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हुआ है।"
स्वयं के भारतीय होने पर गौरव होना चाहिए। गौरव इसलिए नहीं कि के स्वरूप का भी चित्रण किया है। उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति की केवल यह हमारी मातृभूमि है बल्कि इसलिए कि हम उस संस्कृति के बुराई करने के बजाय उसकी अच्छाइयों से प्रेरणा लेने की सीख दी है। संवाहक हैं, जिसने सारे संसार को विश्व-मैत्री, विश्व-प्रेम और वे कहते हैं, "यद्यपि विदेशों में लोग सेक्स और शराब का खुलकर विश्व-बन्धुत्व का संदेश दिया है।" यद्यपि भारत में आइंस्टीन जैसे उपयोग करते हैं, पर वहाँ की सड़कें हमारी तरह टूटी-फूटी नहीं हैं,
वैज्ञानिक या सिकन्दर जैसे सम्राट पैदा न हुए फिर भी भारत विश्वगुरु यहाँ गली-गली में गंदगी है और वहाँ सब जगह सफाई है, कहलाया। भारत के विश्वगुरु कहलाने के पीछे क्या कारण थे? भारत प्रामाणिकता है, समय की पाबंदी है, विकसित सोच है, प्रतिभा का की आत्मा क्या है? इसकी विवेचना करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, सम्मान है, जात-पाँत का भेद नहीं है। अगर हमारे देश में इन कमियों "भारत को विश्वगुरु का दर्जा इसलिए प्राप्त है, क्योंकि इसने विश्व को और अव्यवस्थाओं को दूर कर दिया जाए तो भारत संसार में श्रेष्ठ बन राम के रूप में मर्यादा और शौर्य प्रदान किया है, कृष्ण के रूप में उदात्त जाएगा। हम दूसरे देशों की अच्छाइयाँ यहाँ लाएँ और यहाँ की कर्मयोग की शिक्षा दी है, महावीर के रूप में अहिंसा का अमृत प्रदान अच्छाइयाँ पूरी मानवता तक पहुँचाएँ।" वे न केवल भारत की वर्तमान किया है, बुद्ध के रूप में महाकरुणा दी है। भारत की आत्मा ताजमहलों विकृतियों पर कुठाराघात करते हैं, वरन् उनके कारण और निवारण का या कुतुबमीनारों में नहीं, वह तो इस देश की सहिष्णुता और शूरवीरता भी व्यावहारिक मार्ग देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने भारत की समस्याओं का जो में,शांति और मर्यादा में, अहिंसा और करुणा में मिलेगी।" भारत की समाधान दिया है वह इस प्रकार हैमुख्य विशेषता का विवेचन करते हुए उन्होंने कहा है, "भारत ही एक 1. जातिगत संकीर्णता - भारतीय संस्कृति में वर्ण-व्यवस्था ऐसा देश है, जो अहिंसा, शांति और भाईचारे की नींव पर टिका हुआ विद्यमान रही है। यहाँ चार वर्णों की अवधारणा दी गई - ब्राह्मण, क्षत्रिय, है? यहाँ पर सभी धर्मों को पल्लवित एवं पुष्पित होने का अधिकार वैश्य और शूद्र । यह वर्ण-व्यवस्था जन्म की बजाय कर्म-प्रधान थी।धीरेमिला है। इसी समन्वयमूलक दृष्टि के चलते भारत पूरे विश्व में समादृत धीरे वर्ण-व्यवस्था कर्म की बजाय जन्म से जुड़ गई, परिणामस्वरूप वर्ण
व्यवस्था ने जातिगत संकीर्णता का रूप धारण कर लिया। भारत की श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में भारत का अभिप्राय किसी जमीन के सरकारों ने जातिगत संकीर्णता को दूर करने और निचली जातियों को ऊपर टुकड़े से नहीं जोड़ा गया है। वे भारत को एक महान विचार और एक उठाने के अनेक कदम उठाए, पर राजनेताओं ने जातिगत राजनीति करके महामार्ग के रूप में देखते हैं। उनका कहना है, "भारत किसी क्षेत्र- राष्ट्रीय भावना को बहुत क्षति पहुँचायी।