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साधना के अंतर्गत ध्यान की पाँच विधियाँ प्रतिपादित की हैं। उन्होंने करना, सारी मानव जाति को एक सूत्र में बाँधना-पिरोना। टूटे हुए दिलों संबोधि ध्यान को महावीर, बुद्ध और पतंजलि तीनों की ध्यान पद्धतियों को आपस में जोड़ना ही धर्म है।" श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "धर्म वक्तव्य का सामंजस्य भी माना है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान-योग, संबोधि, ध्यान : नहीं, मनुष्य का आचरण है।धर्म स्वयं सुख से जीने तथा औरों को सुख साधना एवं सिद्धि नामक पुस्तकों में संबोधि साधना के संदर्भ में से जीने देने की कला है। ऐसा होने पर ही धर्म मानवता की मुंडेर पर विस्तार से विवेचना की है।
मोहब्बत का जलता हुआ चिराग बन पाएगा।" उन्होंने भी धर्म को श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो दर्शन में समाधि पर चर्चा हुई है। ओशो ने
वैज्ञानिक बनाने का समर्थन किया है और 'बगैर वैज्ञानिकता के धर्म मन की मृत्यु को समाधि कहा है। श्री चन्द्रप्रभ ने एकांत, मौन और
जो अंधविश्वास से ज़्यादा कुछ नहीं है ' माना है। ध्यान को समाधि के तीन चरण कहे हैं। उनके अनुसार, "एकांत व
श्री चन्द्रप्रभ व ओशो ने शिक्षा पर भी वर्तमान सापेक्ष दृष्टि दी है। संसार से मौन अभिव्यक्ति से मुक्ति है और ध्यान विचारों से निवत्ति है। ओशो कहते हैं, "तकनीकी ज्ञान, साइंस और ध्यान- ये भारतीय शिक्षा के ये तीनों मिलकर समाधि के द्वार बनते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने आधार बन जाएँ।ध्यान और विज्ञान का संतुलन बने ताकि विज्ञान खतरा न ध्यान-समाधि के लिए 'अप्रमाद' को साधने पर भी बल दिया है। जहाँ बन जाए।" श्री चन्द्रप्रभ का कहना है, "शिक्षा ऐसी हो जो सृजनात्मक हो,
ओशो ने अप्रमाद को साधना की नींव और अहिंसा-सत्य-अस्तेय- रटाऊ कम और समझाऊ ज़्यादा हो। अब सीधे कम्प्यूटरों से पढ़ाई होनी ब्रह्मचर्य-असंग्रह को जीवन में अप्रमाद को घटित करने का आधार चाहिए। हमारी शिक्षा ऐसी हो जो हमें बेहतरीन इतिहास की जानकारी दे, माना है वहीं श्री चन्द्रप्रभ अप्रमाद अर्थात् सचेतनता को संबोधि व वैज्ञानिक विषयों की खोज करवाए, जीने की कला सिखाए, सृजन और मुक्ति की आत्मा कहते हैं।
कला को बढ़ावा दे, ताकि अपराध और आतंक में कटौती आए और मनुष्य श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के दर्शन में योग पर भी विस्तार से प्रकाश
प्रेम और सम्मान से सबके बीच जीने का अवसर पा सके।" डाला गया है। ओशो ने योग को परम सत्य तक पहुँचने का मार्ग बताया
लोकतंत्र के संदर्भ में दोनों दर्शनों में मौलिक विचार प्रस्तुत हुए हैं। है और योग की शरुआत खोज जिज्ञासा व अन्वेषण से मानी है। श्री ओशो वर्तमान लोकतंत्र की पद्धति से असंतुष्ट हैं और उसमें चन्द्रप्रभ के दर्शन में योग शब्द का प्रयोग ध्यान की पर्व भमिका का आमूलचूल परिवर्तन चाहते हुए कहा है, "जो तुम्हारे पास वोट माँगने स्व-पर से जडने के अर्थ में हआ है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं."योग कोई आए, उसे वोट मत देना। जिसे तुम वोट देने योग्य समझो. उसे पंथ-परम्परा नहीं है। अधिक स्वस्थ, अधिक संतुलित और अधिक समझाना-बुझाना कि तुम खड़े हो जाओ, हम तुम्हें वोट देना चाहते हैं। ऊर्जावान जीवन जीने की कला का नाम योग है।" उन्होंने जो तुम्हारे वोट की भीख माँगने आता है, वह दो कौड़ी का है। जिसकी मनोयोगपूर्वक कर्म करने, मनोयोगपूर्वक ध्यान करने, मनोयोगपूर्वक कोई क़ीमत है, आत्मा है, स्वाभिमान है, वह तुमसे कभी भीख माँगने प्रेम और भक्ति करने, मनोयोगपूर्वक सचेतन प्राणायाम व ध्यान करने नहीं आएगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने लोकतंत्र को जाति व दलगत राजनीति से तथा