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महर्षि रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ ने बाहरी त्याग की बजाय आंतरिक त्याग को जीने पर ज़ोर दिया है। श्री रमण के अनुसार सच्चा परित्याग मन में है । वे वेश-परिवर्तन या गृहत्याग की बजाय इच्छाओं, वासनाओं और आसक्तियों के परित्याग में विश्वास रखते हैं। उन्होंने आसक्ति रूपी बंधनों से ऊपर उठने के लिए हृदय को विशाल कर समस्त सृष्टि से प्रेम करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ बाहरी त्याग की बजाय भीतरी त्याग को कठिन मानते हैं। वे व्यक्ति को तन की बजाय मन से संन्यासी बनने और घर में रहते हुए संत की तरह जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। उनके अनुसार, "कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी जो व्यक्ति संसार में अनासक्त बना रहता है वह घर में रहते हुए भी संत पुरुष है ।" इस प्रकार दोनों दार्शनिक मनो-परिवर्तन को उत्तम मानते हैं ।
श्री रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ ने समान रूप से अकर्ता भावपूर्वक कर्म सम्पादित करने की दृष्टि प्रदान की है। श्री रमण की दृष्टि में, "व्यक्ति स्व-बोध को बरकरार रखकर बंधन से बच सकता है। वे अकर्ता का अर्थ कार्य के प्रति उदासीनता से नहीं, बल्कि कार्य में अहं का हस्तक्षेप न करना बताते हैं।'' वे कहते हैं, "मैं काम करता हूँ, यह भावना ह बाधा है। 'मैं' से मुक्त होकर कार्य करने पर कार्य तुम्हें बंधन में नहीं डालेगा, यह स्वत: जारी रहेगा।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में कर्म के प्रति आसक्ति को बंधन का मूल कारण माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने अकर्ताभाव के पोषण के लिए साक्षीत्व की साधना करने और हर कृत्य परमात्मा की पूजा मानते हुए करने की प्रेरणा दी है। महर्षि रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में साधना एवं सक्रिय जीवन को परस्पर सहयोगी माना गया है। वे ध्यान को सक्रिय जीवन में बाधक नहीं मानते हैं। श्री रमण की दृष्टि में, " ध्यान का अभ्यास कर्त्तव्य का सम्यक् पालन करने सहयोगी की भूमिका निभाता है। ध्यान करने वाले व्यक्ति का हर
ध्यान की आभा लिए हुए होता है।" श्री चन्द्रप्रभ ध्यान-योग और कर्म-योग को परस्पर सापेक्ष मानते हैं। उन्होंने आत्म-तत्त्व का ध्यान करने को जितना महत्व दिया है उतना ही ध्यानपूर्वक कर्म करने की प्रेरणा दी है। दोनों दार्शनिक ध्यान-साधना की भूमिका के रूप में प्राणायाम को उपयोगी मानते हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि दोनों दार्शनिकों की आध्यात्मिक दृष्टि परस्पर समरूपता लिए हुए है। श्री रमण ने जहाँ ज्ञान-योग पर विशेष बल दिया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान-योग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की महत्ता समान रूप से प्रतिपादित की है।
ओशो एवं श्री चन्द्रप्रभ
वर्तमान जगत की दार्शनिक धारा को नया मोड़ देने में ओशो एवं श्री चन्द्रप्रभ का स्थान महत्त्वपूर्ण है। 20वीं शताब्दी में जन्मे इन दोनों महान् दार्शनिकों ने दर्शन को नए स्वरूप में स्थापित करने में जो योगदान दिया वह इन्हें पूर्ववर्ती दर्शन- धाराओं से अलग स्थापित करता है । यद्यपि दोनों दार्शनिकों ने कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, कबीर सरीखे महापुरुषों के जीवंत संदेशों एवं उनकी साधना पद्धतियों को वर्तमान संदर्भों में प्रस्तुत किया, परंतु जहाँ ओशो ने धर्म दर्शन की वर्तमान में प्रचलित रूढ़ परम्पराओं को
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अस्वीकार किया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने प्रचलित धर्म परम्पराओं की रूढ़ताओं एवं नकारात्मकताओं को कम कर उन्हें जीवन के समग्र उत्थान के रूप में व्याख्यायित करने की पहल की इस तरह ओशो क्रांतदर्शी दार्शनिक रहे और श्री चन्द्रप्रभ जीवन-द्रष्टा सिद्ध हुए।
