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धर्म है।'' उन्होंने ' सर्वोदय' को सर्वोत्तम धर्म बताते हुए उसे सभी धर्मों की अच्छाइयों का समन्वय बताया है। श्री चन्द्रप्रभ ने हर धर्म को सत्यानुरागी व सत्याग्राही बनकर समझने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "हर धर्म में दो अच्छी बातें हैं और हर महापुरुष में दो अच्छाइयाँ हम अच्छी बातों को ग्रहण करें व अच्छाइयों का सम्मान करें।" उन्होंने धर्म परिवर्तन करने या धर्मानुयायी बनने की बजाय अच्छा इंसान बनने का पाठ पढ़ाया है। वे क्रियाकांड की बजाय जीवंत धर्म को जीने की प्रेरणा देते हैं। इसके अंतर्गत पारिवारिक दायित्वों को निभाना, माता-पिता की सेवा करना, मानवता का सहयोग करना, हर कार्य को सजगता व अहिंसक तरीके से करना, सत्यनिष्ठ जीवन जीना, ज़रूरत भर संग्रह करना और सबके साथ सकारात्मक व्यवहार करना मुख्य हैं।
विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक विकास हेतु चित्तशुद्धि एवं विकार मुक्ति पर विशेष जोर दिया है। विनोबा भावे ने चित्त-शुद्धि व विकारों से मुक्त होने के लिए निम्न सूत्र दिए हैं -
1. परमात्मा को भीतर व बाहर देखें ।
2. आसक्ति की बजाय विश्व से प्रेम बढ़ाएँ ।
3. चित्त के प्रति साक्षी भाव लाएँ और प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करें। 4. ध्यान, स्वप्न और नींद के दौरान अपने चित्त को परखते रहें। 5. 'मैं मन से अलग हूँ', इसका सतत स्मरण रखें।
6. परमेश्वर का जाप करें और गुणग्राहक दृष्टि अपनाएँ ।
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन-शुद्धि हेतु चित्त-शुद्धि को आवश्यक माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यानयोग को चित्त-शुद्धि का आधार स्तंभ कहा है। ध्यान के साथ उन्होंने चित्त शुद्धि के लिए निम्न सूत्रों का मार्गदर्शन दिया है
1. मन की चंचलता को शांत करें।
2. सांसारिक विषयों के चिंतन से बचें।
3. इच्छाओं पर संयम लाएँ व सबके प्रति मैत्री भाव रखें । आचार्य विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में शिक्षा पर भी महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त हुए हैं। विनोबा भावे ने शिक्षा को बुद्धि एवं अर्थप्रधान के साथ ' सच्चिदानंद' से युक्त करने की सलाह दी है। उनकी दृष्टि में, "हमारी शिक्षा का मूलमंत्र 'सच्चिदानंद' होना चाहिए। सत् है कर्मयोग, जिसके बिना जीवन टिकता ही नहीं, चित् है ज्ञानयोग, जिसके बिना जीवन जड़ बन जाता है और 'आनंद' के बिना जीवन में कोई रस नहीं रहता।" वे यौन शिक्षा देने के समर्थक नहीं हैं। उन्होंने विद्यार्थियों को शरीर से मजबूत बनने, पौष्टिक आहार लेने व इन्द्रियों पर संयम रखने की बात कही है। श्री चन्द्रप्रभ ने सफल कॅरियर बनाने के लिए बेहतरीन शिक्षा प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान शिक्षण पद्धति का समर्थन किया है, पर साथ ही उसमें जीवन-दृष्टि व विचारों को बेहतर बनाने वाली शिक्षा का समावेश करने की सलाह दी है। वे शिक्षा में चल रहे जातिगत आरक्षण को गलत मानते हैं। उन्होंने शिक्षा स्तर को ऊपर उठाने के लिए छोटे परिवार को उचित बताया है। उन्होंने अभिभावकों को शिक्षा क्षेत्र में लड़के-लड़की के बीच भेदभाव न करने की और युवाओं को कॅरियर बनाने के बाद ही शादी के बारे में सोचने की प्रेरणा दी है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि दोनों दर्शन जीवन निर्माण और मानवीय उत्थान के करीब हैं। दोनों दार्शनिकों ने सामाजिक एवं 112 > संबोधि टाइम्स
आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। दोनों दर्शन भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के प्रतीत होते हैं ।
जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ
वर्तमानकालीन दार्शनिकों में जीवन और अध्यात्मपरक तत्त्वों को नए ढंग से प्ररूपित करने में जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ का महत्त्वपूर्ण योगदान हैं। जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने अपने दर्शन में बाह्य परिवर्तन की बजाय आंतरिक परिवर्तन पर बल दिया है। उन्होंने धर्म-अध्यात्म से जुड़ी परम्परागत मान्यताओं का खण्डन किया। उन्होंने पंथ-परम्पराओं का अनुयायी बनने की बजाय सत्य प्रेमी बनने की प्रेरणा दी। वे स्वबोध और सजगतापूर्वक जीवन जीने में विश्वास रखते हैं। दोनों दार्शनिकों ने ध्यान योग को जीवन के समग्र विकास के लिए आवश्यक बताया। इस तरह दोनों दर्शन भिन्न होते हुए भी निकटता लिए हुए हैं।
जे. कृष्णमूर्ति के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वे संबुद्ध स्थिति को उपलब्ध थे। वे पूर्व एवं पश्चिम की संस्कृतियों एवं परिस्थितियों से पूरी तरह परिचित थे। वे डॉ. एनीबेसेंट के निर्देशन में स्थापित 'आर्ट ऑफ दि स्टार' संस्था के प्रमुख थे, पर सत्य प्राप्ति के पश्चात् इन्होंने इस संस्था का विलय कर दिया। जे. कृष्णमूर्ति अनुयायी बनाने के पक्ष में नहीं थे। इन्होंने पंथ, धर्म, दर्शन की स्थापना की बजाय सत्य ज्ञान के विस्तार पर ज़ोर दिया। इन्होंने सुधार एवं विकास के लिए स्थापित विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक संगठनों को भी विकास विरोधी बताया जे. कृष्णमूर्ति के दर्शन में जीवन तत्त्व, आंतरिक क्रांति, धर्म, मुक्ति, सत्य, हिंसा, भय, ध्यान, संगठन, अहं, प्रेम, शिक्षा, मृत्यु जैसे बिन्दुओं पर प्रभावी मार्गदर्शन प्राप्त होता है।
जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक विवेचना से स्पष्ट होता है कि दोनों दर्शनों में जीवन तत्त्व को महत्त्व दिया गया है एवं जीवन को आनंदपूर्ण तरीके से जीने की प्रेरणा दी गई है। जे. कृष्णमूर्ति ने परम सत्ता को जीवन तत्त्व के रूप में अभिहित किया है। उन्होंने इसे नाम, रूप, आकार के बंधनों से और पंथ, जन्म, मृत्यु, नरनारी आदि सभी भेदों से परे माना है। साथ ही इसका अस्तित्त्व प्राणीमात्र में प्रकृति में सर्वत्र स्वीकार किया है। वे कहते हैं, " सर्वत्र मैं स्वयं ही हूँ । अखिल जीवन मेरा ही स्वरूप है, वह मुझी में है - यह व्यापक स्व- शून्य अनुभूति ही साक्षात्कार का रूप लेती है।" उन्होंने प्राणिमात्र में जीवन तत्त्व को देखने व सभी तरह के बंधनों से मुक्त होने का मार्गदर्शन दिया है।
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श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को प्रकृति प्रदत्त सर्वश्रेष्ठ उपहार माना है और इसका पल-पल आनंद लेने की सिखावन दी है। उन्होंने जीवन और जगत को धरती के सबसे बड़े शास्त्र माने हैं। वे कहते हैं, “पुस्तकें मनुष्य के प्रबुद्ध होने में सहायक बनती हैं, पर किताबें अंतिम सीढ़ी नहीं हैं। सीखने, पाने और जानने की ललक हो, तो सृष्टि के हर डगर पर वेद, कुरआन, बाइबिल के पन्ने खुले और बोलते हुए नज़र आएँगे।" उन्होंने जीवन को आनंदपूर्ण बनाने के लिए निम्न प्रेरणाएँ दी हैं
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