इंसानियत की सेवा करने को भी योग के अंतर्गत माना है। वे योग मुक्त कर मानवीय मूल्यों को महत्व देने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, का संबंध स्वास्थ्य, प्राण ऊर्जा का जागरण, मानसिक शद्धि. मानसिक “अगर हम चाहते हैं कि हमारे देश का विकास हो तो हमें जातिगत शक्ति, आत्म-समाधि और प्रभ-प्रेम से जोडते हैं। वे स्वास्थ्य से लेकर और दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा और हमें उस व्यक्ति का समाधि तक के सफर को योग कहते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने द योग, योग राष्ट्र के लिए उपयोग करना होगा जो स्वयं में किसी विशिष्टता की अपनाएँ ज़िंदगी बनाएँ ध्यान सत्र और आध्यात्मिक विकास नामक संभावना लिए हुए है। हमारे लिए जातीयता का नहीं, इंसानियत का पुस्तकों में योग की विस्तार से व्याख्या की है।
मूल्य हो, मानवता की कद्र हो।" श्री चन्द्रप्रभ व ओशो के दर्शन में धर्म के संदर्भ में भी नवीन दष्टि श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने विश्वशांति की स्थापना पर भी मार्गदर्शन उजागर हई है। जहाँ ओशो ने वर्तमान में चल रहे परम्परागत धर्मों को मत दिया है। ओशो ने विश्व शांति हेतु भीतर से धार्मिक बनने, राजनीति का चट्टान की उपमा दी है और धर्म की बजाय धार्मिकता का पाठ पढाया है। मूल्य कम करने व सरल-साफ हाथों में जीवन की बागडोर देने का सझाव वे कहते हैं, "मेरी दष्टि में धर्म एक गण है.गणवत्ता है. कोई संगठन नहीं दिया है और श्री चन्द्रप्रभ ने विश्वशांति हेतु प्रबुद्ध एवं शांति-प्रधान लोगों कोई सम्प्रदाय नहीं। पृथ्वी पर कोई तीन सौ धर्म हैं। वे सब मर्दा चटटानें हैं। को पूरी धरती पर फैल जाने की प्रेरणा दी है, साथ ही उन्होंने किसी को वे बहते नहीं, वे बदलते नहीं वे समय के साथ चलते नहीं।"ओशो ने धर्म दुःख न पहुँचाने, साम्प्रदायिक सद्भाव का माहौल बनाने और मांसाहारी
और विज्ञान के समन्वय पर जोर देते हुए कहा है, "भारत ने केवल आत्मा को शाकाहारी बनाने के संकल्प लेने का अनुरोध किया है। परमात्मा, स्वर्ग, नरक की फिक्र की जिससे शरीर का, बाहर का जगत श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के दर्शन में परिवार के संदर्भ में भिन्न निरंतर दरिद्र होता गया। ऐसा करके हमने भीतर कुछ पा लिया हो ऐसा नहीं दृष्टिकोण उजागर हुआ है। ओशो ने विवाह-प्रधान पारिवारिक लगता। प्रारंभ में उठाए गए गलत कदमों के कारण हम सर्वथा भटक गए व्यवस्था को प्रेम-प्रधान बनाने की पेशकश की है। वे कहते हैं, और पश्चिम भी केवल बाहर-बाहर रोशन है, भीतर कुछ भी नहीं। उन्होंने "परिवार की बुनियाद में हमने प्रेम को काट दिया है इसलिए परिवार भी प्रारंभ में जो कदम उठाए वे सुनिश्चित रूप से गलत थे, वर्तमान स्थिति एक व्यवस्था है, प्रेम की घटना नहीं, जिससे आत्मा के विकास की उसकी साक्षी है। अब जीवन पथ को बाहर-भीतर दोनों ओर से आलोकित संभावना क्षीण हो जाती है।" उन्होंने अंतर्जातीय और अंतर्देशीय करने के लिए धर्म-विज्ञान का समन्वय आवश्यक है।"
विवाह व्यवस्था का समर्थन करने के साथ विवाह से पहले एक-दूसरे श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में धर्म की नई परिभाषा देते हए कहा गया है. को परखने, साथ में जीने और सोच-समझकर विवाह करने की प्रेरणा "जो धर्म मानवता को बाँटता है.वह धर्म धर्म नहीं इंसानियत के कंधे दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में घर-परिवार को मंदिर बनाने व धर्म की
पर ढोया जाने वाला जनाजा भर है। धर्म का काम है मानवता को एक शुरुआत घर से करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने घर-परिवार को 1.116 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only
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