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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES
Published under the Authority of the
Government of His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda.
PARAS'URĀMAKALPASŪTRA
PART II
NITYOTSAVA
Volume XXIII
Page #3
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Page #4
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नित्योत्सवः
उमानन्दनाथरचितः
NITYOTSAVA
BY
UMANANDANATHA
[SUPPLEMENT TO PARASURAMA-KALPA-SUTRA]
EDITED BY
A. MAHADEVA SASTRI, B.A.
DIRECTOR, ADYAR LIBRARY, ADYAR, MADRAS
Author of the Vedic Law of Marriage, etc., the English translation of Sankaracharya's Commentary on the Bhagavad-Gita and Taittiriya Upanishad. Late Editor of the Mysore Government Oriental Library Sanskrit Series, Editor of the Adyar Library Series
BARODA
CENTRAL LIBRARY
1923
Page #5
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Printed by J. R. Aria at the Vasanta Press, Adyar, Madras and published by Newton Mohun Dutt, Curator of Libraries, Baroda State, on behalf of the Government
of His Highness the Maharaja Gaekwad, at the Central Library, Baroda.
Page #6
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PREFACE
In the preface to the Parasurāma-Kalpa-Sutra, Part I, all that needs be said with reference to Nityotsava has been said. It only remains to mention the MSS. on which this edition of Nityotsava is based.
They are as follows:
1. A grantha manuscript copy of the Adyar Library, No. XXXV B 103; cited as 34.
2. Another grantha manuscript copy of the Adyar Library, No. VIII F 18; cited as 37 9.
3. A grantha manuscript copy kindly lent by Mr. M. V. Srinivasa Iyer of Triplicane, Madras; cited as sft.
4-6. Devanagari MS. copies of Central Library, Baroda, Acc. Nos. 183, 4637, 5572; cited as a 9, ar, a respectively.
7. A Telugu MS. copy borrowed by Pandit R. Avantakrishna Sastri from the owner in the Nizam’s Dominions, cited as 97.
Of these No. 3 is the most carefully prepared copy. The others are all tolerably correct, except for some clerical errors. Two or three of these MSS. contain each here and there passages not found in the other MSS. Of these the important and useful ones have been embodied in this edition, the source being noted in each case.
A. MAHADEVA SASTRI
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पुटसङ्ख्या
विषयसूचिका विषयः
आरम्भोल्लासः प्रथमः-दीक्षाक्रमः भूमिका दीक्षाकालनिर्णयः . गुरुलक्षणम् . शिष्यलक्षणम् . गुरुवरणम् . क्रमप्रवर्तनपूर्वकं शिष्याह्वानम् . त्रैपुरसिद्धान्तः । मन्त्रोपासनम् . उपासकधर्माः . सर्वसारभूतो धर्मः. दीक्षाऽऽवश्यकत्वम् शाम्भवी दीक्षा . शाक्ती दीक्षा . मांन्त्री दीक्षा . दीक्षात्रये मुख्यगौणपक्षौ . इष्टमन्त्रदानम् . समयाचारानुशासनम् . कुलधर्मनिष्ठाफलम् . शिष्यस्य परचिद्रूपापादनम् . सर्वमन्त्राधिकारलाभ: तत्तत्क्रमानुष्ठाने दीक्षाव्यवस्था . अधिकारिनिर्णयः .
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पुटसङ्ख्या
.
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विषयः
तरुणोल्लासो द्वितीयः-गणपतिक्रमः उपोद्धातः . काल्यकृत्याह्निकयोर्विशेषः । चतुरावृत्तितर्पणसंकल्पादि . चतुरावृत्तितर्पणम् . पूजाविधिः यागमन्दिरागमनादि विघ्नोत्सारणान्तम् शिखाबन्धनादि मातृकान्यासान्तम् षडङ्गन्यासः . ध्यानम् . अर्ध्यसंस्कारः . पीठे प्राणप्रतिष्ठा . पीठशक्तिपूजा . धर्माद्यष्टकपूजा . महागणपतिपूजा . महागणपतितर्पणम् षडङ्गपूजा .
ओघत्रयपूजा . दिव्यौघः सिद्धौघः मानवौधः दिव्यौघपाठान्तरम् सिद्धौघपाठान्तरम् . मानवौघपाठान्तरम् आवरणार्चनम् . प्रथमावरणम् . द्वितीयावरणम् . तृतीयावरणम् . चतुर्थावरणम् .
२४
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.
६
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विषयः
पुटसङ्ख्या
पञ्चमावरणम् . . गणनाथस्य पुनस्तर्पणं, षोडशोपचारपूजा च अग्निकार्यम् . बलिदानम् . तर्पणजपस्तोत्राणि. सदाशिवप्रोक्तं गणेशाष्टकम् .
सुवासिनीपूजा .
.
.
. ३३
पुरश्चरणविधिः .
यौवनोल्लासस्तृतीयः-श्रीक्रमः १-आह्निकप्रकरणम्
गुरुध्यानम् . प्राणसंयमनम् चिद्विमर्शः . हृदा मूलावृत्तिः रश्मिमालास्मरणम् . अजपागायत्रीभावनम् . भूप्रार्थनादि मुखक्षालनान्तम् स्नानविधिः
सन्ध्याविधिः २-सपर्याप्रकरणम् .
यागमन्दिरप्रवेशः . श्रीचक्रपरिकल्पनम् . यन्त्रप्राणप्रतिष्ठा . मन्दिरार्चा. वर्धनीपात्रनिधानादि दीपप्रज्वालनान्तम् भूतशुद्धिः . आत्मप्राणप्रतिष्ठा . प्रत्यूहोत्सारणम् . ..
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विषयः
पुटसङ्ख्या
न्यासजालविधिः पात्रासादनम्-सामान्यार्थ्यविधिः . विशेषार्थ्यविधिः . अन्तर्यागः चतुष्षष्टयुपचारार्चनम् . षडङ्गार्चनम् नित्यादेवीयजनम् . गुरुमण्डलार्चनम् १-कादिविद्योपासकानाम्
दिव्यौघः . सिद्धौघः .
मानवौधः . . २-षोडश्युपासकानाम् ।
दिव्यौघः . . सिद्धौधः .
मानवौघः . ३- हादिविद्योपासकानाम्
दिव्यौघः . सिद्धौघः .
मानवौधः . मन्वादिविद्यानां गुरुपरम्परा
दिव्यौघः . सिद्धौधः .
मानवौघः । अज्ञातगुरुपारम्पर्याणां गुरुक्रमः
दिव्यौघः । सिद्धौघः
मानवौधः . आवरणपूजा . .
.
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विषयः
पुटसङ्खया
प्रथमावरणम् द्वितीयावरणम् तृतीयावरणम् चतुर्थावरणम् पञ्चमावरणम् षष्ठावरणम् . सप्तमावरणम् अष्टमावरणम्
नवमावरणम् मन्त्रपुष्पम् कामकळाध्यानम् होमस्य कृताकृतत्वम् . बलिदानविधिः प्रदक्षिणाः . स्तोत्रम् . सुवासिन्याः पूजनम् । तत्त्वशोधनम् देवतोद्वासनम् । शान्तिस्तवः विशेषाय॑विसर्जनम् . सक्षेपार्चाविधिः . सक्षेपार्चनानि क्रत्वर्थनियमः . श्रीचक्रलेखनोपायः . श्रीचक्रप्रस्तारभेदाः . श्रीचक्रप्रतिष्ठापनविधिः. यन्त्रभेदेन अर्चनकालावधिः
श्रीचक्रमहिमा ३-होमप्रकरणम् ।
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विषयः
४ - मुद्राप्रकरणम्
श्रीगुरुवन्दनमुद्राः अर्घ्यस्थापनमुद्राः
अर्चने मुद्राः सङ्क्षोभिण्यादिमुद्राः
न्यासे मुद्राः
जपे मुद्राः
५ - न्यासप्रकरणम् करशुद्धिन्यासः
आत्मरक्षान्यासः
चतुरासनन्यासः बालाषडङ्गन्यासः
वशिन्यादिन्यासः मूलविद्यावर्णन्यासः
श्रीषोडशाक्षरीन्यासः
संमोहनन्यासः
संहारन्यासः
सृष्टिन्यासः
स्थितिन्यासः
लघुषोढान्यासः
गणेशन्यासः
ग्रहन्यासः .
नक्षत्रन्यासः
योगिनीन्यासः
राशिन्यासः
पीठन्यासः.
श्रीचक्रन्यासः
त्रैलोक्यमोहनचक्रन्यसः
सर्वाशापरिपूरकचकन्यासः
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पुटसङ्ख्या
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१०१
१०२
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११० ११२
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विषयः
पुटसङ्ख्या . ११३ . ११३
११४
११६
. ११७ . ११८
१२२
१२४
२९
चक्रन्यासः सर्वसौभाग्यदायकचक्रन्यासः सर्वार्थसाधकचक्रन्यासः सर्वरक्षाकरचक्रन्यासः. सर्वरोगहरचक्रन्यासः . आयुधन्यासः सर्वसिद्धिप्रदचक्रन्यासः.
सर्वानन्दमयचक्रन्यान्सः ६-जपप्रकरणम्.
जपविधिः . . जपोत्तराड्गमन्त्राः . रश्मिमालामन्त्राः .
रश्मिमालामन्त्राणां ऋष्यादयः ७-नैमित्तिकप्रकरणम् .
पर्वसु नैमित्तिकार्चनविधिः नित्यक्रमात् नैमित्तिके विशेषः निवेदने पक्षभेदाः । दमनविधिः. चैत्रपूर्णिमाकृत्यम् . वैशाखीकृत्यम् . ज्येष्ठकृत्यम्. आषाढकृत्यम् पवित्रारोपणविधिः भाद्रपदकृत्यम् आश्वयुजकृत्यम् कार्तिककृत्यम् मार्गशीर्षकृत्यम् पौषकृत्यम् . . माघकृत्यम् , .
१३६
. १३७ . १३८ . १३९ . १३९ . १३९
. १४०
• १४१
. १४१ • १४२
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xiv
.
पुटसङ्ख्या . १४२
१४४
१४५
१४७
. १४९
१५०
विषयः फाल्गुनकृत्यम् . . .
प्रौढोल्लासश्चतुर्थः-श्यामाक्रमः उपोद्धातः काल्यकृत्यं आह्निकं च . यागमन्दिरप्रवेशः . प्राणायामः षडङ्गादिन्यासपञ्चकम् मन्दिरार्चनम् यन्त्रोद्धारः अर्घ्यशोधनम् . चक्रदेवीपूजा . गुर्वोघत्रयपूजा . दिव्यौघः . आवरणार्चनम् . गुरुपादुकापूजा . देव्याः पुनःपूजा . बलिदानम् मातङ्गीश्वरीमन्त्रजपः मातङ्गीस्तुतिः . सुवासिनीपूजाऽऽदि शेषकृत्यम् . श्यामोपासकनियमाः पुरश्चरणसंकल्पः । मन्त्रजपः जपकाल: स्त्रीशूद्रयोः प्रणवप्रत्याम्नायः . पुरश्चरणाङ्गहोमः. पुरश्चरणाङ्गं तर्पणम् पुरश्चरणाङ्गं भोजनम्
. १५३
१५३
• १५६
१५७
१६७
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विषयः
होमप्रत्याम्नायो जपः सिद्धिपर्यन्तं पुरश्चरणस्य अभ्यासः
पुरश्चरणप्रत्याम्नायाः कूर्मचक्रलक्षणम्
मालासंस्कारः
अक्षमालायाः संस्कारानपेक्षा
·
रुद्राक्षमालासंस्कारः
मालान्तरसंस्कारः .
देवताभेदेन सूत्रभेदः मालासंस्कारकालः.
मालाभेदेन फलभेदः सूत्रजीर्णतादौ प्रायश्चित्तम्
जपभेदाः कुण्डस्थण्डिलयोः परिमाणम् होमे इतिकर्तव्यताविशेषः
काम्यहोमद्रव्याणां मानं फलं च.
पुरश्चरणका विहितानि
निषिद्धानि
भोज्यानि
अभोज्यानि
भोजनपर्यायः
उपोद्घातः काल्यकृत्यं आह्निकं च
यागमन्दिरप्रवेशः
•
प्राणायामः
द्वितान्यासः करषडङ्गन्यासौ .
XV
तदन्तोल्लासः पञ्चमः —— दण्डिनीक्रमः
पुटसङ्ख्या
१५९
१६१
१६१
१६३
१६३
१६४
१६४
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१६६
१६६
१६६
१६६
१६६
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१७०
१७०
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१७१
१७१
१७२
१७२
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१७३
१७३
१७४
१७५
१७५
१७५
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xvi
विषयः
पुटसङ्ख्या
.
१७६
१७६ १७७ १७७
अर्घ्यशोधनम् . . सप्तार्णमन्त्रपञ्चकन्यासः । अष्टखण्डन्यासः . मातृकास्थानेषु मूलपदन्यासः . तत्त्वाष्टकन्यासः . यन्त्रप्राणप्रतिष्ठा . पीठपूजा आसनपूजा . मूर्तिकल्पनम् । देवीध्यानम् . देव्याः षोडशोपचारपूजा . देवीतर्पणम् . . ओघत्रययजनम् . आवरणार्चनम् . देवीपुनःपूजाऽऽदि बलिदानान्तम् वाराहीमन्त्रजपः . . वाराहीस्तोत्रम् . बृन्दाराधनं, गुरुसन्तोषणं, शक्तिवटुकपूजा च हविःप्रतिपत्तिः . मन्त्रसाधनम्
. उन्मनोल्लासः षष्ठः-परा द्धतिः उपोद्धातः . काल्यकृत्यं आह्निकं च यागमन्दिरप्रवेशः . प्राणायामः अङ्गन्यासः । चिदग्नौ सर्वतत्त्वविलापनम् . अर्घ्यशोधनम् . .
१८४
१८४
. १८८
.
.
१८९
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xvii
विषयः
पुटसङ्ख्या
• १९३
तत्त्वकदम्बस्य हृत्पद्मस्थापनम्. पराचक्रनिर्माणम् . चक्रे देव्याः पूजा . देव्या अखिलतत्त्वहोमभावनम् . गुर्वोपत्रययजनम् . बलिदानम् . परामनुजपः परास्तुतिः हविःशेषस्वीकरणम् मन्त्रसाधनम् .
१९८ १९८
१९९
२०० २००
अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः उपोद्घातः . काल्यकृत्यं आह्निकं च । यागमन्दिरप्रवेशः . प्राणायामः मातृकाषडङ्गन्यासौ अर्घ्यशोधनम् . यन्त्रोद्धारः . चक्रे प्रधानदेवतायाः तदङ्गदेवतानां च पूजा गुर्वोघत्रययजनम् . आवरणार्चनम् . देवतायाः पुनःपूजा होमः प्रदक्षिणनतिमूलमन्त्रजपाः । देवतास्तुतिः । मन्त्रसाधनम् . मन्त्राणां जातिनिर्णयः अधिकारिभेदश्च . कलौ सिद्धमन्त्राः .
२००
२०१ २०१
२०३
०
२०४
२०६
२०६
२०६
iii
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xviii
विषयः
पुटसङ्ख्या
. २०७ . २०८ . .२०९
.
.
.
२११
. २११
. .
.
. २१५
२१७ २१७
.
.
.
गुरुशिष्ययोः वर्णाश्रमादिव्यवस्था वयोभेदेन सिद्धिप्रदा मन्त्राः . मन्त्राणां व्यक्तिविशेषाः सिद्धारिशोधनप्रकारः ऋणधनशोधनप्रकारः ऋणिधनिचक्रम् . कुलाकुलचक्रविचारापवादः . मन्त्राणां संस्काराः पुष्पविचार: . देवतायोग्यानि पुष्पादीनि . वर्जनीयानि सर्वदेवतासाधारणानि विहितानि च केषांचित्कालावधिः विहितनिषिद्धानि . निषिद्धानि . मध्यमं फलरूपं कुसुमम् अधमम् पर्युषितकुसुमविचारः पर्युषितापवादः . पर्युषितमात्रस्यापि ग्राह्यत्वम् । सर्वस्यैतस्यापवादः. निबन्धाध्ययनमहिमा ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिः . नित्योत्सवोदाहृतग्रन्थग्रन्थकारसूची .
२१८ २१९ २२०
.
.
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२२१
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२२२
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२२२
.
२२२
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.
२२३ . २२३
२२३
.
४
.
. २२६
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शुद्धाशुद्धपत्रिका
पुटम्
पङ्क्तिः
अशुद्धम्
शुद्धम्
१२३
जातवदसि
जातवेदसि निकृन्तति
२१०
नकृन्तति
त्याधि
त्याद्य
ऋणीधनी
ऋणिधनि
साधक
साधकः
२
ऋणीधनी
ऋणिधनि
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विधवा प
विधवाप
गगनं ह
गगनं ह
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नित्योत्सवः
श्री उमानन्दनाथविरचितः आरम्भोल्लासः प्रथमः-दीक्षाक्रमः
भूमिका नत्वा नाथपरम्परां शिवमुखां विघ्नेश्वरं श्रीमहा
राज्ञी तत्सचिवां तदीयपृतनानाथां तदन्तःपराम् । एषामावृतिदेवताः परिचितान् रश्मिम्रजानिर्जरान
वीरांश्च प्रणये निवन्धनमिदं नाम्नाऽपि नित्योत्सवम् ।। अन्तेवसता शम्भोरवतारेणाच्युतम्य षष्ठेन । प्रकृतयति कल्पसूत्रं प्रोक्तं रामेण यत्र गदितोऽर्थः ।। काश्याश्चोळान् समागत्य कावेर्यऋविहारिणा । नाथेन भासुरानन्दनाथेनाम्मीह योजितः ॥ यम्यादृष्टो नास्ति भृमण्डलांशो
यम्यादासो विद्यते न क्षितीशः । यम्याज्ञातं नैव शास्त्रं किमन्यैः
यस्याकारः सा परा शक्तिरेव ॥ भृगुरामसूत्रजालकभग्नप्रसरम्य मे द्विजस्येह । ग्रन्थिविमोकधुरीणं गुरुचरणस्मरणमेव मार्गकरम् ॥ आरम्भ-तरुण-यौवन-प्रौढ-तदन्तोन्मनानवस्थाऽऽरव्यैः । सूत्रोदितैस्तु सप्तभिरुल्लासैराश्रितेह विश्रान्तिः ।।
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नित्योत्सवः
येषु दीक्षा-गणेश-श्री-श्यामा-क्रोडी-परा-क्रमाः । सामान्यश्च क्रमोऽन्येषां क्रमेण प्रतिपादिताः ॥ प्रतिपाद्येषु मुख्यत्वमङ्गताऽन्यच्च यद्भवेत् । तत्सर्व श्रीगुरुप्रोक्ते रत्नालोकेऽधिगम्यताम् ॥ न्यायोपसंहृतैरङ्गैः प्रयुञ्जानस्य मे क्रमान् । भ्रम प्रमादात् मुखलितं समादधतु तद्विदः ॥ सूत्रसंसूचितानुक्ताविरुद्धाङ्गेतिकार्यता । तन्त्रान्तरात् सम्प्रदायादप्युक्तेह क्वचित् क्वचित् ॥ इह क्रमाणां सर्वेषां श्रीक्रमः प्रकृतिमतः । अतिदिश्य तमन्यत्र विशेषस्तु निरूप्यते ॥ क्रमान्तरेषु चाङ्गानां विज्ञेया श्रीक्रमेऽपि च । पौर्वापर्यभिदा तत्तत्खण्डमूत्रक्रमानुगा ॥ श्रेयोऽर्थिनः साधकस्य साङ्गे श्रीसुन्दरीक्रमे । आवश्यकत्वात् प्रथमं दीक्षाविधिरुदीर्यते ॥
दीक्षाकालनिर्णयः तस्य च कालनिर्णयो मन्थानभैरवतन्त्रे --
वैशाखे सिद्धिदा दीक्षा श्रावणे वृद्धिदा नृणाम् । आश्विने सर्वसिद्धिः म्यात कार्तिके ज्ञानवृद्धिदा ॥ शुभदा मार्गशीर्षे च माघे म्वर्णफलप्रदा । फाल्गुने सर्वसिद्धिः म्यादन्येऽनिष्टफलप्रदाः ॥
इति । सारसङ्घहे.' • मलमासं विवर्जयेत्' इत्युक्तम् । इदं क्षयमासम्याप्युपलक्षणम् । तत्रैव
प्रमादस्ख-भ. समयन्त्विह माधवः-अ, भ. ३ अयं श्लोकः अ, अ, कोशयोग्व दृश्यते.
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आरम्भोल्लासः प्रथमः -- -दीक्षाक्रमः
रविवारे भवेद्वित्तं सोमे शान्तिर्भवेत् किल । सौन्दर्यमाप्नोति ज्ञानं स्यात्तु बृहस्पतौ ॥ शुक्रे सौभाग्यमाति. ॥ इति ॥
द्वितीयायां भवेत् ज्ञानं तृतीयायां भवेच्छुचिः । पञ्चम्यां बुद्धिवृद्धिः स्यात् सौख्यं स्यात्सप्तमी दिने | दशम्यां राजसौभाग्यं एकादश्यां शुचिर्भवेत् । द्वादश्यां सर्वसिद्धिः म्यात् पूर्णिमा सर्वसिद्धिदा ॥ इति ॥ अस्वाध्यायं विवर्जयेत् . ॥ इति च ॥
अस्वाध्यायं सन्ध्यागर्जितनिर्घोषभूकम्पादिनिमित्तकानध्यायदिवसानित्यर्थः ।
अश्विन्यां सुखमाप्नोति रोहिण्यां वाक्पतिर्भवेत् । पुनर्वसौ धनाढ्यः स्यात् पुष्ये शत्रुविनाशनम् ॥ मघायां दुःखहानिः स्याद्रूपदा पूर्वफल्गुनी । ज्ञानं चोत्तरफल्गुन्यां हस्तायां च बली भवेत् ॥ चित्रायां ज्ञानसिद्धिः स्यात् स्वात्यां शत्रुविनाशनम् । अनूराधा बुद्धिवृद्ध्यै 'कीत्यै स्यातां ततः परे ॥ " पूर्वाषाढोत्तराषाढे 'सर्वसम्पत्तिदायिके । बुद्धिः शतभिषायां स्यात् पूर्वभाद्रे सुखी भवेत् ॥ सौख्यं चोत्तरभाद्रायां रेवत्यां कीर्त्तिवर्धनम् ॥ इति च ॥
योगाश्च प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनः शुभः ।
सुकर्मा च धृतिर्बुद्धिर्भुवः सिद्धिश्व हर्षणः ||
वरीयांश्च शिवः सिद्धो ब्रह्मा चैन्द्रोऽप्यमी शुभाः ॥ इति च ॥ बवादिवणिजान्तानि करणानि शुभाप्तये || इति च ॥
वैशम्पायनसंहितायां
मन्त्राद्यारम्भणं मेषे धनधान्यप्रदं भवेत् ।
कर्क सर्वसिद्धिः स्यात् कन्या लक्ष्मीप्रदा नृणाम् ||
1
मूलं सर्वसमृद्धिकृत् - अ. " एतदर्ध अ. कोश एव दृश्यते.
अ भवेतां कीर्तिदायिके -अ.
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नित्योत्सवः तुलायां सर्वसिद्धिः स्यात् सर्वलाभश्च वृश्चिके । मकरं पुत्रदं प्राहुः 'कुम्भो धनसमृद्धिदः ॥ शुक्लपक्ष शुभा दीक्षा कृष्णेऽप्यापञ्चमीदिनात् ।
भूतिकामैः सिते पक्ष मुक्तिकामैः सितेतरे ॥ इति ।। अत्र च गुरुभार्गवमौढ्यं चन्द्रतारानुकूल्यं लग्नस्य ग्रहबलादिकं च विचार्यम् ।। ग्रहबलं तु
त्रिषडायगताः पापाः शुभाः केन्द्रत्रिकोणगाः ।
दीक्षायां तु शुभाः सर्वे रन्ध्रस्थाः सर्वनाशकाः ।। आयः एकादशस्थानम् । पापाः पापग्रहाः रविभौमशनिराहुकेतुक्षीणेन्दुपापयुक्ताः । सौम्याः शुभाः शुभग्रहाः अक्षीणेन्दुपापयोगरहितबुधगुरुभृगवः । केन्द्राणि प्रथमचतुर्थसप्तमदशमस्थानानि । त्रिकोणे पञ्चमनवमस्थाने । सर्वे पापाः शुभाश्च ग्रहाः उक्तम्थानगताः दीक्षायां शुभावहा एव । एत एव रन्ध्र अष्टमस्थाने स्थिता यदि सर्वनाशका इति योजना ॥
अथ उक्तकालमन्तरण दीक्षार्हः कालो यथा तन्त्रान्तरेविषुवेऽप्ययनद्वन्द्वे सङ्क्रान्त्यां दमनोत्सवे ।
दीक्षा कार्या त्वकालेऽपि पवित्रे गुरुपर्वणि ॥ विषुवे---मेषतुलासङ्क्रमणयोः इत्यर्थः । अयनद्वन्द्वे-कर्कटमकरसङ्क्रान्त्योः । सङ्क्रान्त्यां-तदन्यासु सङ्क्रान्तिपु इत्यर्थः । दमनोत्सवे-चैत्रपूर्णिमाऽऽदिषु दमनकरणकदेवीपूजादिनेप्वित्यर्थः । पवित्रे-श्रावणपूर्णिमाऽऽदिषु, देव्याः पवित्रारोपणदिवसेषु इत्यर्थः । गुरुपर्वणि-गुरोः जन्मव्याप्तिदिनयोः । तथा
पष्ठी भाद्रपदे मासि 'कृष्णाश्विनचतुर्दशी । कार्तिके नवी शुक्ला मार्गे कृष्णा च पञ्चमी ।
पौषे च पूर्णिमा देवी माघे चैव चतुर्थिका ॥ 1 कुम्भः सर्वसमृद्धिकृत्-अ.
कृष्णेति काकाक्षिन्यायनोभयत्रान्वेति-इति टिप्पणी अ, ब२. ' देवि-अ, ब१, ब२, ब३.
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आरम्भोल्लासः प्रथमः- दीक्षाक्रमः
फाल्गुनैकादशी कृष्णा चैत्रे मासि त्रयोदशी । वैशाखेऽक्षय्यतृतीया ज्येष्ठे ' दशहरा स्मृता । आषाढे द्वादशी कृष्णा अमावास्या च श्रावणी | इमानि देवीपर्वाणि कोटियज्ञफलानि वै ॥
दीक्षाऽर्हाणीति शेषः । दशहरा ज्येष्ठशुक्ल दशमी । सौभाग्यचन्द्रोदय " अस्मन्नाथचरणैः बहूनि देवीपर्वाणि उक्तानि यथा-
अमाऽन्तचान्द्रमासेषु चैत्रशुक्लत्रयोदशी । चतुर्दश्यपि शुक्लाऽथ वैशाखे शुक्लपक्षगाः || तृतीयैकादशीपौर्णमास्यः कृष्णचतुर्दशी । ज्येष्ठे तु शुक्ले दशमी राका कृष्णचतुर्दशी ॥ आषाढे शुक्लपक्ष पञ्चमी च त्रयोदशी । श्रावण मास शुक्लैकादशी शुक्लचतुर्दशी ॥ कृष्णा पञ्चम्यष्टमीच रोहिणीसहिता यदि । नवमी चाथ भाद्रस्य कृष्णषष्ठी तथाऽष्टमी || रोहिणीसहिता चेत् स्यादाश्विने सप्तमी सिता । अष्टमी च सिता कृष्णपक्षस्था च चतुर्दशी || कार्तिक शुक्लपक्ष नवमीद्वादशी तिथी । मार्गशीर्षे तृतीया च षष्ठी धवळपक्षगे ॥ पौषे चतुर्थीनवमीचतुर्दश्यः सिता मताः । दशमी त्वसिता माघे चतुर्थ्येकादशी सिते ॥ चतुर्दश्यसिता चाथ फाल्गुने शुक्लपक्षगे ।
नवम्य कृष्णा तु भवेदेकादशीति च ॥ रत्नावलीकुलोड्डीशयामळाद्यर्थसङ्ग्रहे ॥ इति ॥
अन्योऽपि विस्तरः तत एव ज्ञातव्यः ॥
1 तु दहरा-अ.
3 इतः प्रभृत्युदाहृतवचनानि अ१, ब१, ब३ कोशेष्वेवोपलभ्यन्ते.
" नवमी -अ.
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६
नित्योत्सव:
सतीर्थे विधुप्रासे पुण्यारण्ये वनेषु च । मन्त्रदीक्षां प्रकुर्वाणां मार्क्षादीन् न शोधयेत् ॥
प्रकारान्तं च
सर्व वारा ग्रहाः सर्व नक्षत्राणि च राशयः । यस्मिन्नहनि सन्तुष्टो गुरुः सर्वे शुभावहाः || सन्तुष्टे च गुरौ तस्य मन्तुष्टाः सर्वदेवताः । गुरुं सन्तोषयेत् भक्त्या द्वयमेव तदा भवेत् ॥
द्वयं भोगमोक्षौ । एवकारः अप्यर्थः । अधिकारिभेदेन कालो यथा
मुमुक्षूणां सदा कालः स्त्रीणां कालस्तु सर्वदा || इति ॥
गुरुलक्षणम्
तन्त्रराजे..
सुन्दरः सुमुखः स्वस्थः सुलभा बहुतन्त्रवित् । असंशयः संशयच्छिन्निरपेक्षो गुरुर्मतः || सौन्दर्यमनवद्यत्वं रूपे सुमुखता पुनः । मेरपूर्वाभिभाषित्वं स्वच्छताऽजिह्मवृत्तिता ॥ सौलभ्यमप्यगर्वित्वं सन्तोषो बहुतन्त्रता । असंशयस्तत्त्वबोधः तच्छित्तत्प्रतिपादनात् ॥ नैरपेक्ष्यमवित्तेच्छा गुरुत्वं हितवेदिता । एवंविधो गुरुर्ज्ञेयस्त्वितर: गिप्यदुःखदः ॥
अजिह्मवृत्तिनेति छेदः । बहुतन्त्रता -- बहुतन्त्रवेदिता इत्यर्थः ॥
शिष्यलक्षणम्
तथा --
चतुर्भिराद्यैः सहितः श्रद्धावान् सुस्थिराशयः । अलुब्धः स्थिरगात्रश्च प्रेक्ष्यकारी जितेन्द्रियः ॥
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आरम्भोल्लासः प्रथमः - -- दीक्षाक्रमः
आस्तिको दृढभक्तिश्च गुरौ मन्त्रे 'सदैवते । एवंविधो भवेच्छिष्यः इतरो दुःखकृद्गुरोः ॥ इति ॥
चतुर्भिराद्यैरिति सुन्दरत्वादिभिः । अन्यान्यपि तल्लक्षणानि कुलार्णवादितन्त्रेषु बहुळमुपलभ्यमानानि ग्रन्थगौरवभयात् नेह लिखितानि । शिप्यपरीक्षाकालोऽपि तत्रैव---
एकद्वित्रिचतुःपञ्चवर्षाण्यालोच्य योग्यताम् ।
भक्तियुक्तान् गुणांश्चाऽपि क्रमाद्वर्णे सङ्करे । पश्चादुक्तक्रमेणैव वदेद्विद्यामनन्यधीः ॥ इति ॥
ससङ्करे, अनुलोमजातिसहिते । वर्णे, ब्राह्मणादिवर्णेषु इत्यर्थः । एकवर्षे ब्राह्मणस्य योग्यता परीक्षा, क्षत्रियादिषु द्रयादिसंवत्सरपरीक्षा इत्यर्थः ॥
एवमुक्तान्यतमे काले उक्तलक्षणां गुरुः उक्तलक्षणं परीक्ष्य शिष्यं दीक्षयेत् ॥
गुरुवरणम्
तत्र निर्वर्तितस्नाननित्यविधिः साधको वाद्यघोषपुरस्सरं ब्राह्मणैः स्वस्ति वाचयित्वा आचम्य प्राणानायम्य देशकालौ सङ्कीर्त्य श्रेयस्कामोऽहं अमुकविद्याग्रहणार्थं अमुकगुरोः दीक्षां ग्रहीष्यामीति सङ्कल्प्य सोपहारो गुरुमुपसृत्य दण्डवत् प्रणम्य गुरोराज्ञया पुनर्देशकालौ सङ्कीर्त्य अमुकगोत्रोऽमुकशाखाऽध्यायी अमुकशर्मवर्मादिरहं चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थं वेष्टमनुग्रहणाय अमुकगोत्रं अमुक शाखाऽध्यायिनं अमुकशर्माणं त्वां गुरुत्वेन वृणे इति क्रमुकादिना गुरुं वृणुयात ॥
1
क्रमप्रवर्तनपूर्वकं शिष्याह्वानम
स च वृतोऽस्मीत्युक्त्वा सशिप्यः सामयिकैः सह गोमयेनोपलिप्तं रङ्गवल्लीपुष्पमालावितानाद्यलङ्कृतं मण्टपं विविक्तं दीक्षाप्रदेशं आसाद्य पादौ प्रक्षाळ्य आचम्य मण्टपान्तः प्रविश्य वक्ष्यमाणविधिना आसने उपविश्य कृतभूतशुद्धिप्राणप्रतिष्ठाकश्च वक्ष्यमाणेन प्रकारेण गणपति - ललिता - श्यामा वार्ताळी- पराणां पञ्चानामपि देवतानां पदार्थानुसमयेन काण्डानुसमयेन वा यागमन्दिरप्रवेशादिचक्रपूजाऽन्त ( १ ) तदादि
स्वदैवते श्री.
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नित्योत्सव :
विघ्नोत्सारणान्त ( २ ), तदादिन्यासान्त ( ३ ), तदादिपात्रासादनान्त ( ४ ), तदादि - लयाङ्गपूजान्त (५), तदाद्यावरणार्चनान्त ( ६ ), तदादिहवनान्त ( ७ ), तदादि सौभाग्यहृदयामर्शनान्त ( ८ ) . तदादिहविः प्रतिपत्त्यन्त ( ९ ), तदादिदेवतोद्वासनान्त (१०). तदादिविशेषार्ध्यविसर्जनान्तेषु (११), पदार्थेषु यागगृहप्रवेशादिहवनान्तं पदार्थानुसमयेन काण्डानुसमयेन वा क्रमं प्रवर्त्य तरुणोल्लासवान् शिप्यमाहूय नूतनेन वाससा तस्य मुखं बद्ध्वा गणपत्यादिमूलमन्त्रानुच्चारयन् पात्रपञ्चकसामान्यार्थ्योदकबिन्दुभिः तमवोक्ष्य त्रैपुरं तन्त्रसिद्धान्तं श्रावयेत् ॥
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त्रैपुर सिद्धान्त:
यथा -- पृथिव्यप्तेजोवायुवियन्ति भृतानि पञ्च । गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः तन्मात्राणि पञ्च । उपस्थपायुपादपाणिवाचः कर्मेन्द्रियाणि पञ्च । घ्राणरसनाचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणि ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च 1 रजः सत्वतमोरूपाणि अहङ्कारबुद्धिमनांसि अन्तःकरणवृत्तित्रयम् । प्रकृतिर्गुणमाम्यरूपा । चित्तं पुरुषो जीवः । परमशिवगताः स्वतन्त्रता-नित्यता-नित्यतृप्तता - सर्वकर्तृता - सर्वज्ञताऽऽख्या धर्मा एव सङ्कुचिताः सन्तो जीवे क्रमात नियति-काल-राग-कलाऽविद्याशब्दवाच्या भवन्ति 1 माया जगत्परमशिवयोः भेदबुद्धिः । शुद्धविद्या तयोरभेदधीः । जगदिदंतया पश्यन् परमशिव ईश्वरः । तदन्तया पश्यन् स एव सदाशिवः । शक्तिः परमशिवस्य जगत्सिसृक्षा । तद्वान् स एव तत्त्वेषु प्रथमतत्त्वरूपः शिवः । इति षट्त्रिंशत्तत्त्वान्येव एतद्दर्शनप्रमेयजातम् । एतदात्मकं विश्वमेव परमशिवशरीरम् । प्रागुक्तनियत्यादितत्त्वपञ्चकारख्यापरपर्यायेण लीलाम्वीकृतेन कञ्चुकेन आवृतस्वरूप ईश्वर एव जीवः । तद्विनिर्मुक्तः परमशिवः । स्वस्वरूपावबोधः पुरुषार्थ' : ॥
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मन्त्रोपासनम्
शब्दाः वर्णात्मका नित्याश्च । मन्त्राणामन्यादृशं सामर्थ्यम् । स्वगुरुपरम्परोपदेशैकगम्यधर्मरूपेण सम्प्रदायेन गुरुशास्त्रदेवतासु विश्वासेन च सर्वाः सिद्धयः ।
स्वतन्त्रादिना सड़कुच्य स्वीकृतेन आवृतस्वरूप: शिव एव मायया सजातक चुकितः स एव जीवः इत्यधिकः पाठो दृश्यते (अ) कोश.
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आरम्भोल्लासः प्रथमः-दीक्षाक्रमः एतच्छास्त्रप्रामाण्यं विश्वासैकसमधिगम्यम् । गुरुमन्त्रदेवताऽऽत्मनां श्रीगुरूक्तपथेन ऐक्यविभावनात् मनःपवनयोः एकयत्ननिरोद्धव्यत्वज्ञानाच्च प्रत्यगात्मवेदनम् । म्वरूपानन्दाभिव्यञ्जकैः पञ्चमकारैः अर्चनमुपह्वरे । प्राकट्यान्निरयः । भावनादाात् निग्रहानुग्रहसामर्थ्यलाभः ॥
उपासकधर्माः दर्शनान्तराणामनिन्दनम् । म्वोपास्यदेवतामन्तरा क्वापि महत्त्वबुद्धयभावः । सच्छिप्य एव रहम्यप्रकाशनम् । सदा स्वोपास्यमन्त्रानुसन्धानम् । सततं शिवोऽहमिति भावनम् । कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्याणां अविहितहिंसायाश्चौर्यस्य जनविरोधस्य स्त्रिया विद्वेषस्य विद्विष्टम्य च वर्जनम् । सर्वज्ञस्यैकस्य गुरोः उपास्तिः । गुरुवाक्यशास्त्रादौ सर्वत्रासंशयः । स्वैकोपभोगवुद्ध्या धनाद्यनार्जनम् । फलमनभिसन्धाय कर्माचरणम् । अलोपः म्ववर्णाश्रमोक्तानां नित्यानां कर्मणाम् । मपञ्चकस्यालाभेऽपि निल्यमपर्यानिवर्तनम् । वैधानुष्ठाने सर्वतो निर्भयता ॥
सर्वसारभूतो धर्मः वृत्तिभिः वेद्यं सर्वं हविः । इन्द्रियाण्येव स्रुचः । सङ्कोचेन स्वात्मस्थिताः सर्वज्ञत्वसर्वकर्तृत्वादयः परमशिवशक्तय एव ज्वालाः । स्वात्मशिव एव पावकः । स्वयमेव होता । निर्गुणब्रह्मापरोक्ष्यं फलम् । स्वपारमार्थिकस्वरूपलाभान्न परं विद्यते ॥ सेयमेतच्छास्त्रमर्यादा ॥
दीक्षाऽऽवश्यकत्वम् वेश्या इव प्रकटा वेदादयो विद्याः । सर्वेषु दर्शनेषु गुप्तेयं विद्या । तत्र सर्वथा मतिमान् दीक्षतेति ॥
शाम्भवी दीक्षा अथ शिप्यस्य शिरसि कामेश्वरीकामेश्वरयोः रक्तशुक्लाख्यचरणन्यासं भावयित्वा तदमृतक्षरणेन तस्य बाह्यमाभ्यन्तरं च मलं दुरीकुर्यात् । एषा चरणविन्यासरूपा शाम्भवी दीक्षा ॥
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नित्योत्सव : शाक्ती दीक्षा
अथ शिप्यस्यामूलाधारं आ च ब्रह्मरन्ध्रं प्रज्वलन्तीं ज्वलदनलनिभां परचिद्रूपां प्रकाशलहरीं ध्यात्वा तत्किरणैः तस्य पापपाशान् दहेत् । इयं शक्तिप्रवेशनरूपा शाक्ती दीक्षा द्वितीया ॥
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मान्त्री दीक्षा
ततः शुण्ठी- मरीचि - पिप्पली-हरीतकी-धात्रीफल-विभीतकत्वगेला - लवङ्ग-पत्रनागकेसर-तक्कोल-मदयन्ती-सहदेवीसंज्ञानां त्रयोदशानां वस्तूनां चूर्णमिश्रेण दूर्वाभस्मभ्यां गजाश्वशालाचतुप्पथवल्मीकनदीसङ्गमहद्गोष्ठसमानीताभिः सप्तभिः मृत्तिकाभिश्च उपेतेन चन्दनकाश्मीरगोरोचनकर्पूरैः चतुर्भिः सुरभिटेन शुचिना जलेन पूर्ण नवीनवासोयुगवेष्टितं ईशानतः शालितण्डुलपुञ्जोपरि निहितं नूतनं कलशं आमेयादिविदिक्षु मध्ये प्रागादिदिक्षु च बालाषडङ्गेन अभ्यर्च्य तदन्तर्ललिताश्यामावाराहीणां चक्राणि विनिक्षिप्य तत्र पुनः तास्तिस्रो देवताः त्रिः तत्तन्मूलेन तत्तदावरणानि च तत्तन्मन्त्रैः समभ्यर्च्य कुम्भमन्त्रमन्त्रेण संरक्ष्य प्रदर्श्य धेनुयोनिमुद्रे चक्राणि यथाम्थानमवस्थापयेत् ॥
ततः सक्षीरेण सिन्दूरकुङ्कुमादिना चन्द्रनादिपीठे मातृकायन्त्रं विलिख्य तत्र शिष्यं निवेश्य तेन कुम्भाम्भसा ललिताश्यामावार्ताळीमूलविद्याभिः स्नपयेत् । मातृकायन्त्रं तु
व्योमेन्द्वौरसनार्णकर्णिकमचां द्वन्द्वैः स्फुरत्केसरं पत्रान्तर्गतपञ्चवर्गयशळार्णादित्रिवर्गं क्रमात् ।
आशाम्वश्रिपु लान्तलाङ्गलियुजा क्षाणीपुरेणावृतं
वर्णाब्जं शिरसि स्थितं विषगदप्रध्वंसि मृत्युञ्जयम् ॥ इति ॥
अस्यार्थः – व्योम हकारः । इन्दुः सकारः । औ इति रूपम् । रसनार्ण: विसर्गः । एतत्पिण्डः कर्णिकायां यम्य तथोक्तम् । क्रमात् प्राच्यादित इत्यर्थः । अचां अकारादिविसर्गान्तानां षोडशानां स्वराणाम् । द्वन्द्वैः अं आं इत्यादिभिः । लिखितैरिति शेषः । स्फुरन्तः केसराः दळद्वयमध्यभागाः अष्टौ यस्य तत्
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आरम्भोल्लास: प्रथमः-दीक्षाक्रमः तथोक्तम् । पत्राणां दळानां अन्तः अभ्यन्तर गताः लिखिताः पञ्चवर्गाः कचटतपादीनि पञ्चपञ्चाक्षराणि यशळार्णादयः यादिवान्तशादिहान्तळक्षात्मिकाः त्रिवर्गाः यस्य तत्तथोक्तम् । आशासु प्राच्यादिपु अश्रिपु आग्नेयादिकोणेपु च क्रमात् लान्तेन वकारण लाङ्गलिना ठकारण युज्यत इति तथोक्तेन क्षोणीपुरेण चतुरश्रेण आवृतम् । वर्णाजं मातृकापद्मम् । शिरसि स्थितं भावितं सदिति शेषः । विषगदप्रध्वंसि विषरोगयोः प्रध्वंसनशीलम् । अन्ततो मृत्युञ्जयं च भवतीत्यर्थः ॥
___ एतल्लेखनप्रकारो यथा-चतुरश्रालङ्कृतं सकेसरमष्टदळकमलं विलिख्य तत्कर्णिकायां हकारसकारौकारविसर्गात्मकं बीजं, तत्केसगेषु प्राच्यादित अकारादिस्वरद्वन्द्वं, दळोदरेषु कचटतपयशळारव्यवर्गाष्टकं, चतुरश्रम्य बाह्यतः प्रागादिदिक्षु वकारं आग्नेयादिविदिक्षु ठवर्णं च लिग्वत् । सर्वेषामक्षराणां सबिन्दुकत्वं सम्प्रदायादिति ॥
___ ततः परिहितदुकूलं सुरभिळचन्दनानुलिप्ताङ्गं मल्लिकाऽऽदिमाल्यधारिणं सुप्रसन्नं शिप्यं पार्श्वे निवेश्य वक्ष्यमाणप्रकारेण तदङ्गेषु अकारादिक्षकारान्तैकपञ्चाशन्मातृकान्यासं विधाय विमुक्तमुखबन्धवाससः तस्य हस्ते क्रमात् त्रीन् प्रथमसिक्तान् चन्दनोक्षितान् द्वितीयखण्डान् पुप्पखण्डांश्च विनिक्षिप्य वक्ष्यमाणैः तत्त्वमन्त्रैः ग्रासयित्या गुरुः तस्य 'दक्षिणकर्णे ललिताक्रमे वक्ष्यमाणं श्रीविद्यागुरुपादुकामन्त्रमुपदिश्य बालामुपदिशेत । तत्र अमुकपदस्थाने स्वस्य स्वशक्तेश्च दीक्षानाम्नोरुहः ॥
स्त्रीणां तु वाग्दीक्षैव विहिता नान्येति तन्त्रसारे स्थितम् । वाग्दीक्ष मन्त्रोपदेशः ॥
एषा मान्त्री दीक्षा ॥
दीक्षात्रये मुख्यगौणपक्षौ इत्थमुक्तं दीक्षात्रयं एकप्रयोगेण एकस्मिन्नेव काले दद्यादिति मुख्यपक्षः, 'सर्वाश्च कुर्यात्' इति सूत्रात् । कतिपयकालव्यवधानेन क्रमादेकामेकामेव वेति तु गौणः, 'एकैकां वेत्येके' इति सूत्रात् ॥ ____दक्षिणकर्णे दश्मखण्डोक्तत्रितारीबालापूर्वकं आत्मनः पादुकामन्त्रमुपदिश्य बालामुपदिशेत् "' इत्यपि पाठान्तरम्-अ१, भ.
