उठाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने गरीब करते हैं। उन्होंने सामाजिक उत्थान के अंतर्गत कमजोर वर्ग को ऊपर भाइयों का भला करने व समाज के कड़वे सच को उजागर करते हए उठाने की विशेष प्रेरणा दी है। उनके समाज दर्शन में समाज का अर्थ कहा है, "आज सारे संत भागवत कथा वाचन में, मंदिर-स्थानक 128 » संबोधि टाइम्स
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