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ओशो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विवेचन से स्पष्ट है कि वे विशेष अर्थों में नकारात्मक दृष्टिकोण के व्यक्ति थे। उन्होंने सभी धर्मों की नकारात्मकताओं को उजागर कर उन पर प्रहार किया। उनका मिशन था गलत का विरोध करना । वे साधारणतः जहाँ विरोध नहीं दिखता वहाँ भी विरोध खोजते और वाद-प्रतिवाद द्वारा संवाद को जन्म देने की कोशिश करते। इस तरह वे अतीत की वर्तमानगत धार्मिक परम्पराओं एवं श्रृंखलाओं से असंबद्ध प्रतीत होते हैं ओशो का एक और मुख्य उद्देश्य था - विराट ध्यान आंदोलन को जन्म देना। वे ध्यान को जीवन को सार्थकता देने वाला मुख्य आयाम मानते थे। उन्होंने अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बहुत अधिक बल दिया। उन्होंने लोगों को नव-संन्यास प्रदान कर नए मनुष्य को जन्म देने की कोशिश की।
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ओशो ने अपने प्रवचनों में मानव चेतना के विकास से जुड़े हर पहलू को विवेचित किया । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, शिव, शांडिल्य, नारद के साथ आध्यात्मिक जगत के महान पुरुषों आदिशंकराचार्य, कबीर, नानक, मलूकदास, रेदास, गोरख, दरियादास, मीरा और सहजोबाई के पदों पर विस्तृत व्याख्याएँ दीं। योग, तंत्र, ताओं, झेन, हसीद, सूफी जैसी विभिन्न साधना पद्धतियों के गूढ़ रहस्यों को प्रकट किया। राजनीति, कला, विज्ञान, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, लोकतंत्र संभावित परमाणु युद्ध, विश्वशांति, राजनीति, नारी शिक्षा आदि विषयों पर उनकी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि उपलब्ध है। इस तरह ओशो ने जीवन, जगत और अध्यात्म के हर बिन्दु को नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित करने में भूमिका निभाई है।
श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के दर्शन की परस्पर तुलनात्मक समीक्षा करने से ज्ञात होता है कि दोनों दर्शन मुख्य रूप से ध्यान एवं सचेतन साधना से जुड़े हुए हैं। श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने ध्यान-योग को विशेष महत्त्व दिया है और जीवन के कायाकल्प हेतु ध्यान को अनिवार्य बताया है। ओशो कहते हैं, "ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है। साधारणतया हमारी चेतना विचारों से विषयों से, कामनाओं से आच्छादित रहती है। यह अध्यान की अवस्था है। जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामना सिर नहीं उठाती, सारा ऊहापोह शांत हो जाता है और हम परिपूर्ण मौन में होते हैं। वह परिपूर्ण मौन ध्यान है और इसी परिपूर्ण मौन में सत्य का साक्षात्कार होता है।" उन्होंने साक्षी को ध्यान की आत्मा कहा है। साक्षी भाव के अंतर्गत उन्होंने भावभंगिमाओं के प्रति, विचारों के प्रति, अनुभूतियों और भावदशाओं के प्रति होशपूर्ण होने की बात कही हैं ओशो ने ध्यान-विज्ञान नामक पुस्तक में ध्यान की 115 विधियों का जिक्र किया है जिसमें सक्रिय एवं कुंडलिनी ध्यान ऊर्जा जागरण की दो शक्तिशाली विधियाँ मानी गई हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने समग्र मानव जाति के बौद्धिक एवं आध्यात्मिक कायाकल्प के लिए 'संबोधि ध्यान साधना पद्धति प्रतिपादित की। वे कहते हैं, "जीवन की समस्त गतिविधियों को होश और बोधपूर्वक संपादित करना संबोधि साधना की पहली व अंतिम प्रेरणा है। " संबोधि ध्यान अपने आपसे धैर्य और शांतिपूर्वक मुलाकात करने का नाम है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'संबोधि साधना का रहस्य' पुस्तक में संबोधि संबोधि टाइम्स - 115.org
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