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नित्योत्सवः
इष्टमत्रदानम् एवं इदं दीक्षात्रयं निवर्त्य पश्चात् तम्मा इष्टं मन्त्रं दद्यात् । ततो गुरुः शिप्यशिरसि स्वचरणौ निवेश्य इष्टमन्त्रक्रमोपयुक्तान् सर्वान् अङ्गमन्त्रान् तस्मिन्नेव काले क्रमेण वा यथाऽधिकारमुपदिश्य स्वाङ्गेपु किमप्यङ्गं शिष्यं स्पर्शयित्वा तदङ्गमातृकाक्षरादि द्वयक्षरं त्र्यक्षरं चतुरक्षरं वा आनन्दनाथशब्दान्तं तस्य नाम कृत्वा दशमखण्डोक्तानाचाराननुशिप्यात् ॥
समयाचारानुशासनम यथा-व्यवहारं देशं च स्वस्य स्वात्म्यबलसहायवयांसि च प्रविचार्यैव पञ्चमः म्वीकर्तव्यः । सर्वैः प्राणिभिः अविरोद्धव्यम् । उपासनापरिपन्थिनो विनिग्रहीतव्याः । आश्रिता अनुग्रहीतव्याः । स्वगुरुवत् गुरोः पुत्रे कळत्रे ज्येष्ठादिषु च वर्तितव्यम् । मकारत्रितये इतिकर्तव्यता गुरुशास्त्रसम्प्रदायतो ज्ञातव्या । सर्वस्मिन् विषय वचनपूर्वकमेव प्रवर्तितव्यम् । दश कुलवृक्षाः न छेत्तव्याः । ते च
श्लप्मातककरञ्जाक्षनिम्बाश्वत्थकदम्बकाः ।
बिल्वो वटोदुम्बरौ च तिन्त्रिणी च दश स्मृताः ॥ स्त्रीवृन्दक्षीरकलशसिद्धलिङ्गिविविधक्रीडाकुलकुमारीकुलसहकाराशोकैकतरुपितृवनमत्तवाराङ्गनारक्तांशुकामत्तेभान् दृष्ट्वा वन्दितव्यम् । कृष्णाष्टमीकृष्णचतुर्दशीदर्शपूर्णिमासङ्क्रमणाख्येषु पञ्चपर्वसु विशेषतो नैमित्तिकी वरिवस्या कर्तव्या । साधकस्य आरम्भ-तरुण-यौवन-प्रौढ-तदन्तोन्मनानवस्थाऽऽख्येषु सप्तसु उल्लासेषु प्रौढोल्लासान्तमेव हविःप्रतिपत्तिः । समयाचारांश्च प्रवर्तेरन् । ततः परां दशां प्राप्तानां स्वैरचारित्वम् । तत्र तादृशो वीर इति व्यवयिते । वीरव्यवहारेषु अन्यथासम्भावनया अधः पतेत् । अतः तथा नाचरेत् । रक्तायास्त्यागं, विरक्ताया हठादाक्रमणं, उदासीनाया धनादिना प्रलोभनं च वर्जयेत् । करुणाशङ्कामयलज्जाजुगुप्साकुलजात्यभिमानशीलानि क्रमेण त्यजेत् । विहितहिंसाऽऽदो करुणाऽऽदीनां प्रातिकूल्येन तत्त्याग उक्त इति भावः । गुरुपरमगुर्वोः समागमने प्रथमं परमगुरुं प्रणमेत् । तदने गुर्वनुमत्या तन्नतिं कलयेत् । पूज्येषु न पराङ्मुखो भवेत् । मुख्यतया स्वप्रकाशमात्मानं अनुसन्दध्यात् ।
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आरम्भोल्लास: प्रथमः---दीक्षाक्रमः शरीरं अर्थ असूंश्च गुर्थं धारयेत् । तदुक्तं कुर्यात् । तद्वचसि युक्तायुक्तं न विचारयेत् । सर्वत्र व्यवस्थां तन्यात् । सत्यं वदेत् । परधनं न स्पृहयेत् । आत्मस्तुति परनिन्दा मर्मस्पृग्वचनं परिहासं धिक्कारमाक्रोशं त्रासोत्पादनं च न विदध्यात् । सर्वप्रयत्नेन परदेवताऽऽराधनद्वारा पूर्णज्ञानात्मकं ब्रह्मभावमभिलपेत् । एतानन्यांश्च मन्वादिभिरुक्तान् एतदविरुद्धान् आचारान् अङ्गीकुर्यात् ॥
कुलधर्मनिष्ठाफलम् इत्थं विदित्वा विधिवत् अनुतिष्ठन् कुलधर्मनिष्ठः सर्वथा कृतकृत्यो भवति । तस्य शरीरत्यागे श्वपचगृहे वा काश्यां वा न विशेषः । स तु जीवन्मुक्त एवेति ॥
शिष्यस्य परचिद्रूपापादनम ततो देहेन्द्रियादिविलक्षणमवस्थात्रयसाक्षि सच्चिदानन्दात्मकं प्रत्यगभिन्नं ब्रह्मैव त्वमसीति शिप्याय आत्मतत्वमुपदिश्य ललिताश्यामावार्ताळीविद्याभिः तदङ्गं त्रिः परिमृज्य परिरभ्य तं मू[पाघ्राय स्वमिव शिष्यमपि परचिद्रूपं कुर्यात् ।।
सर्वमत्राधिकारलाभः सोऽपि श्रीगुरुपदिष्टप्रकाग्ण क्षणमात्मानं पूर्ण भावयित्वा कृतार्थः सन् यथाविभवं श्रीगुरुं वसुवसनाभरणादिभिः आराध्य तस्मात् विदितवेदितव्यरहस्यजातोऽशेषमन्त्राधिकारी भवेत् ॥
ततो गुरुः हविःप्रतिपत्त्यादिविशेषार्थ्यविसर्जनान्तं विधिशेष निर्वतयेत् ॥
___ तत्तत्क्रमानुष्ठाने दीक्षाव्यवस्था 'अनेनैव-एकस्मिन्नेव काले समुच्चितेन वा अन्यतमेनैकैकेन कालभेदात्दीक्षाविधिना गणपत्यादीनामुक्तानां पञ्चानां देवतानामपि क्रमानुष्ठानं सम्भवति । न तु पृथक् पृथक् दीक्षणम् । सामान्यपद्धत्युक्ततत्तन्मन्त्रमात्रोपासकस्य तु पृथक
___1“अनेन एकस्मिन्नेव काले समुचितेन अन्यतमेन वा एकेनैव दीक्षाविधिना गणपत्यादीनां" इति (अ) पाठ:-"अनेनैव दीक्षाविधिना गणपत्यादीनां" इति (ब२) पाठः.
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नित्योत्सवः
पृथगेव दीक्षा | बालोपासकस्य तु मन्त्रदीक्षाऽऽत्मतया बालाया उपदेशः, एवं इष्टमत्वेनाप्युपदेशो ज्ञेयः । ललिताऽङ्गत्वेन श्यामाऽऽदीनां तिसृणामुपास्तेः कृताकृतत्वज्ञापकात् तदकरणपक्षे गणपतेः ललितायाश्च क्रमं प्रवर्त्य उभयोरेव पात्राण्यासाद्य चक्रराजमात्रं कलशे निक्षिप्य श्रीविद्यया केवलं शिप्यं स्त्रपयित्वा तदङ्गं च परिमृज्य शेषमशेषं अनुतिष्ठेत् । गणपतिश्यामाऽऽदीनां अन्यासां च देवतानां स्वातन्त्र्येण एकैकोपास्तौ तु तत्तत्क्रममात्रं प्रवर्त्य तत्तत्पात्रे आसाद्य तत्तद्यन्तं कुम्भे निक्षिप्य तत्तन्मन्त्रेण स्नानाङ्गपरिमार्जने कुर्यात् । अवशिष्टं अविशिष्टमिति विवेकः ॥
१४
अधिकारिनिर्णयः
'सुन्दरीमहोदयं तु–अस्यां च दीक्षायां त्रैवर्णिकस्यैव अधिकारः, 'सर्वशास्त्रार्थवेदार्थज्ञानिने सुव्रताय च । दीक्षा देया " इति मूले ज्ञानार्णवतन्त्रे अधिकार्युक्तः इति स्थितम् । शाक्तीनां तु ओघत्रयान्तर्गुरुमण्डलान्तर्दर्शनज्ञापक बलात् अस्त्येवाधिकार इति रहस्यमिति शिवम् ||
..
इति भासुरानन्दनाथचरणारविन्दमिळिन्दायमानमानमेन उमानन्दनाथेन निर्मिते अभिनवे कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवनिबन्धे दीक्षासमारम्भनिरूपणं नामारम्भोल्लासः प्रथमः सम्पूर्णः
1 अयं ग्रन्थभागः (भ) कोशे नास्त्येव अन्यकोशेषु केषु चित् पृथक् संयोजितः.
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तरुणोल्लासो द्वितीयः - गणपतिक्रमः उपोद्घातः
त्वा श्रीभासुरानन्दनाथपादाम्बुजद्वयम् । तनौत्युमाऽऽनन्दनाथस्तरुणोल्लासमादृतः ॥ यत्रोच्यते जगन्मातुः यावज्जीवार्चनाविधौ । प्रत्यूहापोह निपुणा पद्धतिर्गाणनायकी ॥ स्वतन्त्रोपास्तिविषया पृथग्दीह सम्मता । न श्रीक्रमाङ्गभावे साऽप्यारम्भोल्लास ईरिता || इह श्रीं ह्रीं कामबीजयोगोऽङ्गमनुषु स्मृतः । अमूत्रितोऽपि श्रीविद्याऽर्णवाद कथितो हि सः ॥
काल्यकृत्याह्निकयोर्विशेषः
तत्र तावत् काल्यकृत्याह्निकयोः वक्ष्यमाणश्रीक्रमतो विशेषो यथाश्रीगुरुपादुकायां आदौ त्रितार्युत्तरं बाला वाक् ग्लौमिति पञ्चबीजयोजनम् । हृदयकमलकर्णिकायां उद्यदरुणकिरणकोटिपाटलस्य देवस्य करटिवदनस्य ध्यानेन परिप्लुष्टनिःशेषदोषत्वं आत्मनः तत्प्रभाऽरुणतनुत्वभावनं च । रश्मिस्त्रगननुस्मरणम् । तत्र तत्र यथोचितं सम्बुद्ध्यादीनामूहः । सवितृमण्डले वक्ष्यमाणं देवस्य ध्यानम् । तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥ इति मन्त्रेण त्रिः अर्घ्यदानम् । ऋष्यादिन्यासत्रयमिह वक्ष्यमाणं चेति ॥
1
चतुरावृत्तितर्पणसंकल्पादि
ततः आचम्य प्राणानायम्य देशकालौ सङ्कीर्त्य मम श्रीमहागणपतिप्रसादसिद्ध्यै चतुरावृत्तितर्पणं करिष्य इति सङ्कल्प्य नद्यादौ हस्तमात्रं चतुरश्रमण्डलं परिगृह्य
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नित्योत्सवः ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्ठानि ते रवे ।
तेन सत्येन मे देव तीर्थ देहि दिवाकर ॥ इति मन्त्रेण सूर्यमभ्यर्थ्य
आवाहयामि त्वां देवि तर्पणायेह सुन्दरि ।
एहि गङ्गे नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते ॥ इति गङ्गां प्रार्थ्य 'ह्वां ह्रीं ह्यूँ हैं ह्रौं ह्वः इत्युच्चार्य क्रों इत्यङ्कुशमुद्रया गङ्गाऽऽदितीर्थान्यावाह्य वं इत्यमृतबीजेन सप्तवारमभिमन्व्य तत्र चतुरश्राष्टदळषट्कोणत्रिकोणात्मकं महागणपतियन्त्रं विचिन्त्य म्वदेहे ऋप्यादिन्यासान् न्यस्य यन्त्रे सावरणं देवमावाह्य
श्रीं ह्रीं क्लीं महागणपतये लं पृथिव्यात्मकं गन्धं कल्पयामि नमः । (त्रिवारम्)
३ महागणपतये हं आकाशात्मकं पुष्पं कल्पयामि नमः । (त्रिवारम्) ३ महागणपतये यं वाय्वात्मकं धूपं कल्पयामि नमः । (त्रिवारम्) ३ महागणपतये रं वयात्मकं दीपं कल्पयामि नमः । (त्रिवारम्) ३ महागणपतये वं अमृतात्मकं नैवेद्यं कल्पयामि नमः । तदङ्गत्वेन्
३ महागणपतये में सर्वात्मकं ताम्बूलं कल्पयामि नमः । (त्रिवार) इति पञ्चोपचारैः अर्चयेत् ॥
चतुगवृत्तितर्पणम प्रथमं प्रत्यावृत्ति मूलान्ने महागणपतिं तर्पयामीति द्वादशवारं तर्पयित्वा ततः म्वाहाऽन्तेन मूलम्यैकैकन वर्णन चतुश्चतुर्वारं प्रतिवर्णान्तमावृत्तेन मूलेन च प्राग्वत् चतुश्चतुर्वारं देवं, त्रयोदशमु मिथुनेषु श्रीश्रीपत्यादिषु एकैकां देवतां द्वितीयान्तेन तत्तन्नाम्ना चतुश्चतुर्वारं प्रतिदेवतमावृत्तेन च मूलेन देवं चतुश्चतुर्वारं तर्पयेत् । यथाॐ श्री ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा
महागणपतिं तर्पयामि ॥ द्वादशवारम् ।। ३ ॐ स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ हां, ह्रीं . . . इति-भ.
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तरुणासो द्वितीयः - गणपतिक्रमः
३
श्रीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
३ ह्रीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ क्लीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
स्वाहा महागणतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
गं स्वाहा. महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥
३ गं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ णं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ पं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ तं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
यें स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ वं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ रं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ||
३ वं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ||
३
रं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
१७
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१८
नित्योत्सवः
मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ||
३ दं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् Il मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ॥
३ सं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ वै स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ जं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ नं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
३
में स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
वं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ शं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ मां स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ॥
३ नं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
यं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् 11 मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
३ स्वां स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३ हां स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
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तरुणोल्लासो द्वितीयः-गणपतिक्रमः ३ श्रियं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ श्रीपतिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ गिरिजां स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ गिरिजापतिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ रतिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ रतिपतिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ महीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ महीपतिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ महालक्ष्मी स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ महागणपतिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ ऋद्धिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ आमोदं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ समृद्धिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३ प्रमोदं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
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२०
नित्योत्सवः
मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
कान्ति स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
सुमुखं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३
मदनावतीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ||
३ दुर्मुखं म्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
३
मढ़द्रवां स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ||
३ अविघ्नं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ||
३
द्राविणीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥ मूलं महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ||
३ विघ्नकर्तारं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् ॥
मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
वसुधारां स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि | चतुर्वारम् | मूलं महागणपति तर्पयामि ॥ चतुर्वारम् ॥
३
शङ्खनिधिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
वसुमतीं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
३
पद्मनिधिं स्वाहा महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् || मूलं महागणपतिं तर्पयामि || चतुर्वारम् ||
इत्याहत्य तर्पणसङ्ख्यापिण्डश्चतुश्चत्वारिंशदुत्तरचतुश्शती ४४४ भवति ॥
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तरुणोलासो द्वितीयः - गणपतिक्रमः
अथ पुनर्मूलेन देवं उक्तया रीत्या पञ्चधा उपचर्य आत्मन्युद्वासयेत् ॥ इति चतुरावृत्तितर्पणविधिः ॥
पूजाविधि:
यागमन्दिरागमनादि विघ्नोत्सारणान्तम
ततो यागगृहमागत्य स्थण्डिलं गोमयेनोपलिप्य यागमन्दिरं च रङ्गवल्लीपुष्पमालिकावितानादिभिः : अलङ्कृत्य च द्वारस्य दक्षवामभागयोः ऊर्ध्वभागे च क्रमेण
श्रीं ह्रीं क्लीं भद्रकाळ्यै नमः || दक्षशाखायाम् || ३ भैरवाय नमः || वामशाखायाम् ॥
३
लम्बोदराय नमः || ऊर्ध्वशाखायाम् ॥
२१
श्रीं ह्रीं क्लीं अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारः ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥
-----
इति तिस्रो द्वारि देवताः सम्पूज्य अन्तः प्रविष्टः सपर्यासामग्रीं दक्षभागे निधाय दीपानभितः प्रज्वाल्य दीपौ वा गन्धादिभिः कृतात्मालङ्करण: ताम्बूलेन जातीपत्रफललवङ्गैलाकर्पूराख्यपञ्चतिक्तेन वा सुरभिळवदनः स्वास्तीर्णे ऊर्णामृदुनि शुचिनि बालातृतीयबीजेन द्वादशवारमभिमन्त्रिते मूलमन्त्रोक्षिते आसने ३ आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मासनाद्यन्यतमेनासनेनोपविश्य ३ रक्तद्वादशशक्तियुक्ताय दीपनाथाय नम इति पुष्पाञ्जलिना भूमौ दीपनाथमिष्टा ३. समस्तगुप्तप्रकटसिद्धयोगिनीचक्र श्रीपादुकाभ्यो नम इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः स्ववामदक्षपार्श्वयोः क्रमेण श्रीगुरुपादुकया गुरुं मूलेन च देवं प्रणम्य स्वस्य तदैक्यं भावयन्—
इति मन्त्रं सकृदुच्चार्य युगपद्वामपाणिभूतल त्रिराघातकरास्फोटत्रितयक्रूरदृष्टयवलोकनपूर्वकताळत्रयेण भौमान्तरिक्षदिव्यान् भेदावभासकान् विघ्नानुत्सारयेत् ॥
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२२
ताळत्रयं नाम दक्षतर्जनीमध्यमाभ्यां अधोमुखाभ्यां वामकरतले सशब्दमुपर्युपरि त्रिरभिघातः ॥
शिखाबन्धनादि मातृकान्यासान्तम्
ततो नम इत्यङ्गुष्ठमन्त्रमुच्चार्य 'अंकुशेन शिखां बद्धा श्रीक्रमे वक्ष्यमाणेन प्रकारेण भूतशुद्धिमात्मनः प्राणप्रतिष्ठां च विधाय विंशतिधा षोडशधा दशधा सप्तधा त्रिधा वा मूलेन प्राणानायम्य तेजोरूपदेवानन्यं भावयन् आत्मानं ऐं ह्नः अस्त्राय फट् इति मन्त्रेण मुहुरावृत्तेन अङ्गुष्ठादिकरतलान्तं कूर्परयोश्च विन्यस्य देहे च व्यापकं कृत्वा श्रीक्रमे वक्ष्यमाणं मातृकान्यासं विदध्यात् । तत्र च श्रीं ह्रीं क्लीं इति त्रिबीजं प्रथमं योजयेत् इति विशेषः ॥
ततः
नित्योत्सवः
श्रीं ह्रीं क्लीं ॐ गां अंगुष्ठहृदयाय नमः ॥
३
श्रीं गीं तर्जनीशिरसे स्वाहा ॥
३
वषट् ॥
३
m m
ह्रीं गूं मध्यमाशिखायै
क्लीं मैं अनामिकाकवचाय हुम् ॥
ग्ौं गौं कनिष्ठिकानेत्रत्रयाय वौषट् ||
गं गः करतलकरपृष्ठास्त्राय फट् ॥
इति षडङ्गमन्त्रानङ्गुष्ठादिषु हृदयादिषु च न्यस्य मूलेन त्रिर्व्यापकं कुर्यात् ॥
३
३
षडङ्गन्यासः
ततो ध्यानम् --
ध्यानम्
ततो हृदब्जे शोणाङ्गं वामोत्सङ्गविभूषया ।
सिद्धलक्ष्म्या समाश्लिष्टपार्श्वमर्धेन्दुशेखरम् ॥
" अंगुष्ठेन ' इत्यपि वा स्यात् - अंगुष्ठमन्त्रेण 'नमः' इत्यनेनेत्यर्थः ( कल्पसूत्रे ८ खण्डे १० सूत्रं दर्शनीयम् ) - (संपादकः).
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तरुणोलासो द्वितीयः - गणपतिक्रमः
वामTधः करतो दक्षाधः करान्तेषु पुष्करे । परिष्कृतं मातुलुङ्गगदापुण्ड्रेक्षुकार्मुकैः ॥ शूलेन 'शङ्खचक्राभ्यां पाशोत्पलयुगेन च । शालिमञ्जरिकास्वीयदन्ताञ्चलमणीघटैः :: 11 स्रवन्मदं च सानन्दं श्रीश्रीपत्यादिसंवृतम् । अशेषविघ्नविध्वंसनिनं विघ्नेश्वरं स्मरेत् ॥
२३
अर्ध्यसंस्कारः
अथ तं मानसैः पञ्चोपचारैः अभ्यर्च्य श्रीक्रमे वक्ष्यमाणेन क्रमेण सामान्यविशेषार्ध्वे आंसादयेत् । तत्र चोभयोरर्घ्ययोरप्युक्तं षडङ्गमाधारस्थापनादिषु क्रमेण—
श्रीं ह्रीं क्लीं अं अग्निमण्डलाय दशकलाऽऽत्मने अर्घ्यपात्राधाराय नमः || डं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलाऽऽत्मने अर्घ्यपात्त्राय नमः || मं सोममण्डलाय षोडशकलाऽऽत्मने अर्ध्यामृताय नमः ॥
३
३
इत्येवं मन्त्राः, गणपतिगायत्र्योक्तया
गुणानां त्वा ग॒णप॑तिं हवामहे क॒विं क॑वी॒नाम॑प॒मश्र॑वस्तमम् । ज्येष्ठराज॒ ब्रह्म॑णां ब्रह्मणस्पत॒ आ न॑ः शृ॒ण्वन्न॒तिभिः॑ सीद॒ साद॑नम् ॥
इत्यनया ऋचा चाभिमन्त्रणम्, चतुर्नवतिमन्त्राद्यभिमन्त्रणाभावश्चेति विशेष: । अथ सामान्यार्घ्यजलबिन्दुभिः आत्मानं पूजोपकरणानि च सम्प्रोक्ष्य विशेषार्ध्यबिन्दुभिः स्वशिरसि गुरुपादुकां त्रिरिष्ट्वा सपर्यासामग्रीं पावयित्वा ||
पीठे प्राणप्रतिष्ठा
पुरतो रक्तचन्दनादिभिः निर्मिते पीठे कलधौतादिविरचितां महागणपतिप्रतिमां वा ध्यानोक्तरूपां चतुरश्राष्टदळषडर त्रिकोणात्मकं सिन्दूरादिना लिखितं लेखितं वा यन्त्रं, धातुमयं वा निवेश्य --
1 पद्मच-अ.
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नित्योत्सवः
श्रीगणेशयन्त्रस्य प्राणा इह प्राणाः श्रीगणेशयन्त्रस्य जीव इह स्थितः श्रीगणेशयन्त्रस्य सर्वेन्द्रियाणि श्रीगणेशयन्त्रस्य वाङ्मनः प्राणा इह आयान्तु स्वाहा ॥ इति मन्त्रेण प्राणप्रतिष्ठां विदध्यात् ॥
२४
पीठशक्तिपूजा
तम्य त्रिकोणे म्वायादिप्रादक्षिण्येन परितो मध्ये च क्रमेण
श्रीं ह्रीं क्लीं तीत्रायै नमः ॥
ज्वालिन्यै नमः ॥
नन्द्रायै नमः ॥
भोगदायै नमः ॥
कामरूपिण्यै नमः ॥
३
३
३
इति नवगणेशपीटशक्तीरभ्यर्च्य
श्रीं ह्रीं क्लीं ऋ धर्माय नमः ॥
ऋ ज्ञानाय नमः ॥
लं वैराग्याय नमः || लुं ऐश्वर्याय नमः ||
श्रीं ह्रीं क्लीं उग्रायै नमः ॥
३
तेजोवत्यै नमः ॥
धर्मा पूजा
तत्रैव आय्यादिविदिक्षु प्रागाद्यासु च दिक्षु क्रमेण
इति चार्चयेत् ॥
३
सत्यायै नमः ॥ विघ्ननाशिन्यै नमः ||
श्रीं ह्रीं क्लीं ऋ अधर्माय नमः ||
३
ॠ अज्ञानाय नमः ॥
३
लं अवैराग्याय नमः ||
३
लुं अनैश्वर्याय नमः ||
महागणपतिपूजा
ततो मनसा ध्यातं महागणपतिं भक्तानुग्रहात्तेजोरूपेण परिणतं प्रापय्य ब्रह्मरन्ध्रं वहन्नासापुटाध्वना निर्गमय्य कुसुमगर्मिनेऽञ्जलौ मूर्त मूलमन्त्रान्ते महागणपतिमावाहयामीति त्रिकोण आवाह्य • आवाहितो भव इत्यादिक्रमेण श्रीक्रमे वक्ष्यमाणतत्तन्मुद्राप्रदर्शनपूर्वकं आवाहन संस्थापन- सन्निधापन- सन्निरोधन
"
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तरुणोलासो द्वितीयः -- गणपतिक्रमः
सम्मुखीकरणावगुण्ठनादि कृत्वा वन्दनधेनुयोनिमुद्राश्च प्रदर्श्य सामान्यार्य्योदकेन प्राग्वत् गन्धादिपञ्चोपचारान् आचरेत् ॥
महागणपतितर्पणम्
ततो मूलान्ते श्रीमहागणपतिश्रीपादुकां पूजयामीति वामकरतत्त्वमुद्रा सन्दष्टद्वितीयशकलगृहीतक्षीरबिन्दुदक्ष' करोपात्तकुसुमयुगपत्प्रक्षेपेण देवं दशवारं उपतर्पयेत् । तत्त्वमुद्रा उत्तरत्रापि साधारणी ||
ततो देवस्य अमीशासुरवायुकोणेषु मौलौ प्रागादिदिक्षु च क्रमेण
षडङ्गपूजा
इति समभ्यर्च्य
२५
३
श्रीं ह्रीं क्लीं ॐ गां हृदयाय नमः हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि ॥ श्रीं गीं शिरसे स्वाहा शिरश्शक्तिश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ह्रीं गूं शिखायै वषट् शिखाशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि || क्लीं गैं कवचाय हुम् कवचशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि ॥
गौं नेत्रत्रयाय वौषट् नेत्रत्रयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि || गं गः अस्त्राय फट् अस्त्रशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि ||
दिव्यौघः
श्रीं ह्रीं क्लीं विनायकसिद्धाचार्य श्रीपादुकां पूजयामि ।
३
३
कवीश्वर सिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ विरूपाक्षसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि || विश्वसिद्धाचार्य श्रीपादुकां पूजयामि ॥
३
' करज्ञानमुद्रोपात – भ.
50
---
ओघत्रयपूजा
देवस्य पश्चात् प्रागपवर्ग रेखाये दक्षिणसंस्थाक्रमेण गुर्वोघत्रयं यजेत् । यथा-
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.नित्योत्सवः ३ ब्रह्मण्यसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ निधीशसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
सिद्धौघः श्रीं ह्रीं क्लीं गजाधिराजसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ __ ३ वरप्रदसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
मानवौघः श्रीं ह्रीं क्लीं विजयसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
३ दुर्जयसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ जयसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
दुःखारिसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ सुखावहसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ परमात्मसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
सर्वभूतात्मसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ महानन्दसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ फालचन्द्रसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ सद्योजातसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ बुद्धसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि । ३ शूरसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ||
दिव्यौघपाठान्तरम् श्रीं ह्रीं क्लीं विनायकसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
३ विरूपाक्षसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ बुद्धसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
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तरुणोल्लासो द्वितीयः -गणपतिक्रमः ३ शूरसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ वरप्रदसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
m
सिद्धौघपाठान्तरम श्रीं ह्रीं क्लीं विजयसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ||
३ दुर्जयसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ जयसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ कवीश्वरसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ ब्रह्मण्यसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ निधीशसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
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मानवौघपाठान्तरम् श्रीं ह्रीं क्लीं गजाधिराजसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।।
३ दुःखारिसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ सद्योजातसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ सुखावहसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ परमात्मसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ||
सर्वभूतात्मसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ महानन्दसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि । ३ शुभानन्दसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ फालचन्द्रसिद्धाचार्यश्रीपादुकां पूजयामि ॥
(गुर्वोचत्रयसंख्या विंशतिः)
m
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रद
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नित्योत्सवः आवरणार्चनम्
प्रथमावरणम् त्र्यश्रषडयोरन्तराळे प्रागादिदिक्षु क्रमेणश्रीं ह्रीं क्लीं श्रीश्रीपतिश्रीपादुकां पूजयामि ।।
३ गिरिजागिरिजापतिश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ___३ रतिरतिपतिश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ महीमहीपतिश्रीपादुकां पूजयामि ॥
द्वितीयावरणम् षड) देवाग्रकोणमारभ्य प्रादक्षिण्येन तद्दक्षवामपार्श्वयोश्च क्रमेण यजेत्--- श्रीं ह्रीं क्लीं ऋद्ध्यामोदश्रीपादुकां पूजयामि ॥
३ समृद्धिप्रमोदश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ कान्तिसुमुखश्रीपादुकां पूजयामि ।। ३ मदनावतीदुर्मुखश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ मदद्वाविनश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ द्राविणीविघ्नकर्तृश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ वसुधाराशङ्खनिधिश्रीपादुकां पूजयामि ॥ ३ वसुमतीपद्मनिधिश्रीपादुकां पूजयामि ॥
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तृतीयावरणम षडश्रसन्धिषट्के प्राग्वत् षडङ्गदेवताऽर्चनम् ॥
चतुर्थावरणम् अष्टदळे पश्चिमादिदिक्षु वायव्यादिविदिक्षु च प्रादक्षिण्यक्रमेणश्रीं ह्रीं क्लीं आं ब्राह्मीश्रीपादुकां पूजयामि ॥
३ ई माहेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि ॥
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३
३
पश्वमावरणम्
अथ चतुरश्रस्य रेखायां प्रागाद्यासु अष्टसु दिक्षु क्रमेण -
श्रीं ह्रीं क्लीं लां इन्द्राय वज्रहस्ताय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय सपरिवाराय नमः || रां अम शक्तिहस्ताय तेजोऽधिपतये अजवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
यमाय दण्डहस्ताय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥ क्षां निर्ऋतयं खड्गहस्ताय रक्षोऽधिपतये नरवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥ वां वरुणाय पाशहस्ताय जलाधिपतये मकरवाहनाय सपरिवाराय नमः || यां वायवे ध्वजहस्ताय प्राणाधिपतये रुरुवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥ सां सोमाय शङ्खहस्ताय नक्षत्राधिपतये
३
३
३
३
तरुणोल्लासो द्वितीयः - गणपतिक्रमः
ॐ कौमारीश्रीपादुकां पूजयामि || ऋ वैष्णवीश्रीपादुकां पूजयामि ॥
लुं वाराही श्रीपादुकां पूजयामि || ऐं माहेन्द्री श्रीपादुकां पूजयामि ॥
औं चामुण्डाश्रीपादुकां पूजयामि ॥
अः महालक्ष्मीश्रीपादुकां पूजयामि ||
३
२९
अश्ववाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
हां ईशानाय त्रिशूलहस्ताय
विद्याऽधिपतये वृषभवाहनाय सपरिवाराय नमः ||
सर्वा आवरणदेवताः देवस्याभिमुखासीनाः स्वयं तत्तदभिमुखः पूजयामीति भावयेत् ॥
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नित्योत्सवः । गणनाथस्य पुनस्तर्पणं षोडशोपचारपूजा च एवं पञ्चावरणीं इष्ट्वा पुनर्देवं दशधा प्राग्वदुपतर्प्य षोडशभिः उपचारैः आराधयेत् । ते च] पाद्यार्थ्याचमनीयस्त्रानवासोगन्धपुप्पधूपदीपनीराजनछत्रचामरयुगदर्पणनैवेद्यपानीयताम्बूलाख्याः । मन्त्रास्तु-श्रीं ह्रीं क्लीं महागणपतये पाद्यं कल्पयामि नमः इत्यादयः । नैवेद्ये त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलकरणम् , मूलेन प्रोक्षणम् , वं इति धनुमुद्रया अमृतीकरणम् , मूलेन सप्तवाराभिमन्त्रणम् . प्राणादिमुद्राप्रदर्शनं च कुर्यात् । इहापरिगणितान्यपि पूर्वोत्तरापोशनहस्तप्रक्षाळनगण्डूपपुनराचमनीयानि नैवेद्याङ्गत्वेन पूर्ववत् कल्पयेत् ॥
अग्निकार्यम् अथ श्रीक्रमे वक्ष्यमाणेन विधिना स्थण्डिलकल्पनादिप्रधानदेवतापञ्चोपचारान्तं
कृत्वा
श्रीं ह्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा । श्रिया इदं न मम ॥
३ श्रीपतये स्वाहा । श्रीपतय इदं न मम ॥ इत्यादिरीत्या पञ्चममिथुनवर्ज ,यादिविघ्नकर्तृपर्यन्ताः विंशतिदेवता उद्दिश्य चतुर्थ्यन्तैः बीजत्रयायैः स्वाहाशिरस्कैः तत्तन्नाममन्त्रैः आज्यन एकैकवारं उद्देशत्यागपूर्वकं हुत्वा अथ प्रधानदेवतायै महागणपतये मूलेन दशवारं हुत्वा वक्ष्यमाणप्रकारेण बलिं प्रदाय महाव्याहृत्यादिविधिशेषं निर्वर्तयेत् ॥
बलिदानम् होमाकरणपक्षे बलिमात्रं दद्यात् । यथा---'पुरतः स्ववामभागे त्रिकोणवृत्तचतुरश्रात्मकं मण्डलं कृत्वा ऐं व्यापकमण्डलाय नमः इति गन्धादिभिरभ्यर्च्य अर्धभक्तपूरितोदकं सक्षीरादित्रयं पात्रं तत्र विन्यस्य ॐ ह्रीं सर्वविघ्नकृद्भ्यः सर्वभूतेभ्यो हुं फट् स्वाहा इति मन्त्रं त्रिः पठित्वा दक्षकरार्पितं वामकरतत्त्वमुद्रास्पृष्टं क्षीरं बल्युपरि दत्वा बाणमुद्रया बलिं भूतैः माहितं विभाव्य प्रणमेदिति ॥
1 " ताम्बूलं च" इत्यधिकः-अ, भ. 'यागगृहाबहिः वामभागे-अ.
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तरुणोलासो द्वितीयः - गणपतिक्रमः
तर्पणजपस्तोत्राणि
अथ प्रक्षाळितपाणिपाद आचान्त आगत्य देवं मूलेन त्रिधा सन्तर्प्य पुप्पाञ्जलिं दत्वा प्रदक्षिणनुतीर्विधाय जपेत् —
अस्य श्रीमहागणपतिमहामन्त्रस्य गणकऋषये नम इति शिरसि । गायत्रीछन्दसे नम इति मुखे । महागणपतये देवतायै नम इति हृदये । गं बीजाय नम इति गुह्ये । स्वाहाशक्त्यै नम इति पादयोः । ॐ कीलकाय नम इति नाभौ । मम अभीष्टसिद्धयै विनियोगाय नम इति करसम्पुटे च न्यस्य । उक्तैः षडङ्गमन्त्रैः अङ्गुष्ठादिषु हृदयादिषु च न्यासं विधाय । पूर्वोक्तभङ्गया ध्यात्वा । श्यामाक्रमे वक्ष्यमाणप्रकारेण संस्कृतां मालामादाय श्रीक्रमे वक्ष्यमाणविधिना मूलमष्टोत्तरशतवारानावर्त्य पुनरपि न्यासादि कृत्वा
गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ||
इति सामान्यादकेन जपं देवस्य दक्षको समर्पितं विभाव्य स्तुवीत । यथा -
1
श्रीभगवानुवाच ।
गणेशस्य स्तवं वक्ष्ये कलौ झटिति सिद्धिदम् ।
न न्यासो न च संस्कारो न होमो न च तर्पणम् ॥
2
न मार्जनं च पञ्चाढ्यं सहस्रजपमात्रतः । सिध्यत्यर्चनतः पञ्चशतब्राह्मणभोजनात् ॥
अम्य श्रीगणपतिस्तोत्रमालामन्त्रम्य भगवान् श्रीसदाशिव ऋषिः । उष्णिक् छन्दः । श्रीगणपतिर्देवता । श्रीगणपतिप्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ध्यानम्
चतुर्भुजं रक्ततनुं त्रिणेत्रं पाशाङ्कुशौ मोदकपात्रदन्तौ ।
करैर्दधानं सरसीरुहस्थं गणाधिनाथं शशिचूडमीडे ॥ इति ॥
पादमाचान्तमागत्य – इति पाठः बहुषु कोशेषु दृश्यते.
पञ्चास्य-अ.
३१
3 अष्टि: - ब१, ब२,
बई, भ.
