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________________ अंतर्दृष्टि और अंतर्बोध के साथ जीवन जीने की कोशिश करना । भगवान बुद्ध ने 'संबोधि' को ज्ञान की पराकाष्ठा के रूप में लिया है और भगवान महावीर ने बोधि को दुर्लभ कहा है वहीं पतंजलि ने बोध को समाधि का परिणाम माना है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संबोधि शब्द सरल अर्थों में 'समझ' और विशेष अर्थों में 'तत्त्वबोध' व 'आत्मबोध' का परिचायक है । संबोधि साधना की उपयोगिता संबोधि का संबंध बोध से जुड़ा हुआ है। जीवन के हर क्रियाकलाप को, संवेदन और व्यवहार को बोधपूर्वक संपादित करने का नाम ही संबोधि साधना है। साधना के दृष्टिकोण से देखें तो साधना का प्रारम्भ बोध से होता है। बिना बोध के साधक तो क्या, आम आदमी के लिए भी जीवन जीना मुश्किल है संबोधि साधना मनुष्य को होश एवं बोधपूर्वक जीवन जीने की कला प्रदान करती है। श्री चन्द्रप्रभ होश एवं बोध को संबोधि साधना की नींव मानते हैं। होश एवं बोध की व्याख्या करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यानपूर्वक जीवन जीना होश है और ज्ञानपूर्वक जीवन जीना बोध है।" बुद्ध और बोध एकदूसरे के पर्याय हैं। बुद्ध यानी जगा हुआ और बोध यानी जागरण। व्यक्ति संबुद्ध बने - यही संबोधि साधना का मुख्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने में संबोधि साधना के प्रयोग बेहद उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। संबोधि साधना में आरोपित संयम जीवन जीने की बजाय बोधपूर्वक संयम जीवन जीने की प्रेरणा दी जाती है। श्री चन्द्रप्रभ स्वयं बोध में विश्वास रखते हैं। उनकी दृष्टि में, "ओड़ा गया संयम सहजता को असहज बना देता है।" संबोधि-साधना से आरोपित या शाब्दिक मुक्ति के नहीं, सहज मुक्ति के द्वार खुलते हैं । यह अनासक्ति से आत्म-प्रकाश को उपलब्ध करने का क्रमिक मार्ग है। संबोधि साधना का दर्शन कहता है : बोध से अनासक्ति का फूल खिलता है, अनासक्ति से आत्मभाव प्रगाढ़ होता है । आत्मभाव से साधना में त्वरा आती है और यही त्वरा हमें संबोधि की सुवास, परमात्मा का प्रकाश देती है। संस्कारों को गहराई से समझने के लिए बोध आवश्यक है। व्यक्ति किसी भी पंथ, धर्म, जाति का अनुयायी हो, पर वास्तव में वह अपने संस्कारों का अनुयायी होता है। श्री चन्द्रप्रभ इस संदर्भ में कहते हैं, ‘“व्यक्ति के लिए किसी भी धर्म का अनुयायी होना आसान है, पर जीवन का बोध प्राप्त करना कठिन है।" बोध ज्ञान प्राप्त करने से नहीं, स्वयं के अज्ञान को पहचानने से होता है। वर्तमान मनुष्य की स्थिति का चित्रण श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में इस तरह हुआ है, " आज व्यक्ति ज्ञानी तो बना हुआ है, लेकिन उसमें बोध की दशा नहीं है, ज्ञान के नाम पर वह किताबों का पंडित भर बन गया है। " संबोधि-साधना में बोध को साधने के लिए सजगता व जागरूकता पर बहुत अधिक बल दिया गया है। व्यक्ति क्या करता है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन करते समय उसके भीतर कितनी सजगता है, इसे संबोधि में मुख्य स्थान दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने बोध और निर्जरा (कर्मबंधन से मुक्ति) का अंतर्संबंध उजागर करते हुए कहा है, "व्यक्ति यदि अपने चित्त में उठने वाली हर तरंग के प्रति सजग और बोधपूर्ण हो जाए तो उसके क्रोध और कषाय, काम और विकार का आस्रव अर्थात् उदय व आगमन तो होगा, लेकिन बोध की दशा में रहने पर उदीयमान आस्रव निर्जरा के कार्य को प्राप्त कर लेगा ।" श्री 80 > संबोधि टाइम्स