वर्तमान में जातिगत संकीर्णता देश विशेष का नाम नहीं है। भारत अपने आप में एक विचार है। यह एक के सामने बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। परम्परा, एक संस्कृति और प्रबल पुरुषार्थ का नाम है। भारत भले ही श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जातिगत संकीर्णता पर समग्रता से चिंतन चन्द्रलोक तक न पहुँचा हो, लेकिन जहाँ पहुँचा है, वहाँ दुनिया का हुआ है। उन्होंने जाति को जीवन से जोड़ने की बजाय केवल पहचान कोई भी देश न पहुँच पाया और वह व्यक्ति का स्वयं का सत्य है।"अब भर से जोड़ने की सीख दी है। वे कहते हैं, "जन्म से कहीं कोई भेद तक हिन्दू शब्द को एक विशेष धर्म या सम्प्रदाय तक सीमित माना गया, नहीं होता, जो भेद होते हैं, वे सब जातिगत हैं। जाति मात्र हमारी पर श्री चन्द्रप्रभ ने हिन्दुत्व की नई परिभाषा देते हुए कहा है, "हिन्दू पहचान के लिए है, न कि जीवन-निर्धारण के लिए।" उन्होंने जातीय कोई धर्म नहीं वरन् एक विचार है, एक परम्परा है, संस्कृति, संस्कार समीकरणों से ऊपर उठने और इंसानियत से प्रेम करने की प्रेरणा दी है।
और जागरण का संदेश है। जो अपनी हीनताओं को दूर करे वह व्यक्ति उनका कहना है."जातियाँ केवल हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए . हिन्दू है।" इस तरह हिन्दू केवल सनातनी या आर्यसमाजी व्यक्ति ही हैं। अच्छा होगा हम स्वयं को जातीय समीकरणों से ऊपर लाएँ और नहीं, वरन् जैन, बौद्ध, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई व्यक्ति भी हिन्दू अपनी प्रतिभा का सम्पूर्ण राष्ट्र और समाज के लिए उपयोग करें। हर हो सकता है।
कोई एक-दूसरे का भाई है, फिर चाहे वह हरिजन हो या वैष्णव, श्री चन्द्रप्रभ भारतीय संस्कृति का संबंध केवल आत्मकल्याण बाह्मण हो या क्षत्रिय हमारे लिए जातीयता या रंग का नहीं, इंसानियत करने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति से नहीं जोड़ते वरन् वे उसे का मूल्य हो,मानवता की पूजा हो।" आत्मरक्षा का पाठ करने वाली संस्कृति भी मानते हैं। उन्होंने प्रत्येक श्री चन्द्रप्रभ ने प्राणीमात्र की समानता को लोकतंत्र का आधारव्यक्ति को एक हाथ में माला तो दूसरे हाथ में भाला रखने की सिखावन स्तंभ माना है। उनकी दृष्टि में, "लोकतंत्र का अर्थ यही है कि हर दी है। उनके अनुसार, "हर आदमी के एक हाथ में माला और दूसरे सामान्य और असामान्य मनुष्य समान है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति हाथ में भाला रहना ही चाहिए। माला इसलिए कि तुम अपनी आत्मा को भी ऊँचे पद, वैभव और सफलता की मीनारों को छूने का अधिकार का कल्याण कर सको, निरंतर परमात्म-शक्ति से प्रेरित रहो, ताकि है। केवल ऊँची जाति में जन्म लेने मात्र से कोई ऊँचा या नीचा नहीं हो तुम्हारी नैतिकता सदैव तुम्हें मार्ग दिखाती रहे और भाला इसलिए ताकि जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जातिगत आरक्षण को देश का कोई तुम्हारे देश की सरहद पर, तुम्हारे पवित्र स्थलों पर, तुम्हारी बहू- दर्भाग्य कहा गया है। उन्होंने जातिगत आरक्षण को प्रतिभा-हनन का बेटियों पर गलत नजर न डाल पाए।"
मुख्य कारण बताया है। वे कहते हैं, "आरक्षण से देश का विकास कम, इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने भारतीय संस्कृति की महानता को प्रकट ___ बँटवारा ज्यादा हुआ है। इसका लाभ गरीबों की बजाय जाति विशेष किया है। उन्होंने एक ओर भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष को गरिमा को मिल रहा है। न्यायपालिका, राज्यसभा और लोकसभा इस बिन्दु पर के साथ रखा है, तो दूसरी ओर अनेक समस्याओं से घिरे वर्तमान भारत सोचे और सुधार करे। जहाँ पर प्रतिभाओं का निर्माण और सम्मान होता
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