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३२
नित्योत्सवः
सदाशिवप्रोक्तं गणेशाष्टकम् ॐ विनायकैकभावनासमर्चनासमर्पित
प्रमोदकैः प्रमोदकैः प्रमोदमोदमोदकम् । यदर्पितं समर्पितं नवन्यधान्यनिर्मितं
नखण्डितं नखण्डितं नखण्डमण्डनं कृतम् ॥ सजातिकृद्विजातिकृत्म्वनिष्ठभेदवर्जितं
निरञ्जनं च निर्गुणं निराकृतिं च निस्क्रियम् । सदात्मकं चिदात्मकं सुखात्मकं परं पदं
भजामि तं गजाननं स्वमाययाऽऽत्तविग्रहम् ॥ गणाधिप त्वमष्टमूर्तिरीशसूनुरीश्वरः
त्वमम्बरं च शम्बरं धनञ्जयः प्रभञ्जनः । त्वमेव दीक्षितः क्षितिनिशाकरः प्रभाकरः
चराचरप्रचारहेतुरन्तरायशान्तिकृत् ।। अनेकदं तमालनीलमेकदन्तसुन्दरं
गजाननं नुमो गजाननामृताब्धिमन्दिरम् । समम्तवेदवादसत्कलाकलापमन्दिरं
महान्तगयदुम्तमश्शमार्कमाश्रितोदरम ॥ सग्नहेमघण्टिकानिनादनपुरम्वनैः ।
मृदङ्गताळनादभेदसाधनानुरूपतः । धिमिद्धिमित्ततोऽङ्गतोङ्गथेयिथयिशब्दतो
विनायकश्शशाङ्कशेखरोग्रतः प्रनृत्यति ।। नमामि नाकनायकैकनायकं विनायक
कलाकलापकल्पनानिदानमादिपूरुषम् । गणेश्वरं गुणेश्वरं महेश्वरात्मसम्भवं
म्वपादमूलसेविनामपारवैभवप्रदम् ।। भजे प्रचण्डतुन्दिलं सदन्दशूकभूषणं • मनन्दनादिवन्दितं समम्तसिद्धमेवितम् ।
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तरुणोल्लासो द्वितीयः-गणपतिक्रमः
सुरासुरौघयोस्सदा जयप्रदं भयप्रदं
समस्तविघ्नघातिनं स्वभक्तपक्षपातिनम् ॥ कराम्बुजात्तकङ्कणः पदाब्जकिङ्किणीगणो __ गणेश्वरो गुणार्णवः फणीश्वराङ्गभूषणः । जगत्त्रयान्तरायशान्तिकारकोस्तु तारको
भवार्णवादनेकदुहाच्चिदेकविग्रहः ॥ यो भक्तिप्रवणः परावरगुरोस्स्तोत्रं गणेशाष्टकं
शुद्धस्संयतचेतसा यदि पठेन्नित्यं त्रिसन्ध्यं पुमान् । तम्य श्रीरतुला स्वसिद्धिसहिता श्रीशारदा सारदा स्यातां तत्परिचारिके किल तदा काः कामनानां कथाः ॥
सुवासिनीपूजा ततः श्रीक्रमे वक्ष्यमाणेन क्रमेण सुवासिनीपूजनहविःप्रतिपत्तिदेवतोद्वासनादिशेषं समापयेत् । अत्र च सुवासिन्या साकं वटुकार्चनमपि । तत्र मन्त्रः-३ वं वटुकाय नमः इति । मम निर्विघ्नं मन्त्रसिद्धिर्भूयादिति तौ प्रति प्रार्थनायां तथाऽस्त्विति तत्प्रतिवचनम् । मूलान्ते अमुकतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहेति तत्त्वत्रयशोधनं चेति विशेषः ॥
पुरश्चरणविधिः एवं नित्यक्रम प्रवर्तयन् श्यामाक्रमे वक्ष्यमाणेन विधिना अष्टाविंशतिसहस्रसह्यापुरश्चरणजपः । प्रकृते कलियुगत्वात् तच्चतुर्गुणितम् । प्रथमेऽहनि सहस्रं ततः प्रत्यहं त्रिसहस्रसङ्ख्यं च कृत्वा जपदशांशहोम-तद्दशांशतर्पण-तद्दशांशब्राह्मणभोजनानि विदध्यात् । होमद्रव्याणि च
मोदकैः पृथुकैर्लाजैः सक्तुभिश्चक्षुपर्वभिः ।
नारिकेलॅस्तिलैः शुद्धैः सुपक्कैः कदळीफलैः ॥ . इत्युक्तान्यष्टौ । एतेषां प्रमाणं तु--मोदका अखण्डिता ग्रासमिताः । पृथुकलाजसक्तवो मुष्टिपरिमिताः । इक्षुप्रमाणं श्लोक एवोक्तम् । नारिकेळं अष्टधा खण्डितम् । तिलाः
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नित्योत्सव:
चुळुकप्रमाणाः शतसङ्ख्याका वा । कदळीफलमल्पं यद्यखण्डितम्, पृथुचेद्यथारुचि खण्डितम् । अमीषां द्रव्याणां मधुक्षीरघृतसिक्तानां पृथक्पृथगाहुतयो होमसङ्ख्यापिण्डाष्टमभागमिताः ३५० लोकपाठक्रमेण भवन्ति । अष्टद्रव्यहोमात् प्रागावरणदेवतानां एकैकाहुतिः प्रधानदेवतायाश्च यादृशाहुतयः ताः आज्येनैव भवन्ति । तर्पणपूर्वाङ्गं तु चतुरावृत्तितर्पणवदेव ||
૩૪
7
इत्थं पुरश्चरणेन सिद्धमनुः स्वातन्त्र्येणोपास्तौ च श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण नैमित्तिकार्चनपरः, काम्यापेक्षी चेत् श्यामाक्रमे वक्ष्यमाणेन तत्तत्कामानुगुणेन द्रव्येण इष्ट्वा सिद्धसङ्कल्पः सुखी विहरेत् ॥ इति शिवम् ॥
इति श्रीभासुरानन्दनाथचरणारविन्द मिळिन्दायमानमानसेन उमानन्दनाथेन निर्मिते कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवनिबन्धे महागणपतिक्रमनिरूपणं नाम तरुणासो द्वितीयः समाप्तः
1 यावदाहु
९-११.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
नत्वा श्रीभासुरानन्दनाथपादाम्बुजद्वयम् । युनक्त्युमानन्दनाथो यौवनोल्लासमद्भुतम् ॥ महात्रिपुरसुन्दर्या मतोऽत्र यजनक्रमः । कीर्त्यन्ते गणपत्यादिक्रमाः यदुपजीविनः ।। आद्याय श्रीभासुरानन्दनाथाचार्यायास्मद्गुरवे ह्युमानन्दनाथः । श्रेयोमूलं साधकानां तनोति यौवनोल्लासं श्रीक्रमोपक्रमेण ॥ इह सप्तप्रकरणान्याह्निकेन सपर्यया । होममुद्रान्यासजपनैमित्तिकसमर्चनैः ।। आह्निके श्रीगुरुध्यानं प्राणसंयमनं ततः । चिद्विमर्शो हृदा मूलावृत्ती रश्मिसरस्मृतिः ॥ स्नानं सन्ध्याविधानं च पूजाप्रकरणे पुनः । द्वारपूजाऽऽत्मनेपथ्यं आसनावस्थितिक्रमः ॥ दीपनाथसपर्या च श्रीचक्रपरिकल्पनम् । मन्दिरार्चा भूतशुद्धिः प्रत्यूहोत्सारणं ततः ॥ न्यासजालविधिः पात्रासादनं मातुरर्चनम् । मुद्राकृतिः षडङ्गार्चा नित्याश्रीगुरुपूजनम् ॥ नवावृतिसपर्या च श्रीदेवीपुनरर्चनम् । अथ कामकलाध्यानं सौभाग्यहृदयस्मृतिः ॥ कृताकृतत्वं होमस्य बलिदानविधिस्तथा । जपस्तोत्रे सुवासिन्याः पूजनं तत्त्वशोधनम् ॥
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नित्योत्सवः देवतोद्वासनं चाथ विशेषार्थ्यविसर्जनम् । सङ्क्षपार्चाविधिस्तद्वत् क्रत्वर्थनियमास्ततः ॥ श्रीचक्रलेखनोपायस्तत्प्रतिष्ठाविधिस्तथा । होमादिप्रक्रियास्तत्तद्विधिज्ञानप्रयोजनाः ॥ सन्तु पद्धतयो लोके कल्पसूत्रानुगाः पराः । अनन्यसव्यपेक्षयं प्रायेणेति विभाव्यताम् ।। कादिहाद्योः पञ्चदश्योरियं साधारणी मता। श्रीषोडश्या विशेषस्तु तत्र तत्र निरूपितः ॥ सर्वश्रीक्रममन्त्रेषु त्रितार्या योजनं पुरः । ऐं ह्रीं श्रीमित्यात्मिकायास्सा च तत्पूर्वकेषु न ॥ श्रीमान् प्रोक्तगुणो लब्ध्वा दीक्षामुक्तगुणाद्गुरोः । इष्ट्वा महागणपतिमारभेत श्रियः क्रमम् ॥
आहिकप्रकरणम्
गुरुध्यानम् मुहूर्ते ब्राह्म उत्थाय निषण्णः शयने निजे । अपलापाय पापानामादावेवं समाचरेत् ।। स्वब्रह्मरन्ध्रगाम्भोजकर्णिकापीठवासिनम् । शिवरूपं श्वेतवस्त्रमाल्यभूषानुलेपनम् ॥ दयाऽऽदृष्टिं स्मेरास्यं वराभयकराम्बुजम् । वामाङ्कगतया पीतवपुषाऽरुणवेषया ॥ पद्मवत्या वामकरे शक्त्या दक्षभुजावृतम् । गौर श्रीभासुरं नाथं सानन्दं चिन्तयेत् सुधीः ॥
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यौवनोल्लासः तृतीय:-श्रीक्रमः ततः ऐं ह्रीं श्रीं इसमें हसक्षमलवरयूं सहक्षमलवरयीं 'सौं स्हौः अमुकाम्बासहितश्री अमुकानन्दनाथगुरु श्रीपादुकां पूजयामीति मन्त्रान्ते सुमुखसुवृत्तचतुरश्रमुद्रयोन्याख्याभिः पञ्चभिः मुद्राभिः तं प्रणमेत् । मुद्राप्रकारस्तु तत्प्रकरणे वक्ष्यते ।
तत:
नमस्ते नाथ भगवन् शिवाय गुरुरूपिणे । विद्याऽवतारसंसिद्धयै स्वीकृतानेकविग्रह ॥ नवाय नवरूपाय परमार्थस्वरूपिणे । सर्वाज्ञानतमोभेदभानवे चिद्घनाय ते ॥ स्वतन्त्राय दयाकृप्तविग्रहाय शिवात्मने । परतन्त्राय भक्तानां भव्यानां भव्यरूपिणे ॥ विवेकिनां विवेकाय विमर्शाय विमर्शिनाम् । प्रकाशानां प्रकाशाय ज्ञानिनां ज्ञानरूपिणे ॥ पुरस्तात् पार्श्वयोः पृष्ठे नमस्कुर्यामुपर्यधः । सदा मच्चित्तरूपेण विधेहि भवदासनम् ॥ इत्येवं पञ्चभिः श्लोकैः स्तुवीत यतमानसः । प्रातः प्रबोधसमय जपात् सुदिवसं भवेत् ॥
प्राणसंयमनम् अथ तच्चरणकमलयुगळविगळदमृतरसविसरपरिप्लुताखिलाङ्गं आत्मानं भावयन् शिवादिश्रीगुरुभ्यो नम इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः त्रिः प्राणानायच्छेत् । तत्प्रकारस्तु
–एकवारमावृत्तया मूलविद्यया पिङ्गळापथेन पूरकं, त्रिरावृत्तया तया मूलाधारानाहताज्ञासंज्ञेषु कमलेषु क्रमेण शोणपीतश्वेतकूटत्रयविभावनापूर्व सुषुम्नायां कुम्भकं, सकृदावृत्तया च तया इडानाडीवर्त्मना रेचकमिति । इह पूरकरेचकयोः पिङ्गळेडयोः व्यत्ययोऽपि दृष्टोऽन्यत्र ॥ 'सौं: स्हौं:-अ १.
श्रीपरमगुरुपरमेष्ठिगुरुश्री-अ १. ३ त्वत्प्रसादादहं देव कृतकृत्योऽस्मि सर्वदा । मायामृत्युमहापाशात् विमुक्तोऽस्मि शिवोऽस्मि च ॥ (इत्यधिक: अ, पुस्तके).
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नित्योत्सवः
चिद्विमर्श:
तेन च नियमितपवनमन:स्पन्दः आमूलाधारं आ च ब्रह्मरन्धमुद्द्वतां तटिलतासदृशाकृतिं तरुणारुणपिञ्जरतेजसं ज्वलन्तीं सर्वकारणभूतां परां संविदं विचिन्त्य
ચૂંટ
हृदा मूलावृत्ति: तद्रश्मिनिकरभस्मितसकलकश्मलजालो मूलं मनसा दशवारमावर्त्य
रश्मिमालास्मरणम्
वक्ष्यमाणान् रश्मिमालामन्त्रांश्च एकवारमावर्त्तयेत् । रश्मिस्रुगावर्तनं तु
त्रैवर्णिकविषयम् ॥
यदि प्रबोधसमकालमावश्यकोपाधिस्तदा तन्निरसनपूर्वमुक्तमनुतिष्ठेत् ॥ इति काव्यकृत्यम् ||
अजपा गायत्रीभावनम
1 [इति देव प्रार्थ्य गुरूपदेशेन ज्ञातं सहजसिद्धं अजपाजपं निवेदयेत् । मया पूर्वेद्युरजपां षट्छताधिक - एकविंशतिसाहत्रिकां निःश्वासोच्छ्वासरूपिणीं मूलाधारादिब्रह्मरन्ध्रान्तसप्तचक्रनिवासिनीभ्यो देवताभ्यो निवेदयामीति सङ्कल्प्य हंसस्सोऽहं इति मन्त्रं पञ्चविंशतिवारं जपित्वा तदुपरि निःश्वासोच्छ्रासादिकं गायत्रीरूपं भावयित्वा ॥
प्रातः प्रभृतिसायान्तं सायादिप्रातरन्ततः । यत्करोमि जगद्योने तदस्तु तव पूजनम् ॥]
भूप्रार्थनादि मुखक्षालनान्तम्
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादचारं क्षमस्व मे
11
1 [] एतचिह्नमध्यगतो भाग: (श्री. अ१) पुस्तकयोरेव दृश्यते.
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यौवनोल्लासः तृतीयः----श्रीक्रमः इति भूमिं प्रार्थ्य धरणीतलन्यम्तवहन्नाडीपार्श्वपादमुत्थाय ग्रामात् बहिः स्मार्तेन विधिना निर्वर्तितशौचक्रियः
आयुर्वलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।
ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥ इति मन्त्रेण दन्तधावनकाष्ठमभिमन्व्य, ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कामदेवाय सर्वजनप्रियाय नमः इति मन्त्रेण दन्तधावनं, ऐं ह्रीं श्रीं हृल्लेखया जिह्वोल्लेखनं च विधाय, कफविमोचननासाशोधनदृषिकानिरसनपूर्वकं विहितविंशतिगण्डूषः, ऐं ह्रीं श्रीं श्रीं--ह्रीं श्रीं ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमःएं ह्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं-ऐं ह्रीं श्रीं 'सहकलह्रीं श्रीं-इति मन्त्रचतुष्टयेन मुखं प्रक्षाळ्य यथास्मृत्याचामेत् ॥
स्नानविधिः ततो नद्यादौ वैदिकस्नानोत्तरं श्रीललिताप्रीत्यर्थं तान्त्रिकस्नानं करिष्ये इति सङ्कल्प्य. जले पुरतो हस्तमात्रं चतुरश्रमण्डलं परिगृह्य, तत्र--
ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवे ।
तेन सत्येन मे देव तीर्थ देहि दिवाकर ॥ इति सूर्यमभ्यर्थ्य,
आवाहयामि त्वां देवि स्नानार्थमिह सुन्दरि ।
एहि गङ्गे नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते ॥ इति गङ्गामर्थयित्वा ऐं ह्रीं श्रीं ह्वां ह्रीं ह्यूं हैं ह्रौं हः क्रों इत्यङ्कुशमुद्रया सूर्यमण्डलं भित्त्वा, ततो गङ्गाऽऽदिसर्वतीर्थावाहनोत्तरं वं इति सलिलबीजेन सप्तवारमभिमन्त्र्य, मुहुर्मूलमावर्तयन् मूर्धनि त्रीनुदकाञ्जलीन् दत्वा, त्रिरपश्च पीत्वा, मूलपूर्व श्रीललितां तर्पयामीति त्रिस्तर्पणं, मूलेन त्रिः प्रोक्षणं च आत्मनो योनिमुद्रया विदध्यात् ।।
. ' सकल-अ, अ१. हसकल-बर.
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निल्योत्सवः गृहे तु विना तर्पणम् । अशक्तौ च स्मार्तेन पथा मन्त्रमस्मनानयोरन्यतरं निवर्त्य मूलेन त्रिराचमनप्रोक्षणे केवलं कुर्यात् ॥
सन्ध्याविधिः अथ धौते वाससी परिधाय विधृतपुण्ड्रः वैदिकी सन्ध्यामभिवन्ध तान्त्रिकीमाचरेत् । यथा --मूलेन त्रिराचम्य द्विः परिमृज्य सकृदुपस्पृश्य चक्षुषी नासिके श्रोत्रे असे नामि हृदयं शिरश्चाभिम्पृशेत् । 'एवं त्रिराचम्य, पूर्ववत् प्राणानायम्य, त्रिरात्मानं च प्रोक्ष्य, अञ्जलिना सलिलमादाय ऐं ह्रीं श्रीं हां ही हरू सः मार्ताण्डभैरवाय प्रकाशशक्तिसहिताय म्वाहेतिमन्त्रेण उदयते विवस्वने त्रिरये दत्वा तन्मण्डले श्रीचक्रमनुचिन्त्य तत्र ध्यायेत्
ध्यायेत् कामेश्वराङ्कस्थां कुरुविन्दमणिप्रभाम् । शोणाम्बरस्रगालेपां सर्वाङ्गीणविभूषणाम् ॥ सौन्दर्यशेवधिं सेषुचापपाशाङ्कुशोज्ज्वलाम् । म्वभाभिरणिमाद्याभिः सेव्यां सर्वनियामिकाम् ॥ सच्चिदानन्दवपुषं सदयापाङ्गविभ्रमाम् ।
सर्वलोकैकजननीं स्मेरास्यां ललिताऽम्बिकाम् ।। अत्रायुधानां क्रमः स्वरूपं च सपर्याप्रकरणे वक्ष्यते ॥
ततः-ऐं ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं त्रिपुरसुन्दरि विद्महे ऐं ह्रीं श्रीं ह स क ह ल ह्रीं पीठकामिनि धीमहि ऐं ह्रीं श्रीं सकलहीं तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात् – इति मन्त्रेण महेश्यै त्रिरयं दत्वा मूलेन त्रिः सन्तर्प्य मूलेन पूर्ववदाचम्य जपप्रकरणे वक्ष्यमाणान् ऋप्यादीन् न्यस्य मूलमष्टोत्तरशतवारं आवर्तयेत् । ततः पुनः
1 षोडश्युपासनायां तु मूलत्रये दशबीजसम्पुटितेन प्रथमादिखण्डत्रयेण तत्त्वशोधनम् । सर्वेण मूलेन सर्वतत्त्वशोधनं चेति विशेषः । एवमुत्तरत्रापि खण्डत्रयेण ज्ञेयम् । इत्यधिकः (अ) पुस्तके.
"परदेवतां-अ, अ१, भ.
३ ह्रां ह्रीं ह्रूं सः मार्ताण्डभैरवं तर्पयामि त्रिः। मूलेन साङ्गां सायुधां सशक्तिकां सवाहनों सपरिवारां श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरीं तर्पयामीति त्रिः सन्तर्प्य आचम्य-इत्यधिक: (अ) पुस्तके.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
१ कराङ्गन्यासादिकं कृत्वा जपं वक्ष्यमाणमन्त्रेण श्रीदेव्यै समर्प्य आचम्य मण्डलस्थं तीर्थ विसर्जनमुद्रया सूर्ये विसृजेत् ॥
इयमेकैव प्रातःसंध्याऽनुष्ठेया सूत्रकारमते नान्या माध्याह्निकादयः ॥ अथ सपर्यासाधनानि सम्पाद्य ब्रह्मयज्ञादि निवर्तयेत् इति शिवम् ॥
आहिकप्रकरणं प्रथम समाप्तम्
सपर्याप्रकरणम्
यागमन्दिरप्रवेशः अथ मौनवान् यागमन्दिरमागत्य, गोमयेनोपलिप्तद्वारस्थण्डिलाभ्यन्तरस्य रङ्गवल्ल्याद्यलङ्कृतस्य धूपधूपितस्य बद्धवितानकुसुमस्रजो मण्टपस्य पश्चिमद्वारे तिष्ठन् दक्षवामशाखयोः ऊर्ध्वभागे च क्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं भद्रकाल्यै नमः, ३ भैरवाय नमः, ३ लम्बोदराय नमः ॥ इति तिस्रो द्वारदेवताः सम्पूज्य, अन्तः प्रविष्टश्चाचम्य देशकालौ सङ्कीर्त्य मम श्रीललिताप्रसादसिद्धयर्थं यथाशक्ति क्रमं निर्वर्तयिष्ये इति सङ्कल्प्य, विधृतारुणवसनाभरणानुलेपनमाल्यः, सङ्कल्पमात्रकल्पिताकल्पो वा, ताम्बूलेन जातीपत्रफललव.लाकर्पूराख्यपञ्चतिक्तेन वा सुरभिळवदनः समास्तीर्णे ऊर्णावसनमृदुनि शुचिनि बालातृतीय बीजेन द्वादशवारमभिमन्त्रिते मूलमन्त्रोक्षिते चित्रकम्बळाद्यन्यतमे आसने ऐं ह्रीं श्रीं आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति पुप्पाक्षतैरभ्यर्च्य प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मासनाद्यन्यतमेन आसनेन उपविशेत् ॥
शकुलार्णवे
यदाशाऽभिमुखो मन्त्री त्रिपुरां परिपूजयेत् ।
देवीपश्चात्तदा प्राची प्रतीची त्रिपुरापुरः ।। इति पूज्यपूजकयोः मध्यं प्रतीचीति नियमः ॥] 'बीजहंसमन्त्राभ्यां-अ.
'अयं भागः (श्री) कोश एव.
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नित्योत्सवः . .[शक्तिसङ्गमतन्त्रे नित्यनैमित्तिकपुरश्चरणादिव्यतिरिक्तेषु काम्येषु जपेषु गजाश्वादीनि चरासनान्युक्तानि । तदलाभे मृत्प्रकृतिकानि कुशप्रकृतिकानि वा आन्दोळिकादीनि वृक्षविशेषरूपाणि च कथितानि । विस्तरभिया न तद्वचनलेखः ॥]
ततः ऐं ह्रीं श्रीं रक्तद्वादशशक्तियुक्ताय दीपनाथाय नम इति भूमौ पुष्पाञ्जलिं दद्यात् । ततः ऐं ह्रीं श्रीं समस्तगुप्तप्रकटसिद्धयोगिनीचक्रश्रीपादुकाभ्यो नम इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः स्ववामदक्षपार्श्वयोः क्रमेण पूर्ववत् श्रीगुरुपादुकामनुमुच्चार्य, पञ्चमुद्राभिः श्रीगुरुं महागणपतिमन्त्रेण च गणपतिं प्रणम्य ऐं ह्रीं श्रीं ऐं हः अस्त्राय फट् इत्यस्त्रमन्त्रेण मुहुरावृत्तेन अंगुष्ठादिकनिष्ठान्तं करतलयोः कूर्परयोः देहे च व्यापकं कुर्यात् ॥
. श्रीचक्रपरिकल्पनम् अथ पुरतश्चतुर्विशत्यमुलिमितां भूमिमपहाय, गोमयेनोपलिप्ते शुचिनि समे हस्तमात्रस्थण्डिले यथायोग्यपरिमाणे सुवर्णरूप्यताम्रादिपट्टे वा क्षीरमिश्रितेन सिन्दूररजसा कुङ्कुमेन वा हेमादिलेखिनीगृहीतेन बिन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्मचतुर्दशारकर्णिकावृत्ताष्टदळपुनःकर्णिकावृत्तषोडशदळमर्यादावृत्तत्रयचतुरश्रत्रितयात्मकं श्रीचक्रं विलिखेत् , विलेखयेद्वा । स च प्रकारः एतत्प्रकरणावसाने कथयिप्यते ॥
यन्त्रप्राणप्रतिष्ठा अथ सूत्रानुक्तामपि साम्प्रदायिकसम्मतां तन्त्रान्तरोदितां यन्त्रप्राणप्रतिष्ठा कुर्यात् । यथा—ऐं ह्रीं श्रीं श्रीचक्रस्य प्राणा इह प्राणाः श्रीचक्रस्य जीव इह स्थितः श्रीचक्रस्य सर्वेन्द्रियाणि श्रीचक्रस्य वाङ्मनःप्राणाः इह आयान्तु स्वाहा इति । एवमेव आत्मप्राणप्रतिष्ठाऽऽदौ सम्प्रदायः शरणीकार्यः ॥
यद्वा-काश्चनरूप्यपञ्चलोहरत्नस्फटिकगण्डकीशिलाद्युत्कीर्ण वक्ष्यमाणेन प्रतिष्ठाविधिना प्रतिष्ठापितं तत्स्वास्तीर्णपट्टवसने श्रीखण्डचन्दनादिनिर्मिते पीठे निवेशयेत् ॥
'मयं भागः (भ) कोशे नास्ति.
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यौवनोल्लासः तृतीयः--श्रीक्रमः
मन्दिरार्चा अथ तत्र चक्रराजे मन्दिरपूजां कुर्यात् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं अमृताम्भोनिधये नमः, -रत्नद्वीपाय, नानावृक्षमहोद्यानाय, कल्पवाटिकायै, सन्तानवाटिकाय, हरिचन्दनवाटिकायै, मन्दारवाटिकाय, पारिजातवाटिकायै, कदम्बवाटिकायै, पुष्परागरत्नप्राकाराय, पद्मरागरत्नप्राकाराय, गोमेदकरत्नप्राकाराय, वज्ररत्नप्राकाराय, वैडूर्यरत्नप्राकाराय, इन्द्रनीलरत्नप्राकाराय, मुक्तारत्नप्राकाराय, मरकतरत्नप्राकाराय, विद्रुमरत्नप्राकाराय, माणिक्यमण्टपाय, सहस्रस्तम्भमण्टपाय, अमृतवापिकाये, आनन्दवापिकायै, विमर्शवापिकायै, बालातपोद्गाराय, चन्द्रिकोद्गाराय, महाशृङ्गारपरिघायै, महापद्माटव्य, चिन्तामणिमयगृहराजाय, पूर्वान्नायमयपूर्वद्वाराय, दक्षिणाम्नायमयदक्षिणद्वाराय, पश्चिमाम्नायमयपश्चिमद्वाराय, उत्तराम्नायमयोत्तरद्वाराय, रत्नप्रदीपवलयाय, मणिमयमहासिंहासनाय, ब्रह्ममयैकमञ्चपादाय, विष्णुमयैकमञ्चपादाय, रुद्रमयैकमञ्चपादाय, ईश्वरमयैकमञ्चपादाय, सदाशिवमयैकमञ्चफलकाय, हंसतूलतलिमाय, हंसतूलमहोपधानाय, कौसुम्भास्तरणाय,
महावितानकाय,-ऐं ह्रीं श्रीं महायवनिकायै नमः ॥ इति चतुश्चत्वारिंशन्मन्दिरमन्त्रैः तत्तदखिलं भावयन् कुसुमाक्षतैरभ्यर्चयेत् । एवमेव सर्वत्र अर्चने तत्तद्भावना श्रेयसी ॥
वर्धनीपात्रनिधानादि दीपप्रज्वालनान्तम् ततो जलपूर्ण वर्धनीपात्रं स्ववामभागे, गन्धपुप्पाक्षतादिकां सपर्यासामग्री समग्रां स्वदक्षदेशे, क्षीरकलशादिकं देव्याः पश्चाद्भागे च निधाय, दीपानभितः प्रज्वालयेत् । असम्भवे तु दीपौ दीपं वा । इह च विशेषः
घृतदीपो दक्षिणे स्यात्तैलदीपस्तु वामतः ।
सितवर्तियुतो दक्षे वामतो रक्तवर्तिकः ॥ दक्षवामभागौ देव्या एव ॥
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नित्योत्सवः
भूतशुद्धिः ततो ऐं ह्रीं श्रीं मूलेन श्रीचक्रे पुष्पाञ्जलिं दत्वा, ३ क ए ई ल ह्रीं नमः इति त्रिकोणस्य स्वाग्रकोणं, ३ ह स क ह ल ह्रीं नमः इति ईशानकोणं, ३ स क ल ह्रीं नमः इति आग्नेयकोणं अभ्यर्च्य भूतशुद्धिं विदध्यात् । यथाश्वाससमीरं पिङ्गळया नाड्या अन्तराकृष्य ३ मूलशृङ्गाटकात् सुषुम्नापथेन जीवशिवं परमशिवपदे योजयामि स्वाहा इति मन्त्रेण मूलाधारस्थितं जीवात्मानं सुषुम्नावर्त्मना ब्रह्मरन्ध्र नीत्वा परमशिवेनैकीभूतं भावयित्वा इडया वायुं रेचयेत् । एवमेवोत्तरत्र शोषणादिष्वपि प्रातिस्विकं .पूरकरेचने । ३ यं सङ्कोचशरीरं शोषय शोषय स्वाहेति 'निजशरीरं शोषितं विभाव्य, ३ रं सङ्कोचशरीरं दह दह पच पच स्वाहेति प्लुष्टं भस्मीकृतं च विभाव्य, ३ वं परमशिवामृतं वर्षय वर्षय स्वाहेति तद्भस्म सहस्रारेन्दुमण्डलविगळदमृतरसेन सिक्तं च विभाव्य, ३ लं शाम्भवशरीरं उत्पादयोत्पादय स्वाहेति तद्भस्मनो दिव्यशरीरमुत्पन्नं च विभाव्य, ३ हं सः सोऽइम्वतरावतर शिवपदात् जीवं सुषुम्नापथेन प्रविश मूलशृङ्गाटकमुल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल हंसः सोऽहं स्वाहेति परमशिवेनैकीकृतं जीवं पुनः सुषुम्नावर्त्मना मूलाधारे स्थापितं विचिन्तयेत् । सङ्कोचशरीरं नाम पाञ्चभौतिकं परिच्छिन्नमिदमेबाङ्गम् ॥ इति भूतशुद्धिः ॥
आत्मप्राणप्रतिष्ठा अथ आत्मप्राणप्रतिष्ठा अनुष्ठेया । तस्याश्च तन्त्रान्तरेषु विस्तरेऽपि सूत्रकारस्य सङ्कुचितप्रयोगप्रियत्वात् ज्ञानार्णवोक्त एव तत्प्रकारो ग्राह्यः । यथा-हृदि दक्षकरतलं निधाय ३ आं सोऽहमिति त्रिः पठेत् इति ॥
प्रत्यूहोत्सारणम् ततः प्राग्वत् विंशतिधा षोडशधा दशधा सप्तधा त्रिधा वा प्राणानायम्य, ऐं ह्रीं श्रीं-अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया । 'सूक्ष्मशरीरं-अ, भ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः -श्रीक्रमः
इति मन्त्रं सकृदुच्चार्य, युगपद्वामपाणिभूतलाघातत्रय-करास्फोटत्रय - क्रूरदृष्टयवलोकनपूर्वं तालत्रयेण भौमान्तरिक्षदिव्यान् भेदावभासकान् विघ्नानुत्सारयेत् । तालत्रयं नाम दक्षतर्जनीमध्यमाभ्यां अधोमुखाभ्यां वामकरतले सशब्दं उपर्युपरि त्रिरभिघातः ॥
न्यासजालविधिः
अथ नम इत्यङ्गुष्ठमन्त्रमुच्चारयन् अङ्कुशेन शिखां बद्धा, श्रीदेवीरूपं भावयन् आत्मानं स्वदेहे न्यासजालात्मकं वज्रकवचं विदधीत । न्यासाश्च
मातृकान्यासः, करशुद्धिन्यासः, आत्मरक्षान्यासः, चतुरासनन्यासः, बालाषडङ्गन्यासः, वशिन्यादिन्यासः, मूलविद्यावर्णन्यासः, षोढान्यासः, चक्र
न्यासः ||
तेषु विद्यावर्णन्यासः कादिहादिभेदेन द्विविधोऽपि तत्तदुपासकस्यैकैक एव । षोढाचक्रन्यासौ कृताकृतौ । करणे त्वभ्युदय एव । श्रीषोडश्युपासकस्य पञ्चविधा मूलवर्णन्यास इति विशेषः । न्यासानामितिकर्तव्यता न्यासप्रकरणे व्यक्तीभविष्यति ॥
पात्रासादनम् - सामान्यार्घ्यविधिः
स्वासनस्य द्वादशाङ्गुलमितात् प्रदेशात् परतो भुवि शुचिनि स्थले स्वस्य वामतो देव्याः पुरतो गन्धाक्षतकुसुमसमर्चितेन सप्तवारं त्रिवारं वा मूलमन्त्राभिमन्त्रितेन वर्धनीपात्रगतेन शुद्धेनाम्भसा बिन्दुत्रिकोणषट्कोणवृत्तचतुरश्रात्मकं मण्डलं मत्स्यमुद्रया निर्माय पुष्पैरभ्यर्च्य चतुरश्रस्याम्नीशासुरवायुकोणेषु मध्ये पूर्वादिदिक्षु च क्रमेण—
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं हृदयाय नमः । आग्नेये ।
क्लीं शिरसे स्वाहा | ईशान्ये । सौः शिखायै वषट् 1 नैर्ऋतौ ऐं कवचाय हुम् । वायव्ये ।
1
३
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४५
३
३
क्लीं नेत्रत्रयाय वौषट् । मध्ये ।
1
सौः अस्त्राय फट् । प्रागादिचतुर्दिक्षु ॥
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नित्योत्सवः इति पुष्पैः षडङ्गं विन्यसेत् । अत्र पूर्वादिचतुर्दिगधिकरणकं सकृदेकमेवास्त्रं ज्ञेयम् । एवमुत्तरत्रापि । अथ तत्र मण्डले ऐं ह्रीं श्रीं अस्त्राय फडिति क्षाळितं चतुरङ्गुलविस्तारोत्सेधं स्वर्णरूप्यताम्रादिमयं त्रिपदं चतुप्पदं षट्पदमष्टपदं वा आधारं ३ अं अमिमण्डलाय 'दशकलाऽऽत्मने अर्घ्यपात्राधाराय नम इति निधाय अमिमण्डलत्वेन विभावितस्य तस्य पश्चिमादिप्रादक्षिण्यक्रमेण
ह्रीं श्रीं धूम्रार्चिषे नमः, ऊष्मायै, ज्वलिन्यै, ज्वालिन्यै, विस्फुलिङ्गिन्यै, सुश्रियै, सुरूपायै, कपिलाय, हव्यवाहायै, कव्यवाहायै नमः ।। इति दशवह्निकलाः सम्पूज्य, आधारोपरि अस्त्रेण क्षाळितं शङ्ख ३ उं सूर्यमण्डलाय द्वादशंकलाऽऽत्मने अर्घ्यपात्राय नम इति प्रतिष्ठाप्य सूर्यमण्डलात्मकतया ध्यातस्य तस्य पूर्वोक्तक्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं के भं तपिन्यै नमः, खं बं तापिन्यै, गं फं धूम्रायै, घं पं मरीच्यै, डं नं ज्वालिन्यै, चं धं रुच्यै, छं दं सुषुम्नायै, जं थं भोगदायै,
झं तं विश्वायै, अं णं बोधिन्यै, टं ढं धारिण्यै, ठंडं क्षमायै नमः ॥ इति द्वादशसूर्यकलाः समभ्यर्च्य, तस्मिन् शंखे ३ मं सोममण्डलाय षोडशकलाऽऽत्मने अामृताय नम इति कर्पूरादिवासितं वर्धनीसलिलमापूर्य क्षीरबिन्दं दत्वा, सोममण्डलत्वेन सञ्चिन्तिते तत्र अय॑सलिले पूर्वोक्तक्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं अमृतायै नमः, मानदायै. पूषायै, तुष्टयै, पुष्टयै, रत्यै, धृत्यै, शशिन्यै, चन्द्रिकायै, कान्त्यै, ज्योत्स्नायै, श्रियै, प्रीत्यै, अङ्गदायै,
पूर्णायै, पूर्णामृतायै नमः॥ इति षोडशेन्दुकलाः यजेत् । ततः पूर्ववत् विदिक्षु मध्ये दिक्षु च, ३ क ए ई ल ह्रीं हृदयाय नमः हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि इत्यादिरीत्या त्रितारीयुतकूटत्रयं द्विरावर्त्य पुप्पैः षडङ्गानि समर्चयेत् । श्रीषोडशाक्षों तु यथास्थितेन कूटषट्केनैव । एवमुत्तरत्रापि ॥ 1'धर्मप्रद' इत्यधिकः-अ.
'अर्थप्रद' इत्यधिकः-अ. 3 'कामप्रद' इत्यधिकः-अ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः . अथ अस्त्राय फडिति अस्त्रमन्त्रेण संरक्ष्य, ३ कवचाय हुमिति अवकुण्ठनमुद्रया अवकुण्ठ्य, धेनुयोनिमुद्रे प्रदर्श्य, मूलेन सप्तवारमभिमन्व्यं, तत्सलिलपृषतैः आत्मानं पूजोपकरणानि चावोक्ष्य, शङ्खगतजलात् किञ्चिद्वर्धन्यां क्षिपेत् ॥ इति सामान्यायविधिः ॥
विशेषार्थ्यविधिः अथ सामान्यायॊदकेन तद्दक्षिणतो बिन्दुत्रिकोणषट्कोणवृत्तचतुरश्रात्मकं मण्डलं मत्स्यमुद्रया परिकल्प्य, बिन्दौ सानुस्वारं तुरीयस्वरमालिख्य (विद्यया मध्यमभ्यर्च्य) चतुरश्रे प्राग्वत् षडॉ विन्यस्य कूटत्रयेण त्रिकोणकोणानभ्यर्च्य पुरोभागादिप्रादक्षिण्येन कूटत्रयद्विरावृत्त्या षट्कोणस्य कोणांश्च क्रमेण कुसुमादिभिः अभ्यर्चयेत् । अथ तत्र मण्डले ३ ऐं अग्निमण्डलाय "दशकलाऽऽत्मने अर्घ्यपात्राधाराय नम इति उक्तलक्षणमाधारमादाय, प्राग्वत् विचिन्त्य तस्मिन्नुक्तदिशामु दशकृशानुकलाः संमृश्य, तदुपरि सुवर्णरूप्यशङ्खमुक्ताशुक्तिमहाशङ्खनारिकेळाश्वत्थपलाशादिनिर्मितमुक्तविस्तारोत्सेधं त्रिकोणचतुरश्रवर्तुलाद्यन्यतमाकारं पात्रं ३ क्लीं सूर्यमण्डलाय 'द्वादशकलाऽऽत्मने अर्घ्यपात्राय नम इति मन्त्रेण निधाय, पूर्ववत् विभाविते तत्र ३ ह्रीं ऐं महालक्ष्मि ईश्वरि परमस्वामिनि ऊर्ध्वशून्यप्रवाहिनि सोमसूर्याग्निभक्षिणि परमाकाशभासुरे आगच्छ आगच्छ . विश विश पात्रं प्रतिगृह्ण प्रतिगृह्ण हुं फट् स्वाहा इति मन्त्रेण पुप्पाञ्जलिं विकीर्य, दर्शितक्रमेण द्वादशदिनेशकलाः सम्भाव्य, तत्र पात्रे सौः सोममण्डलाय 'षोडशकलाऽऽत्मने अर्ध्यामृताय नम इति मन्त्रेण कलशगतं कस्तूरिकाऽऽद्यधिवासितं क्षीरमभिपूर्व प्राग्वत् अवमृष्टे तत्र चन्दनागरुकर्पूरकचोरकुङ्कुमरोचनाजटामांसिशिलारसाख्याष्टगन्धपकलोलितं यथासम्भवं गन्धकर्दमक्लिन्नं वा सुरभिळं कुसुमं निक्षिप्य मूलशकलान्याकनागरादिखण्डानि च सम्मिश्य प्रागुक्तभङ्गया षोडशसोमकलाः सम्पूज्य, तत्र विशेषाामृते स्वाग्रादिप्रादक्षिण्येन अकथादिषोडशवर्णात्मकरेखात्रयं त्रिकोणं विलिख्य, तदन्तः स्वाग्रादिकोणेषु प्रादक्षिण्येन हळक्षान् विलिख्य, बहिश्च मूलखण्डत्रयं, बिन्दौ सबिन्दु तुरीयस्वरं, तद्वामदक्षयोः क्रमेण हं
'कुण्डलितो भागः (श्री) कोश एव वर्तते. 'धर्मप्रद' इत्यधिकः-अ. ३ 'अर्थप्रद' इत्यधिकः-अ.
4 'कामप्रद' इत्यधिकः-अ.
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नित्योत्सवः
सः इति च वर्णौ विलिख्य, ३ हं सः नम इति मन्त्रेण आराध्य, त्रिकोणस्य परितो वृत्तं निर्माय तद्बहिश्च षट्कोणं निर्माय स्वाग्रकोणादिप्रादक्षिण्येन प्रागुक्तैः षडङ्गमन्त्रैः षडङ्गयुवतीरभिपूज्य, ३ मूलान्ते तां चिन्मयीं आनन्दलक्षणां अमृतकलशपिशितहस्तद्वयां प्रसन्नां देवीं पूजयामि नमः स्वाहेति सुधादेवीमभ्यर्च्य तदयै किञ्चित् पात्रान्तरेण ३ वषडित्युद्धृत्य पुनः ३ स्वाहेति मन्त्रेण तत्रैव अर्ध्यामृते निक्षिप्य, ३ हुं इत्यवगुण्ठ्य, ३ वौषट् इति धेनुमुद्रया अमृतीकृत्य, ३ फट् इति संरक्ष्य, ३ नम इति पुष्पं दत्वा गाळिन्या मुद्रया ३ मूलेन निरीक्ष्य, योनिमुद्रया नत्वा, मूलेन सत्रितारकेण सप्तवारमभिमन्त्र्य, गन्धाक्षतपुष्पधूपदीपान् दत्वा, विशेषार्ध्यपृषद्भिः समुक्षितसपर्यासाधनः सर्वं विद्यामयं विधाय विशेषार्घ्यपात्रं करेण संस्पृश्य चतुर्नवत्या मन्त्रैः अभिमन्त्रयेत् । मन्त्राश्च — त्रितारीनमः सम्पुटिता: धूम्रार्चिषे इत्याद्या मूलविद्याऽन्ताः । तत्र वह्निसूर्यसोमकला अष्टत्रिंशत् पूर्वं उक्ता एवेह ग्राह्याः । ततःऐं ह्रीं श्रीं सृष्ट्यै नमः, ऋध्यै, स्मृत्यै, मेधायै, कान्त्यै, लक्ष्म्यै, चुत्यै, स्थिरायै, स्थित्यै, सिद्ध्यै नमः ॥
*.
इति ब्रह्मदशकलाः सम्पूज्य,
ऐं ह्रीं श्रीं जरायै नमः, पालिन्यै, शान्त्यै, ईश्वर्यै, रत्यै, कामिकायै, वरदायै, हादिन्यै, प्रीत्यै, दीर्घायै नमः ॥
इति बिष्णुदशकलाः सम्पूज्य,
ऐं ह्रीं श्रीं तीक्ष्णायै नमः, रौद्रयै, भयायै, निद्रायै, तन्द्रयै, क्षुधायै, क्रोधिन्यै, क्रियायै, उद्गायै, मृत्यवे नमः ॥
इति दश रुद्रकलाः सम्पूज्य,
ऐं ह्रीं श्रीं पीतायै नमः, श्वेतायै, अरुणायै, असितायै नमः ॥ इति चतस्रः ईश्वरकलाः सम्पूज्य,
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ऐं ह्रीं श्रीं निवृत्त्यै नमः, प्रतिष्ठायै, विद्यायै, शान्त्यै, इन्धिकायै, दीपिकायै, रेचिकायै, मोचिकायै परायै, सूक्ष्मायै, सूक्ष्मामृतायै, ज्ञानायै, ज्ञानामृतायै, आप्यायिन्यै, व्यापिन्यै व्योमरूपायै नमः ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः -- श्रीक्रमः
इति सदाशिवषोडशकलाः सम्पूज्य,- - अत्र ब्रह्मविष्णुरुद्राणां प्रत्येकं दशकलाः, ईश्वरस्य चतस्रः, सदाशिवस्य षोडशेति विवेकः । आहत्य कलाः अष्टाशीतिः ॥
ऐं ह्रीं श्रीं हसश्शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्वयोमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ नमः ॥
ऐं ह्रीं श्रीं प्रतद्विष्णुस्तवते वीर्याय मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेषु अधिक्षयन्ति भुवनानि विश्वा ॥ नमः ||
ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥ नमः ॥
ऐं ह्रीं श्रीं तद्विष्णोः परमं पद सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥ तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवासः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ नमः ॥
ऐं ह्रीं श्रीं विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिशतु । आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ॥ गर्भं वेहि सिनीवालि गर्भं धेहि सरस्वति । गते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजा || नमः ॥
एतेषु पञ्चमन्त्रेषु अन्त्यौ द्वौ द्विद्विगात्मकौ ॥
मूलविद्या -
ऐं ह्रीं श्रीं कए ई लह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकलह्रीम् ॥ नमः ॥
आहत्य षट् । पूर्वमुक्ता अष्टत्रिंशत् ततः पञ्चाशत्, ततः षट्, आहत्य मन्त्राः चतुर्नवतिः ॥
केषां चिन्मते
अखण्डैकरसानन्द' करे परसुधामनि ।
स्वच्छन्दस्फुरणामत्र निधेहि कुलनायिके || नमः ॥ अकुळस्थामृताकारे शुद्धज्ञानकरे परे ।
अमृतत्वं निधेयस्मिन् वस्तुनि क्लिन्नरूपिणि ॥ नमः ॥
2 त्मिके – अ.