Jam Education International चन्द्रप्रभ ने बोध को क्रोध मुक्ति में भी सहायक माना है। क्रोध आज की आम बीमारी है, जिसके घातक परिणाम आते हैं। अगर व्यक्ति बोध दशा को बढ़ाए तो वह इससे बच सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "क्रोध को हम रोक नहीं सकते, अगर हम क्रोध भी होश व बोधपूर्वक करें तो क्रोध के कारण जो अन्य उद्वेग उठते हैं, वे व्यक्त नहीं होंगे, जिससे क्रोध अपने आप शिथिल हो जाएगा।" इस संदर्भ में 'संबोधि साधना का रहस्य' नामक पुस्तक में उदाहरण भी दिया गया है। जैसेघर में पति-पत्नी अथवा कोई भी झगड़ रहे हों, ऊँची आवाज़ में बोल रहे हों, तभी अचानक घंटी बज जाए. कोई आ जाए तो आधे मिनट में ही उनकी चित्त दशा बदल जाती है। अर्थात व्यक्ति की मनोधारा बदल सकती है, अगर वह जागरूक रहना सीख जाए। जहाँ अब तक व्यक्ति को शास्त्रों को पढ़ने की प्रेरणा दी गई वहीं संबोधि साधना ख़ुद को पढ़ने, स्वयं की अन्तर्दशा को गहराई से देखने की कला सिखाती है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन-जगत को सबसे बड़ा शास्त्र मानते हैं। उनका दर्शन है, " शेक्सपियर के नाटक, टैगोर की गीतांजलि, महात्मा गांधी या टॉलस्टाय की आत्मकथा पढ़ने से बेहतर है कि हम अपने-आपको पढ़ें जो जीवन परिवर्तन के लिए प्रभावकारी सिद्ध होगी।" श्री चन्द्रप्रभ शास्त्र ज्ञान और संन्यास से भी ज़्यादा बोध को महत्व देते हैं। वे कहते हैं, “कोई कितनी भी ध्यान की बैठक लगा ले, , चाहे संन्यास भी ले ले, लेकिन जब तक भीतर का बोध उजागर न हो तब तक शास्त्रों का ज्ञान दिमाग़ की खुजली घर व संन्यास का वेश इज्जत और मान-मर्यादा देने का आधार मात्र होगा।" इस तरह संबोधि साधना केवल आँख बंद कर बैठने का नाम नहीं है वरन् बोधपूर्वक जीवन जीने की कला है। बोध दशा को गहरा करने के लिए अतीत में कभी महावीर ने अनुपश्यना और बुद्ध ने विपश्यना का मार्ग दिया था वैसे ही संबोधि साधना में 'साक्षी ध्यान' पर ज़ोर दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "उठते-बैठते, आती-जाती श्वास पर सचेतनता साधें । काया में कोई गुणधर्म उठ रहा है तो उस पर ध्यान दें कि अभी काया में यहाँ दर्द अथवा अमुख संवेदन उठ रहा है। जो भी हो, उसके प्रति बोध रखें। इस बोध, सजगता से हम खाते-पीते, उठते-बैठते चौबीस घंटे ध्यान को जी सकते हैं। " श्री चन्द्रप्रभ ने होशपूर्वक चलने, होशपूर्वक खाने, संबोधि साधना में मल-मूत्र का विसर्जन करने, कचरा- कूड़ा फेंकने, होशपूर्वक बोलने, होशपूर्वक वस्तुएँ उठाने व रखने की प्रेरणा दी है। यहाँ तक कि जूते भी ध्यान एवं बोधपूर्वक खोलने की सीख दी गई है। इससे सिद्ध होता है कि संबोधि साधना ध्यान के साथ जीवन की हर गतिविधि को ध्यानपूर्वक करने की प्रेरणा देती है जो कि व्यावहारिक जीवन के विकास के लिए बेहद उपयोगी है। डॉ. दयानंद भार्गव कहते हैं, "सच्ची साधना वही है जो हमारे दैनंदिनी जीवन को नैतिक और स्वच्छ बनाए।" संबोधि-साधना इस मायने में सही प्रक्रिया सिद्ध होती है। संबोधि - ध्यान की प्रयोगात्मक विधियाँ ध्यान चित्त की एकाग्रता है। संबोधि ध्यान के सारे प्रयोग चित्त की एकाग्रता साधने के साथ चित्त-शुद्धि एवं चित्त- मुक्ति से जुड़े हुए हैं। जैसे सूरज की रोशनी को आइने में लेकर कहीं प्रक्षेपित किया जाए तो आग पैदा हो जाती है, वैसे ही एकाग्र चित्त को भीतर में कहीं केन्द्रित किया जाए तो उस स्थान पर चमत्कारी अनुभव होने लगते हैं । संबोधि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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