1 परे -अ, बं३, भ.
58
४९
s मातः - अ.
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नित्योत्सवः । त्वद्रूपिण्यैकरस्यत्वं कृत्वा ह्येतत्स्वरूपिणि । भूत्वा परामृताकारा मयि चित्स्फुरणं कुरु ॥ नमः ॥
ऐं ब्लू झौं जूं सः अमृते अमृतोद्भवे अमृतेश्वरि अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय स्वाहा ॥ नमः ॥
ऐं वद वद वाग्वादिनि ३ ऐं क्लीं क्लिने क्लेदिनि क्लेदय क्लेदय महाक्षोभं कुरु कुरु ३ क्लीं सौः मोक्षं कुरु कुरु हसौं स्हौः ॥ नमः ॥ इत्येतैरपि मन्त्रैः पञ्चभिरभिमन्त्रणम् । आहत्य मन्त्रपिण्डसङ्ख्या एकोनशतम् ॥
एतदर्थ्यसंशोधनम् ॥
एवमभिमन्त्रणेन ज्योतिर्मयीकृतात् विशेषार्ष्यामृतात् पात्रान्तरे किश्चिदुद्धृत्य तद्विन्दुभिः त्रिवारं श्रीगुरुपादुकामन्त्रेण शिरसि श्रीगुरुं यजेत् । सन्निहिताय तु निवेदयेत् । स्वयं च
श्रीं ह्रीं क्लीं आर्द्र ज्वलति ज्योतिरहमस्मि । ज्योतिर्व्वलति ब्रह्माहमस्मि । योऽहमस्मि ब्रह्माहमस्मि । अहमस्मि ब्रह्माहमस्मि । अहमेवाहं
मां जुहोमि स्वाहा ॥ इति मन्त्रेण आत्मनः कुण्डलिनीरूपे चिदनौ होमबुद्धया जुहुयात् । विशेषाऱ्यापात्रात् किश्चित् क्षीरं 'कारणकलशे निक्षिपेत् ।। कलशलक्षणं श्यामारहस्ये
पञ्चाशदगुलो व्यास उच्छायो द्वादशाङ्गुलः ।
कलशानां प्रमाणं तु मुखमष्टाङ्गुलं स्मृतम् ॥ कलशः कांस्यजोऽपि स्यात् । स च देवतायाः पृष्ठे स्थाप्य इति । आविसर्जनं शङ्ख विशेषार्घ्यपात्रं च न चालयेत् । इदं पात्रद्वयमेव सूत्ररीत्या श्रीक्रमे नान्यत् ॥ इति विशेषाय॑म्थापनविधिः ॥ 'कारण पदं (अ, श्री) कोशयोग्व.
२ पञ्चदशाङ्गुलो-अ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः -- श्रीक्रमः
अन्तर्यागः
स च ज्ञानार्णवे दृष्टः । यथा -- मूलाधारादा ब्रह्मबिलं विलसन्तीं बिसतन्तु - तनीयसीं विद्युत्पुञ्जपिञ्जरां विवस्वदयुतभास्वत्प्रकाशां परश्शतसुधामयूखशीतलतेजोदण्डरूपां परचितिं भावयेदिति । अथ हृदि श्रीचक्रं विभाव्य तत्र तामेव स्वीकृतप्रागुक्तरूपां श्रीदेवीं ध्यात्वा वक्ष्यमाणैः गन्धादिताम्बूलान्तं षडुपचारमन्त्रैः उपचर्य तां पुनस्तेजोरूपेण परिणतां परमशिवज्योतिरभिन्नप्रकाशात्मिकां वियदादिविश्वकारणां सर्वावभासिकां स्वात्माभिन्नां परचितिं सुषुम्नापथेन उद्गमय्य विनिर्भिन्नविधिबिलविलसदमलदशशतदळकमलाद्वहन्नासापुटेन निर्गतां त्रिखण्डामुद्रामण्डित शिखण्डे कुसुमगर्भिते अञ्जलौ समानीय ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं श्रीं सौः श्रीललिताया अमृतचैतन्यमूर्ति कल्पयामि नमः इति मन्त्रमुच्चारयन् निजलीलाऽङ्गीकृतललितवपुषं विचिन्त्य — ऐं ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्स्क्लरीं ह्सौः ।
महापद्मवनान्तःस्थे कारणानन्दविग्रहे । सर्वभूतहिते मातरेह्येहि परमेश्वरि ॥
इति मन्त्रेण बिन्दुपीठगतनिर्विशेषब्रह्मात्मकश्रीमत्कामेश्वराङ्के परदेवतामावाहयेत् ॥ अथ नित्याऽऽदिकमणिमाऽन्तं श्रीकामेश्वराङ्कोपवेशनं विना श्रीदेवीसमानाकृति - वेषभूषणायुधशक्तिचक्रं ओघत्रयगुरुमण्डलं च वक्ष्यमाणेषु आवरणेषु निजस्वामिन्यभिमुखोपविष्टमवमृश्य मूलेन आवाहनसंस्थापनसन्निधापनसन्निरोधनसम्मुखीकरणावगुण्ठनवन्दनधेनुयोनिमुद्राः प्रदर्शयंस्तदखिलं भावयेत् ॥
अत्र
मेरुमन्त्रात्मकं चक्रं श्रीत्विषस्तत्र देवताः । कामेश्वरः प्रकाशात्मा श्रीविमर्शस्तदङ्कः ॥
' एह्येहि देवदेवेशि त्रिपुरे देवपूजिते ।
परामृतप्रिये शीघ्रं सान्निध्यं कुरु सिद्धिदे ॥
देवेशि भक्तिसुलभे सर्वावरणसंवृते । यावत्त्वां पूजयिष्यामि तावत्त्वं सुस्थिरा भव ॥
५१
इति अधिक: 'अ' कोशे.
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नित्योत्सवः
इत्येतद्वासनारूपं अभेदं च परस्परम् ।
ज्ञात्वा श्रीगुरुवक्त्राब्जात् कृता पूजा महाफला ॥ मेरुमन्त्रश्च चतुरश्रादिचक्रनवकविशेषणगतैः लकारादिभिः अवयवैः ज्ञातव्यः ॥
___ चतुष्षष्टयुपचारार्चनम् अथ श्रीपरदेवतायाः चतुप्षष्टयुपचारानाचरेत् । तेषु अशक्तानां भावनया सामान्यायॊदकात् किंचित्किंचिदम्बाचरणाम्बुजे अर्पणबुद्धया पात्रान्तरे निक्षिपेत् । पुष्पाक्षतान्वा समर्पयेत् । भूषावरोपणाभ्यङ्गरूपमुपचारद्वयमपि मण्टपान्तर एव भावनीयम् , मज्जनादिषु तथा दर्शनात् , औचित्याच्च । अनयोः मण्टपादिशब्दस्य मन्त्रावयवत्वेन प्रवेशो न सम्भवति, अनुक्तत्वात् । मज्जनमण्टपप्रवेशादिषु मध्येमार्ग पीठे च मृदुलदुकूलास्तृतिश्च भावयितुमुचितम् । श्रीचक्रादवरोहणमपि, उत्तरत्रारोहणकथनात् । अभ्यङ्गादिषु यवनिकाभावनं च । उपचारमन्त्रशरीरं तु–अत्रादौ त्रितारी, ततश्चतुर्थ्यन्तं ललितेति पदं, अथामुकं कल्पयामि नमः इति । ललिता कामेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी इति देवतानामपर्यायेषु सत्स्वपि सूत्रकारेण ललितापदग्रहणात् ललितापदप्रयोगः कार्यः । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं ललितायै पाद्यं कल्पयामि नमः, आभरणावरोपणं, सुगन्धतैलाभ्यङ्गं, मज्जनशालाप्रवेशनं, मज्जनमण्टपमणिपीठोपवेशनं, दिव्यस्नानीयोद्वर्तनं, उष्णोदकस्नानं, कनककलशच्युतसकलतीर्थाभिषेकं (इह श्रीसूक्तादीनामावृत्तिः). धौतवस्त्रपरिमार्जनं, अरुणदुकूलपरिधानं, अरुणकुचोत्तरीयं, आलेपमण्टपप्रवेशनं, आलेपमण्टपमणिपीठोपवेशनं, चन्दनागरुकुङ्कुममृगमदकर्पूरकस्तूरीगोरोचनादिदिव्यगन्धसर्वाङ्गीणविलेपनं, केशभारस्य कालागरुधूपं, मल्लिकामालतीजातीचम्पकाशोकशतपत्रपूगकुहळीपुन्नागकल्हारमुख्यसर्वर्तुकुसुममालाः, भूषणमण्टपप्रवेशनं, भूषणमण्टपमणिपीठोपवेशनं, नवमणिमकुटं, चन्द्रशकलं, सीमन्तसिन्दूरं, तिलकरत्नं, कालाञ्जनं, पाळीयुगळं, मणिकुण्डल
'तत्तन्मन्त्रमात्रं वा जपेत् । तथाच तन्त्रसारे " चतुष्षष्टयुपचाराणां अभावे तु मनुं जपेत् । तत्तदेव फलं विन्द्यात् साधकः स्थिरमानसः ॥” इति (भ) कोशे अधिकः ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः- श्रीक्रमः युगळं, नासाभरणं, अधरयावकं, प्रथमभूषणं (माङ्गल्यसूत्र), कनकचिन्ताकं (एतच्च आन्ध्रपुरन्ध्रीजनेन ध्रियमाणः कर्ण[कण्ठ] भूषणविशेषः), पदकं, महापदकं, मुक्तावळिं, एकावळिं, छन्नवीरं (इदं चोभयतो वैकक्ष्यदामात्मकं भूषणम्), केयूरयुगळचतुष्टयं, वलयावळिं, ऊर्मिकावळिं, काञ्चीदाम, कटिसूत्रं, सौभाग्याभरणं, (अधश्च जघनालम्बी भूषणविशेषः), पादकटकं, रत्ननू पुरं. पादाङ्गुलीयकं, एककरे पाशं, अन्यकरे अङ्कुशं, इतरकरे पुण्डेक्षुचापं, अपरकरे पुप्पबाणान् तत्रोर्ध्वयोः वामदक्षयोः करयोः पाशाङ्कुशौ । अधःस्थितयोः चापबाणाः । (पाशो वैद्रुमः अङ्कुशो रूप्यमयः) एते च क्रमेण रागरोषमनस्तन्मात्रात्मकवासनारूपाः इति च ज्ञेयम्] श्रीमन्माणिक्यपादुके, स्वसमानवेषाभिः आवरणदेवताभिः सह महाचक्राधिरोहणं, कामेश्वराङ्कपर्योपवेशनं, (अत्र इतरासां निजनिजस्थानावस्थितिभावनामात्रम्), अमृतासवचषकं, आचमनीयं, कर्पूरवीटिकां कल्पयामि नमः ॥
तल्लक्षणं तु
एलालवङ्गकर्पूरकस्तूरीकेसरादिभिः । जातीफलदकैः पूगैः लाङ्गल्यूषणनागरैः ।
चूर्णैः खादिरसारैश्च युक्ता कर्पूरवीटिका ॥ आदिपदेन ताम्बूलीदळतक्कोलग्रहणम् ।
ऐं ह्रीं श्रीं लळितायै आनन्दोल्लासविलासहासं, मङ्गळारार्तिकं कल्पयामि
नमः ॥
तत्प्रकारस्तु—कलधौतादिभाजने कुङ्कुमचन्दनादिलिखितस्याष्टषट्चतुर्दळाद्यन्यतमस्य कमलस्य चन्द्राकार चरुगोळकवत्यां चणकमुद्गजुषि वा कर्णिकायां दळेषु च पयःशर्करापिण्डीकृतयवगोधूमादिपिष्टोपादानकानि त्रिकोणशिरस्कडमर्वाकृतीनि चतुरङ्गुलोत्सेधानि घृतपाचितानि नवसप्तपञ्चान्यतमसङ्ख्यानि दीपपात्राणि निधाय तेषु गोघृतं प्रत्येक 1 चारु-अ, भ.
* एकमुद्राजुषि-अ.
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नित्योत्सवः कर्षप्रमितं आपूर्य कर्पूरगर्भिता वर्तिका हृल्लेखया प्रज्वाल्य ३ श्रीं ह्रीं म्लू स्लू म्लूं प्लूं न्लं ह्रीं श्रीं इति नवाक्षर्या रत्नेश्वरीविद्यया अभिमन्व्य चक्रमुद्रां प्रदर्य मूलेनाभ्यर्च्य जगद्धनिमन्त्रमातः स्वाहा इति मन्त्रपूर्वकं गन्धाक्षतादिना घण्टां सम्पूज्य तां वादयन् जानुचुम्बितभूतलस्तत्पात्रं आमस्तकमुद्धृत्य, ऐं ह्रीं श्रीं ललितायै आरार्तिकं कल्पयामि नम इति कल्पयित्वा,
समस्तचक्रचक्रेशीयुते देवि नवाल्मिके ।
आरार्तिकमिदं तुभ्यं गृहाण मम सिद्धये ॥ इति नववारं श्रीदेव्या आचूडं आचरणानं परिभ्राम्य दक्षभागे स्थापयेत् । ततः
ऐं ह्रीं श्रीं लळितायै छत्रं कल्पयामि नमः, चामरयुगळं, तालवृन्तं, गन्धं, पुष्पं, कल्पयामि नमः ॥ विविधानि पुष्पाणि कल्पयेत् । एतत्प्रकारश्च सप्तमे अनवस्थाख्योल्लासे द्रष्टव्यः ।।
अथ धूपपात्रभरितेषु अङ्गारेषु दशाङ्गादि निक्षिप्य--
ऐं ह्रीं श्रीं ललितायै धूपं कल्पयामि नमः ॥ इति श्रीदेवीचरणान्तिके समर्प्य तत्पात्रं श्रीदेव्या वामभागे निदध्यात् । दशाङ्गानि तु
श्वेतकृष्णागरू लाक्षा गुग्गुलुश्चन्दनं घृतम् ।
मधुबिल्वफलं राळः कर्पूरश्च दशाङ्गकम् ॥ इति वचनोक्तानि । ततो दीपभाजने अर्पितं गोघृततैलाद्यक्तं कर्पूरगर्भितं त्यादिविषमसङ्ख्याकं वर्तिजातं प्रज्वाल्य,
ऐं ह्रीं श्रीं ललितायै दीपं कल्पयामि नमः ॥ इति देव्या दृक्समसीमनि प्रदर्श्य तत्पात्रं दक्षिणभागे निवेश्य,
. : देव्यग्रतः स्वदक्षिणे अधिचतुरश्रमण्डलं आधारोपरि निहितकनकरौप्यादिभाजनभरितं फलविशेषखण्डसितालड्डुकादिनैवेद्यं मूलेन प्रोक्ष्य, वं इति धेनुमुद्रया अमृतीकृत्य मूलेन त्रिवारमभिमन्व्य,
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यौवनोल्लास: तृतीयः-श्रीक्रमः ऐं ह्रीं श्रीं ललितायै आपोशनं कल्पयामि नमः ॥ इति नैवेद्याङ्गत्वेन आपोशनं दत्वा
ऐं ह्रीं श्रीं ललितायै नैवेद्यं कल्पयामि नमः ॥ इति निवेदयेत् ॥ ___गन्धादिनैवेद्यान्तं उपचारवस्तुपञ्चकं तु पृथिव्यादिमहाभूतपञ्चकरूपं क्रमेण भावयेत् । सर्वभूतात्मकत्वं च कर्पूरवीटिकायाः ॥
अथ पानीयोत्तरापोशनहस्तप्रक्षाळनगण्डूषाचमनकर्पूरवीटिकाश्चोपचारमन्त्रैः कल्पयित्वा-ऐं ह्रीं श्रीं द्रां द्रीं क्लीं ब्लू सः क्रों ड्कें सौः ऐं सर्वसङ्क्षोभिण्यादिनवमुद्राः प्रदी, षोडश्युपासनायां तु ऐं इति त्रिखण्डामपि प्रदर्शयेत् ॥
ततो ३ मूलान्ते ललिताश्रीपादुकां पूजयामि इति तत्त्वमुद्रासन्दष्ट द्वितीयशकलगृहीतविशेषार्यबिन्दुसहार्पितैः दक्षकरोपात्तज्ञानमुद्राधृतकुसुमाक्षतैः श्रीदेवीं त्रिः सन्तर्पयेत् । अनेनैव प्रकारेण सर्वासामावरणदेवतानां तर्पणं ज्ञेयम् ॥ इति देवीपूजनम् ॥
षडङ्गार्चनम् अथ श्रीदेव्यङ्गे अग्नीशादिकोणेषु मध्ये दिक्षु च पूर्वोक्तविधिना मूलेन षडङ्गयुवतीः पूजयेत् ॥
नित्यादेवीयजनम् ततो मध्यत्रिकोणस्य दक्षिणरेखायां वारुण्याद्यामेयान्तं क्रमेण अं आं इं ई उं इति, पूर्व रेखायां आमेयादीशानान्तं ऊ ऋ ॠ लं लं इति, उत्तररेखायां ईशानादिवारुण्यन्तं एं ऐं ओं औं अं इति, पञ्चपञ्चस्वरान् विभाव्य तेषु वामावर्तेनैव प्रागुक्तस्वरूपाः कामेश्वर्यादिनित्या यजेत् । बिन्दौ च षोडशं स्वरं अः इति विचिन्त्य महानित्याम् । यथाऐं ही श्री अंऐं स क ल ही नित्यक्लिन्ने मदद्रवे सौः अं कामेश्वरी
नित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ 1 मूलक-ब२. ब३. अ,
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नित्योत्सवः ३ आं ऐं भगभुगे भगिनि भगोदरि भगमाले भगावहे भग
गुह्ये भगयोनि भगनिपातिनि सर्वभगवशंकरि भगरूपे नित्यक्लिन्ने भगस्वरूपे सर्वाणि भगानि मे ह्यानय वरदे रेते सुरेते भगक्लिन्ने क्लिन्नद्रवे क्लेदय द्रावय अमोघे भगविच्चे क्षुभ क्षोभय संर्वसत्वान् भगेश्वरि ऐं ब्लूं जें ब्लू में ब्लू मों ब्लू हे ब्लू हे क्लिन्ने सर्वाणि भगानि मे वशमानय स्त्री हर ब्लें ह्रीं आं भगमालिनीनित्या
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ ई ओं ही नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा इं नित्यक्लिन्नानित्या- .
__श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।। ३ ई ओं को प्रों क्रौं झौं छौं जौं स्वाहा ई भेरुण्डानित्या
__श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ उं ओं ह्रीं वह्निवासिन्यै नमः उं वह्निवासिनीनित्याश्रीपा
दुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ ऊं ही क्लिन्ने ऐं क्रों नित्यमदद्रवे ही ऊं महावज्रेश्वरीनित्या
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ कं ही शिवदूत्यै नमः – शिवदूतीनित्याश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ ऋ ओं ही हुं ग्वे च छे क्षः स्त्रीं हुं ह्रीं फट् –
त्वरितानित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ लं. ऐं क्लीं सौः लं कुलसुन्दरीनित्याश्रीपादुकां पूजयामि .
तर्पयामि नमः ॥ ३ लं ह स क ल र हैं ह स क ल र डी ह स क ल र डौः
लं नित्यानित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ एं ही कें तूं क्रों आं क्लीं ऐं ब्लू नित्यमदवे हुं फ्रें ही
पं. नीलपताकानित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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यौवनोल्लास: तृतीयः-श्रीक्रमः ३ ऐं भ म र य औं ऐं विजयानित्याश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ ३ ओं स्वौं ओं सर्वमङ्गळानित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः ॥ ३ औं ओं नमो भगवति ज्वालामालिनि देवदेवि सर्वभूतसं
हारकारिके जातवेदसि ज्वलन्ति ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ह्रां ह्रीं हूं र र र र र र र ज्वालामालिनि हुं फट् स्वाहा औं ज्वालामालिनीनित्याश्रीपादुकां पूज
यामि तर्पयामि नमः ।। ३ अंच्कौं अं चित्रानित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
अः क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं अः ललितामहानित्याश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
गुरुमण्डलार्चनम्
१. कादिविद्योपासकानाम् ततो देव्याः पश्चात् मूलत्रिकोणपूर्व रेखायाः तदव्यवहितप्रागप्रत्रिकोणपश्चिमरेखायाश्चान्तरे विमलाजयिन्योर्मध्ये अरुणावाग्देवतासन्निधौ दक्षिणोत्तरायतं रेखात्रयं विभाव्य दक्षिणसंस्थाक्रमेण दिव्यसिद्धमानवाख्यमोघत्रयं मुनिवेदवसुसङ्ख्यं समर्चयेत् । यथा
दिव्यौधः ऐं ह्रीं श्रीं परप्रकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ परशिवानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ __३ पराशक्त्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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. नित्योत्सवः ३ कौलेश्वरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ शुक्लदेव्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ कुलेश्वरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ कामेश्वर्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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सिद्धौघः ऐं ह्रीं श्रीं भोगानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ क्लिन्नानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ समयानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ सहजानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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मानवौधः ऐं ह्रीं श्रीं गगनानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ विश्वानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।। ३ विमलानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ मदनानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ भुवनानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ लीलानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ स्वात्मानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ प्रियानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ एतत् कादिविद्योपासकानां दक्षिणामूर्तिसम्प्रदायानुसारि गुरुपारम्पर्यम् । इदमेव षोडश्यामपीति ज्ञानार्णवमतम् । अस्मादेव ज्ञापकात् अयमेव पूजनक्रमः तत्राप्युपयुज्यते ॥
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२. षोडश्युपासकानाम् विद्यार्णवनिबन्धे तु श्रीषोडशीगुरुपारम्पर्ये विशेषः । यथा
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
दिव्यौघः ऐं ह्रीं श्रीं व्योमातीताम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ व्योमेश्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ व्योमकाम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ व्योमचारिण्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ व्योमस्थाम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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सिद्धौघः ऐं ह्रीं श्रीं उन्मनाकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
___ समनाकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ व्यापकाकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।।
शक्त्याकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ध्वन्याकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
ध्वनिमात्राकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।। ३ अनाहताकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।। ३ बिन्द्राकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ इन्द्वाकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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मानवौघः ऐं ह्रीं श्रीं परमात्मानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ शाम्भवानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ चिन्मुद्रानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ वाग्भवानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ लीलानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
सम्भ्रमानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ चिदानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ प्रसन्नानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ विश्वानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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६.
हादिपञ्चदश्युपासकानां गुरुक्रमो यथा
दिव्यौघः
नित्योत्सवः
३. हादिविद्योपासकानाम्
३
ऐं ह्रीं श्रीं परमशिवानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || कामेश्वर्यम्बानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ दिव्यौघानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ महौघानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ सर्वानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ प्रज्ञादेव्यम्बानन्दनाथ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ प्रकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ||
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३
३
सिद्धौधः
ऐं श्रीं दिव्यानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ चिदानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || कैवल्यानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ अनुदेव्यम्बानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || ३ महोदयानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ 'सिद्धानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३
३
मानवौघः
३
ऐं ह्रीं श्रीं चिदानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ 'विश्वानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ रामानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || कमलानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ परानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ||
३
1 अयं पर्यायः (श्री) कोश एव दृश्यते.
* विश्वशक्त्यानन्द-अ, ब३, भ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
३ मनोहरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ स्वात्मानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ प्रतिभानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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मन्वादिविद्यानां गुरुपरम्परा अथ सूत्रकृतानुक्तानामपि श्रीविद्यात्मनोपलक्षितानां मन्वादिविद्यानां गुरुपारम्पर्य यथा
दिव्यौधः
ऐं ह्रीं श्रीं परप्रकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ परविमर्शानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ कामेश्वर्यम्बानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ मोक्षानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
अमृतानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ 'सिद्धानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ पुरुषानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ अघोरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।।
सिद्धौघः ऐं ह्रीं श्री प्रकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ सदानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ सिद्धौघानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ उत्तमानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
मानवौषः ऐं ह्रीं श्रीं उत्तरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ परमानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ सर्वज्ञानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ 1 अयं पर्यायः केषुचित्कोशेषु नोपलम्यते. १ 'उद्वानन्द' इति पर्यायः अधिकः (अ) कोशे.
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कंल्पसूत्रस्य काळीमतान्तर्गतत्वात् इदं पारम्पर्यत्रयं तदनुगमेव । विद्यार्णवोक्तश्रीषोडशाक्षरीगुरुपादुकापारम्पर्यस्य कादिकाळ्युभयमतसम्मतत्वं ज्ञेयम् ॥
नित्योत्सवः
अज्ञातगुरुपारम्पर्याणां गुरुक्रमः
अथ प्रासङ्गिकः अज्ञातगुरुपारम्पर्याणां गुरुक्रमो यथा
सर्वानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ 'सिद्धानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || गोविन्दानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः |
शङ्करानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ||
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं गुरुभ्यो नमः ॥
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दिव्यौघः
सिद्धौघः
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं परमगुरुभ्यो नमः ॥
३
३ ऐं परमगुरुपादुकाभ्यो नमः ||
३
ऐं गुरुपादुकाभ्यो नमः ॥
मानवौघः
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं आचार्येभ्यो नमः ॥
ऐं आचार्यपादुकाभ्यो नमः ॥
ऐं पूर्वसिद्धेभ्यो नमः ॥
३ ऐं पूर्वसिद्धपादुकाभ्यो नमः ॥
एवं स्वस्योपास्यविद्यौघत्रयसपर्यो विधाय स्वशिरसि पूर्वोक्तरूपं श्रीगुरुं ध्यात्वा, पूर्वोक्तेन श्रीगुरुपादुकामन्त्रेण श्रीगुरुं त्रिर्यजेत् ॥
इति गुरुमण्डलार्चनम् ॥ एतावल्लयाङ्गपूजनमित्युच्यते ॥
'स्वच्छानन्द' इत्यधिकः पर्यायः (अ) कोशे.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
आवरणपूजा
प्रथमावरणम् एतद्देवतास्वरूपं तु प्रागुक्तमेव । क्रमेण शुक्लारुणपीतवर्ण रेखात्रयस्य लकारप्रकृतिकपृथिव्यात्मकस्य चतुरश्रस्य प्रवेशरीत्या प्रथमरेखायां पश्चिमादिद्वारचतुष्टयदक्षिणभागेषु वाय्वादिकोणेषु च पश्चिमनैर्ऋतयोः पूर्वेशानयोश्च मध्ये क्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं अणिमासिद्धिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, लघिमा, महिमा, ईशित्व, वशित्व, प्राकाम्य, भुक्ति, इच्छा, प्राप्ति, सर्वकामसिद्धि
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति स्वस्य तत्तदाभिमुख्यं भावयन् पूजयेत् । एवं उत्तरत्रापि । अत्र देव्याः पुरतः पश्चिमादिदिक् । पश्चिमनैर्ऋतयोर्मध्ये अघोदिक् । पूर्वेशानयोर्मध्ये चोर्ध्वदिक् इति विवेकः ॥
अथ चतुरश्रमध्यरेखायां प्रागुक्तद्वारवामभागेषु कोणेषु च क्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं ब्राह्मीमातृदेवीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री, चामुण्डा, महालक्ष्मीमातृदेवीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ततः चतुरश्रान्त्यरेखायां प्रथमरेखोक्तक्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वसङ्क्षोभिणीमुद्राशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सर्वविद्राविणी, सर्वाकर्षिणी, सर्ववशङ्करी, सर्वोन्मादिनी, सर्वमहाङ्कुशा, सर्वखेचरी, सर्वबीज, सर्वयोनि, सर्वत्रिखण्डमुद्राशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ इति पूजयित्वा,
___एताः प्रकटयोगिन्यः त्रैलोक्यमोहने चक्रे समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः सन्तर्पिताः सन्त्विति तासामेव समष्टयर्चनं पुष्पाञ्जलिना कृत्वा अणिमासिद्धेः पुरतो ३ अं आं सौः त्रिपुराचक्रे
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नित्योत्सवः
श्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति सम्पूज्य, द्रां इति सर्वसङ्क्षोभिणीमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ।।
इति प्रथमावरणम्
द्वितीयावरणम् श्वेतवर्णे सकारप्रकृतिकषोडशकलाऽऽत्मके चन्द्रस्वरूपे सवदमृतरसे षोडशदळकमले देव्यप्रदळमारभ्य वामावर्तेन (अप्रादक्षिण्येन)
ऐं ह्रीं श्रीं कामाकर्षिणीनित्याकळा देवीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, बुद्ध्याकर्षिणी, अहङ्काराकर्षिणी, शब्दाकर्षिणी, स्पर्शाकर्षिणी, रूपाकर्षिणी, रसाकर्षिणी, गन्धाकर्षिणी, चित्ताकर्षिणी, धैर्याकर्षिणी, स्मृत्याकर्षिणी, नामाकर्षिणी, बीजाकर्षिणी, आत्माकर्षिणी, अमृताकर्षिणी,
शरीराकर्षिणीनित्याकळादेवीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इत्यभ्यर्च्य, एताः गुप्तयोगिन्यः सर्वाशापरिपूरके चक्रे समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः सन्निति तासामेव समष्टयर्चनं विधाय कामाकर्षिण्याः पुरतो ऐं क्लीं सौः त्रिपुरेशीचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इत्यवमृश्य, द्रीं इति सर्वविद्राविणीमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं द्वितीयावरणार्चनम् ॥
इति द्वितीयावरणम्
1 'देवी' इति (श्री) कोश एव दृश्यते.
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यौवनोल्लासः तृतीयः -- श्रीक्रमः
तृतीयावरणम्
हकारप्रकृतिकाष्टमूर्त्यात्मकशिवाभिन्ने जपाकुसुममित्रे ' अष्टपत्रे श्रीदेव्याः पृष्ठदळमारभ्य पूर्वादिदिक्षु आग्नेयादिविदिक्षु च क्रमात् -
ऐं ह्रीं श्रीं अनङ्गकुसुमादेवी श्रीपादुकाां पूजयामि तर्पयामि नमः, अनङ्गमेखला, अनङ्गमदना, अनङ्गमदनातुरा, अनङ्गरेखादेवी, अनङ्गवेगिनी, अनङ्गाङ्कुशा, अनङ्गमालिनीदेवी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || एताः गुप्ततरयोगिन्यः सर्वसङ्क्षोभिणीचक्रे समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः संतर्पिताः सन्त्विति तासामेव समष्ट्यर्चनं विधाय अनङ्गकुसुमाया अग्रे ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं सौः त्रिपुरसुन्दरीचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति संविभाव्य, क्लीं इति सर्वाकर्षिणीमुद्रां उन्मुद्रयेत् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं तृतीयावरणार्चनम् ॥
इति तृतीयावरणम् ॥
६५
चतुर्थावरणम्
ममिश्रे - अ. मामेभ.
* भणे – अ, अ१, ब२, ब३, भ.
55
ईकारप्रकृतिकचतुर्दशभुवनात्मकमहामायारूपे दाडिमीप्रसूनसहोदरे चतुर्दशारे देव्यग्रकोणमारभ्य वामावर्तेन
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वसङ्क्षोभिणी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सर्वविद्राविणी, सर्वाकर्षिणी, सर्वाह्लादिनी, सर्वसम्मोहिनी, सर्वस्तम्भिनी, सर्वजृम्भिणी, सर्ववशङ्करी, सर्वरञ्जिनी, सर्वोन्मादिनी, सर्वार्थसाधिनी, सर्वसम्पत्तिपूरणी, सर्वमन्त्रमयी, सर्वद्वन्द्वक्षयङ्करी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
2
अष्टदपत्रे - अ.
' अत्रत्यपर्यायेषु 'शक्ति' इत्यधिकः -श्री.
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नित्योत्सवः एताः सम्प्रदाययोगिन्यः सर्वसौभाग्यदायके चक्रे समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः संतर्पिताः सन्त्विति तासामेव समष्टयर्चनं विधाय, सर्वसङ्क्षोभिण्याः पुरतः ऐं ह्रीं श्रीं हैं हक्लीं सौः त्रिपुरवासिनीचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । ब्लू इति सर्ववशङ्करीमुद्रां समुन्मीलयेत् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं चतुर्थावरणार्चनम् ॥
इति चतुर्थावरणम् ॥
पञ्चमावरणम् एकारप्रकृतिकदशावतारात्मकविष्णुस्वरूपे प्रभापराभूतसिन्दूरे . बहिर्दशारे देव्यप्रकोणाद्यप्रादक्षिण्येन
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वसिद्धिप्रदा श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सर्वसम्पत्प्रदा, सर्वप्रियङ्करी, सर्वमङ्गळकारिणी, सर्वकामप्रदा, सर्वदुःखविमोचिनी, सर्वमृत्युप्रशमनी, सर्वविघ्ननिवारिणी, सर्वाङ्गसुन्दरी, सर्वसौभाग्यदायिनीश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ एताः कुलोत्तीर्णयोगिन्यः सर्वार्थसाधके चक्के समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः संतर्पिताः सन्त्विति तासामेव समष्टयर्चनं विधाय सर्वसिद्धि प्रदाया धुरि ऐं ह्रीं श्रीं हस्ती ह्स्सौः त्रिपुराश्रीचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति समभ्यर्च्य, सः इति उन्मादिनीमुद्रां उद्घाटयेत् ॥
- सर्वपर्यायेषु अत्र 'देवी' इत्यधिकः--श्री. प्रदायिन्याः पुरतः-अ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं पञ्चमावरणार्चनम् ॥
इति पञ्चमावरणम्
• षष्ठावरणम् रेफप्रकृतिकदशकलाऽऽत्मकवैश्वानराभिन्ने जपासुमनस्सहचरे अन्तर्दशारे देव्यप्रकोणमारभ्य वामावर्तेन
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वज्ञा'श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सर्वशक्ति, सर्वैश्वर्यप्रदा, सर्वज्ञानमयी, सर्वव्याधिविनाशिनी, सर्वाधारस्वरूपा, सर्वपापहरा, सर्वानन्दमयी, सर्वरक्षास्वरूपिणी, सर्वेप्सितफलप्रदाश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ एताः निगयोगिन्यः सर्वरक्षाकरे चक्रे समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः संतर्पिताः सन्त्विति तासामेव समष्टयर्चनं 'विधाय, सर्वज्ञायाः पुरतः ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ब्लें त्रिपुरमालिनीचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इत्यर्चयित्वा, क्रों इति सर्वमहाङ्कुशमुद्रां अङ्कुरयेत् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं षष्ठमावरणार्चनम् ॥
इति षष्ठावरणम्
1'देवी' इत्यधिक:-श्री.
'अङ्करयेत्-१.
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नित्योत्सवः
सप्तमावरणम् ककारप्रकृतिकाष्टमूर्त्यात्मककामेश्वरस्वरूपे पद्मरागरुचिरे अष्टारे देव्यप्रकोणाद्यप्रादक्षिण्येन
ऐं ह्रीं श्रीं अं आं इं ई ऊ ॠ लं लं ए ऐ ओ औ अं अः ब्ज़ वशिनीवाग्देवता श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, कं खं गं घं डं क्ल्ह्रीं कामेश्वरी, चं छं जं झं अंन्ली मोदिनी, टं ठं डं ढं णं ग्लूं विमला, तं थं दं धं नं नीं अरुणा, पं फं बं भं मं व्यूं जयिनी, यं रं लं वं इम्यूं सर्वेश्वरी, शं षं सं हं ळं क्षं क्ष्मी कौळिनीवाग्देवताश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ एताः रहस्ययोगिन्यः सर्वरोगहरे चक्रे समुद्रा इत्यादि कथितचरम् । वशिन्याः पुरतः ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं श्रीं सौः त्रिपुरासिद्धाचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति सम्पूज्य इसकें इति खेचरीमुद्रां उररीकुर्यात् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं सप्तमावरणार्चनम् ॥
इति सप्तमावरणम्
अष्टमावरणम् महाव्यश्रबाह्यतः पश्चिमादिदिक्षु प्रादक्षिण्येनऐं ह्रीं श्रीं द्रां द्रीं क्लीं ब्लू सः सर्वजम्भनेभ्यो बाणेभ्यो नमः बाणशक्ति
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ __३ धं सर्वसम्मोहनाय धनुषे नमः धनुश्शक्तिश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ । 'देवी' इति पूर्ववत् अधिक:-श्री.
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mmm
यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ ही सर्ववशीकरणाय पाशाय नमः पाशशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ ३ को सर्वस्तम्भनाय अङ्कुशाय नमः अङ्कुशशक्तिश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इत्यायुधार्चनं विधाय नादप्रकृतिकगुणत्रयप्रधानत्रिशक्तिरूपरेखाव्यात्मके बन्धूकपुष्पबन्धुकिरणे त्रिकोणे अग्रदक्षवामकोणेषु बिन्दौ च क्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं मूलप्रथमखण्डं कामेश्वर्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ मूलद्वितीयखण्डं वज्रेश्वर्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः॥ ३ मूलतृतीयखण्डं भगमालिन्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः ॥
३ मूलं लळिताऽम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ एताः अतिरहस्ययोगिन्यः सर्वसिद्धिप्रदे चक्रे समुद्रा इत्यादि स्पष्टम् । कामेश्वर्या अग्रे ऐं ह्रीं श्रीं ह्झै इक्लीं इसौः त्रिपुराऽम्बाचक्रेश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इत्यवमृश्य ३ हसौः इति सर्वबीजमुद्रा विनिर्दिशेत् ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं अष्टमावरणार्चनम् ॥
इति अष्टमावरणम्
اس سم
नवमावरणम् बिन्द्वभिन्नपरब्रह्मात्मके बिन्दुचक्रे ऐं ह्रीं श्रीं मूलं ललिताऽम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति श्रीदेवीं पूजयेत् । ततः एषा परापररहस्ययोगिनी सर्वानन्दमये चक्रे समुद्रा ससिद्धिः सायुधा सशक्तिः सवाहना सपरिवारा सर्वोपचारैः सम्पूजिता संतर्पिताऽस्तु इत्यभ्यर्च्य, पुनः-ऐं ह्रीं श्रीं मूलं श्रीललितामहाचक्रेश्वरी
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७.
नित्योत्सवः श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इत्यभिपूज्य ऐं इति योनिमुद्रां प्रदर्शयेत् । षोडश्युपासनायां तु ऐं इति त्रिखण्डामपि ॥
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्त्या समर्पये तुभ्यं नवमावरणार्चनम् ॥
इति नवमावरणम् ॥
इयं नवावरणीपूजा अत्यावश्यकी । चतुराम्नायदेवताऽऽदिचतुस्समयदेवतान्तानां सपर्याऽपि तन्त्रान्तरोक्ता क्रियमाणा श्रेयस एव ॥
अथ पुनरपि श्रीदेव्यै पूर्ववत् धूपदीपौ कल्पयित्वा सङ्क्षोभिण्यादिमुद्राः सबीजाः प्रदर्य, मूलेन त्रिवारं सन्तर्प्य महानैवेद्यं समर्पयेत् । यथा--श्रीदेव्यो चतुरश्रमण्डलं सामान्योदकेन विधाय तत्र आधारोपरि स्थापितं सौवर्णरौप्यकांस्यादिस्थालीचषकभरितं भक्ष्यभोज्यचोष्यलेह्यपेयात्मकं सद्रव्यशुद्धयादिरसवद्वयञ्जनमञ्जुळं प्राज्यकपिलाज्यं दधिदुग्धमुग्धं यथासम्भवं वा नैवेद्यं विधाय, ("स्विन्नं वामे आम दक्षिणे निदध्यात्" इति श्यामारहस्ये दृष्टम् । सुन्दरीमहोदये तु-. "देव्या वामे दीपो दक्षिणे नैवेद्यम्" इत्युक्तम् ), ऐं ह्रीं श्रीं मूलेन त्रिः प्रोक्ष्य, वं इति धेनुमुद्रया अमृतीकृत्य, सप्तवारं मूलेनाभिमन्त्र्य, पूर्ववत् आपोशनं कल्पयित्वा,
हेमपात्रगतं देवि परमान्नं सुसंस्कृतम् ।
पञ्चधा घडूसोपेतं गृहाण परमेश्वरि ॥ इति प्रार्थ्य, पूर्वोक्तनैवेद्योपचारमन्त्रेण निवेद्य, तत्तन्मुद्राविधानपूर्वकं पञ्चप्राणाहुतीः कल्पयेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं प्राणाय स्वाहा, ३ क्लीं अपानाय स्वाहा, ३ सौः व्यानाय स्वाहा, ३ सौः उदानाय स्वाहा, ३ ऐं क्लीं सौः समानाय स्वाहा, ब्रह्मणे स्वाहा ॥
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ततः
यौवनोल्लासः तृतीयः -श्रीक्रमः
३
ऐं ह्रीं श्रीं कए ई लह्रीं नमः आत्मतत्त्वव्यापिनी ललिता तृप्यतु ॥ ह स क ह ल ह्रीं नमः विद्यातत्त्वव्यापिनी ललिता तृप्यतु ॥ सकल ह्रीं नमः शिवतत्त्वव्यापिनी ललिता तृप्यतु ॥ ऐं ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं नमः सर्वतत्त्वव्यापिनी ललिता तृप्यतु ॥
३
७१
इति निमीलितनयनः क्षणमवस्थाय, श्रीदेवीं भुक्तवतीं विभाव्य, पूर्ववत् उपचारमन्त्रैः पानीयोत्तरापोशनकरप्रक्षाळनगण्डूषपाद्यादि कल्पयित्वा भोजनपात्रं नैर्ऋत्यां निरस्य, अस्त्रेण स्थलं संशोध्य, ततः पुनः प्राग्वदाचमनीयकर्पूरवीटिकादक्षिणाकर्पूरनीराजनानि दत्वा, सुवर्णादिभाजनलिखितं कुङ्कुमपङ्करेखाऽऽत्मकं अष्टदलकमलकर्णिकास्थापि - तमणिमयचषकपूरितं प्रथमं प्रज्वाल्य, पुष्पाक्षतैरभ्यर्च्य, उपचारमन्त्रपूर्वकं -
अन्तस्तेजो बहिस्तेज एकीकृत्यामितप्रभम् । त्रिधा दीपं परिभ्राम्य कुलदीपं निवेदये ॥
इति चतुर्दशधा नवधा त्रिधा वा परिभ्राम्य दक्षभागे स्थापयेत् ॥
मन्त्रपुष्पम् अथ अलौ पुष्पाण्यादाय मन्त्रपुष्पम् । यथा--- शिवे शिवसुशीतळामृततरङ्गगन्धोल्लसन्नवावरणदेवते नवनवामृतस्यन्दिनि । गुरुक्रमपुरस्कृते गुणशरीरनित्योज्ज्वले
षडङ्गपरिवारिते कलित एष पुष्पाञ्जलिः ॥
इत्युक्त्वा पुष्पाञ्जलिं समर्पयेत् । इत्येते कतिचिच्चतुष्षष्ट्युपचारातिरिक्ता उपचारास्तु पूर्ववत् धूपदीपेतिसूत्रगतेनादिपदेन गृह्यन्ते ॥
कामकळाध्यानम्
अथ बिन्दुना मुखं बिन्दुद्वयेन स्तनौ सपरार्धेन योनिरिति कामकळाऽऽत्मिकां ध्यात्वा, सौः इति देवीशक्तिबीजं श्रीदेव्या हृदयत्वेन भावयेत् ।।
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७२
होमस्य कृताकृतत्वम्
अथ होमः । स च “ यद्यग्निकार्यसम्पत्तिः" इति सूत्रगतेन यदिशब्देन कृताकृतः सूचितः । तस्य च करणपक्षे तदितिकर्तव्यता होमप्रकरणे ज्ञातव्या । तत्र च महाव्याहृतिहोमादर्वागेव बलिदानम् । 'होमाकरणपक्षे तु बलिदानमात्रम् ॥
नित्योत्सवः
बलिदानविधिः
यथा— देव्या दक्षभागे सामान्योदकेन त्रिकोणवृत्तचतुरश्रात्मकं मण्डलं परिकल्प्य, ३ ऐं व्यापकमण्डलाय नमः इति गन्धाक्षतैरभ्यर्च्य, अर्धभक्तपूरितोदकं सक्षीरादित्रयं पात्रं तत्र विन्यस्य, ३ ॐ ह्रीं सर्वविघ्नकृद्भयः सर्वभूतेभ्यो हुं फट् स्वाहा, इति मन्त्रं त्रिः पठित्वा दक्षकरार्पितं वामकरतत्त्वमुद्रास्पृष्टं सलिलं बल्युपरि दत्वा वामपाणिघातकरास्फोटौ कुर्वाणः समुदञ्चितवक्त्रो बाणमुद्रया बलिं भूतैः ग्रासितं विभाव्य प्रणमेत् ॥ इति बलिदानविधिः ॥
प्रदक्षिणाः
अजेशशक्ति गणपभास्कराणां क्रमादिमाः । वेदार्धचन्द्रवह्न्यद्विसङ्ख्याः स्युः सर्वसिद्धये ॥
प्रदक्षिणनमस्कारानन्तरं जपप्रकरणे वक्ष्यमाणेन विधिना जपं निर्वर्त्य स्तुवीत
1
स्तोत्रम्
ॐ गणेशग्रहनक्षत्रयोगिनीं राशिरूपिणीम् ।
देवीं मन्त्रमयीं नौमि मातृकां पीठरूपिणीम् ॥ १ ॥ प्रणमामि महादेवीं मातृकां परमेश्वरीम् । कालहल्लोहलोल्लोलकलनाशमकारिणीम् ॥ २ ॥
एतदितिकर्तव्यताविशिष्टहोमकरणाशक्तस्य लघुपक्ष उक्तो ज्ञानार्णवे
सङ्कल्प्य परमेशानि नित्यहोमं समाचरेत् । मूलेन प्राणसहिता आहुतीः पञ्च होमयेत् ॥ डाहुतीषडङ्गेन नित्यहोमः प्रकीर्तितः ।
इत्यकि: ( अ१) कोशे.
――
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः यदक्षरैकमात्रेऽपि संसिद्ध स्पर्धते नरः । रवितायेन्दुकन्दर्पशङ्करानलविष्णुभिः ॥ ३ ॥ यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं भुवनत्रयम् । वन्दे सर्वेश्वरी देवी महाश्रीसिद्धमातृकाम् ॥ ४ ॥ यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेतज्जगत्त्रयम् । ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं तां वन्दे सिद्धमातृकाम् ॥ ५ ॥ यदेकादशमाधारं बीजं कोणत्रयोद्भवम् ।। ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं जगदद्यापि दृश्यते ॥ ६ ॥ अकचादिटतोन्नद्धपयशाक्षरवर्गिणीम् । ज्येष्ठाङ्गबाहुहृत्पृष्ठकटिपादनिवासिनीम् ॥ ७ ॥ तामीकाराक्षरोद्धारां सारात् सारां परात् पराम् । प्रणमामि महादेवीं परमानन्दरूपिणीम् ॥ ८ ॥ अद्यापि यस्या जानन्ति न मनागपि देवताः । केयं कस्मात् क्व केनेति सरूपारूपभावनाम् ॥ ९ ॥ वन्दे तामहम क्षय्यां क्षकाराक्षररूपिणीम् । देवी कुलकलो लासप्रोल्लसन्ती परां शिवाम् ॥ १० ॥ वर्गानुक्रमयोगेन यस्यां मात्रष्टकं स्थितम् । वन्दे तामष्टवर्गोत्थमहासिद्धयष्टकेश्वरीम् ॥ ११ ॥ कामपूर्णजकाराख्यश्रीपीठान्तर्निवासिनीम् । चतुराज्ञाकोशभूतां नौमि श्रीत्रिपुरामहम् ॥ १२ ॥ इति द्वादशभिः श्लोकैः स्तवनं सर्वसिद्धिकृत् । देव्यास्त्वखण्डरूपायाः स्तवनं तव 'तथ्यतः ॥ भूमौ स्खलितपादानां भूमिरेवावलम्बनम् । त्वयि जातापराधानां त्वमेव शरणं शिवे ॥ ज्येष्ठाझबाहुपादानमध्यस्वान्तनिवासिनीम् इति पाठान्तरम्. क्षय्यक्ष-इति पाठान्तरम्.
3 लोलप्रो-इति पाठान्तरम्. * राज्य-इति पाठान्तरम्.
। तद्यतः-इति च पाठ;
66
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७.४
नित्योत्सवः
जपो जल्प: शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमशनाद्याहुतिविधिः । प्रणामः संवेशः सुखमखिलमात्मार्पणदृशा सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ॥ पिता माता भ्राता गुरुरथ सुहृद्वान्धवजनः प्रभुस्तीर्थं कर्माविकलमिह चामुत्र च हितम् । विशुद्धा विद्या वा पदमपि च तत्प्राप्यमसि मे
त्वमेव श्रीमातः स्वपिमि गतशङ्कः सुखतमः ॥ दृशा द्राघीयस्या दरदळितनीलोत्पलरुचा
दवीयांसं दीनं रूपय कृपया मामपि शिवे । अनेनायं धन्यो भवति न च ते हानिरियता
वने वा ह वा समकरनिपातो हिमकरः ॥ हे सद्रूपिणि हे चिदर्चिरुदये हे कामराजप्रिये
भण्डासुरद्भुितनिधे हेऽनङ्गसञ्जीविनि । विश्वप्रसवित्र हे सकरुणे हे दीनरक्षामणे हे श्रीललिताम्ब हे परशिवे मां पाहि डिम्भं निजम् ॥ नमो हेमाद्रिस्थे शिवसति नमः श्रीपुरगते
नमः पद्माटव्यां कुतुकिनि नमो रत्नगृहगे ।
नमः श्रीचक्रस्थेऽखिलमयि नमो बिन्दुनिये नमः कामेशाङ्कस्थितिमति नमस्तेऽम्ब ललिते ॥
जय जय जगदम्ब भक्तवश्ये जय जय सान्द्रकृपावशान्तरङ्गे । जय जय निखिलार्थदानशौण्डे जय जय हे ललिताम्ब चित्सुखाब्धे || षडङ्गदेवता नित्या दिव्याद्योघत्रयीगुरून् ।
नमाम्यायुधदेवीश्च शक्तीश्चावरणस्थिताः ॥
पद्मवत्यम्बिकाऽधीनवामाङ्काय शिवात्मने । भासुरानन्दनाथाय मम श्रीगुरवे नमः ॥
1
नमः सन्मणिगृहे - अ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः सुन्दर्यम्बासमाश्लेषसुखिताय नमो नमः । प्रकाशानन्दनाथाय गुरवे परमाय मे ॥ मिश्राम्बानयनोल्लास विश्रान्तमनसे नमः । आनन्दानन्दनाथाय गुरवे परमेष्ठिने ॥ यदिदं श्रीगुरुस्तोत्रं 'स्वस्वरूपोपलक्षणम् । बालभावानुसारेण ममेदं हि विचेष्टितम् ।
मातृवात्सल्यसदृशं त्वया देवि विधीयताम् ॥ एवमादिभिः अन्याभिश्च यथाऽवकाशं स्तुतिभिः अखिललोकमातरमभिष्ट्रय, शक्तिं पूजयेत् ॥
सुवासिन्याः पूजनम् यथा—प्राङ्निमन्त्रितां षोडशाब्दपरत आत्रिंशद्वर्षदेशीयां सुवासिनीमभ्यक्तां गौरीरूपिणी लक्षण्यां दीक्षितां भक्तां अन्यैरप्युक्तगुणैरलङ्कृतां कुलाष्टकपरिगणितां अलाभे चातुर्वान्तर्गतां परकीयां शक्तिं स्वीयां वा समानीय प्रक्षाळितपादां आसने समुपवेशयेत् । सा चेददीक्षिता तदैष शोधनविधिः । ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः त्रिपुरायै नमः इमां शक्तिं पवित्रीकुरु मम शक्तिं कुरु स्वाहा । इत्यभिषेकमन्त्रपूर्व सामान्यसलिलेन त्रिः शक्तिं प्रोक्ष्य, ३ ॐ,
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु प्रणश्यत्वशुभं च यत् ।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु ॥ इत्युच्चार्य तस्याः कर्णे हृल्लेखां जपेत् । अथ तां देवीरूपां विभाव्य ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः शक्त्यै अमुकं कल्पयामि नम इति मन्त्रेण हरिद्राकुङ्कुमचन्दनपट्टवासःपुष्पधूपदीपनैवेद्यताम्बूलानि दद्यात् । सति विभवे वसनाभरणादीनि च । ततो मूलेन वक्ष्यमाणेन समष्टिमन्त्रेण च क्रमेण श्रीदेव्यै आवरणदेवताभ्यश्च दत्तपुष्पाञ्जल्यास्तस्याः करे सोपादिममध्यममुद्राचुलुकमितक्षीरपात्रं समर्पयेत् । साऽप्युत्थाय तत्कपालमुद्रया
1 स्वगुरोरुप-अ१.
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नित्योत्सवः
3
समादाय, द्वितीयतृतीये च ' दक्षकरेणादाय, पात्रं दक्षकरे निधाय तत्त्वमुद्रागतद्वितीयशकलगृहीतैः क्षीरबिन्दुभिः शिरसि श्रीगुरुपादुकामनुना त्रिरिष्ट्वा, हृदि च श्रीदेवीं त्रिः सन्तर्प्य मूलेन पुनः पात्रं वामकरे कृत्वोत्थाय, होप्यामीति श्रीगुरुज्येष्ठान्यतरानुज्ञां प्रार्थ्य, जुहुधीति तदनुज्ञया दक्षकरेण व्यवधाय, मूलान्ते सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहेति मन्त्रेण सर्वतत्त्वं शोधयेत् । एतस्या ऐच्छिकानि विना मन्त्रं पात्रान्तराण्यपि दद्यात् । अथ पुनः कर्ता पूर्ववत् पात्रमादाय, ऐं ह्रीं श्रीं,
अळिपात्रमिदं तुभ्यं दीयते पिशितान्वितम् ।
स्वीकृत्य सुभगे देवि यशो देहि रिपून् दह ||
इति मन्त्रेण शक्त्यै समर्पयेत् । साऽपि तत्सावशेषं स्वीकृत्य, ऐं ह्रीं श्रीं,
वत्स तुभ्यं मया दत्तं पीतशेषं कुलामृतम् । त्वच्छत्रून् संहरिप्यामि तवाभीष्टं ददाम्यहम् ||
इति मन्त्रेण प्रतिदद्यात् । साधकस्तदुररीकृत्य शक्तिं चतुष्टयेन भोजयित्वा समर्पितताम्बुलो यथाविधि तां पञ्चमेनापि सन्तोप्य विसृजेत् ॥ इति सुवासिनीपूजा ॥
तत्त्वशोधनम
अथ सन्निहिते गुरौ तं पादुकामन्त्रेणाभिपूज्य पात्राणि समर्प्य समाहूतैः शिष्यैः बृन्दात्मना अवस्थितैः सामयिकैः साकं पाणी प्रक्षाळ्य, श्रीदेव्यै मूलेनोपचारमन्त्रेण च त्रिः पुष्पाञ्जलिं समर्प्य, ३ समस्तप्रकटगुप्तगुप्ततरसम्प्रदायकुलकौलनिगर्भरहस्यातिरहस्यपरापरातिरहस्ययोगिनीश्रीपादुकाभ्यो नम इति समष्टिमन्त्रेण आवरणदेवतानां एकं पुप्पाञ्जलिं दत्वा, पूर्ववत् पात्रं पुनः पुनरादायाचमनोक्तैः मन्त्रैः तत्त्वानि शोधयेत् । यथा-
ऐं ह्रीं श्रीं कए ई ल ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥
३
ह स क ह ल ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ||
३
सकल ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ||
1 <
'दक्ष' इत्येतत् 'वाम' इति शोधितम् - अ१.
2
'श्रीगुरुं पादुकाभ, श्रीगुरुपादुकां तन्मनुना -अ. अदीक्षितायास्तु बालयैव - इत्यधिकः (अ) कोशे.
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فرف
यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः षोडश्युपासकस्य तु त्रयोदशबीजपुटितैः प्रत्येकखण्डैः तत्त्वत्रयशोधनं सर्वेण मूलेन सर्वतत्त्वशोधनं च विशेषः ॥
__ अत्र प्रथमपात्रस्वीकार एवोत्थानम् । यथासम्प्रदायं सर्वपात्रस्वीकारोऽपि । स्त्रीणां तूत्थायैव । अत्र च बालोपास्तावेकं पात्रं सर्वतत्त्वशोधनम् । पञ्चदश्युपासनायां तु पात्रत्रयम् । श्रीषोडशाक्षर्युपास्तौ तु तच्चतुष्टयम् । निवृत्ते पूर्णाभिषेके तत्पञ्चकं, यथाऽधिकारमैच्छिकानि वा। विश्वस्तायाः कुमार्याः सुवासिन्याश्चैकं पात्रमिति विवेकः ॥
किं च श्रीगुरोस्तच्छक्तिसुतज्येष्ठकनिष्ठानां स्वज्येष्ठस्य 'सामयिकानां स्त्रीणां चोच्छिष्टं द्रव्याधुपादेयम् । तेभ्यस्तु न देयम् । स्वकनिष्ठशिप्ययोस्तु प्रदेयम् । वीराणां तूच्छिष्टं चर्वणमात्रमादेयम् ॥
उल्लासास्तु-आरम्भतरुणयौवनप्रौढतदन्तोन्मनानवस्थाऽऽख्याः सप्त । तेष्वय॑संशोधनमारम्भः । तरुणयौवनप्रौढेषु सपर्याविधिः । ततो देवताविसर्जनम् । अवशिष्टं अवस्थात्रयं सिद्धानां वीराणां न तु साधकानां इति तत्त्वम् । इति हविःप्रतिपत्तिः ॥
देवतोद्वासनम् ततः सामान्योदकात् किञ्चिदादाय--
साधु वाऽसाधु वा कर्म यद्यदाचरितं मया ।
तत् सर्वं कृपया देवि गृहाणाराधनं मम ॥ इति देव्या वामहस्ते पूजां समर्प्य शङ्खमुद्धृत्य देव्युपरि त्रिः परिभ्राम्य तज्जलं हस्ते समादाय सामयिकानात्मानं च मूलेन प्रोक्ष्य शङ्ख प्रक्षाळ्य निदध्यात् । ततो मूलेन तीर्थनिर्माल्ये स्वीकृत्य,
ज्ञानतोऽज्ञानतो वाऽपि यन्मयाऽऽचरितं शिवे ।
तव कृत्यमिति ज्ञात्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥ इति क्षमाप्य सर्वासामावरणदेवतानां श्रीदेव्यङ्गे विलयं विभाव्य, खेचरी बद्धोद्वास्य, तेजोरूपेण परिणतां श्रीदेवी पूर्ववत् हृदयं नीत्वा तत्र च मूर्ति पञ्चधा उपचर्य पुनरात्माभिन्नसंविद्रूपेण विभावयेत् । इति विसर्जनम् ॥ ततः
1 सामयिकीनां अ१, ब२, १३.
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ف
नित्योत्सवः
शान्तिस्तव:
सम्पूजकानां परिपालकानां यतेन्द्रियाणां च तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य कुलस्य राज्ञां करोतु शान्ति भगवान् कुलेशः ॥ नन्दन्तु साधककुलान्यणिमाऽऽदिसिद्धाः
शापाः पतन्तु समयद्विषि योगिनीनाम् । सा शाम्भवी स्फुरतु काऽपि ममाऽप्यवस्था
यस्यां गुरोश्चरणपङ्कजमेव लभ्यम् ॥ शिवाद्यवनिपर्यन्तं ब्रह्मादिस्तम्बसंयुतम् । कालाभ्यादिशिवान्तं च जगद्यज्ञेन तृप्यतु ॥
इत्यादिशान्तिश्लोकान् पठित्वा,
विशेषार्घ्यविसर्जनम्
विशेषार्घ्यपात्रं मूलेन आमस्तकमुद्धृत्य तत् क्षीरं पात्रान्तरेणादाय
आर्द्रं ज्वलति ज्योतिरहमस्मि । ज्योतिर्ज्वलति ब्रह्माहमस्मि । योऽहमस्मि ब्रह्माहमस्मि । अहमस्मि ब्रह्माहमस्मि । अहमेवाहं मां जुहोमि स्वाहा ॥
इति मन्त्रेण आत्मनः कुण्डलिन्यमौ हुत्वा शेषं प्रियशिष्याय दत्वा तत्पात्रमन्यानि च हविश्शेषप्रतिपत्तिपात्राणि प्रक्षाळ्य अनौ प्रताप्य अवस्थापयेत् ॥
अथ यथाशक्ति ब्राह्मणान् सुवासिनीश्च भोजयित्वा स्वयमपि भुञ्जीत ॥ इति नित्यक्रमविधिः ॥
अयं च नित्यक्रमः सूतकेऽपि कर्तव्यः । अत्र वचनानि श्यामाक्रमे लिखितानि । तत्र च सकामैर्मनसा. निष्कामैर्यथोक्तमिति विशेषः । बालवृद्धस्त्रीमूढैः यथाप्रज्ञं कृता सपर्या 'दौर्बोधीत्युच्यते ।
स्वयं सम्पाद्य सर्वाणि श्रद्धया साधनानि यः । पूजयेत् तत्परो देवीं स लभेताखिलं फलम् ॥
1
' दौबोंधिन्युच्यते- -अ१.
3
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः पूजनेन फलार्ध स्यादन्यदत्तैस्तु साधनैः ।
यथाकथंचिद्देव्यर्चा विधेया श्रद्धयाऽन्वितैः ॥ पक्षान्तराणि च
अशक्तः कारयेत् पूजां दद्याद्वार्चनसाधनम् ।
दानाशक्तः सपर्याऽन्तं पश्येत्तत्परमानसः ।। इति कल्पसूत्रप्रकारः परदेवतायाः नित्यक्रमविधिः समाप्तः ॥
सक्षेपार्चाविधिः नित्यक्रमो मुख्यालाभे प्रतिनिधिनाऽपि निवर्त्यः । तत्र प्रथमस्य प्रतिनिधिः — तक्रं दधि वा गुडमिश्रं, ससैन्धवं पयः, क्षौद्रं गव्यं सर्पिः क्षीरं वा ताम्रपात्रगतं, तिलाः शर्करा वा सलिलमिश्राः, तैलं आरनाळं कांस्यपात्रस्थं तप्तं वा नारिकेळोदकं च । अथ द्वितीयस्य मूलकम् । तृतीयस्य तु लवणाकपिण्याकनागरगोधूमविकारमाषलशुनानि । चतुर्थ तु मुख्यमेव । पञ्चमस्यापराजितापुष्पं करवीरकुसुमं वेति । एतन्मिश्रणं तु सूत्रकारेण अनुपात्तम् । डामरे तु--
मांसानुकल्पोऽपूपः स्यान्मत्स्यस्य च कदळ्यपि ।
मैथुनस्य कळत्रे स्वे तदलाभे तु यत्नतः ॥ पाठान्तरम्
द्वितीयस्य त्वपूपः स्यात्तृतीयस्य कदळ्यपि ।
पञ्चमस्य कळत्रे स्वे तदलाभे तु यत्नतः ॥ इति ॥ नित्यक्रमस्य प्रमादादिना अतिक्रमे मूलशतजपः प्रायश्चित्तमानातम् । नित्यनैमित्तिको च क्रमौ सुतशिष्यादिभिरपि कारयितुं शक्यते ॥
___ सझेपार्चनानि तानि च विस्तराशक्तानां राजवनिताऽऽदीनां राज्यक्षोभदुर्भिक्षज्वराद्यापत्सु च कर्तव्यानि । तत्र चतुर्दशाराद्यावरणषट्कसमर्चनं कुर्यादित्येकः पक्षः । ('क्रमो
'इदं वाक्यं नास्ति केषुचित्कोशेषु.
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नित्योत्सवः निवर्त्यः ।) अष्टाराद्यावृतित्रयसपर्येति द्वितीयः । आयुधार्चनसहितकामेश्वर्यादिचतुष्टयाहणं तृतीय इति । पक्षान्तराणि च
अशक्तः कारयेत् पूजां दद्याद्वार्चनसाधनम् ।
दानाशक्तः सपर्याऽन्तं पश्येत्तत्परमानसः ॥ इति ॥ अनापदि तु कृतान्येतान्यनिष्टापादकानि ॥
क्रत्वर्थनियमः कृष्णाष्टमीतञ्चतुर्दश्यमापूर्णिमासङ्क्रान्तिसंज्ञेषु पर्वसु पञ्चसु सविशेषैः साधनैः आराधयेत् । तत्प्रकारस्तु नैमित्तिकप्रकरणे वक्ष्यते । नित्यनैमित्तिकक्रमौ च शिष्यसुतादिभिरपि कारयितुं शक्यते ॥ ___श्रीललितोपासको नेक्षुखण्डं भक्षयेत् । न दिवा स्मरेद्वार्तालीम् । न जुगुप्सेत सिद्धद्रव्याणि । न कुर्यात् स्त्रीषु निष्ठुरताम् । वीरस्त्रियं न गच्छेत् । न तं हन्यात् । न तद्रव्यमपहरेत् । नात्मेच्छया मपञ्चकमुररीकुर्यात् । कुलभ्रष्टैः सह नासीत । न बहु प्रलपेत् । योषितं सम्भाषमाणामप्रतिसम्भाषमाणो न गच्छेत् । कुलपुस्तकानि गोपायेत् ॥ एते क्रत्वर्थनियमाः अकरणे क्रतुवैगुण्यापादकाः साधकेन अवश्यमनुष्ठेयाः । अन्यांश्च दीक्षाक्रमोक्तान् सामयिकानामाचारान् अनुतिष्ठेत् । अनिशमात्मानं कामकळाऽऽत्मकं श्रीदेवीरूपं भावयेत् । एवं वर्तमानस्य कुलनिष्ठस्य सर्वतः कृतकृत्यता। शरीरविमोके च श्वपचगृहकाश्योर्नान्तरम् । स एव जीवन्मुक्तः सुखी विहरेदिति ॥
__श्रीचक्रलेखनोपायः अथ प्राक्सूचितः श्रीचक्रलेखनप्रकारः सुबोधतमो लिख्यते ॥ .अत्रेयं परिभाषा-ईशानाद्यामेय्यन्ता वायव्यादिनैर्ऋत्यन्ता वा रेखा तिर्यग्रेखेत्युच्यते। तस्या एवारद्वयादाकृष्टे प्रतीच्यां प्राच्यां वा मेळिते च पार्श्व रेखे इत्युच्यते । रेखोपरि रेखाऽन्तरस्यारोहे तयोर्योगस्थानं सन्धिः । ईदृशः रेखात्रययोगो मर्म । साधको यदाशाऽभिमुखः सैव प्राची । तदितरा प्रतीची । प्रत्यगग्रं त्रिकोणं शक्तिः । प्रागग्रं तु शिवो वह्निश्चेत्युच्यते इति ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः प्रथमं ईशानाद्यामेयान्त-तदादिवारुण्यन्त-तदादीशानान्तां रेखामभिलिख्य शक्तिं निष्पादयेत् । इदं मध्यत्रिकोणं भवति । यन्मध्यं हि बिन्दुस्थानमामनन्ति । अथास्य मध्यतः पावरेखाद्वयनिर्भेदपूर्वकं प्राग्वच्छक्त्यन्तरं कल्पयेत् । अत्र सन्धिद्वयं जायते । ततो द्वितीयशक्तिमध्यतः तत्पावरेखाद्वयं निर्भिद्य च तां प्रथमशक्त्यग्रसंलग्नां तिर्यग्रेखामालिख्य तदनाकृष्टाभ्यां पक्षरेखाभ्यां सन्धिद्वयभेदचणं शिवत्रिकोणं कुर्यात् । एतावता अष्टकोणं सम्पद्यते । एतदेव मध्यत्रिकोणेन सह नवयोनिचक्रमिति कीर्त्यते । इह सन्धयः षट् मर्मणी द्वे च सिध्यन्ति । अथ प्राची तिर्यग्रेखामुभयतोऽप्यभिवर्ध्य तदनाकृष्टाभ्यां प्रथमवह्निपक्षकोणाग्रसंलग्माभ्यां पावरेखाभ्यां शक्तिं जनयेत् । एवं प्रतीची तिर्यग्रेखामुभयतोऽप्यभिवर्ध्य तदनाकृष्टाभ्यां प्रथमशक्तिपक्षकोणाग्रस्पृष्टाभ्यां पावरेखाभ्यां शिवं साधयेत् । ततो मध्यत्रिकोणपार्श्वरेखे ऐशान्यामानेय्यां चाभिवर्ध्य तदप्रयोः प्रथमलिखितवयग्रे च संसक्तां तिर्यग्रेखामालिखेत् । एवं प्रथमलिखितवहेरपि पावरेखे अभिवर्ध्य तदप्रयोः द्वितीयशक्त्यग्रे च संसक्तां तिर्यग्रेखां विलिखेत् । तदिदमन्तर्दशारं भवति । अत्र मर्माणि षट् सन्धयो द्वादश च निप्पद्यन्ते । अथ विद्यमानासु पञ्चसु तिर्यग्रेखासु प्रथमां चरमां च उभयतोऽप्यभिवर्ध्य तत्तदनाकृष्टाभिः पाश्वरेखाभिः तृतीयशक्तिपक्षकोणशिखावजे इतरकोणाष्टकारस्पर्शिनौ शक्तिशिवौ समुत्पादयेत् । ततः प्रथमवर्धिता मध्यशक्तिप्रथमवह्निपावरेखास्तत्तद्विदिक्षु संवर्ध्य तत्तदग्राकृष्टे अन्तर्दशारीयप्राक्प्रत्यक्कोणशिखासम्पृक्ते रेखे समालिग्वेत् । तदेतद्वहिर्दशारं भण्यते । इह मर्माणि दश सन्धयोऽष्टादश चोन्मीलन्ति । अथ सप्तसु तिर्यग्रेखासु षष्ठद्वितीये पूर्वसंवर्धित एव रेखे उभयतः संवर्ध्य तत्तदनाकृष्टाभिः बहिर्दशारस्य प्राक्प्रत्यक्त्रिकोणशिखरसंसर्गवर्जमितरकोणाष्टकशिखरसम्पृक्ताभिः पावरेखाभिः शक्तिं शिवं च समुन्मीलयेत् । ततश्चतुर्थशक्तिपावरेखे सर्वप्राचीनां तिर्यग्रेखां चोभयतोऽप्यभिवर्ध्य मेळयेत् । एवं तृतीयवह्निपार्श्वरेखे सर्वप्रतीच्यां तिर्यग्रेखां चोभयतम्संवर्ध्य मेलयेत् । ततः प्रथमशक्तिप्रथमशिवयोः पार्श्वरेखे द्वे तत्तद्विदिक्षु समभिवर्ध्य तत्तदग्रतश्चतुर्थशक्तितृतीयशिवशिखरचुम्बितिर्यग्रेखायुगळमालिवेत् । तदिदं चतुर्दशारं भवति । अत्र मर्माणि अष्टादश, सन्धयः चतुर्विंशतिः, शक्तयः पञ्च, वहयश्चत्वारः, पार्श्वयोः डमरवोऽष्टौ, त्रिकोणानि च संहत्य त्रिचत्वारिंशत् सम्पद्यन्ते । अथास्य परितः कर्णिकावृत्तं विलिख्य तत्संसक्तान्यसन्धीनि दळान्यष्टौ
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नित्योत्सवः
कल्पयेत् । तदिदमष्टदळमिति व्यवह्रियते । असन्धित्वं नाम केसराभावत्त्वम्, श्रीचक्रराजे केसरनिषेधदर्शनात् । अथ तदभितः पुनः कर्णिकावृत्तं निष्पाद्याऽसन्धीनि पत्राणि षोडश निर्मिमीत । तदिदं षोडशदळं सञ्चक्षते । अथ तद्बहिर्मर्यादावृत्तत्रयं परिकल्प्य तत्परितः चतुरश्ररेखात्रयेण चतुर्द्वारं भूपुरं समुद्भावयेत् ॥ इति श्रीचक्रलेखनप्रकारः ॥
८२
श्रीचक्रप्रस्तारभेदाः
एतत्प्रतिष्ठापनमन्त्रः प्रागुक्त एव । सुवर्णादिनिर्मितस्य यन्त्रस्य तु द्वौ प्रस्तारौ - भौमो, मैरवश्चेति । तत्र पलद्वयपरिमाणे चतुरङ्गुलविस्तृतपट्टे ऊर्ध्वरेखाऽऽत्मको बिन्द्वादिभूपुरान्तरचनाक्रमो भूप्रस्तारः । मैरवप्रस्तारस्त्रिविधः । तत्र भूपुरमारभ्य चक्रत्रिकत्रिकं सृष्टिस्थितिसंहारपदैः व्यपदिश्यते । तेषु सृष्टिचक्रात् स्थितिचक्रमुन्नतम् । ततोऽपि संहारचक्रमुच्छ्रितम् । इत्येकः पक्षः । भूपुरात् पद्मद्वयमुन्नतम् । तस्मात् चतुर्दशारादिषट्कं उदग्रमिति द्वितीयः । भूपुरादिबिन्द्वन्तानि नवापि चक्राणि पूर्वपूर्वस्मादुत्तरोत्तरं उन्नतानीति तृतीयः । अत्र—
1
चतुरश्रं समारभ्य नवचक्राण्यनुक्रमात् । उन्नतोन्नतमामध्याच्चक्रं स्यान्निधनेधनम् ॥ इति ॥
चरमपक्षप्रतिपादके तन्त्रराजवचनगते “ निधनेधनं " इति पदे " उरसिलोम " इत्यादिवत् व्यधिकरणबहुव्रीहिः । चरमे वयसि धनप्राप्तिरित्यर्थः । सम्पदनुभवदशायामेव निधनमाप्नोति न तु तद्धूासकाले इति यावत् । प्राञ्चस्तु धनलाभोत्तरं निधनं भवतीति सप्तमीद्वितीययोः व्यत्ययं विधाय निन्दापरतया व्याचक्षते । तत्र मूलं त एव जानत इति दिक् ॥
श्रीचक्रप्रतिष्ठापनविधिः
दीक्षाप्रकरणोक्ते शुभे दिवसे कृताह्निकः साधको गणपतिमाराध्य ब्राह्मणैः स्वस्ति वाचयित्वा आचम्य प्राणानायम्य देशकालौ सङ्कीर्त्य अमुकगोत्रोऽमुकशर्मवर्मादिरहं महात्रिपुरसुन्दरीमाराधयिष्यन् श्रीचक्रराजप्रतिष्ठापनं करिष्य इति सङ्कल्प्य
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः दुग्धदधिघृतशकृन्मूत्रात्मकं पञ्चगव्यमानीय सम्मिश्य हौं इति मन्त्रेण अष्टोत्तरशतवारानभिमन्त्र्य तत्र प्रणवेन यन्त्रं निक्षिप्य तत उद्धृत्य पात्रान्तरे निधाय, मिश्रितेन गोदुग्धदधिघृतमधुशर्कराऽऽत्मकेन पञ्चामृतेन संस्खाप्य धूपयेत् । अथ प्रत्येकं दुग्धादिभिः क्रमेण अन्तरान्तरा धूपनपूर्वकं सपयित्वा पुनर्मिश्रितैश्च तैः स्नपयेत् । ततोऽष्टासु दिक्षु शालितण्डुलपुञ्जोपरि निहितैः नूतनवसनवेष्टितैः गन्धपुष्पार्चितैः कुङ्कुमरोचनाचन्दनकस्तूरीसुरभिळशीतळसलिलपूर्णैः कुशाग्रेण स्पृष्ट्वा मूलेनाष्टोत्तरशतवारानभिमन्त्रितैः सौवर्णादिमार्तिकान्तान्यतमैरष्टभिः कलशैरभिषिञ्चेत् । इह सर्वमपि पञ्चगव्यादिकं स्नानं मूलमन्त्रकरणकमेव । अथ यन्त्रं धौतेन वाससा परिमृज्य पीठे निधाय कुशाग्रैः स्पृशन्—ऐं ह्रीं श्रीं ॐ यन्त्रराजाय विद्महे महायन्त्राय धीमहि । तन्नो यन्त्रः प्रचोदयात् ॥ इति—यन्त्रगायत्री अष्टोत्तरशतवारानावर्त्य आत्मनो भूतशुद्धयादिमातृकान्यासान्तं कृत्वा यन्त्रं करेण संस्पृश्य प्राणप्रतिष्ठां कुर्यात् । यथा
अस्य श्रीयन्त्रराजप्राणप्रतिष्ठामहामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः । ऋग्यजुस्सामाथर्वाणि छन्दांसि । चैतन्यं देवता । आं बीजम् । ह्रीं शक्तिः । क्रों कीलकम् । मम श्रीचक्रप्राणप्रतिष्ठायै जपे विनियोगः ॥ ऐं ह्रीं श्रीं अं कं खं गं घं डं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशात्मने आं अंगुष्ठाभ्यां
नमः ॥ ३ इंचं छं जं झं जं शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मने ई तर्जनीभ्यां
नमः ॥ ३ उंटं ठं डं ढं णं श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघाणात्मने ऊं मध्यमाभ्यां
नमः ॥ ३ एं तं थं दं धं नं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने ऐं अनामिकाभ्यां
नमः ॥ ३ ॐ पं फं बं में मं वचनादानविहरणविसर्गानन्दात्मने औं
कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ ३ अं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं मनोबुद्धयहङ्कारचित्तान्तः
करणात्मने अः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥ एवं हृदयादिन्यासः ॥
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८-४
ध्यानम् -
रक्ताम्बोधिस्थपोतोल्लसदरुणसरोजाधिरूढा करा०जैः पाशं कोदण्डमिक्षूद्भवमळिगुणमप्यङ्कुशं पञ्चबाणान् । बिभ्राणाऽसृक्कपालं त्रिणयनलसिता पीनवक्षोरुहाढ्या देवी बालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राणशक्तिः परा नः ॥
ऐं ह्रीं श्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हं सः श्रीचक्रस्य
प्राणाः इह प्राणाः ॥
or Y
ॐ
नित्योत्सवः
Ø Ø
सः श्रीचक्रस्य जीव इह स्थितः ॥ सः श्रीचक्रस्य सर्वेन्द्रियाणि ||
सः
श्रीचक्रस्य वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रजिह्वाप्राणप्राणा इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ॥ इति ॥
यन्त्रान्तरप्राणप्रतिष्ठायां तत्तन्नाम्नः ऊहः कार्यः । अथ तत्र श्रीक्रमोक्तेन विधिना देवीमावाह्य अभ्यर्च्य यन्तं कुशायैः स्पृशन् मूलमष्टोत्तरं सहस्रं शतं वा वारानावर्त्य होमप्रकरणोक्तेन क्रमेण अष्टोत्तरशतमाज्याहुतीः मूलेन हुत्वा सम्पाताज्यं मध्ये मध्ये यन्त्रे अवनीय सव्यञ्जनेन अन्नेन सर्वभूतबलिं प्रदाय होमशेषं समाप्य गुरवे सुवर्णशृङ्गालङ्कृतां गां वसनाभरणानि च प्रदाय देवीमुद्वास्य कुमारीं योगिनीं ब्राह्मणांश्च भोजयेत् । इमां च यन्त्रप्रतिष्ठां गुर्वादिना वा कारयेत् ॥ इति वामकेश्वरतन्त्रीयो यन्त्रप्रतिष्ठापनविधिः ||
यत्रभेदेन अर्चनकालावधि:
सौवर्णे यावज्जीवं रौप्य द्वाविंशतिवत्सराः, ताम्रे द्वादश, भूर्जपत्रे लिखिते तु षट् । एतेषां उक्तकालातिक्रमे पुनः प्रतिष्ठा । स्फटिकादौ तु सकृदेव प्रतिष्ठापनं सर्वदा पुरुषपरम्परयाऽभ्यर्चनं चेति । यन्त्रस्य श्वचण्डालाद्यस्पृश्यस्पर्शाद्युपघाते पुनः प्रतिष्ठापनम् । प्रमादादिना यन्त्रे दग्धे स्फुटिते नष्टे चोराद्यपहृते वा एकदिनोपवासं अयुतमूलमन्त्रजपं तद्दशांशं होमादिकं च कृत्वा पुनर्यन्त्रान्तरं प्रतिष्ठापयेत् । लुप्तचिह्नस्फुटितार्धदग्धादस्तु तीर्थोदके निक्षिपेत् ॥ इति ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
श्रीचक्रमहिमा श्रीचक्राभिषेकोदकेन शिरःप्रोक्षणं पानं च ब्रह्माण्डोदरगतगङ्गाऽऽदितीर्थसंहस्रस्नानकोटिफलदम् । श्रीचक्रदर्शिनस्तु
सम्यक् शतक्रतून् कृत्वा यत्फलं समवाप्नुयात् ।
तत्फलं लभते कृत्वा भक्त्या श्रीचक्रदर्शनम् ॥ इति वचनादुक्तं फलं भवति । इत्यलं विस्तरेणेति शिवम् ।
सपर्याप्रकरणं द्वितीयं समाप्तम्
होमप्रकरणम् तत्र पूजामण्टपस्य ईशानभागे चतुरश्रकुण्डं अथवा हस्तायाममङ्गुष्ठोन्नतं स्थण्डिलं कृत्वा, सामान्याोदकेन प्रोक्ष्य, उदक्संस्थाः प्राचीस्तिस्रो रेखाः तदुपरि प्राक्संस्था उदीचीश्च लिखित्वा तासु रेखासु क्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ब्रह्मणे नमः, यमाय, सोमाय, रुद्राय, विष्णवे, इन्द्राय नमः ॥ इति गन्धाक्षतपुष्पैरभ्यर्च्य
ऐं ह्रीं श्रीं सहस्रार्चिषे हृदयाय नमः, स्वस्तिपूर्णाय शिरसे स्वाहा, उत्तिष्ठपुरुषाय शिखायै वषट् , धूमव्यापिने कवचाय हुम् , सप्तजिहाय
नेत्रत्रयाय वौषट् , धनुर्धराय अस्त्राय फट् ॥ इति स्वाङ्गेषु षडङ्गं न्यसेत् । तेनैव षडङ्गेन अग्नीशासुरवायव्येषु मध्ये दिक्षु च कुण्डमभ्यर्च्य तत्र अष्टकोणषट्कोणत्रिकोणात्मकमग्निचक्रं प्रवेशरीत्या विलिख्य त्रिकोणे दिगष्टकं विभाव्य तत्र स्वाग्रादिप्रादक्षिण्येन दिक्षु मध्ये च क्रमात्
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नित्योत्सवः ऐं ह्रीं श्रीं पीतायै नमः, श्वेताय, अरुणायै, कृष्णायै, धूम्रायै, तीव्रायै, स्फुलिङ्गिन्यै, रुचिरायै, ज्वालिन्यै नमः ॥ इति पीठशक्तीः समज़े, पीठमध्य एव
ऐं ह्रीं श्रीं तं तमसे नमः, रं रजसे, सं सत्वाय, आं आत्मने, अं अन्तरात्मने, पं परमात्मने, ज्ञं ज्ञानात्मने नमः ॥ इत्युपर्युपरि पूजयेत् । ततः तत्र त्रिकोणे ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं वागीश्वरीवागीश्वराभ्यां नमः इति मन्त्रेण जनिष्यमाणस्य वह्नेः पितरौ वागीश्वरीवागीश्वरौ सम्पूज्य, तयोमिथुनीभावं भावयित्वा, अरणेः सूर्यकान्ताद्वा वह्निमुत्पाद्य द्विजगृहाद्वा आनीय मृत्पात्रे ताम्रपात्रे वा अमिं आनेय्यां नैर्ऋत्यां वा दिशि निधाय, तस्माक्रव्यादांशमेकमग्निशकलं नैर्ऋत्यां निरस्य मूलेन निरीक्षणप्रोक्षणे अस्त्रेण कुशैः ताडनमवकुण्ठनामृतीकरणे चेत्येतैः विशोध्य, ॐ वैश्वानर जातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहेति मूलाधारोद्गतं संविदमि ललाटनेत्रद्वारा निर्गमय्य तं बाह्यामियुक्तं वागीश्वरबीजस्य वागीश्वरीयोन्यां प्रवेशबुद्धया वह्निचक्रे पातयेत् । ततः कवचाय हुं इति मन्त्रेण इन्धनैः आच्छाद्य, - ऐं ह्रीं श्रीं अमिं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम् ।
सुवर्णवर्णमनलं समिद्धं विश्वतोमुखम् ॥ इत्युपस्थाय, ३ उत्तिष्ठ पुरुष हरितपिङ्गल लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय मे देहि दापय स्वाहा इति वह्निमुत्थाप्य, ३ चित्पिङ्गळ हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञ आज्ञापय स्वाहा इति प्रज्वाल्य, वागीश्वरीगर्ने धृतं ध्यात्वा, ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं नमः अस्य होमामेः पुंसवनकर्म कल्पयामि नमः । तथा अस्य होमानेः सीमन्तकर्म, जातकर्म, श्रीललिताग्निरिति नाम्ना नामकरणकर्म कल्पयामि नमः । एवं तत्तत्क्रमेषु वहेः तत्तद्देवतानाम योज्यम् । अस्य होमामेरितिपदम्य एतावत्पर्यन्तमनुवृत्तिः, इतः परं ललिताऽमेरिति । ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं नमः श्रीललिताऽमेः अन्नप्राशनकर्म कल्पयामि नमः, चौळकर्म, उपनयनकर्म, गोदानकर्म, विवाहकर्म कल्पयामि नमः । इति तत्तत्कर्माणि भावनया विदध्यात् । ततः सामान्यजलेन परिषेचनम् , प्रागौरुदगप्रैश्च कुशैः परिस्तरणम् , त्रिभिः परिधिभिः प्राग्वजै परिधानं च कृत्वा,
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यौवनोल्लासः तृतीयः -- श्रीक्रमः
त्रिणयनमरुणजटाबद्धमौळिं सशुक्लांशुकमरुणमनेकाकल्पमम्भोजसंस्थम् । अभिमतवरशक्तिं स्वस्तिकाभीतिहस्तं
इति ध्यायेत् ॥
नमत कनकमालालङ्कृतांसं कृशानुम् ॥
शारदातिलके
वैश्वानरं स्थितं ध्यायेत् समिद्धोमेषु देशिकः । शयानमाज्यहोमेषु निषण्णं शेषवस्तुषु ॥
इति ध्यानविशेष उक्तः । अथाष्टकोणे स्वाग्रादिप्रादक्षिण्येन
ऐं ह्रीं श्रीं जातवेदसे नमः, सप्तजिह्वाय, हव्यवाहनाय, अश्वोदराय, वैश्वानराय, कौमारतेजसे, विश्वमुखाय, देवमुखाय नमः ॥
इति षट्कोणे च पूर्ववत् षडङ्गं अभिपूज्य, त्रिकोणे – ॐ वैश्वानर जातवेद · इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा इति मन्त्रेण—अग्निमर्चयेत् । अथाज्यं मूलेन सप्तवारं अभिमन्त्रणेन संशोध्य पुरतो दर्भेषु निधाय स्रुवं च मूलेन प्रक्षाळ्य तदुत्तरतो निवेश्य अग्निं पुष्पाक्षतैः अलङ्कृत्य स्रुवेण आज्यमादाय,
ऐं ह्रीं श्रीं हिरण्यायै नमः स्वाहा । हिरण्याया इदं न मम ॥ कनकायै, रक्तायै, कृष्णायै, सुप्रभायै, अतिरक्तायै, बहुरूपायै नमः स्वाहा । बहुरूपाया इदं न मम ॥
८७
इति अग्नेः सप्तजिह्वासु एकैकामाज्याहुतिं कुर्यात् नमोऽन्ताम् । पादुकाऽन्तानिति सूत्रं तु प्रकरणान्तरमन्त्रान्तिमनम: पदापोहकं न तु वह्निजिह्वामन्त्रनमसः, अन्यत्र विनियोगादर्शनात् । जिह्वास्थानानि तु—
रुद्रेन्द्रवह्निमांसादवरुणानिलदिग्गताः ।
हिरण्याद्याः क्रमान्मध्ये बहुरूपा व्यवस्थिता ॥ इति ॥ बहुरूपाऽऽख्यजिह्वायां होमः सर्वार्थसाधकः । इतरासु हुनेत् क्रूरकर्मस्वभिमतेषु च ॥ इति कादिमते ॥
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८८
नित्योत्सवः
ततः,
ऐं ह्रीं श्रीं वैश्वानर जातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा ॥
३
ॐ उत्तिष्ठ पुरुष हरित पिङ्गल लोहिताक्ष सर्बकर्माणि साधय मे देहि दापय स्वाहा ॥
ॐ चित्पिङ्गल हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा ॥
३
इत्यादिभिः प्रागुक्तैः त्रिभिर्मन्त्रैः अस्तिस्र आहुती: जुहुयात् । अथ अग्नेर्मध्यभागे स्थितायां दक्षिणोत्तरायतायां बहुरूपाऽऽख्यजिह्वायां आवाहनमन्त्रेण—
ऐं ह्रीं श्रीं हौं ह्स्र्क्लीं ह्स्र्सौः
महापद्मवनान्तःस्थे कारणानन्दविग्रहे । सर्वभूतहिते मातरेह्येहि परमेश्वरि ॥
इति श्रीदेवीमावाह्य उपचारमन्त्रैः गन्धादीन् पञ्चोपचारानाचर्य प्रथमं अङ्गदेवीनित्यौघत्रयावरणदेवता चक्रेश्वरीणां एकैकामाज्याद्यन्यतमाहुतिमुद्देशत्यागपूर्वं कृत्वा अथ प्रधानदेवतायाश्च तथैव दशाहुतीर्जुहुयात् । पुरश्चरणादिहोमाहुतयस्तु इत उत्तरं कार्याः । तत्र नित्यासु चक्रेश्वरीषु अङ्गदेवीषु च तत्तन्मन्त्रान्ते चतुर्थ्यन्तं तत्तन्नामोत्तरं स्वाहापदप्रयोगः । वशिन्यादिष्वायुधेषु चोक्तमन्त्रगतं नमः शब्दमपोह्य स्वाहाशब्दयोजनम् । अवशिष्टेषु ओधत्रयाणिमाऽऽदिषु दैवतेषु चतुर्थ्यन्तं तत्तन्नामोत्तरं स्वाहापदसम्बन्धः इति विशेषः । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं अं ऐं स क ल ह्रीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे सौः अं कामेश्वरीनित्यायै स्वाहा । कामेश्वरीनित्याया इदं न मम ॥ इत्यादि ॥ अं आं सौः त्रिपुराचक्रेश्वर्यै स्वाहा । त्रिपुराचक्रेश्वर्या इदं न मम ॥ इत्यादि ॥
अं आं इं ईं उं ऊं ऋ ऋ लं लूं एं ऐं ॐ औं अं अः ब्लूं वशिनीवाग्देवतायै स्वाहा । वशिनीवाग्देवताया इदं न मम ॥ इत्यादि ॥
द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः सर्वजम्भनेभ्यो बाणेभ्यः स्वाहा । सर्वजम्भनेभ्यो बाणेभ्य इदं न मम ॥ इत्यादि ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः- श्रीक्रमः ३ हृदयदेव्यै स्वाहा । हृदयदेव्या इदं न मम ॥ इत्यादि ॥ ३ परप्रकाशानन्दनाथाय · स्वाहा । परप्रकाशानन्दनाथाय इदं
__न मम ॥ इत्यादि ॥ ३ अणिमासिद्धयै स्वाहा । अणिमासिद्धया इदं न मम ॥
इत्यादिरीत्येति ॥ प्रधानदेवताहोमे तु पञ्चदशनित्योत्तर कामेश्वर्यादित्रितयान्ते त्रिपुराम्बोत्तरं प्रधानहोमदशके तदन्ते तस्या एव महाचक्रेश्वरीत्वेन पुनोंमे चेत्येवं त्रयोदशसु होमेषु मूलमन्त्रान्ते-ललितायै स्वाहा ललिताया इदं न मम इति विवेकः, “न तत्र मन्त्रदेवताभेदः कार्यः” इति सूत्रेण नामान्तरनिषेधात् । सर्वत्र ज्वालामालिन्यादिषु स्वाहाऽन्तेषु मन्त्रेषु तु पुनः स्वाहाशब्दान्तरयोजनं कर्तव्यमेव
मन्त्रान्ते या वह्निजाया सा तु मन्त्रस्वरूपिणी ।
तदन्तेऽन्यां प्रयुञ्जीत सा होमाङ्गतया मता ॥ इति शक्तिसङ्गमतन्त्रवचनात् ॥
होमद्रव्याणि तु आज्यानपायसतिलतण्डुलतदुभयरक्तपुष्पसुगन्धिकुसुमफलाद्यन्यतमानि । अन्नादिषु त्रिमधुयोगः केवलाज्ययोगो वा । अन्नादितिलतण्डुलान्तं निप्कामानाम् । प्रसूनं फलं चैकैकम् । लघु चेत् द्विव्याद्यपि । संस्कारस्तु आज्याक्त एव । एवं क्रमान्तरेप्वपि विपश्चिद्भिः ऊहनीयमिति दिक् । अथ पूर्वोक्तप्रकारेण बलिं दत्वा
ऐं ह्रीं श्रीं ॐ भूरमये च पृथिव्यै च महते च स्वाहा । अग्नये पृथिव्यै
____ महत इदं न मम ॥ ३ ॐ भुवो वायवे चान्तरिक्षाय च महते च स्वाहा । वायवे
___अन्तरिक्षाय महत इदं न मम ॥ ३ ॐ सुवरादित्याय च दिवे च महते च स्वाहा । आदित्याय
दिवे महत इदं न मम ॥ 1 स्वाहाऽन्तमन्त्रे स्वाहाऽन्तरयोजनं नास्तीति प्राचीनानां लेखः अमूलत्वात् अनादर्तव्यःइत्यधिकः (भ, अ) पुस्तकयोः.
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नित्योत्सवः ३ ॐ भूर्भुवः सुवश्चन्द्रमसे च नक्षत्रेभ्यश्च दिग्भ्यश्च महते च
स्वाहा । चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यो दिग्भ्यो महत इदं न मम ॥ इति चतुर्भिः मन्तैः महाव्याहृतिहोमं आज्येन कृत्वा, ऐं ह्रीं श्रीं ॐ इतः पूर्व प्राणबुद्धिदेहधर्माधिकारतो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा कर्मणा हस्ताभ्यां पद्भयामुदरेण शिश्ना यत् स्मृतं यत् कृतं यदुक्तं तत् सर्वं ब्रह्मार्पणं भवतु स्वाहा इति मन्त्रेण ब्रह्मार्पणाहुतिं विधाय, परब्रह्मण इदं न मम इत्युक्त्वा, परिस्तरणपरिधीनपसार्य, परिषेचनालङ्करणे कृत्वा, प्रागुक्तेन
अमिं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम् ।
सुवर्णवर्णममलं समिद्धं विश्वतोमुखम् ॥ इति मन्त्रेणोपस्थाय चिदग्निं देवतां च आत्मन्युद्वासयामि नमः इत्युद्वास्य तद्भुतितिलकं धारयेत् त्र्यायुषमिति मन्त्रेणेति शिवम् ॥
इति होमप्रकरणं तृतीयं समाप्तम्
मुद्राप्रकरणम्
श्रीगुरुवन्दनमुद्राः विकसितकल्प उत्तानाञ्जलिः सुमुखम् । इदमेव मुष्टीकृतं सुवृत्तम् । ऊर्ध्वाध:स्थितयोः दक्षवामकरतलयोः अंगुलीनां मियो मणिबन्धसम्बन्धे चतुर श्रम् । अधरोत्तरस्य वामदक्षमुष्टियुगस्य स्वाभिमुख्येन योजने मुद्गरः । तिर्यमिळिताग्रयोः मध्यमयोः पश्चात् ऊर्ध्वाधःस्थिते वामदक्षानामिके तिरः प्रसारिते तर्जनीभ्यां निपीड्य वामकनिष्ठां दक्षिणया धृत्वा अङ्गुष्ठाग्रयोः मध्यमापुरोमध्यपर्वद्वयसम्बन्धे यो निः ॥ इति श्रीगुरुवन्दनमुद्राः ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
अय॑स्थापनमुद्राः अधोमुखप्रसारितं वामदक्षकरतलयुगमधरोत्तरं विधायाङ्गुष्ठद्वयचालने मस्यः । लक्ष्यमभितः छोटिकां दत्वा दक्षमध्यमातर्जनीभ्यां 'अधिवामकरतलं त्रिस्ताडने अस्त्रम् । अधोमुखस्य दक्षवाममुष्टिद्वयस्य प्रसारितयोः तर्जन्योः स्वस्वभागमारभ्य क्रमेण लक्ष्यं परितः प्रादक्षिण्यवामावर्ताभ्यां परिभ्रमणे अव कुण्ठ नम् । अभिमुखमन्योन्यग्रथितानां दक्षवामकराङ्गुलीनां क्रमेण कनिष्ठानामे तर्जनीमध्यमे च संयोज्य अधोमुखीकरणे धेनुः । यो नि रुक्तैव । उत्तानस्य वामकरस्य विरळं आकुञ्चितैः अनामामध्यमातर्जन्यौः अधोमुखस्य दक्षस्य वक्रीकृतानि तानि संयोज्य कनिष्ठागुष्ठाग्राणां मिथः सम्बन्धे गा लि नी ॥
अर्चने मुद्राः विततोत्तान ऊर्ध्वाधोव्यापारितोऽञ्जलि: आवाह नी । तथाविधो न्युजाञ्जलिः संस्था प नी । उदगुष्ठयोः मुष्टयोरभिमुखयोगे संनि धा पनी । सैवाकनिष्ठामूलं अन्तःप्रविष्टाङ्गुष्ठमिथःस्पृष्टनखा सं नि रो धि नी । संनिधापन्येव तिरः प्रयोजिता सम्मुखी करणी । अव कु ण्ठ नी उक्तैव । उदगुलिनोः करतलयोः योजने वन्दनं प्रसिद्धम् । धेनु यो नी उक्ते एव । वामानामाङ्गुष्ठयोगे त त्त्व मुद्रा । दक्षाङ्गुष्ठतर्जनीयोगो ज्ञा न मुद्रा ॥
सङ्क्षोभिण्यादिमुद्राः उत्तानयोः करतलयोः प्रसारिततर्जनीकं संहतकनिष्ठानामामध्यमाग्राण्यन्योन्याभिमुख्येन संयोज्य स्वस्वकनिष्ठोपर्यङ्गुष्ठाग्रसम्बन्धे सर्व सङ्क्षो भिणी । सैव प्रसारितमध्यमाऽपि सर्व विद्रा वि णी । इयमेव मध्यमातर्जन्योराकुञ्चने सर्वा कर्षणी। परस्परप्रथिताङ्गुलिस्पृष्टनखाग्राङ्गुष्ठयोः मुष्टयोः योगे सर्व व शङ्करी । अधरोत्तरं तिर्यक्प्रसारिते वामदक्षिणकनिष्ठे मध्यमाभ्यां धृत्वा तयोरगे अंगुष्ठाभ्यां निपीड्य अनामातर्जन्यग्राणां पार्श्वतो मिथः संस्पर्श सर्वोन्मा दिनी । एषैव अनामयोराकुञ्चने तर्जन्योः किञ्चित् भुमत्वे च सर्वम हा कु शा। दक्षभुजमध्यसन्धिस्थापितवाम'अधोमुखाभ्यां वाम-श्री.
• संस्थापिनी-अ, अ१, ३ सर्वाकर्षिणी-अ, ब३.
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नित्योत्सवः
कूर्परमामणिबन्धं पाणी परिवर्त्य स्वाभिमुखमन्योन्यस्पृष्टाग्रयोः मध्यमयोः पृष्ठतोऽधरोत्तरं तिरःप्रसारितानि दक्षवामानामाकनिष्ठाप्राणि तर्जनीभ्यां धृत्वा पुरोऽङ्गुष्ठयोरन्योन्यसम्बन्धे सर्व खेचरी । ऊर्ध्वाधस्तिरःप्रसृते वामदक्षकनिष्ठाये अनामाभ्यां धृत्वा अर्धचन्द्राकृतियोजितेषु तर्जन्यङ्गुष्ठेषु मिथः श्लिष्टाभ्यामृजुभ्यां मध्यमाभ्यां तर्जन्योः सम्बन्धे सर्व बी जम् । यो नि रुक्तैव । अस्यामेव ऋजूकृतयोः कनिष्ठयोः मध्यमयोरङ्गुष्ठयोश्च पृथमिथः संस्पर्शे सर्व त्रि ख ण्डा । उदग्राणां विरळानां वामकराङ्गुलीनां ईषदाकुञ्चने ग्रासः । मध्यमातर्जन्यङ्गुष्ठयोगे प्राण मुद्रा । मध्यमानामाऽङ्गुष्ठमेळने अपान स्य । कनिष्ठाऽनामाऽङ्गुष्ठसम्बन्धे व्या न स्य । तर्जन्यनामाऽङ्गुष्ठमिश्रणे उदा न स्य । सर्वाङ्गुलिसंश्लेषे स मा न स्य । वाममुष्टेरङ्गुष्ठानचुम्बितमूलपर्वणि तर्जन्यामीषदधोमुखप्रसृतायां नारा चः । व्यत्ययेन वामदक्षकरकनिष्ठाङ्गुष्ठाग्रयोः योगे अन्यासां वैरळ्येन प्रसारणे च चक्रम् ॥
न्यासे मुद्राः संहताभिः चतसृभिः अगुलीभिः मुखस्पर्शे मु खम् । सम्पुटीकृतयोः करयोः मिथोऽभिमुखप्रश्लेषे क र सम्पुटम् । किञ्चिदाकुञ्चिताङ्गुल्यग्रयोः स्वाभिमुखं करयोरन्योन्यसम्बन्धे अञ्ज लिः । तर्जनीमध्यमानामाऽौः हृदयस्पर्शे हृ द य म् । मध्यमाऽनामाऽप्रयोः ब्रह्मरन्ध्रसम्बन्धे शिरः । अङ्गुष्ठाग्रचूळीयोगे शि खा । व्यत्ययहस्तयोरधरोत्तरं वामदक्षकरयोः सर्वाङ्गुलीभिः अंससम्बन्धे क व च म् । तर्जनीमध्यमाऽनामाऽङ्गः नेत्रयुगमध्यस्पर्शे ने त्रम् । अस्त्रं उक्तचरम् । एताः षडङ्गन्यास एव । अङ्गुष्ठमिळितया अनामिकया तत्तदङ्गस्पर्शे न्या स मुद्रा । वामहस्तमुष्टिं बद्धा सरळया तर्जन्या अंसकर्णमभितो भ्रामणे सौभाग्य द ण्डि नी । सैव गर्भिताङ्गुष्ठवामपादतलं न्यस्ता रिपु जिह्वाग्र हा । अन्त्यमिदं मुद्रायुगळं श्रीषोडशाक्षरीविषयम् ॥
जपे मुद्राः मुख-करसम्पुट-षडङ्गमुद्राः प्रोक्तचर्य एव । परस्परमनभिमुखग्रथिताकुञ्चितानामामध्यमाकनिष्ठं करौ परिवर्त्य प्रसारिततर्जनीयुगाग्रसम्बन्धे शक्त्यु त्या पनी ।
'असंकीर्ण-श्री, अ१.
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यौवनोल्लासः तृतीयः — श्रीक्रमः
सर्वसङ्क्षोभिण्यादयो दश दर्शितचर्यः । अभिमुखाभ्यां दक्षमध्यमातर्जनीभ्यां पराङ्मुखयोः वाममध्यमातर्जन्योः अवपीड्याकर्षणेऽन्यासामङ्गुलीनां आकुञ्चने च पाशः । उदग्रायां दक्षमध्यमायां तन्मध्यपर्वस्पर्शिमध्यपर्वणस्तर्जन्याकुञ्चने अनामाकनिष्ठाग्रयोश्चाङ्गुष्ठाग्रनिपीडने अंकुशः । उत्तानदक्षमध्यमाऽग्रेण तादृशतर्जन्यमपरिग्रहे चापः । बाणस्तु नाराचपदेनोक्तचर एव ॥
आहत्य अपुनरुक्ता मुद्राः पञ्चाशत् । एतासां प्रकारभेदोऽपि तन्त्रान्तरेषु दृश्यत इति शिवम् ॥
न्यासप्रकरण्प्र्
एतन्मुद्राः मुद्राप्रकरणे उक्तपूर्वाः । तत्रादौ मातृकान्यासः
अस्य श्रीमातृकान्यासमहामन्त्रस्य ब्रह्मणे ऋषये नमः (शिरसि), गायत्र्यै छन्दसे नमः (मुखे), श्रीमातृकासरस्वत्यै देवतायै नमः (हृदये), हल्भ्यो बीजेभ्यो नमः (गुह्ये), स्वरेभ्यः शक्तिभ्यो नमः (पादयोः), बिन्दुभ्यः कीलकेभ्यो नमः (नाभौ), मम श्रीविद्याऽङ्गत्वेन न्यासे विनियोगाय नमः ( करसम्पुटे ) । सर्वमातृकया त्रिर्व्यापकं सर्वाङ्गे अञ्जलिना ।
६
९३
इति मुद्राप्रकरणं चतुर्थी समाप्तम्
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः अं कं खं गं घं ङं आं अंगुष्ठाभ्यां नमः । हृदयाय नमः ॥
इं चं छं जं झं ञं ईं तर्जनीभ्यां नमः । शिरसे स्वाहा ॥ उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाभ्यां नमः । शिखायै वषट् ॥
६
६
६
एं तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः । कवचाय हुं ॥
ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । नेत्रत्रयाय
वौषट् ॥
अं यं रं लं वं शं
अस्त्राय फट् ॥
हं ळं क्षं अः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥
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नित्योत्सवः
ध्यानम्पञ्चाशद्वर्णभेदैर्विहितवदनदोःपादयुक्कुक्षिवक्षो
'देशां भास्वत्कपर्दाकलितशशिकलामिन्दुकुन्दावदाताम् । अक्षस्रक्कुम्भचिन्तालिखितवरकरां त्रीक्षणामब्जसंस्था
मच्छाकल्पामतुच्छस्तनजघनभरां भारती तां नमामि ॥ दक्षोर्ध्वकरमारभ्य दक्षाधःकरपर्यन्तं प्रादक्षिण्येन आयुधस्थितिः । चिन्तालिखितं नाम पुस्तकम् । इति ध्यात्वा मनसा पुष्पाञ्जलिं दत्वा, मातृकाः त्रितारीबालापूर्विकाः स्वाङ्गेषु न्यसेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः अं नमः शिरसि, आं नमः मुखवृत्ते, ई नमः दक्षनेत्रे, ई नमः वामनेत्रे, उं नमः दक्षकणे, ऊं नमः वामकर्णे, कं नमः दक्षनासापुटे, ऋ नमः वामनासापुटे, लं नमः दक्षगण्डे, लूं नमः वामगण्डे, एं नमः ऊर्बोष्ठे, ऐं नमः अधरोष्ठे, ओं नमः ऊर्ध्वदन्तपङ्क्तौ,
औं नमः अधोदन्तपङ्क्तौ, अं नमः शिरसि मुखान्ततः जिह्वाग्रे, अः नमः मुखान्ते कण्ठे, कं नमः दक्षबाहुमूले, खं नम: तन्मध्यसन्धौ दक्षकूर्परे, गं नमः तन्मणिबन्धे, घं नमः तदङ्गुलीमूले, ऊँ नमः तदङ्गुल्यो, चं नमः वामबाहुमूले, छं नमः तन्मध्यसन्धौ, जं नमः तन्मणिबन्धे, झं नमः तदङ्गुलिमूले, अं नमः तदगुल्यो, टं नमः दक्षोरुमूले, ठं नमः तज्जानुनि, डं नमः तज्जङ्घापादसंधौ तद्गुल्फे, ढं नमः तदङ्गुलिमूले, णं नमः तदगुल्यग्रे, तं नमः वामोरुमूले, थं नमः तज्जानुनि, दं नमः तज्जवापादसंधौ तद्गुल्फे, धं नमः तदङ्गुलिमूले, नं नमः तदगुल्यो, पं नमः दक्षपार्थे, फं नमः वामपार्थे, बं नमः पृष्ठे, भं नमः नाभौ, मं नमः जठरे, यं नमः हृदि, रं नमः दक्षकक्षे, दक्षस्कन्धे, लं नमः अपरगले, गलपृष्ठे, ककुदि, वं नमः वामकक्षे, वामस्कन्धे, शं नमः हृदयादिदक्षकरामुल्यन्तं, षं नमः हृदयादिवामकरामुल्यन्तं, सं नमः हृदयादिदक्षपादाङ्गुल्यन्तं, हं नमः हृदयादिवामपादाङ्गुल्यन्तं, ळं नमः 1 देहां-अ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः हृदयादिगुह्यान्तं (नित्याषोडशिकार्णवे कट्यादिपादाङ्गुल्यन्तं), क्षं नमः हृदयादिमूर्धान्तं (नित्याषोडशिकार्णवे कट्यादिब्रह्मरन्ध्रान्तम्) ॥ अत्र मातृकाणां बिन्दुमत्त्वं–वाग्देवताऽष्टकन्यासस्थान् सबिन्दूनचः सर्वत्र वर्गाणां बिन्दुयोग इति ज्ञापकात्-सिद्धम् ॥
इति मातृकान्यासः । अयमेक एव सूत्रोक्तः ॥
करशुद्धिन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं अंमध्यमाभ्यां नमः, आं अनामिकाभ्यां, सौः कनिष्ठिकाभ्यां, अं अङ्गुष्ठाभ्यां, आं तर्जनीभ्यां, सौः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥
आत्मरक्षान्यासः ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः महात्रिपुरसुन्दरि आत्मानं रक्ष रक्ष, इति हृदये अञ्जलिं दद्यात् ॥
चतुरासनन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं सौः देव्यात्मासनाय नमः । इति स्वस्य मूलाधारे
न्यस्य ॥ ३ हैं हक्लीं ह्सौः श्रीचक्रासनाय नमः । ३ हौं, हसक्ती हस्सौः सर्वमन्त्रासनाय नमः । ३ ह्रीं क्लीं ब्लें साध्यसिद्धासनाय नमः ।
इति त्रिभिः मन्त्रैः मुहुर्मुहुः पुष्पक्षेपेण चक्रमन्त्रदेवताऽऽसनानि श्रीचक्रे न्यसेत् ॥
बालाषडङ्गन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं ऐं हृदयाय नमः, क्लीं शिरसे स्वाहा, सौः शिखायै वषट् , __ ऐं कवचाय हुम् , क्लीं नेत्रत्रयाय वौषट् , सौः अस्त्राय फट् ॥
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नित्योत्सवः
वशिन्यादिन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं अं आं इं ई ऊ ॠ लं लू ए ऐ ओं औं अं अः ब्लू
____वशिनीवाग्देवतायै नमः । शिरसि ॥ ३ कं खं गं घं ऊँ क्ल्हीं कामेश्वरीवाग्देवतायै नमः । ललाटे ॥ ३ चं छं जं झं अंन्ब्लीं मोदिनीवाग्देवतायै नमः । भ्रूमध्ये ॥
टं ठं डं ढं णं ग्लूं विमलावाग्देवतायै नमः । कण्ठे ॥ ___तं थं दं धं नं ज्नी अरुणावाग्देवतायै नमः । हृदि ॥
पं फं बं में मं ह्ल्यू जयिनीवाग्देवतायै नमः । नाभौ ॥ ३ यं रं लं वं इम्यूं सर्वेश्वरीवाग्देवतायै नमः । लिङ्गे ॥ ३ शं षं सं हं ळं क्षं क्ष्मी कौळिनीवाग्देवतायै नमः । मूलाधारे ॥
इति न्यसेत् ॥
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मूलविद्यावर्णन्यासः अस्य च ऋष्यादिन्यासस्तु कृताकृतः । करणे तु तत्प्रकारो जपप्रकरणे
द्रष्टव्यः॥
ऐं ह्रीं श्रीं कं नमः शिरसि, एं नमः मूलाधारे, ई नमः हृदि, लं नमः दक्षनेत्रे, ह्रीं नमः वामनेत्रे, हं नमः भ्रूमध्ये, सं नमः दक्षश्रोत्रे, कं नमः वामश्रोत्रे, हे नमः मुखे, लं नमः दक्षभुजे, ह्रीं नमः वामभुजे, सं नमः पृष्ठे, कं नमः दक्षजानुनि, लं नमः वामजानुनि, ह्रीं नम: नाभौ ॥ इति कादिपञ्चदशीवर्णन्यासः । एवमेव हादिपञ्चदश्यपि ॥
श्रीषोडशाक्षरीन्यासः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं मूलविद्या नम इति दक्षमध्यमानामाभ्यां शिरसि न्यसेत् । अथ तत्र तां दीपामां सवत्सुधारसां महासौभाग्यदां ध्यात्वा, पुनस्तथैव तामुच्चार्य महासौभाग्यं मे देहि परसौभाग्यं दण्डयामीति सौभाग्यदण्डिन्या मुद्रया वामकर्णोसवेष्टनपूर्वकं आमस्तकचरणं वामाङ्गे न्यसेत् । पुनस्तथैव तामुच्चार्य मम शत्रून्
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः निगृह्णामीति रिपुजिह्वाग्रया मुद्रया वामपादाधो न्यसेत् । पुनस्तथैव तामुच्चार्य त्रैलोक्यस्याहं कर्तेति त्रिखण्डां फाले न्यसेत् । पुनस्तथैव तां उच्चार्य वदने वेष्टनत्वेन न्यसेत् । पुनस्तथैव तां उच्चार्य दक्षकर्णादिवामकर्णान्तं मुखवेष्टनत्वेन न्यसेत् । पुनस्तथैव तामुच्चार्य गोर्ध्वमाशिरो न्यसेत् । पुनस्तथैव तामाद्यन्तप्रणवमुच्चार्य मस्तकात् पादपर्यन्तं पादादामस्तकं च न्यसेत् । पुनस्तथैव तामुच्चार्य योनिमुद्रया मुखे न्यस्य, पुनस्तथैव तामुच्चार्य योनिमुद्रया ललाटे न्यसेत् ॥
सम्मोहनन्यासः ततः श्रीविद्यां स्मृत्वा तत्प्रभया जगदरुणं विभावयन् अनामिकां ऊर्ध्व परिभ्राम्य, उच्चार्य मुहुर्मुहुः मूलविद्यां ब्रह्मरन्ध्र मणिबन्धद्वितये फाले च विन्यसेत् ॥ एष सम्मोहनो नाम न्यासोऽन्वर्थः ॥
संहारन्यासः अथ चतुस्तारीनमस्सम्पुटितान् मूलविद्याषोडशार्णान् क्रमेण पादयोः जङ्घयोः जान्वोः कटिभागद्वय पृष्ठे लिङ्गे नाभौ पार्श्वयोः स्तनयोः अंसयोः कर्णयोः मूर्ध्नि मुखे नेत्रयोः कर्णयुगसन्निधौ कर्णवेष्टनयोश्च न्यसेत् । अत्र कूटत्रयस्य वर्णत्रयत्वेन षोडशार्णत्वव्यपदेशः । पादादिषु प्रथमं दक्षः ततो वाम इति बोध्यम् ॥
सृष्टिन्यासः पुनस्तथैव विद्याऽर्णान् क्रमेण ब्रह्मरन्धे फाले दृशोः कर्णयोः प्राणपुटयोः गण्डयोः दन्तपङ्क्तयोः ऊर्ध्वाधरोष्ठयोः जिह्वायां चोरकूपे पृष्ठे सर्वाङ्गे हृदि स्तनयोरुदरे लिङ्गे च न्यस्य मूलेन व्यापकं कुर्यात् ॥
स्थितिन्यासः अथ पूर्वक्रमेणैव अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तकराङ्गुलिषु मूर्ध्नि मुखे हृदि नामे: पादद्वयावधि कण्ठादानाभि मूर्ध्न आकण्ठं पूर्ववत् पादाङ्गुलिषु च न्यसेत् । अत्र दक्षवामकरचरणागुलिषु द्वयोर्द्वयोरेकैकमक्षरम् ॥ .
एते पञ्चैव ज्ञानार्णवमते । तन्त्रान्तरेषु तु अन्येऽपि पञ्च उपलभ्यन्ते ॥
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नित्योत्सवः
लघुषोढान्यासः अस्य श्रीलघुषोढान्यासस्य दक्षिणामूर्तये ऋषये नमः-शिरसि । गायत्र्यै छन्दसे नमः-मुखे । गणेशग्रहनक्षत्रयोगिनीराशिपीठरूपिण्यै श्रीमहात्रिपुरसुन्दर्यै देवतायै नमः-इति हृदि । श्रीविद्याऽङ्गत्वेन न्यासे विनियोगाय नमः-इति करसम्पुटे ॥
ऐं ह्रीं श्रीं अं कं खं गं घं डं आं ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥
३ इंच छ ज झं अं ई क्लीं तर्जनीभ्यां नमः ॥ ३ उंटं ठं डं ढं णं ऊं सौः मध्यमाभ्यां नमः ॥ ३ एं तं थं दं धं नं ऐं ऐं अनामिकाभ्यां नमः ॥ ३ ओं पं फं बं में मं औं क्लीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ ३ अं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं अ: सौः करतलकरपृष्ठाभ्यां
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नमः ॥
एवं हृदयादिन्यासः । ध्यानम्
उद्यत्सूर्यसहस्राभां पीनोन्नतपयोधराम् । रक्तमाल्याम्बरालेपां रक्तभूषणभूषिताम् ॥ पाशाङ्कुशधनुर्बाणभास्वत्पाणिचतुष्टयाम् । लसन्नेत्रत्रयां स्वर्णमकुटोद्भासिमस्तकाम् ॥ गणेशग्रहनक्षत्रयोगिनीराशिरूपिणीम् ।
देवीं पीठमयीं ध्यायेन्मातृकां सुन्दरी पराम् ॥ आयुधक्रमस्तु सपर्याप्रकरण एवोक्त इहानुसन्धयः । इति श्रीदेवीं समष्टिरूपेण यात्वा, गणेशादिव्यष्टिरूपेण च ध्यायेत् ॥
गणेशन्यास: तरुणादित्यसङ्काशान् गजवक्त्रांस्त्रिलोचनान् । पाशाङ्कुशवराभीतिकरान् शक्तिसमन्वितान् ॥
रम-अ, श्री.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः तास्तु सिन्दूरवर्णाभाः सर्वालङ्कारभूषिताः ।
एकहस्तधृताम्भोजा इतरालिङ्गितप्रियाः ॥ वामोर्ध्वकरमारभ्य वामाधःकरपर्यन्तं गणेशानां पाशादिध्यानम् । शक्तीनां तु वामकरे कमलं दक्षिणे च प्रियाश्लेष · इति ध्यात्वा, मातृकास्थानेषु त्रितारीमातृकापूर्वक गणेशान् न्यसेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं अं श्रीयुक्ताय विघ्नेशाय नमः । शिरसि ॥
३ आं हीयुक्ताय विघ्नराजाय नमः । मुखवृत्ते ॥ ३ इं तुष्टियुक्ताय विनायकाय नमः । दक्षनेत्रे ॥ ३ ई शान्तियुक्ताय शिवोत्तमाय नमः । वामनेत्रे ॥ ३ उं पुष्टियुक्ताय विघ्नहृते नमः । दक्षकर्णे ॥ ३ ऊं सरस्वतीयुक्ताय विघ्नकर्त्रे नमः । वामकर्णे ॥ ३ कं रतियुक्ताय विघ्नराजे नमः । दक्षनासापुटे ॥ ३ ऋ मेधायुक्ताय गणनायकाय नमः । वामनासापुटे ॥ ३ लं कान्तियुक्ताय एकदन्ताय नमः । दक्षगण्डे ॥ ३ लूं कामिनीयुक्ताय द्विदन्ताय नमः । वामगण्डे ॥ ३ ए मोहिनीयुक्ताय गजवक्त्राय नमः । ऊोष्ठे ॥ ३ ऐं जटायुक्ताय निरञ्जनाय नमः । अधरोष्ठे ॥ ३ ओं तीव्रायुक्ताय कपर्दभृते नमः । ऊर्ध्वदन्तपङ्क्तौ ॥ ३ औं ज्वालिनीयुक्ताय दीर्घमुखाय नमः । अधोदन्तपङ्क्तौ ॥ ३ अं नन्दायुक्ताय शङ्कुकर्णाय नमः । जिह्वाऽग्रे ॥ ३ अः सुरसायुक्ताय वृषध्वजाय नमः । कण्ठे ॥ ३ कं कामरूपिणीयुक्ताय गणनाथाय नमः । दक्षबाहुमूले ॥ ३ खं सुभ्रयुक्ताय गजेन्द्राय नमः । दक्षकूप रे ॥ ३ गं जयिनीयुक्ताय शूर्पकर्णाय नमः । दक्षमणिबन्धे ॥ ३ घं सत्यायुक्ताय त्रिलोचनाय नमः । दक्षकराङ्गुलिमूले ॥
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1 शोभिता:-अ, ब२, २३.
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नित्योत्सवः ३ डं विघ्नेशीयुक्ताय लम्बोदराय नमः । दक्षकरामुल्यो । ३ चं सुरूपायुक्ताय महानादाय नमः । वामबाहुमूले । ३ छं कामदायुक्ताय चतुर्मूर्तये नमः । वामकूप रे ॥ ३ जं मदविह्वलायुक्ताय सदाशिवाय नमः । वाममणिबन्धे । ३ झं विकटायुक्ताय आमोदाय नमः । वामकरागुलिमूले ॥ ३ नं पूर्णायुक्ताय दुर्मुखाय नमः । वामकरामुल्यग्रे ॥ ३ टं भूतिदायुक्ताय सुमुखाय नमः । दक्षोरुमूले ॥ ३ ठं भूमियुक्ताय प्रमोदाय नमः । दक्षजानुनि ।। ३ डं शक्तियुक्ताय एकपादाय नमः । दक्षगुल्फे ।। ३ ढं रमायुक्ताय द्विजिह्वाय नमः । दक्षपादाङ्गुलिमूले ।। ३ णं मानुषीयुक्ताय शूराय नमः । दक्षपादाङ्गुल्यग्रे ॥ ३ तं मकरध्वजायुक्ताय वीराय नमः । वामोरुमूले ॥ ३ थं वीरिणीयुक्ताय षण्मुखाय नमः । वामजानुनि ॥ ३ दं भृकुटीयुक्ताय वरदाय नमः । वामगुल्फे ॥ ३ धं लज्जायुक्ताय वामदेवाय नमः । वामपादाङ्गुलिमूले ॥ ३ नं दीर्घघोणायुक्ताय वक्रतुण्डाय नमः । वामपादाङ्गुल्यग्रे ॥ ३ पं धनुर्धरायुक्ताय 'द्विरण्डकाय नमः (नित्याषोडशिकार्णवे
-द्वितुण्डकाय नमः) । दक्षपार्श्वे ॥ ३ फं यामिनीयुक्ताय सेनान्ये नमः । वामपाद्ये ॥ ३ बं रात्रीयुक्ताय ग्रामण्ये नमः । पृष्ठे ॥ ३ भं चन्द्रिकायुक्ताय मत्ताय नमः । नाभौ ॥
मं शशिप्रभायुक्ताय विमत्ताय नमः । जठरे ॥ ३ यं लोलायुक्ताय मत्तवाहनाय नमः । हृदये ॥ ३ रं चपलायुक्ताय जटिने नमः । दक्षस्कन्धे ॥ ३ लं ऋद्धियुक्ताय मुण्डिने नमः । गलपृष्ठे-ककुदि । ३ व दुर्भगायुक्ताय खड्गिने नमः । वामस्कन्धे ॥ ३ शं सुभगायुक्ताय वरेण्याय नमः । हृदयादिदक्षकरामुल्यन्तम् ॥
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ध्यानम् -
इति ध्यात्वा
रक्तं श्वेतं तथा रक्तं श्यामं पीतं च पाण्डरम् | कृष्णं धूम्रं धूम्रधूम्रं भावयेद्रविपूर्वकान् ॥ कामरूपधरान् देवान् दिव्याभरणभूषितान् । वामोरुन्यस्तहस्तांश्च दक्षहस्तवरप्रदान् ॥ शक्तयोऽपि तथा ध्येयाः वराभयकराम्बुजाः । स्वस्वप्रियाङ्कनिलयाः सर्वाभरणभूषिताः ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः --- श्रीक्रमः
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षं शिवायुक्ताय वृषकेतनाय नमः । हृदयादिवामकराङ्गुल्यन्तं ॥ सं दुर्गायुक्ताय भक्ष्यप्रियाय नमः । हृदयादिदक्षपादाङ्गुल्यन्तं ॥ हं 'कालीयुक्ताय गणेशाय नमः । हृदयादिवामपादाङ्गुल्यन्तं ॥ ळं कालकुब्जिकायुक्ताय मेघनादाय नमः । हृदयादिगुह्यान्तं ॥ क्षं निहारिणयुक्ताय गणेश्वराय नमः । हृदयादिमूर्धान्तम् ॥
ऐं ह्रीं श्रीं अं आं इं ईं उं ऊं ऋ ऋ लं लं एं ऐं ओं औं अं अः रेणुकायुक्ताय सूर्याय नमः । हृदयाधः,
हृज्जठरसन्धौ ॥
यं रं लं वं अमृतायुक्ताय चन्द्राय नमः । भ्रूमध्ये ॥
कं खं गं घं ङं धर्मायुक्ताय भौमाय नमः । नेत्रयोः || 'चं छं जं झं ञं यशस्विनीयुक्ताय बुधाय नमः । श्रोत्रकूपाधः ॥
टं ठं डं ढं णं शाङ्करीयुक्ताय बृहस्पतये नमः । कण्ठे ॥ तं थं दं धं नं ज्ञानरूपायुक्ताय शुक्राय नमः । हृदि ॥ पं फं बं भं मं शक्तियुक्ताय शनैश्चराय नमः । नाभौ ॥ शं षं सं हं कृष्णायुक्ताय राहवे नमः । मुखे ॥
ळं क्षं धूम्रायुक्ताय केतवे नमः । गुदे ॥
३
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ग्रहन्यासः
1 काळिका - अ१.
3 चोरकूपाधः-
:-अ, ब२, ब३, श्री, भ.
2 कारिणी -१.
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१०२
नित्योत्सवः
नक्षत्रन्यासः
ध्यानम्
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ज्वलत्कालानलप्रख्या वरदाभयपाणयः ।
नतिपाण्योश्विनीपूर्वाः सर्वाभरणभूषिताः ॥ इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं अं आं अश्विन्यै नमः । ललाटे ।।
३ इं भरण्यै नमः । दक्षनेत्रे ॥ ३ ई उ ऊं कृत्तिकायै नमः । वामनेत्रे ॥ ३ लं लं रोहिण्यै नमः । दक्षकर्णे ॥ ३ एं मृगशिरसे नमः । वामकर्णे ॥ ३ ऐं आर्द्रायै नमः । दक्षनासापुटे ॥ ३ ओं औं पुनर्वसवे नमः । वामनासापुटे ॥ ३ कं पुष्याय नमः । कण्ठे ॥ ३ खं गं आश्लेषायै नमः । दक्षस्कन्धे ॥ ३ घ ङ मघायै नमः । वामस्कन्धे ॥ ३ चं पूर्वफल्गुन्यै नमः । पृष्ठे ॥ ३ छं जं उत्तरफल्गुन्यै नमः । दक्षकूप रे ॥ ३ झंअं हस्ताय नमः । वामकूर्प रे ॥ ३ टं ठं चित्रायै नमः । दक्षमणिबन्धे ॥
डं स्वात्यै नमः । वाममणिबन्धे ॥ ३ ढं णं विशाखायै नमः । दक्षहस्ते ॥ ३ तं थं दं अनुराधायै नमः । वामहस्ते ॥ ३ धं ज्येष्ठायै नमः । नाभौ ॥ ३ नं पं फं मूलाय नमः । कटिबन्धे ॥ ३ बं पूर्वाषाढायै नमः । दक्षोरौ ॥ ३ में उत्तराषाढायै नमः वामोरौ ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ मं श्रवणाय नमः । दक्षजानुनि ॥ ३ यं रं धनिष्ठायै नमः । वामजानुनि ॥ ३ लं शततारकायै नमः । दक्षजवायाम् ॥ ३ वं शं पूर्वभाद्रपदायै नमः । वामजवायाम् ॥ ३ षं सं हं उत्तरभाद्रपदायै नमः । दक्षपादे ॥ ३ ळं क्षं अं अः रेवत्यै नमः । वामपादे ॥
योगिनीन्यासः ध्यानम्कण्ठस्थाने विशुद्धौ नृपदलकमले श्वेतवर्णो त्रिणेत्रां
हस्तैः खट्वाङ्गखड्गौ त्रिशिखमपि महाचर्म सन्धारयन्तीम् । वक्त्रेणैकेन युक्तां पशुजनभयदां पायसान्नैकसक्तां
त्वस्थां वन्देऽमृताद्यैः परिवृतवपुषं डाकिनी वीरवन्द्याम् ॥ इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं डां डी ड म ल व र यूं डाकिन्यै नमः । ३ अं आं इंई उ ऊ ऋ ॠलं लूं ए ऐ ओं औं अं अः मां रक्ष रक्ष त्वगात्मानं नमः ॥ इति मन्त्रेण कण्ठस्थषोडशदलविशुद्धिकमलकर्णिकायां डाकिनी न्यस्य, तद्दलेषु पुरोभागादिप्रादक्षिण्येन तदावरणशक्तीः न्यसेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं अं अमृतायै नमः, आं आकर्षिण्यै, इं इन्द्राण्यै, ई ईशान्यै, उं उमायै, ऊ ऊर्ध्वकेश्यै, ऋ ऋद्धिदायै, "ऋकारायै, लं लकारायै, लूं लुकारायै, एं एकपदायै, ऐं ऐश्वर्यात्मिकायै, ओं
ओङ्कारायै, औं औषध्यै, अं अम्बिकायै, अ: अक्षरायै नमः ॥ इति ॥ ततः ध्यानम्
हृत्पद्मे भानुपत्रे द्विवदनलसितां दंष्ट्रिणी श्यामवर्णो
अक्षं शूलं कपालं डमरुमपि भुजैर्धारयन्तीं त्रिणेत्राम् । 1 ईश्वर्य-अ१, ब२, ब३. ऋषायै-श्री. 'लुषायै–श्री.
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नित्योत्सवः
रक्तस्थां कालरात्रीप्रभृतिपरिवृतां स्निग्धभक्तैकसक्तां श्रीमद्वीरेन्द्रवन्द्यां अभिमतफलदां राकिणीं भावयामः ॥
इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं रां री रमल वर यूं राकिण्यै नमः । ३ कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं मां रक्ष रक्ष असृगात्मानं नमः ॥
इति हृदयस्थितद्वादशदलानाहतनलिनकर्णिकायां राकिणीं न्यस्य तद्दलेषु प्राग्वत् तदावृतिशक्तीर्न्यसेत् । यथा—
अथ
ऐं ह्रीं श्रीं कं कालरात्र्यै नमः, खं खण्डितायै, गं गायत्र्यै, घं घण्टाकर्षण्यै, ङं ङार्णायै, चं चण्डायै, छं छायायै, जं जयायै, झं झङ्कारिण्यै, ञं ज्ञानरूपायै, टं टङ्कहस्तायै, ठं ठङ्कारिण्यै नमः ॥ इति ॥
दिक्पत्रे नाभिपद्मे त्रिवदनलसितां दंष्ट्रिणीं रक्तवर्णी शक्तिं दम्भोलिदण्डावभयमपि भुजैर्धारयन्तीं महोग्राम् । डामर्याद्यैः परीतां पशुजनभयदां मांसधात्वेकनिष्ठां गौडान्नासक्तचित्तां सकलसुखकरीं लाकिनीं भावयामः ॥
इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं लां लीं ल म ल व र यूं लाकिन्यै नमः | ३ डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं मां रक्ष रक्ष मांसात्मानं नमः ॥
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इति नाभिगतदशदलमणिपूरकसरोजकर्णिकायां लाकिनीं न्यस्य तद्दलेषु पूर्ववत् तत्परिवारशक्तीः न्यसेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं डं डामर्यै नमः, ढं ढङ्कारिण्यै, णं णार्णायै, तं तामस्यै, थं स्थाण्व्यै, दं दाक्षायण्यै, धं धात्र्यै, नं नार्यै, पं पार्वत्यै, फं फट्कारिण्यै
नमः ॥
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यौवनोल्लास: तृतीयः-श्रीक्रमः
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तदनु
स्वाधिष्ठानाख्यपद्मे रसदललसिते वेदवक्त्रां त्रिणेत्रां ___ हस्ताजैर्धारयन्तीं त्रिशिखगुणकपालाङ्कुशानात्तगर्वाम् । मेदोधातुप्रतिष्ठामलिमदमुदितां बन्धिनीमुख्ययुक्तां
पीतां दध्यादनेष्टामभिमतफलदां काकिनी भावयामः ॥ इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं कां की क म ल व र यूं काकिन्यै नमः । ३ ब भ म य रं लं मां रक्ष रक्ष मेदआत्मानं नमः ॥ इति गुह्यस्थानगतषड्दलस्वाधिष्ठानसरसिजकर्णिकायां काकिनी न्यस्य, तद्दलेषु तदावरणशक्तीः प्राग्वत् .न्यसेत् । यथा---
ऐं ह्रीं श्रीं बं बन्धिन्यै नमः, भं भद्रकाल्यै, में महामायायै, यं यशस्विन्यै, रं रक्तायै, लं लम्बोष्ठयै नमः ॥ ततः
मूलाधारस्थपञ श्रुतिदललसित पञ्चवक्त्रां त्रिणेत्रां
धूम्राभामस्थिसंस्थां सृणिमपि कमलं पुस्तकं ज्ञानमुद्राम् । बिभ्राणां बाहुदण्डैः सुललितवरदापूर्वशक्त्यावृतां तां
___ मुद्दान्नासक्तचित्तां मधुमदमुदितां साकिनी भावयामः ॥ इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं सां सी स म ल व र यूं साकिन्यै नमः । वं शं षं सं मां रक्ष रक्ष अस्थ्यात्मानं नमः ॥ इति पायूपस्थमध्यगतचतुर्दलमूलाधारकमलकर्णिकायां साकिनी न्यस्य, तद्दलेषु पूर्ववत् तदावृतिशक्तीः न्यसेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं वं वरदायै नमः, शं श्रियै, षं षण्डायै, सं सरस्वत्यै नमः ॥ अथ -
भ्रूमध्ये बिन्दुपट्टे दलयुगकलिते शुक्लवर्णी कराब्जैः बिभ्राणां ज्ञानमुद्रां डमरुकममलामक्षमालां कपालम् ।
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नित्योत्सव :
षडुक्त्रां मज्जसंस्थां त्रिणयनलसितां हंसवत्यादियुक्तां हारिद्रान्नैकसक्तां सकलसुखकरीं हाकिनीं भावयामः ॥
इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं हम ल व र यूं हाकिन्यै नमः ३ हं क्षं मां रक्ष रक्ष मज्जात्मानं नमः ॥
इति भ्रूमध्यगतद्विदलाज्ञाकमलकर्णिकायां हाकिनीं न्यस्य तद्दक्षवामदलयोः क्रमेण— ऐं ह्रीं श्रीं हं हंसवत्यै नमः, क्षं क्षमावत्यै नमः ॥
इति तच्छक्तिद्वयं न्यसेत् । तदनु
मुण्डव्योमस्थपद्मे दशशतदलके कर्णिकाचन्द्रसंस्थां
रेतोनिष्ठां समस्तायुधकलितकरां सर्वतोवक्त्रपद्माम् । आदिक्षान्तार्णशक्तिप्रकरपरिवृतां सर्ववर्णो भवानीं सर्वान्नासक्तचित्तां परशिवरसिकां याकिनीं भावयामः ॥
इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं यांयीं य म ल व र यूं याकिन्यै नमः | ३ अं... (५१) मां रक्ष रक्ष शुक्रात्मानं नमः ॥
इति ब्रह्मरन्ध्रगतसहस्रदलसरसिजकर्णिकायां याकिनीं न्यस्य तद्दळेषु प्रतिविंशतिदलं `तदावरणशक्तीः अमृताद्याः क्षमावत्यन्ताः पूर्वोक्ताः प्राग्वत् न्यसेत् ॥
राशिन्यास:
रक्तश्वेतहरित्पाण्डुचित्रकृष्णपिशङ्गकान् । कपिशबभ्रुकिम्मीरकृष्णधूम्रान् क्रमात् स्मरेत् ॥
राशीनिति शेषः । इति ध्यात्वा
ऐं ह्रीं श्रीं अं आं इं ईं मेषाय नमः । दक्षपादे ||
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उं ऊं वृषभाय नमः । लिङ्गदक्षभागे ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः * ऋलं लूं मिथुनाय नमः । दक्षकुक्षौ ॥ एं ऐं कर्काय नमः । हृदयदक्षभागे ॥ ओं औं सिंहाय नमः । दक्षबाहुमूले ॥ अं अः शं षं सं हं ळं कन्यायै नमः । दक्षशिरोभागे ॥ कं खं गं घं डं तुलायै नमः । वामशिरोभागे ॥ चं छं जं झं अं वृश्चिकाय नमः । वामबाहुमूले ॥ टं ठं डं ढं णं धनुषे नमः । हृदयवामभागे ॥ तं थं दं धं नं मकराय नमः । वामकुक्षौ ॥ पं फं बं में मं कुम्भाय नमः । लिङ्गवामभागे ॥ यं रं लं वं क्षं मीनाय नमः । वामपादे ॥
३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३
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पीठन्यासः सितासितारुणश्यामहरित्पीतान्यनुक्रमात् ।
पुनः क्रमेण देवेशि पञ्चाशत्पीठसञ्चयः ॥ इति भावयित्वा, मातृकाभिः समं पूर्वोक्तेषु तासां स्थानेषु पीठानि क्रमेण विन्यसेत् । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं अं कामरूपाय नमः । शिरसि ॥
३ आं वाराणस्यै नमः । मुखवृत्ते ॥ ३ इं नेपालाय नमः । दक्षनेत्रे ॥ ३ ई पौण्डूवर्धनाय नमः । वामनेत्रे ॥ ३ उं पुरस्थिरकाश्मीराय नमः । दक्षकर्णे ॥
ऊं कान्यकुब्जाय नमः । वामकर्णे ॥ ३ नं पूर्णशैलाय नमः । दक्षनासापुटे ॥ ३ ऋ अर्बुदाचलाय नमः । वामनासापुटे ॥ ३ लं आम्रातकेश्वराय नमः । दक्षगण्डे ॥ ३ लं एकाम्राय नमः । वामगण्डे ॥
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नित्योत्सवः
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३ एं त्रिस्रोतसे नमः । ऊोष्ठे ॥ ३ ऐं कामकोटये नमः । अधरोष्ठे ॥ ३ ओं कैलासाय नमः । ऊर्ध्वदन्तपङ्क्तौ ॥ ३ औं भृगुनगराय नमः । अधोदन्तपङ्क्तौ ॥ ३ अंकेदाराय नमः । जिह्वाग्रे ॥ ३ अ: चन्द्रपुष्करिण्यै नमः । कण्ठे ॥ ३ कं श्रीपुराय नमः । दक्षबाहुमूले ॥ ३ खं ओङ्काराय नमः । दक्षकूपरे ।। ३ गं जालन्धराय नमः । दक्षमणिबन्धे ॥ ३ घं मालवाय नमः । दक्षकराङ्गुलिमूले ॥ ३ डं कुलान्तकाय नमः । दक्षकराङ्गुल्यग्रे ॥ ३ चं देवीकोटाय नमः । वामबाहुमूले ॥ ३ छं गोकर्णाय नमः । वामकूपरे ॥ ३ जं मारुतेश्वराय नमः । वाममणिबन्धे । ३ झं अट्टहासाय नमः । वामकराङ्गुलिमूले ॥ ३ अं विरजायै नमः । वामकरामुल्यग्रे ॥ ३ टं राजगेहाय नमः । दक्षोरुमूले ॥ ३ ठं महापथाय नमः । दक्षजानुनि ॥ ३ डं कोलापुराय नमः । दक्षगुल्फे ॥ ३ ढं एलापुराय नमः । दक्षपादाङ्गुलिमूले ॥ ३ णं कालेश्वराय नमः । दक्षपादाङ्गुल्यो । ३ तं जयन्तिकायै नमः । वामोरुमूले ।। ३ थं उज्जयिन्यै नमः । वामजानुनि ॥ ३ दं चित्रायै नमः । वामगुल्फे ॥ ३ धं क्षीरिकायै नमः । वामपादाङ्गुलिमूले ॥ ३ नं हस्तिनापुराय नमः । वामपादाङ्गुल्यो । ३ पं उड्डीशाय नमः । दक्षपार्श्वे ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ फं प्रयागाय नमः । वामपार्श्वे ॥ ३ बं षष्टीशाय नमः । पृष्ठे ॥ ३ में मायापुर्यै नमः । नाभौ ॥ ३ मं जलेशाय नमः । जठरे ॥ ३ यं मलयाय नमः । हृदये ॥ ३ रं श्रीशैलाय नमः । दक्षस्कन्धे ॥ ३ लं मेरवे नमः । गलपृष्ठे ॥ ३ वं गिरिवराय नमः । वामस्कन्धे ॥ ३ शं महेन्द्राय नमः । हृदयादिदक्षकराङ्गुल्यन्तम् ॥ ३ षं वामनाय नमः । हृदयादिवामकरामुल्यन्तम् ॥ ३ सं हिरण्यपुराय नमः । हृदयादिदक्षपादाङ्गुल्यन्तम् ॥ ३ हं महालक्ष्मीपुराय नमः । हृदयादिवामपादामुल्यन्तम् ॥ ३ ळं ओड्याणाय नमः । हृदयादिगुह्यान्तम् ॥ ३ क्षं छायाछत्राय नमः । हृदयादिमूर्धान्तम् ॥
इति षडवयवकः षोढान्यासः समाप्तः
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महाषोढान्यासस्तु श्रीषोडशाक्षरीविषयकः । तदुपासकैः तत्कर्तव्यतापक्षे तन्त्रान्तरात् ज्ञातव्यः । इह ग्रन्थविस्तरभिया न लिखितः ॥
श्रीचक्रन्यासः अस्य श्रीचक्रन्यासेत्यनन्तरं जपप्रकरणे वक्ष्यमाणेन विधिना ऋष्यादीन् न्यस्य, आह्निकप्रकरणोक्तवत् ध्यात्वा, श्रीदेव्या उपचारमन्त्रेण पुष्पाञ्जलिं दत्वा,
शरीरं चिन्तयेदादौ निजं श्रीचक्ररूपकम् । त्वगाद्याकारनिर्मुक्तं ज्वलत्कालाग्निसन्निभम् ॥
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ऐं ह्रीं श्रीं समस्तप्रकटगुप्तगुप्ततरसम्प्रदायकुलकौलनिगर्भरहस्यातिरहस्यपरा
पररहस्ययोगिनीचक्रदेवताभ्यो नमः - इति सर्वाङ्गे व्यापकं न्यस्य,
ऐं ह्रीं श्रीं गं गणपतये नमः । दक्षोरौ ॥
३ क्षं क्षेत्रपालकाय नमः । दक्षां ॥
३
यां योगिनीभ्यो नमः । वामांसे ॥
३
वं वटुकाय नमः । वामोरौ ॥
लं इन्द्राय नमः । पादाङ्गुष्ठद्वया ॥
रं अग्नये नमः । दक्षजानुनि ॥
यमाय नमः । दक्षपार्श्वे ॥
क्षं निर्ऋतये नमः । दक्षांसे ॥
वं वरुणाय नमः । मूर्ध्नि ॥
यं वायवे नमः । वामांसे ॥
सं सोमाय नमः । वामपार्श्वे ॥
हं ईशानाय नमः | वामजानुनि ॥
हंसः ब्रह्मणे नमः । मूर्ध्नि
अं अनन्ताय नमः । मूलाधारे ॥
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नित्योत्सवः
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त्रैलोक्यमोहनचक्रन्यासः
ऐं ह्रीं श्रीं अं आं सौः त्रैलोक्यमोहनचक्राय नमः - इति व्यापकं न्यस्य,
ततः ३ आद्यचतुरश्ररेखायै नमः --- इति दक्षांसपृष्ठादिवक्ष्यमाणेषु स्थानेषु अञ्जलिना व्यापकं न्यस्य,
ऐं ह्रीं श्रीं अणिमासिद्धयै नमः । दक्षां पृष्ठे ॥
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1 दोः पृष्ठे-बर, ब३.
लघिमासिद्धयै नमः । दक्ष' पाण्यङ्गुल्यप्रेषु ॥ महिमासिद्धयै नमः । दक्षोरुसन्धौ ॥ ईशित्वसिद्धयै नमः । दक्षपादाङ्गुल्ययेषु ||
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ वशित्वसिद्धयै नमः । बामपादाङ्गुल्यग्रेषु ॥ ३ प्राकाम्यसिद्धयै नमः । वामोरुसन्धौ ॥ ३ भुक्तिसिद्धयै नमः । वामपाण्यङ्गुल्यग्रेषु ॥ ३ इच्छासिद्धयै नमः । वामांसपृष्ठे ॥ ३ प्राप्तिसिद्धयै नमः । शिखामूले ॥ ३ सर्वकामसिद्धयै नमः । शिरःपृष्ठे ।।
ऐं ह्रीं श्रीं चतुरश्रमध्यरेखायै नमः—इति वक्ष्यमाणाङ्गेषु व्यापकं न्यस्य,
ऐं ह्रीं श्रीं ब्रायै नमः । पादाङ्गुष्ठद्वये ॥
३ माहेश्वर्यै नमः । दक्षपार्श्वे ॥ ३ कौमार्यै नमः । मूर्ध्नि ॥ ३ वैष्णव्यै नमः । वामपाद्ये ॥ ३ वारायै नमः । वामजानुनि ॥ ३ इन्द्राण्यै नमः । दक्षजानुनि ॥ ३ चामुण्डायै नमः । दक्षांसे ॥
३ महालक्ष्म्यै नमः । वामांसे ॥ ऐं ह्रीं श्रीं चतुरश्रान्त्यरेखायै नमः-इति वक्ष्यमाणाङ्गेषु व्यापकं न्यस्य,
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वसङ्क्षोभिण्यै नमः । पादाङ्गुष्ठद्वये ॥
३ सर्वविद्राविण्यै नमः । दक्षपार्श्वे ॥ ३ सर्वाकर्षिण्यै नमः । मूर्ध्नि ॥ ३ सर्ववशङ्कर्यै नमः । वामपार्श्वे ॥ ३ सर्वोन्मादिन्यै नमः । वामजानुनि ॥ ३ सर्वमहाङ्कुशायै नमः । दक्षजानुनि ॥ ३ सर्वखेचर्यै नमः । दक्षांसे ॥ ३ सर्वबीजायै नमः । वामांसे ॥ ३ सर्वयोनये नमः । द्वादशान्ते ॥
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नित्योत्सवः
३ सर्वत्रिखण्डायै नमः । पादाङ्गुष्ठद्वये ॥
३ अं आं सौः त्रैलोक्यमोहनचक्रेश्वर्यै त्रिपुरायै नमः । हृदये ॥ एताः प्रकटयोगिन्यः त्रैलोक्यमोहने चक्रे समुद्राः ससिद्धयः सायुधाः सशक्तयः सवाहनाः सपरिवाराः सर्वाः न्यस्ताः सन्त्विति हृदि चक्रसमर्पणं न्यस्य ॥
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सर्वाशापरिपूरकचक्रन्यासः ऐं क्लीं सौः सर्वाशापरिपूरकचक्राय नमः-इति व्यापकं न्यस्य, ऐं ह्रीं श्रीं कामाकर्षिण्यै नित्याकलायै नमः । दक्षकर्णपृष्ठे ॥
३ बुद्धयाकर्षिण्यै नमः । दक्षांसे ॥ ३ अहङ्काराकर्षिण्यै नमः । दक्षकूर्परे ॥ ३ शब्दाकर्षिण्यै नमः । दक्षकरपृष्ठे हस्ततलपृष्ठयोः ॥ ३ स्पर्शाकर्षिण्यै नमः । दक्षोरौ, दक्षस्फिजि ॥ ३ रूपाकर्षिण्यै नमः । दक्षजानुनि ॥
___ रसाकर्षिण्यै नमः । दक्षगुल्फे ॥ ३ गन्धाकर्षिण्यै नमः । दक्षपादतले, दक्षप्रपदे ॥ ३ चित्ताकर्षिण्यै नमः । वामपादतले, वामप्रपदे ॥ ३ धैर्याकर्षिण्यै नमः । वामगुल्फे ॥ ३ स्मृत्याकर्षिण्यै नमः । वामजानुनि ॥ ३ नामाकर्षिण्यै नमः । वामोरौ, वामस्फिजि ॥ ३ बीजाकर्षिण्यै नमः । वामकरपृष्ठे, वामकरतलपृष्ठयोः ॥ ३ आत्माकर्षिण्यै नमः । वामकूपरे ॥
___अमृताकर्षिण्यै नमः । वामांसे ॥ ३ शरीराकर्षिण्यै नमः । वामकर्णपृष्ठे ॥
३ ऐं क्लीं सौः सर्वाशापरिपूरकचक्रेश्वर्यै नमः । हृदये ॥ एताः गुप्तयोगिन्यः सर्वाशापरिपूरके चक्रे समुद्रा इत्यादि प्राग्वत् ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
सर्वसङ्क्षोभणचक्रन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं सौः सर्वसङ्क्षोभणचक्राय नमः--इति व्यापकं न्यस्य, ऐं ह्रीं श्रीं अनङ्गकुसुमायै नमः । दक्षशङ्ख ॥ (शङ्खो नाम ललाटास्थि)
३ अनङ्गमेखलायै नमः । दक्षजत्रुणि ॥ (जत्रु नाम बाहुमूलसन्धिः ) ३ अनङ्गमदनायै नमः । दक्षोरौ ॥ ३ अनङ्गमदनातुरायै नमः । दक्षगुल्फे ॥ ३ अनङ्गरेखायै नमः । वामगुल्फे ॥ ३ अनङ्गवेगिन्यै नमः । वामोरौ ॥ ३ अनङ्गाङ्कुशायै नमः । वामजत्रुणि ॥ ३ अनङ्गमालिन्यै नमः । वामशङ्ख ॥
३ ह्रीं क्लीं सौः सर्वसङ्क्षोभणचक्रेश्वर्यै नमः । हृदये ॥ एताः गुप्ततरयोगिन्यः सर्वचक्रे समुद्रा इत्यादि प्राग्वत् ॥
सर्वसौभाग्यदायकचक्रन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं हैं हक्लीं सौः सर्वसौभाग्यदायकचक्राय नमः-इति व्यापकं न्यस्य, ऐं ह्रीं श्रीं सर्वसङ्क्षोभिण्यै नमः । ललाटमध्ये ।।
३ सर्वविद्राविण्यै नमः । ललाटदक्षभागे ॥ ३ सर्वाकर्षिण्यै नमः । दक्षगण्डे ॥ ३ सर्वाह्लादिन्यै नमः । दक्षांसे ॥ ३ सर्वसम्मोहिन्यै नमः । दक्षपार्श्वे ॥ ३ सर्वस्तम्भिन्यै नमः । दक्षोरौ ॥ ३ सर्वजृम्भिण्यै नमः । दक्षजङ्घायाम् ॥ ३ सर्ववशङ्कर्यै नमः । वामजङ्घायाम् ॥ ३ सर्वरञ्जिन्यै नमः । वामोरौ ॥ ३ सर्वोन्मादिन्यै नमः । वामपार्श्वे ॥ ३ सर्वार्थसाधिन्यै नमः । वामांसे ॥ ३ सर्वसम्पत्तिपूरिण्यै नमः । वामगण्डे ।
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नित्योत्सवः
सर्वमन्त्रमय्यै नमः । ललाटवामभागे ॥ सर्वद्वन्द्वक्षयङ्कर्यै नमः । शिरः पृष्ठे ॥
३ हैं क्लीं ह्सौः सर्वसौभाग्यदायकचक्रेश्वर्यै त्रिपुरवासिन्यै नमः । हृदये ॥
एताः सम्प्रदाययोगिन्यः सर्वसौभाग्यदायके चक्रे समुद्राः इत्यादि समर्पणं न्यसेत् ॥
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सर्वार्थसाधकवक्रन्यासः
ऐं ह्रीं श्रीं इसैं ह्स्क्लीं ह्स्सौः सर्वार्थसाधकचक्राय नमः --- इति व्यापकं न्यस्य,
३
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वसिद्धिप्रदायै नमः । दक्षनेत्रे, दक्षनासापुटे || सर्वसम्पत्प्रदायै नमः । नासामूले, दक्षसृक्किणि || सर्वप्रियङ्कर्यै नमः । वामनेत्रे, दक्षस्तने ॥ सर्वमङ्गलकारिण्यै नमः । वामबाहुमूले, दक्षवृषणे ॥ सर्वकामप्रदायै नमः । वामोरुमूले, सीविन्या दक्षभागे ॥ सर्वदुःखविमोचिन्यै नमः। वामजानुनि, सीविन्या वामभागे ॥
३ सर्वमृत्युप्रशमन्यै नमः । दक्षजानुनि, वामस्तने ॥ सर्वविघ्नविनाशिन्यै नमः । गुदे, वामवृषणे ॥
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सर्वाङ्गसुन्दर्यै नमः । दक्षोरुमूले, वामसृक्किणि || सर्वसौभाग्यदायिन्यै नमः । दक्षबाहुमूले, वामनासापुटे || इस हस्कीं इस्सौः सर्वार्थसाधकचक्रेश्वर्यै त्रिपुराश्रियै नमः ।
हृदये ॥
एताः कुलोत्तीर्णयोगिन्यः सर्वार्थसाधके चक्रे समुद्रा इत्यादि पूर्ववत् ॥
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सर्वरक्षाकर चक्रन्यासः
ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ब्लें सर्वरक्षाकरचक्राय नमः - इति व्यापकं न्यस्य,
ऐं ह्रीं श्रीं सर्वज्ञायै नमः । दक्षनासापुटे ॥
३ सर्वशक्त्यै नमः । दक्षसृक्किणि ( ओष्ठप्रान्तः) ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ सर्वैश्वर्यप्रदायिन्यै नमः । दक्षस्तने ॥ ३ सर्वज्ञानमय्यै नमः । दक्षमुष्के ॥ ३ सर्वव्याधिविनाशिन्यै नमः । 'सीविन्याम् , सीविन्या दक्षभागे ॥
____ (सीविनी-अण्डद्वयमध्यवर्तिनी सिरा) ॥ ३ सर्वाधारस्वरूपायै नमः । वाममुप्के (वामवृषणे), सीविन्या
वामभागे ॥ ३ सर्वपापहरायै नमः । वामस्तने ॥ ३ सर्वानन्दमय्यै नमः । वामसृक्विणि ॥ ३ सर्वरक्षास्वरूपिण्यै नमः । वामनासापुटे ॥ ३ सर्वेप्सितफलप्रदायै नमः । नासाग्रे ॥
३ ह्रीं क्लीं ब्लें सर्वरक्षाकरचक्रेश्वर्यै त्रिपुरमालिन्यै नमः । हृदि ॥ एताः निगर्भयोगिन्यः सर्वरक्षाकरे चक्रे समुद्रा इत्यादि प्राग्वत् ॥
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सर्वरोगहरचक्रन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं श्रीं सौः सर्वरोगहरचक्राय नमः-इति व्यापकं न्यस्य, ऐं ह्रीं श्रीं अं . . . अः (१६) » वशिनीवाग्देवतायै नमः ।
दक्षचिबुके ॥ ३ कं ...डं (५) क्ल्हीं कामेश्वरीवाग्देवतायै नमः । दक्षकण्ठे ॥ ३ चं... (५) न्ली मोदिनीवाग्देवतायै नमः । हृदयदक्षभागे॥ ३ टं... णं (५) ग्लुं विमलावाग्देवतायै नमः । नाभिदक्षमागे ॥ ३ तं . . . नं (५) ज्नी अरुणावाग्देवतायै नमः । नाभिवामभागे॥ ३ पं... मं (५) हव्यूं जयिनीवाग्देवतायै नमः। हृदय
वामभागे ॥ ३ यं... (४) इम्यूं सर्वेश्वरीवाग्देवतायै नमः । वामकण्ठे ॥ 'एतदादिषु स्थानेषु तत्र तत्र कोशेषु व्यत्यासो दृश्यते.
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एताः रहस्ययोगिन्यः सर्वरोगहरे चक्रे समुद्रा इत्यादि पूर्ववत् ॥
आयुधन्यासः
अथ हृदि त्रिकोणं विभाव्य तत्र प्रागादिदिक्षु क्रमेण आयुधानां चतुष्टयं
न्यसेत् । यथा-
नित्योत्सवः
शं
. क्षं (६) क्ष्त्रीं कौलिनीबाग्देवतायै नमः । वामचिबुके ॥ ह्रीं श्रीं सौः सर्वरोगहरचक्रेश्वर्यै त्रिपुरासिद्धायै नमः । हृदि ॥
ऐं ह्रीं श्रीं द्रां ह्रीं क्लीं ब्लूं सः सर्वजम्भनेभ्यो बाणेभ्यो नमः । त्रिकोणपृष्ठे ॥
वामे ॥
धं सर्वसम्मोहनाय धनुषे नमः । त्रिकोणदक्ष,
ह्रीं सर्ववशीकरणाय पाशाय नमः । त्रिकोणाग्रे, ऊर्ध्वभागे ॥
क्रों सर्वस्तम्भनाय अङ्कुशाय नमः । त्रिकोणवामे, दक्षभागे ॥
३
सर्वसिद्धिप्रदचक्रन्यासः
ऐं ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्स्र्क्लीं ह्स्र्सौः सर्वसिद्धिप्रदचक्राय नमः- - इति व्यापकं न्यस्य,
ऐं ह्रीं श्रीं मूलप्रथमकूटं कामरूपपीठस्थायै महाकामेश्वर्यै नमः । त्रिकोणाकोणे ॥
३
मूलद्वितीयकूटं पूर्णगिरिपीठस्थायै महावज्रेश्वर्यै नमः तद्दक्षकोणे ॥
मूलतृतीयकूटं जालन्धरपीठस्थायै महाभगमालिन्यै नमः । तद्वामकोण ॥
मूलं ओड्याणपीठस्थायै महात्रिपुरसुन्दर्यै नमः । तन्मध्ये ॥
अथ
षोडशस्वरान् विभाव्य षोडशनित्या न्यसेत् । यथा— कामेश्वरीनित्यामन्त्रमुच्चार्य कामेश्वरीनित्यायै नमः । एवंप्रकारेण अवशिष्टाश्चतुर्दश नित्या विन्यस्य मध्ये मूलमुच्चार्य षोडशीं न्यसेत् ॥
तदन्तस्सपर्याप्रकरणोक्तप्रकारेण
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
११७ ऐं ह्रीं श्रीं ह् क्लीं सौः सर्वसिद्धिप्रदचक्रेश्वर्यै त्रिपुराम्बायै नमः । हृदि ॥ एताः अतिरहस्ययोगिन्यः सर्वसिद्धिप्रदे चक्रे समुद्रा इत्यादि प्राग्वत् चक्रसमर्पणं न्यसेत् ॥
सर्वानन्दमयचक्रन्यासः ऐं ह्रीं श्रीं मूलं सर्वानन्दमयचक्राय नमः--इति व्यापकं न्यस्य, ऐं ह्रीं श्रीं मूलं श्रीललितायै नमः । हृदयमध्ये ॥ ३ एषा परापररहस्ययोगिनी सर्वानन्दमये चक्रे समुद्रा ससिद्धिः
सायुधा सशक्तिः सवाहना सपरिवारा न्यस्ताऽस्तु ॥ ३ मूलं सर्वानन्दमयचक्रेश्वर्यै श्रीललितायै नमः इति हृदि न्यस्य
योनिमुद्रां प्रदर्य मूलं जप्त्वा पुनः कराङ्गन्यासं कुर्यात् ॥ इति नित्यार्णवोक्तश्रीचक्रन्यासः । इमौ षोढाचक्रन्यासौ श्रीषोडशाक्षर्या अपि साधारणौ ॥
इति न्यासप्रकरणं पञ्चमं समाप्तम् ॥
जपप्रकरणः अथ यौवनोल्लासे जपप्रकरणं षष्ठमारभ्यते । अत्र सूत्रकृतः पुरश्चरणादिकं न विधित्सितम् , काम्यकर्मण्येव तस्यावश्यकत्वात् । “मपञ्चकालाभेऽपि नित्यक्रमप्रत्यवमृष्टिः,” “पञ्चपर्वसु विशेषार्चा च" इत्येताभ्यां सूत्राभ्यां नित्यनैमित्तिकावेव क्रमावभिधाय “यदि काम्यमीप्सेत्” इति होमखण्डसूत्रगतेन यदिपदेन काम्यहोमकर्मणः कृताकृतत्वज्ञापनात् । युक्तं चैतत् । तथा हि
शुभं वाऽप्यशुभं वाऽपि काम्यं कर्म करोति यः । तस्यारित्वं व्रजेन्मन्त्रो न तस्मात्तत्परो भवेत् ॥
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नित्योत्सवः
काम्यकर्मप्रसक्तानां तावन्मानं भवेत् फलम् ।
निष्कामं भजतां देवमखिलाभीष्टसिद्धयः ॥ इति ॥ देवेत्युपलक्षणं देव्या अपि । काम्यकर्मविधिश्च दुस्साधश्चेत् कस्यचित्काम्यफललिप्सा, तेन तदा श्यामाक्रमोक्तं पुरश्चरणादिकं काम्यहोमद्रव्यं च अनुसन्धेयम् । आभिचारादौ कर्तव्ये तु सामान्यक्रमोक्तं मन्त्रारित्वादिकं च ॥
जपविधिः श्रीविद्याजपपूर्वाङ्गमन्त्राः । जपोपयुक्ता मुद्रास्तु उक्तपूर्वा एव । तत्रादौ श्रीदेव्यै उपचारमन्त्रेण पुप्पाञ्जलिं दत्वा पूर्ववत् प्राणानायम्य ऋष्यादि न्यसेत् । यथा
अस्य श्रीमहात्रिपुरसुन्दरीपञ्चदशाक्षरीमहामन्त्रस्य ३ आनन्दभैरवाय ऋषये नमः-शिरसि । ३ पङ्क्त्यै छन्दसे नमः---मुखे । ३ श्रीमहात्रिपुरसुन्दर्यै देवतायै नमः- हृदि । ३ ऐं बीजाय नमः-गुह्ये । ३ सौः शक्तये नमः-पादयोः । ३ क्लीं कीलकाय नमः-नाभौ । (उक्तबीजशक्तिकीलकानि नाभिगुह्यपादेषु प्रायशो न्यस्तव्यानीति, मूलविद्याखण्डत्रयेणापि न्यस्तव्यानीति च केषांचिदभिमतम्) । ३ श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरीप्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः-करसम्पुटे ।
ऐं ह्रीं श्रीं मूलविद्यया सर्वाङ्गे त्रिः व्यापकम् ॥
३ क ए ई ल ही अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ ३ ह स क ह ल ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा ॥
३ स क ल ह्रीं मध्यमाभ्यां वषट् ॥ . ३ क ए ई ल ह्रीं अनामिकाभ्यां हुँ ॥
३ ह स क ह ल ह्रीं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ॥
३ स क ल ह्रीं करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ॥ एवं हृदयादिन्यासः, यथा
ऐं ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं हृदयाय नमः ॥
३ हस क ह ल ह्रीं शिरसे स्वाहा ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ स क ल ही शिखायै वषट् ॥ ३ क ए ई ल ह्रीं कवचाय हुम् ॥ ३ ह स क ह ल ही नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ ३ सकल ही अस्त्राय फट् ॥
__भूर्भुवस्सुवरों इति दिग्बन्धः ॥ अथ ध्यानम् । तच्च पूर्वोक्तमेव ॥
श्रीषोडशाक्षर्यास्तु-दक्षिणामूर्तिः ऋषिः । करषडङ्गन्यासयोः तत्कूटषट्कमिति विशेषः ॥
ततः शक्त्युत्थापनमुद्रया स्वदेहे शून्यतां विभाव्य बिन्दुत्रयसपरार्धरूपां कामकलां विचिन्त्य तस्याः स्वात्मतया परिणामं श्रीगुरुमुखावगतं विभाव्य श्रीगुरुदेवतामन्त्रात्मनामैक्यं भावयेत् । अथ मूर्ध्नि शिरोमुद्रां न्यस्य ३ ऐं क्लीं ह्रीं त्रिपुरे भगवति स्वाहा इति द्वादशाक्षरी कुरुकुल्लाविद्यां ततो हृदयमुद्रया (हृदि हस्तं दत्वा) ३ ॐ इत्येकाक्षरं सेतुं, अथ कण्ठे न्यासमुद्रया ३ ह्रीं इत्येकाक्षरं महासेतुं, तदनु नाभौ पूर्वमुद्रयैव ३ ॐ अं मूलं ऐं अं . . . क्षं (५१) ॐ इति सप्तत्यक्षरं निर्वाणमन्त्रं च त्रिस्त्रिः जपेत् ॥
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं इति कामेश्वरीमन्त्रं स्वाधिष्ठाने त्रिः जपेत् ॥ 1३ ई इति कामकलामन्त्रं मूलाधारे त्रिः जपेत् ॥ 1३ समस्तप्रकटगुप्तगुप्ततरसम्प्रदायकुलोत्तीर्णनिगर्भरहस्यातिरहस्यपरा
पररहस्ययोगिनीभ्यो नमः । इति समष्टिमन्त्रम् ॥ ३ ई एक ल ह्रीं ह स क ह ल हीं स क ल हीं ॥ इति पञ्चदशाक्षर
मुत्कीलनं सप्तवारं जपेत् ॥ विद्युदक्षी परां विद्यां कालिकां देशभाषिणीम् । खड्गमुण्डविकाराख्यां व्याघ्रचर्मविभूषिताम् ॥ रक्तमाल्याम्बरधरां घोररूपां चतुर्भुजाम् । खड्गं शूलं कपालं च दधतीं तीक्ष्णनासिकाम् ।
सिद्ध्यर्थं चिन्तयेद्देवीं सर्वविद्यासु जीविनीम् ॥ 'एते अंशाः (श्री, अ१) कोशयोरेव दृश्यन्ते. 'हल-बर, ब३, अ.
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नित्योत्सवः । इति सञ्जीविनीं ध्यात्वा पञ्चधोपचर्य, ३ श्रीं क्लीं क्लीं हैं हैं क ल ह्रीं सौः ल स क ह्रीं क्लीं क्लीं ह्रीं श्रीं इति सप्तदशाक्षरं सञ्जीविनीमन्त्रं सप्तवारं जपेत् ॥ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं श्रीं हं सः क ए ई ल ही ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं
हं सः ह्रीं श्रीं इति त्रयोविंशत्यक्षरं प्राणमन्त्रं सप्तवारं
जपेत् ॥ ३ ॐ श्रीं ऐं क्लीं ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं ह स क
ह ल ह्रीं ॐ ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ह क ल ए ही ह क ह ल ह्रीं ह ए क ल ह्रीं ॐ ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं क ह ल ए ह्रीं क ह ए ल ही क ह ह ल ही हं सः ॐ ह्रीं श्रीं हं सः सोहं स क ल ह्रीं इति सप्तत्यक्षरं(?)दीपिनीमन्नं च प्रत्येकं सप्तवारं
जपेत् ॥ इमे मन्त्राः पञ्चदशीषोडशीनां साधारणाः ।। षोडशाक्षर्या असाधारणाः पञ्च मन्त्राः । यथा-- ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ॐ ह्रीं श्रीं ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म
ल व र यी य र ल व क्ष म ल व र यूं ॐ ॐ ह्रीं श्रीं
ॐ सौः क्लीं ऐं इति महाकामेश्वरमन्त्रं दशवारं जपेत् ॥ ३ (पञ्चदशी) क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ही स क ल ह्रीं
त्रिवार जपेत् ॥ ३ (षोडशी) श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ही ह
स क ह ल ही स क ल ह्रीं सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं
त्रिवारं जपेत् ॥ ३ ऐं क्लीं सौः बालायै नमः । ऐं क्लीं उच्छिष्टचाण्डालि सुमुखि देवि
महापिशाचिनि ही ठः ठः ठः स्वाहा–त्रिवारं जपेत् ॥ ' अस्य मन्त्रस्य विविधाः पाठाः ईषद्भिनाः तत्तत्कोशेषु दृश्यन्ते. .
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ३ ॐ ह्रीं स्त्रीं ह्रूं क्रीं श्रीं उग्रतार सौः क्लीं ह्रीं श्रीं स्वाहा
. त्रिवारं जपेत् ॥ एते पश्च मन्त्राः पञ्चरत्नपदेन उच्यन्ते ॥
ततः सूतकनिवारणाय प्रणवसम्पुटितां मूलविद्यां (पञ्चदशी) दशवारमावर्त्य अनन्तरं विघ्नहरान् षण्मन्त्रात् त्रिस्त्रिजपेत् ॥ यथा
ऐं ह्रीं श्रीं इ रि मि लि कि रि कि लि प रि मि रोम् ॥
३ ॐ ह्रीं नमो भगवति महात्रिपुरभैरवि मम पुररक्षां कुरु कुरु ॥ ३ संहर संहर विघ्नरक्षोविभीषकान् कालय हुं फट् स्वाहा ॥ ३ ब्लू रक्ताभ्यो योगिनीभ्यो नमः ॥ ३ सां सारसाय बह्वाशनाय नमः ॥
३ दु मुलु षु मु लु षु ह्रीं चामुण्डायै नमः ॥ एते कुल्लूकाद्या विघ्नहरान्ता जपम्य पूर्वाङ्गमन्त्राः । त्रितारीपूर्वकत्वं तु सर्वेषां सिद्धमेव ॥
ततः पेशीछन्नां सुवर्णरत्नस्फटिकमणिपुत्रजीवरुद्राक्षाद्यन्यतमनिर्मितां मालां श्यामाक्रमे वक्ष्यमाणेन संस्कारविधिना संस्कृतामादाय, कचित्पात्रे वामपाणौ वा निधाय, सामान्यार्योदकेन शुद्धोदकेन वा मूलेनाभ्युक्ष्य,
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥ इति प्रार्थ्य, ही सिद्धयै नमः इति मन्त्रेण पुनः पुनः आवृत्तेन गन्धादिभिः पञ्चमिः गन्धपुष्पाभ्यामेव वा सम्पूज्य, ऐं ह्रीं श्रीं गं
अविघ्नं कुरु माले त्वं करे गृह्णामि दक्षिणे ।
जपकाले तु सततं प्रसीद मम सिद्धये ॥ इति दक्षिणहस्तेन मालां गृहीत्वा, मध्यमामध्यपर्वावलम्बिनीं तां तर्जन्या वामहस्तेन चास्पृशन् एकमणिग्रहणे अन्यमनुपाददानः क्रमादङ्गुष्ठाग्रेण मणीन् परिवर्तयन् जम्भाक्षुताद्यकुर्वन् अनिद्राणः, एतेषां सम्भवे आचम्य देवताऽऽत्मत्वं भावयन् , माला
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नित्योत्सवः
मपातयन् प्रमादपतितायामुक्तसंस्कारं कृत्वा खटखटाशब्दमकुर्वाणः अश्लिष्टमनुच्चारयन् असम्भाषमाणो मालामप्रदर्शयन् अन्यदप्युक्तमाचरन् श्रीगुरुमुखादवगतं षडाद्यन्यतममर्थ चतुर्विधैक्यशून्यषट्कावस्थापञ्चकविषुवत्सप्तकमन्वचैतन्यादिरहस्यजातं चानुसन्दधानो यथाऽधिकारं मनसोपांशुना वा सहस्रं त्रिशतं शतं वा मूलविद्यामारम्भे प्रोक्तसङ्ख्या - वधौ च प्रणवपुटितां सकृञ्जपित्वा उत्तराङ्गमन्त्रान् जपदशमांशमावर्तयेत् ॥
___ जपोत्तराङ्गमश्राः ते तु त्रिपुरामुष्टचक्रेश्वरीमन्त्रा अष्टौ
ऐं ह्रीं श्रीं अं आं सौः, ३ ऐं क्लीं सौः, ३ ह्रीं क्लीं सौः, ३ हैं हक्की हसौः, ३ सँ हस्ती हस्सौः, ३ ह्रीं क्लीं ब्लें, ३ ह्रीं श्रीं सौः. ३ झै स्रक्लीं हस्सौः ॥
मूलमेकं—ऐं ह्रीं श्रीं क ए ई ल ही ह स क ह ल ही स क ल ह्रीं ॥
तत्तत्तिथिनित्याविद्या--ताश्च शुक्लपक्षे कामेश्वर्यादिचित्राऽन्ताः । कृष्णपक्षे तु चित्राऽऽदिकामेश्वर्यन्ताः । तिथिवृद्धावेकां नित्यां दिनद्वये, तिथिक्षये एकस्मिन् दिवसे नित्याद्वयं, इति क्रमेण जप्याः । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं अंऐं स क ल ह्रीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे सौः ॥ ___३ आं ऐं भग भुगे भगिनि भगोदरि भगमाले भगावहे भगगुह्ये
भगयोनि भगनिपातिनि सर्वभगवशङ्करि भगरूपे नित्यक्लिन्ने भगस्वरूपे सर्वाणि भगानि मे ह्यानय वरदे रेते सुरेते भगक्लिन्ने क्लिन्नद्रवे क्लेदय द्रावय अमोघे भगविच्चे क्षुभ क्षोभय सर्वसत्त्वान् भगेश्वरि ऐं ब्लू में ब्लू में ब्लू मों ब्लू हे ब्लू हे क्लिन्ने सर्वाणि भगानि मे वशं आनय स्त्री
हर ब्लें हीम् ॥ ३ इं ॐ हीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा ॥ ३ ई ॐ क्रों प्रों क्रौं झौं छौं जौं स्वाहा ।।
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
१३ ३ उं ॐ ह्रीं वह्निवासिन्यै नमः ॥ ३ ऊं ह्रीं क्लिन्ने ऐं क्रों नित्यमदद्रवे ह्रीं ॥ ३ कं ह्रीं शिवदूत्यै नमः ॥ ३ ॐ ह्रीं हुं खे च चे क्षः स्त्रीं हुं ही फट । ३ लं ऐं क्लीं सौः ॥ ३ लूं ह स क ल र हैं ह स क ल र डी ह स क ल र डौः ।। ३ एं ह्रीं फ्रें तूं क्रों आं क्लीं ऐं ब्लू नित्यमदद्रवे हुं फ्रें हीम् ॥ ३ ऐं भ्झयौं ॥ ३ ओं स्वौं ॥ ३ औं ॐ नमो भगवति ज्वालामालिनि देवदेवि सर्वभूतसंहार
कारिके जातवदसि ज्वलन्ति ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
हां ह्रीं ह्रूं र र र र र र र ज्वालामालिनि हुं फट् ।।
३ अंच्कौम् ॥ अङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गीभूता बाला अन्नपूर्णा अश्वारूढा मन्त्रास्त्रयो वक्ष्यमाणा इति च त्रयोदश ॥
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं ऐं ऐं क्लीं सौः । इति श्रियोऽङ्गबाला ॥ ३ ह्रीं श्रीं क्लीं ॐ नमो भगवति अन्नपूर्णेश्वरि ममाभिलषितमन्नं
देहि स्वाहा । इति श्रिय उपाङ्गमन्नपूर्णा ॥ ३ ॐ आं ह्रीं क्रों एहि परमेश्वरि स्वाहा । इति
श्रीप्रत्यङ्गमश्वारूढा ॥ कालनित्या तु सूत्रकृताऽनुपात्ता ॥
अथ पुनः ऋष्यादिमानसपूजाऽन्तं विधाय, सबीजाः सर्वसङ्क्षोभिण्यादिमुद्राः आयुधमुद्राश्च प्रदर्श्य,
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ॥ इति श्रीदेव्या वामकरे सामान्याय॑सलिलप्रक्षेपेण जपं निवेद्य
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नित्योत्सवः त्वं माले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा मम ।
शुभं कुरुप्व मे भद्रे यशो वीर्य च सर्वदा ॥ इति मालां प्रार्थ्य, निगूढं निधाय, श्रीगुरुपादुकामन्त्रं मुहुरुच्चारयन् गुरुपरमगुरुपरमेष्ठिगुरून् तत्तन्नामपूर्व प्रणमेत् ॥ इति जपविधिः ॥
रश्मिमालामन्त्राः
(तत्र वैदिकेषु स्वरपूर्वं पाठः) ॐ भूर्भुवः सुवः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ इति त्रिंशद्वर्णा गायत्री ॥ मूलाधारे ॥ १ ॥
यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि । मघवञ्छन्धि तव तन्न ऊतये विद्विषो विमृधो जहि ॥ म्वस्तिदा विशस्पतिर्वत्रहा विमृधो वशी।
वृषेन्द्रः पुर एतु नः स्वस्तिदा अभयङ्करः ।। इत्यैन्द्री विद्या सप्तषष्टयर्णा सङ्कटे भयनाशिनी ॥ हृदये ॥ २ ॥
ॐ वृणिः सूर्य आदित्योम् ॥ इत्यष्टार्णा सौरी तेजोदा ॥ फाले ॥ ३ ॥ ॐ ॥ इति प्रणवः केवलो ब्रह्मविद्या मुक्तिप्रदा ॥ ब्रह्मरन्ध्र ॥ ४ ॥
ॐ परोरजसे सावदोम् ॥ इति नवार्णा तुरीयगायत्री स्वैक्यविमर्शिनी॥ द्वादशान्ते ॥ ५॥
रश्मिपञ्चकमेतत् मूलाधारहृत्फालविधिविलद्वादशान्तस्थानबीजतया भावनीयम् । द्वादशान्तस्थानं तु ललाटस्योत्तरभागः ॥
ॐ सूर्याक्षितेजमे नमः । खेचराय नमः । असतो मां सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्माममृतं गमय । उप्णो भगवान् शुचिरूपः । हंसो भगवान् शुचिरप्रतिरूपः ॥
विश्वरूपं वृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं ज्योतिरेकं तपन्तम् ।
सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॥ ॐ नमो भगवते सूर्याय । अहोवाहिनि वाहिन्यहोवाहिनि वाहिनि स्वाहा ॥
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यौवनोल्लास: तृतीयः-श्रीक्रमः वयस्सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाथमानाः ।
अपध्वान्तमू Mहि पूर्धिचक्षुर्मुमुग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान् ॥ पुण्डरीकाक्षाय नमः । पुष्करेक्षणाय नमः । अमलेक्षणाय नमः । कमलेक्षणाय नमः । विश्वरूपाय नमः । श्रीमहाविष्णवे नमः । इति षोडशमन्त्रसमष्टिरूपिणी चक्षुष्मतीविद्या दूरदृष्टिसिद्धिप्रदा ॥ मूलाधारे ॥ ६ ॥
ॐ गन्धर्वराज विश्वावसो ममाभिलषितां कन्यां प्रयच्छ स्वाहा ॥ इत्युत्तमकन्याविवाहदायिनी ॥ हृदये ॥ ७ ॥
ॐ नमो रुद्राय पथिषदे स्वस्ति मां संपारय ॥ इति मार्गसङ्कटहारिणी ॥ फाले ॥ ८ ॥
ॐ तारे तुत्तारे तुरे स्वाहा । इति जलापच्छमनी ॥ ब्रह्मरस्भ्रे ॥९॥
अच्युताय नमः । अनन्ताय नमः । गोविन्दाय नमः । इति महाव्याधिशमनी नामत्रयीविद्या ॥ द्वादशान्ते ॥ १० ॥
एतद्रश्मिपञ्चकं मूलाधारादिपरिकरतया ज्ञेयम् ॥
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा ॥ इति महागणपतिविद्या प्रत्यूहशमनी ॥ मूलाधारे ॥ ११ ॥
ॐ नमः शिवायै । ॐ नमः शिवाय ॥ इति द्वादशार्णा शिवतत्त्वविमर्शिनी ॥ हृदये ॥ १२ ॥
ॐ जूं सः मां पालय पालय ॥ इति दशार्णा मृत्योरपि मृत्युरेषा विद्या ॥ फाले ॥ १३ ॥
ॐ नमो ब्रह्मणे धारणं मे अस्त्वनिराकरणं धारयिता भूयासं कर्णयोः श्रुतं मा च्योढ्वं ममामुष्य ॐ ॥ इति श्रुतिधारिणी विद्या ॥ ब्रह्मरन्ध्रे ॥१४॥
अं . . . क्षं (५१) ॥ इति सबिन्दुरकारादिक्षकारान्तवर्णात्मिका मातृका सर्वज्ञताकरी द्वादशान्ते ॥ १५ ॥
पञ्चेमा रश्मयो मूलादिरक्षात्मकतया द्रष्टव्याः ।।
ह स क ल ह्रीं ह स क ह ल ही स क ल हीं ॥ इति लोपामुद्राविद्या स्वस्वरूपविमर्शिनी ॥ मूलाधारे ॥ १६ ॥
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नित्योत्सवः क्लीं हैं सौः म्हौः हैं क्लीं ॥ इति षट्कूटा सम्पत्करी विद्या ॥ हृदये ॥ १७ ॥
सं सृष्टिनित्ये स्वाहा हं स्थितिपूर्णे नमः रं महासंहारिणि कृशे चण्डकालि फट रं हमें महानाख्ये अनन्तभास्करि महाचण्डकालि फट रं महासंहारिणि कृशे चण्डकालि फट् हं स्थितिपूर्णे नमः सं सृष्टिनित्ये स्वाहा हमें महाचण्डयोगेश्वरि ॥ इति विद्यापञ्चकरूपिणी कालसङ्कर्षिणी 'परमायुःप्रदा ॥ फाले ॥ १८ ॥
__ऐं ह्रीं श्रीं इस सौः अहमहं अहमहं सौः इफे श्रीं ह्रीं ऐं ॥ इति शुद्धज्ञानदा शाम्भवी विद्या ॥ ब्रह्मरन्ध्रे ॥ १९ ॥
सौः ॥ इयं पराविद्या । द्वादशान्ते ॥ २० ॥ एताः पञ्च रश्मयो मूलाद्यधिष्ठानतया कलनीयाः ॥
ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं ऐं ऐं क्लीं सौः ॥ इति नवाक्षरी श्रीदेव्यङ्गभूता बाला॥ २१ ॥
ह्रीं श्रीं क्लीं ॐ नमो भगवति अन्नपूर्णे ममाभिलषितं अन्नं देहि स्वाहा ॥ इति श्रीदेव्या उपाङ्गभूता अन्नपूर्णा ॥ २२ ॥
ॐ आं ह्रीं क्रों एहि परमेश्वरि स्वाहा ॥ इयं श्रीदेवीप्रत्यङ्गभूता अश्वारूढा ॥ २३ ॥
श्रीविद्यागुरुपादुकामन्त्रस्तु आह्निकप्रकरणे एवोक्त इह पठितव्यः ।
तद्यथा
ऐं ह्रीं श्रीं ह ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व र यी ड्सौं स्हौः अमुकानन्दनाथश्रीगुरुश्रीपादुकां पूजयामि नमः ॥ २४ ॥
अथ मूलविद्या । सा च गुरुमुखादवगता कादिनाम्नी--क ए ई ल ही ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं ॥ २५ ॥
बाला अन्नपूर्णा अश्वारूढा श्रीपादुका चेत्येताभिश्चतसृभिः युक्ता मूलविद्या साम्राज्ञी मूलाधारे विलोचनीया ॥ 1 परमार्थप्रदा-अ१, भ, वर, व३. चतुर्दशार्णा शु-अ, बर, ब३.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
१२७ ऐं नमः उच्छिष्टचाण्डालि मातङ्गि सर्ववशङ्करि स्वाहा ॥ इति श्यामागभूता लघुश्यामा ॥ २६ ॥
ऐं क्लीं सौः वदवद वाग्वादिनि स्वाहा ॥ इयं श्यामोपाङ्गभूता वाग्वादिनी ॥ २७ ॥
ॐ ओष्ठापिधाना नकुली दन्तैः परिवृता पविः ॥ . सर्वस्यै वाच ईशाना चारु मामिह वादयेत् ॥ २८ ॥ इयं श्यामाप्रत्यङ्गभूता नकुलीविद्या ॥
श्रीविद्यागुरुपादुकैव प्रथमबीजत्रयस्थाने बालासहिता श्यामागुरुपादुका भवति । यथा--
ऐं क्लीं सौः हमें ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व र यीं सौं स्हौः अमुकानन्दनाथश्रीगुरुश्रीपादुकां पूजयामि नमः ॥ २९ ॥
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ॐ नमो भगवति श्रीमातङ्गीश्वरि सर्वजनमनोहारि सर्वमुखरञ्जिनि क्लीं ह्रीं श्रीं सर्वराजवशङ्करि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सर्वदुष्टमृगवशङ्करि सर्वसत्त्ववशङ्करि सर्वलोकवशङ्करि अमुकं मे वशमानय स्वाहा सौः क्लीं ऐं श्रीं ह्रीं ऐं ॥ ३० ॥
इत्यष्टनवतिवर्णा राजश्यामला पूर्वोक्ताभिः अङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गपादुकेत्येताभिश्चतसृभिः विद्याभिः सहिता हृच्चक्रे यष्टव्या ॥
___लं वाराहि-लं उन्मत्तभैरविपादुकाभ्यां नमः ॥ इयं वार्ताल्यङ्गभूता लघुवार्ताली ॥ ३१ ॥
ॐ ह्रीं नमो वाराहि धोरे स्वप्नं ठः ठः स्वाहा ॥ इयं स्वप्ने शुभाशुभवक्त्री वार्ताल्या उपाङ्गभूता स्वप्नवाराही ॥ ३२ ॥
ऐं नमो भगवति महामाये पशुजनमनश्चक्षुस्तिरस्करणं कुरु कुरु हुं फट् स्वाहा । इयं वार्तालीप्रत्यङ्गभूता तिरस्करिणी ॥ ३३ ॥
ऐं ग्लौं हमें ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व र यी इसौं स्हौः अमुकानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि नमः ॥ एषा वार्तालीगुरुपादुका ॥ ३४ ॥
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नित्योत्सवः ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्तालि वार्तालि वाराहि वाराहि वराहमुखि वराहमुखि अन्धे अन्धिनि नमः । रुन्धे रुन्धिनि नमः । जम्भे जम्भिनि नमः । मोहे मोहिनि नमः । स्तम्भे स्तम्भिनि नमः । सर्वदुष्टप्रदुष्टानां सर्वेषां सर्ववाक्चित्तचक्षुर्मुखगतिजिह्वास्तम्भनं कुरु कुरु शीघ्रं वश्यं ऐं ग्लौं ठः ठः ठः ठः हुं अस्त्राय फट् ॥ इति द्वादशोत्तरशताक्षरो महावाराहीमन्त्रः ॥ ३५॥
पूर्वोक्ताभिश्चतसृभिः युक्ता इयं महावाराही आज्ञाचक्रे परिपूज्या.॥
प्रथमद्वितीयकूटयोः हृल्लेखावर्ज पञ्चदश्येव त्रयोदशाक्षरी श्रीपूर्तिविद्या ब्रह्मरन्ध्रे यष्टव्या । तद्यथा
___ क ए ई ल ह स क ह ल स क ल ह्रीं-इयं कादिपूर्तिविद्या ॥ ह स क ल ह स क ह ल स क ल ह्रीं-इयं हादिपूर्ति
विद्या ॥ ३६॥ प्रथमत्रिकस्थाने त्रितारीकुमारीवाक् ग्लौं इत्यष्टबीजपूर्वा श्रीगुरुपादुकैव महापादुका सर्वमन्त्रसमष्टिरूपिणी स्वैक्यविमर्शिनी महासिद्धिप्रदायिनी द्वादशान्ते वरिवस्या । यथा
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं ग्लौं हस्कें ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व र यी सौं स्हौः अमुकानन्दनाथश्रीगुरुश्रीपादुकां
पूजयामि नमः ॥ ३७॥ इति रश्मिमाला सम्पूर्णा ॥
___ आहत्य रश्मिमालामन्त्राः सप्तत्रिंशत् । एते ब्राह्मे मुहूर्ते सकृदावर्तनीया इत्युक्तमेव प्राक् । श्रीक्रमोक्ताः सर्व एते अन्ये च मन्त्राः साधकेषु परमप्रेम्णा प्रकटीकृत्य लिखिताः श्रीगुरुमुखादवगम्यैव पठिताः महते श्रेयसे नान्यथेति श्रीशिवशासनम् ॥
पुस्तके लिखितान् मन्त्रानवलोक्य जपेत्तु यः ।
स जीवन्नेव चण्डालो मृतः श्वानो भविष्यति ॥ इति साङ्ख्यायनतन्त्रवचनेन गुरुमुखागमं विना जपस्य निषेधात् ।।
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यौवनोल्लासः तृतीयः -- श्रीक्रमः
'रश्मिमालामन्त्राणां ऋष्यादयः
अथ रश्मिमालायाः ऋष्यादयो लिख्यन्ते
तत्र प्रथमं गायत्र्याः ऋष्यादयस्तु आगतपूर्वा एव ॥ १ ॥
अभयंकरमन्त्रस्य गृत्समद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । अभयंकरो देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
आरूढो वारणेन्द्रं दशशतनयनश्यामलः कोमलाङ्गः
वर्मी वीरः प्रतापी प्रतिभटदहनप्रज्वलच्चक्रपाणिः ।
दोर्भिर्दिव्यायुधाढ्यैर्मणिगणखचितैर्देवमन्त्रीसनाथो
दत्वाऽभीष्टानि शश्वत् परिहृतदुरितः पातु विश्वं महेन्द्रः ॥ २ ॥
1
सौरमन्त्रस्य देवभार्गव ऋषिः । गायत्री छन्दः । सूर्यो देवता । तत्प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् —
धृतपद्मद्वयं भानुं तेजोमण्डलमध्यगम् ।
सर्वाधिव्याधिशमनं छायाश्लिष्टतनुं भजे ॥ ३ ॥
63
१२९
प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । परमात्मा देवता । तत्प्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
ओंकारवाच्यमुच्चण्डचण्डांशुसदृशप्रभम् । वासुदेवाभिधं ब्रह्म विश्वगर्भमुपास्महे ॥ ४ ॥
तुरीयगायत्रीमन्त्रस्य विश्वामित्र ऋषिः । गायत्री छन्दः । सविता देवता ।
तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
देवीं तुरीयगायत्रीं तुर्यातीतपदाश्रयाम् ।
परोरजः प्रकाशात्मचितिरूपामहं भजे ॥ ५ ॥
' सर्वोऽप्ययं खण्डः एकस्मिन् ( अ ) कोश एवोपलब्धः तत्र तत्र अपपाठग्रन्थपातादिदोषाशङ्कितोऽपि प्रमेयातिशयदृष्ट्या अत्र संयोजित इत्यावेद्यते.
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नित्योत्सवः
चक्षुप्मतीमन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । नाना छन्दांसि । चक्षुष्मती देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
चक्षुस्तेजोमयं पुष्पकन्तुकं बिभ्रती करैः ।
गैप्यसिंहासनारूढां देवीं चक्षुष्मती भजे ॥ ६ ॥ विश्वावसुमन्त्रस्य संमोहन ऋषिः । गायत्री छन्दः । विश्वावसुर्देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
रक्ताङ्गरागारुणभूषणाढ्यं वीणाधरं वीटिकयोल्लसन्तम् ।
गन्धर्वकन्याजनगीयमानं विश्वावसुं सद्वृहतीं नमामि ॥ ७ ॥
पथिविद्रुद्रमन्त्रस्य वामदेव ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । पथिविद्रुद्रो देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
आत्तसज्यधनुर्बाणं कणं वृषभसंस्थितम् ।
अन्नपूर्णासमाश्लिष्टं पथिविद्रुद्रमाश्रये ॥ ८ ॥ तारामन्त्रम्य मत्स्य ऋषिः । विराट् छन्दः । ताराम्बा देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
नौकसिंहासनारूढां शाक्यदर्शनदेवताम् ।
जलापच्छमनीं वन्दे तारां वारिदमेचकाम् ॥ ९ ॥ नामत्रयमन्त्रम्य काश्यपात्रिभरद्वाजा ऋषयः । अनुष्टुप् छन्दः । श्रीमहाविष्णुदेवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
समस्तदुस्तरव्याधिसंघध्वंसपटीयसे ।
अच्युतानन्तगोविन्दनाम्ने धाम्ने नमो नमः ॥ १० ॥ महागणपतिमन्त्रस्य गणक ऋषिः । नृचद्गायत्री छन्दः । श्रीमहागणपतिर्देवता। तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
बीजापूरगदेक्षुकार्मुकरुजा चक्राब्जपाशोत्पल
श्रीह्यग्रस्वविषाणरत्नकलशप्रोद्यत्कगम्भोरुहः ।
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१३१
यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः ध्येयो वल्लभया सपद्मकरया श्लिष्टोज्ज्वलभूषया
विश्वोत्पत्तिविपत्तिसंस्थितिकरो विघ्नेश्वरोऽभीष्टदः ॥ ११ ॥ शिवशक्त्यात्मकपञ्चाक्षरमन्त्रस्य वामदेव ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । उमामहेश्वरो देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
वामांसन्यस्तवामेतरकरकमलायास्तथा वामहस्त
न्यस्तारक्तोत्पलायाः स्तनभरविलसद्वामहस्तः प्रियायाः । सर्पाकल्पाभिरामः श्रितपरशुमृगेष्टः करैः काञ्चनाभः
ध्येयः पद्मासनस्थः स्मरललितवपुः संपदे पार्वतीशः ॥ १२ ॥ अमृतमृत्युञ्जयमन्त्रस्य कहोळक ऋषिः । विराट् छन्दः । अमृतमृत्युञ्जयसदाशिवो देवता । तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
स्फुटितनळिनसुस्थं मौळिबद्धेन्दुरेखा
स्रवदमृतरसार्दै चन्द्रवढ्यर्कनेत्रम् । स्वकरकलितमुद्रापाशवेदाक्षमालं
स्फटिकरजतमुक्तागौरमीशं नमामि ॥ १३ ॥ श्रुतधारिणीमन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । ब्रह्मा देवता । तत्प्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
चतुराननमम्भोजनिषण्णं भारतीसखम् । अक्षमालावराभीतिकमण्डलुधरं भजे ॥ १४ ॥
मातृकामन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । मातृकासरस्वती देवता । तत्प्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
पञ्चाशता मातृकया ह्यारसाखिलदेहया ।
समस्तविद्यारूपिण्या धन्योऽहं मातृकाम्बया ॥ १५ ॥
श्रीहादिलोपामुद्रामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिः ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी देवता । ह ५ बीजं, ह ६ शक्तिः, स ४ कीलकम् । तत्प्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः । बालया षडङ्गम् । ध्यानम्
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नित्योत्सवः
श्रीदेवीभूषितोत्सङ्गं सान्द्रसिन्दूररोचिषम् ।
हकारादिमनोर्वाच्यं वन्दे कामेश्वरं हरम् ॥ १६ ॥
संपत्करीमन्त्रस्य कण्ठ ऋषिः । गायत्री छन्दः । संपत्सरस्वती देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
अनेककोटिमातङ्गतुरङ्गरथपत्तिभिः ।
सेवितामरुणाकारां वन्दे सम्पत्सरस्वतीम् ॥ १७ ॥
चण्डयोगेश्वरीमन्त्रस्य ईश्वर ऋषिः । नाना छन्दांसि । चण्डयोगेश्वरी देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्—
सृष्टिस्थितिभ्यां संहृत्या नाख्यया भासया श्रिताम् । कूलकन्था (?) कपालाढ्यां चण्डयोगेश्वरीं भजे ॥ १८ ॥
परशंभुनाथमन्त्रस्य वामदेव ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । परशंभुनाथ देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् —
पूर्णाहन्तास्वरूपाय तस्मै परमशंभवे । आनन्दताण्डवोद्दण्डपण्डिताय नमो नमः ॥ १९ ॥
परामन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । परा सरस्वती देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
अकळङ्कशशाङ्काभा त्र्यक्षा चन्द्रकलावती ।
मुद्रापुस्तलसद्वाहा पातु मां परमा कला ॥ २० ॥
बालामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिः ऋषिः । गायत्री छन्दः । बाला त्रीपुरसुन्दरी देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
अरुणकिरणजालैरञ्चिताशावकाशा
विधृतजपवटीका पुस्तकाभीतिहस्ता ।
इतरकरवराढ्या फुल्लकल्हारसंस्था
निवसतु हृदि बाला नित्यकल्याणशीला ॥ २१ ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः — श्रीक्रमः
१३३
अन्नपूर्णेश्वरीमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । अन्नपूर्णेश्वरी देवता ।
तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
आदाय दक्षिणकरेण सुवर्णदवीं दुग्धान्नपूर्णमितरेण च रत्नपात्रम् । अन्नप्रदाननिरतां नवहेमवर्णी
अम्बां भजे कनकभूषणमाल्यशोभाम् ॥ २२ ॥
अश्वारूढामन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । अश्वारूढा देवता ।
तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् --
बद्ध्वा पाशेनाङ्कुशेन कृप्यमाणाश्वसाध्यकम् । नन्तीं वेत्रेण फालखक्पाणिमश्वासनां भजे ॥
ध्यानान्तरम् --
अश्वारूढा कराये नवकनकमयीं वेत्रयष्टिं दधाना दक्षेऽन्ये धारयन्ती स्फुरति धनुर्लतापाशहस्ता सुसाध्या ।
देवी नित्यप्रसन्ना शशिशकललसत्केशपाशा त्रिणेत्रा
दद्यादद्यानवद्यां श्रियमखिलसुखप्राप्तिहृद्यां श्रियै नः ॥ २३ ॥
श्रीविद्यागुरुपादुकामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिः ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । श्रीविद्या
गुरुपादुका देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् —
तेजोमयमहाविद्यां शेखराञ्चितमस्तकाम् ।
रक्तां चतुर्भुजां वन्दे श्रीविद्यागुरुपादुकाम् ॥ २४ ॥ श्रीललिताया
॥ २५ ॥
लघुश्यामामन्त्रस्य मतङ्ग ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीलघुश्यामाम्बा देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्—–
स्मरेत् प्रथमपुष्पिर्णी रुधिरबिन्दुशोणाम्बरां गृहीतमधुपात्रिकां मदविघूर्णनेत्राञ्चलाम् ।
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- नित्योत्सव :
घनस्तनभरालसां गळितचूळिकां श्यामलां करस्फुरितवल्लकीविमलशङ्खताटङ्किनीम् ॥ माणिक्यवीणामुपलालयन्तीं मदालसां मञ्जुळवाग्विलासाम् । माहेन्द्रनीलद्युतिकोमलाङ्गीं मातङ्गकन्यां मनसा स्मरामि ॥ इति वा ॥ २६ ॥
वागीश्वरीमन्त्रस्य कण्व ऋषिः । विराट् छन्दः । वागीश्वरी देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् —
अमलकमलसंस्था लेखिनीपुस्तकोद्यत्करयुगळसरोजा कुन्दमन्दारगौरा |
'वृतशशधरखण्डोल्लासिकोटीरचीटा
भवतु भवभयानां भङ्गिनी भारती नः ॥ २७ ॥
नकुलीबागीश्वरीमन्त्रस्य कहोळक ऋषिः । गायत्री छन्दः । नकुलीवागीश्वरी देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
नकुली वज्रदन्ताळी साध्यजिह्वाऽहिदंशिनी । भक्तवक्तृत्वजननी भावनीया सरस्वती ॥ २८ ॥
श्यामागुरुपादुकामन्त्रस्य मतङ्ग ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । श्यामागुरुपादुका देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम्
वन्दे गुर्वङ्घ्रिमकुटां श्यामलां शुकपाणिनीम् । समस्तसिद्धिजननीं श्यामलागुरुपादुकाम् ॥ २९ ॥
श्रीराजश्यामलामन्त्रस्य स्पष्टम् ॥ ३० ॥
लघुवाराहीमन्त्रस्य नारद ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । लघुवाराही देवता ।
तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् —
महार्णवे निपतितामुद्धरन्तीं वसुंधराम् ।
महादंष्ट्रां महाकायां नमाम्युन्मत्त भैरवीम् ॥ ३१ ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः — श्रीक्रमः
स्वप्नवाराहीमन्त्रस्य अग्निः ऋषिः । गायत्री छन्दः । स्वप्नवाराही देवता ।
तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् —
स्वप्ने शुभाशुभं भावि शासन्तीं भक्तकार्ययोः ।
दुःस्वप्नहारिणीं वन्दे वाराहीं स्वप्ननायिकाम् || ३२ ॥
तिरस्करिणीमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । तिरस्करिणी देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
मुक्तकेशीं विवसनां सर्वाभरणभूषिताम् । स्वयोनिदर्शनान्मुह्यत्पशुवर्गो नमाम्यहम् ॥ ३३ ॥
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वाराहीगुरुपादुकामन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । वाराहीगुरुपादुका देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
देशिकाङ्घ्रिलसन्मौलिं खगिनीं च कपालिनीम् । भावयामि घनच्छायां पञ्चमीगुरुपादुकाम् ॥ ३४ ॥
श्रीमहावाराहीमन्त्रस्य स्पष्टम् ॥ ३५ ॥
श्रीपूर्तिविद्यामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिः ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । श्रीपूर्तिविद्या देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥ ३६ ॥
महापादुकामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिः ऋषिः । पङ्क्तिश्छन्दः । श्रीमहापा देवता । तत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् -
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सर्वविद्यामयीं सर्वशक्तिपीठस्वरूपिणीम् ।
कराग्रे हृदये मूले देशिकाङ्घ्रियुगत्रयम् ॥
दधतीं दीप्तभूषाढ्यां श्रीमहापादुकां नुमः ॥ ३७ ॥
इति रश्मिमालाया ऋप्यादयः ॥
इति जपप्रकरणं षष्ठं समाप्तम्
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नित्योत्सवः
नैमित्तिकाकरणम्
पर्वसु नैमित्तिकार्चनविधः उक्तेन क्रमेण नित्यक्रमनिरतः साधकः प्रतिमासं पञ्चपर्वसु नैमित्तिकमर्चनमाचरेत्--
नित्यार्चनरतैः सिद्धैः कार्य नैमित्तिकार्चनम् ॥ इति तन्त्रराजवचनात् । तच्च नित्यार्चनाधिकसाधनविशेषकरणकम् । पर्वाणि तु कृष्णाष्टमी कृष्णचतुर्दशी दर्शः पूर्णिमा सङ्क्रान्तिश्चेति कुलार्णवोक्तानि । तत्र कालस्य कर्तव्यतायाश्च निर्णयः । सङ्क्रान्तिव्यतिरिक्तपर्वार्चनं सूर्यास्तमयोत्तरं दशघटिकाऽऽत्मके रात्रिपूर्वभागे कार्यम् । सङ्क्रमणसपर्या तु तत्तत्सङ्क्रान्तिपुण्यकालोपलक्षितासु घटिकासु । तदुक्तम्
प्रागूज़ च दशैव मेषतुलयोः सिंहे वृषे वृश्चिके
कुम्भ षोडशपूर्वतोऽथ मिथुने मीने धनुःकन्ययोः । ऊर्ध्वाः षोडश कीर्तिताः प्रथमतस्त्रिंशत्तु कर्काटके
चत्वारिंशदथो परास्तु मकरे पुण्यप्रदा नाडिकाः ॥ इति ॥ नाडिकाः घटिकाः । अष्टमीचतुर्दशीदर्शपूर्णिमानां म्वस्वदिने पूजाकालव्याप्तौ न विवादः । दिनद्वये एकदेशव्याप्तौ यत्राधिका सा तिथिह्या । समव्याप्तौ परैव । तिथिवृद्धिहासवशेन चतुर्दशीदर्शयोः एकस्मिन्नेव दिने पूजाकालव्याप्तौ नैमित्तिकद्वयस्य तन्त्रेणानुष्ठानम् । तदा सङ्क्रान्तियोगे तु तत्र तम्यापि दिवासङ्क्रमणे सति नित्यार्चनस्य प्रासङ्गिकी सिद्धिः । यत्र चतुर्णो नैमित्तिकार्चनानां एकस्मिन्नेव काले सन्निपातः सम्भाव्यते तत्र तेषामप्येकतन्त्रतैव । यथा दमनसमर्पणम्य मुख्यकाले चैत्र्यां पूर्णिमायामसम्भवे तत्कृष्णचतुर्दशीदर्शादिज्येष्ठकृष्णचतुर्दशीदर्शान्तें गौणकाले । यथा च पवित्रारोपणम्य श्रावण्यामलाभे आ मिथुनसङ्क्रमणं आ च तुलासङ्क्रान्ति प्रोक्तासु तिथिषु आश्विनशुक्लाष्टमीनवमीचतुर्दशीपूर्णासु च तत्कृष्णचतुर्दशीदर्शयोश्च तादृशि विषये पूजाद्वयं त्रयं चतुष्टयं वा करिष्य इति सङ्कल्पयेदिति दिक् ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः — श्रीक्रमः नित्यक्रमात् नैमित्तिके विशेष :
तत्र परिगणितेषु पर्वसु प्रातः नित्यक्रमं निर्वर्त्य रात्रौ अमुकपर्वप्रयुक्तं नैमित्तिकमर्चनं करिष्य इति सङ्कल्प्य यथाविभवं समारम्भविशेषेण मपञ्चककरणक एव क्रमो निर्वर्तनीयः । न तु " मपञ्चकालाभेऽपि नित्यक्रमप्रत्यवमृष्टिः " इति सूत्रेण नित्यक्रम इव प्रतिनिधिनाऽपि वा । चैत्राद्यासु पौर्णमासीषु तु वक्ष्यमाणेन विधिना तन्त्रान्तरोक्तेन दमनकादिसमर्पणमपि । सति सम्भवे आश्वयुज्यां तत्प्रतिपदादिपर्वान्तप्रयोगोऽप्यनुष्ठेयः, “पञ्चपर्वसु विशेषार्चा " इति सूत्रस्य नानाविद्याऽङ्गशाल्यर्चाबोधकत्वात्, विविधाः शेषाः कालद्रव्य क्रियाऽऽदिरूपाण्यङ्गानि यस्यां तादृश्यर्चेति विग्रहात् ॥
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निवेदने पक्षभेदाः
तत्र द्रवद्रव्यनिवेदने त्रयः पक्षा भवन्ति । पृथक् पृथक् पात्रस्थं हिमोदकादिकं ऐं ह्रीं श्रीं अमुकदेवताया अमुकं कल्पयामि नम इति तत्तन्नामघटितेनोपचारमन्त्रेण प्रधानदेव्यादिभ्यो नवमचक्रेश्वर्यन्ताभ्यस्त्रिपञ्चाशदुत्तरशतसङ्ख्याकाभ्यो देवताभ्यः प्रत्येकं निवेदयेत् । इह प्रधानदेव्या सह नित्याः षोडश, महाकामेश्वर्यादयश्चतस्रः, त्रिपुरादयः चक्रेश्वर्यो नव, कामेश्वरायुधदेव्यः चतस्र इति विवेकः । यदि वा प्रधानदेवतानिवेदनोत्तरं ३ अङ्गदेवीभ्यो नित्याभ्यो अमुकौघायौघत्रयाय अणिमाऽऽदिभ्यो मातृभ्यो मुद्रादेवीभ्यो अणिमाऽऽदिभ्यो वा कामेश्वर्यादिनित्याकलाभ्यः अनङ्गकुसुमादिभ्यः सर्वसङ्क्षोभिण्यादिभ्यः सर्वसिद्धिप्रदाभ्यः सर्वज्ञादिभ्यो वशिन्यादिभ्यः आयुधदेवीभ्यो महाकामेश्वर्यादिभ्यः त्रिपुरादिचक्रेश्वरीभ्योऽमुकं कल्पयामीति तत्समष्ट्यै निवेदयेत् । अथवा प्रधानदेवतायै पृथङ् निवेद्य ऐं ह्रीं श्रीं हृदयदेव्यादिभ्यो नवचक्रेश्वर्यन्ताभ्योऽमुकं कल्पयामीति सर्वसमष्ट्यै निवेदयेदित्येकः ॥
अनेकपात्रासम्भवे अष्टादश चतुर्दश वा पात्राणि तत्तद्द्रव्यसम्भृतानि उपहृत्य पूर्वोक्तान्यतमेन प्रकारेण निवेदयेदिति द्वितीयः । अत्रौघत्रयसिद्धिमातृमुद्राणां पार्थक्यतदन्यत्वाभ्यां पात्राणामष्टादशत्वं चतुर्दशत्वं च ज्ञेयम् ॥
तत्राप्यसम्भवे प्रथमद्वितीययोः प्रकारयोः महति पात्रे सम्भृतं हिमोदकादिकमुपपात्रेण आदायादाय निवेद्य निवेद्य पात्रान्तरे निक्षिपेत् । अन्त्ये तु प्रकारे महापात्रस्थं सर्वाभ्यो देवताभ्यो युगपन्निवेदयेदिति तृतीयः ॥
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नित्योत्सवः कठिनद्रव्यनिवेदने पक्षद्वयम् । तत्र फलादिकमुक्तदेवतासमसङ्ख्याकमुक्तान्यतमेन प्रकारेण तत्तद्देवतायै निवेदयेदित्येकः । तदशक्तौ यथासम्भवमुपहृत्येति द्वितीयः ॥
पवित्रारोपणे दीपदाने च प्रथमपक्षीयः प्रथमप्रकार एव नान्यो हिमोदकादौ । सङ्कोचपक्षाश्रयणे बीजमशक्तिरवसराभावो वा । तन्त्रान्तरोक्तानां चतुराम्नायपञ्चसिंहासनपश्चपञ्चिकाषड्दर्शनाङ्गदेवीभूतशक्तिसमयदेवतानामप्यर्चने अभ्युदय एवेति दिक् ॥
दमनविधिः अथादौ दमनार्चनम् । चैत्र शुक्लचतुर्दश्यां सायं स्वयं दमनारामं गत्वा---
ॐ शिवप्रसादसम्भूत अत्र सन्निहितो भव ।
देवीकार्य समुद्दिश्य नेतव्योऽसि शिवाज्ञया ॥ इति दमनमामन्त्र्य अस्त्रमन्त्रेण समूलं दमनलताः सपर्यापर्याप्ता उत्पाट्य, तदलामे तद्गुच्छान्वा शस्त्रेण छित्वा स्वातन्त्र्याभावे 'विक्रेतुरनुमत्या क्रयक्रीता वा आनीयानाय्य वा पवित्रे वंशादिपात्रे निधाय मूलविद्यया शुद्धाभिरद्भिः अभ्युक्ष्य ऐं ह्रीं श्रीं दमनाय अमुकं कल्पयामि नमः इत्यादिरीत्या उपचारमन्तैः गन्धपुष्पधूपदीपनैवेद्याख्यान पञ्चोपचारान् आचर्य, सूक्ष्मनववस्त्रेण आच्छाद्य, यागमन्दिर एव कचन शुचिनि स्थले निधाय जागृयात् । जागरणं त्वभ्युदयाय । इत्यधिवासनम् । इदं च सद्योऽपि वा कार्यम् । समानमेतदुत्तरत्रापि कुसुमानाम् । दुग्धान्नादिनिवेद्यस्य तु सद्य एवोचितमधिवासनम् । अथ पूर्णिमायां रात्रौ प्रधानदेवीपूजोत्तरं आवरणार्चने
षोडशाणे जगन्मातः वाञ्छितार्थफलप्रदे ।
हृत्स्थान् पूरय मे कामान् देवि कामेश्वरेश्वरि ॥ इति देवी प्रार्थ्य, नित्यार्चनक्रमेणैव श्रीदेव्याद्याः देवताः चतुराम्नायादिसमयान्तदेवताश्च दमनैः समभ्यर्च्य नित्यहोमत्रिगुणितं होमं कृत्वा मूलमन्त्रं च तथा जत्वा अङ्गमन्त्रांश्च तद्दशांशं श्रीगुरुमभिपूज्य शक्तिसामयिकान् सम्भाव्य तैः सह अन्यैश्च ब्राह्मणैः भुञ्जीत । एतस्य मुख्यकाले कर्तुमसम्भवे चैत्रवैशाखज्येष्ठानां कृष्णाष्टमीकृष्णचतुर्दश्योः वैशाखज्येष्ठयोश्च वा कुर्यात् ॥ इति दमनविधिः ॥
' अवीरक्रयकीतावा आनीय-भ.
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यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः
चैत्रपूर्णिमाकृत्यम् अस्यामेव पूर्णिमायां वसन्तोत्सवोऽपि विहितः । तत्र दमनार्पणवसन्तोत्सवौ तन्त्रेण करिष्ये इति सङ्कल्प्य तत्कालसम्भवानि सकल्हाराणि कर्पूरचन्दनोक्षितानि कुसुमानि पूर्ववत् अधिवास्य तैर्दमनकैश्च युगपदर्चयेत् ॥ इति चैत्रपूर्णिमाकृत्यम् ॥
वैशाखीकृत्यम् अथ वैशाख्यां पूर्णिमायां नैवेद्यावसरे प्राग्वदधिवासितं हेमन्तकाले सङ्गृहीतं तुषारोदकं तदलाभे कर्पूरमृगनाभिसुरभिळं शीतळं सलिलं वा पूर्वोक्तान्यतमेन पक्षेण सावरणायै देवतायै निवेदयेत् । अवशिष्टं प्राग्वत् ॥ इति वैशाखकृत्यम् ॥
ज्येष्ठकृत्यम् अथ ज्येष्ठायां प्राग्वदधिवासितानि कदलीपनसाम्रादीनि फलानि उक्तया रीत्या कयाचित् उक्तमन्त्रैः प्रधानदेव्यादिभ्यो निवेदयेत् । तैः अर्चयेदिति केचित् । अन्यत् समानम् ॥ इति ज्येष्ठकृत्यम् ॥
आषाढकृत्यम् अथाषाढ्यां प्राग्वदधिवासनपूर्वकं श्रीदेव्यै कुङ्कुम मिश्रं चन्दनं समर्प्य जातीकुसुमैः सावरणामभ्यर्च्य ताम्बुलावसरे लवङ्गैलाककोलानि उक्तेन प्रकारेण केनापि निवेदयेत् । शेषं पूर्ववत् ॥ इत्याषाढकृत्यम् ॥
पवित्रारोपणविधिः तदनु श्रावण्यां पूर्णिमायां पवित्रारोपणम् । तानि च सुवर्णरौप्यताम्रान्यतमतन्तुपट्ट'सूत्रसरीपद्मदर्भमुञ्जशाणवल्कलकार्पासान्यतमसूत्रविनिर्मितानि । कार्पाससूत्रं तु सुवासिनीकर्तृकम् । उक्तान्यतमेन नवगुणितेन सूत्रेण निर्मितैः षोडशाङ्गुलायामैः तावत्सङ्ख्याकैः सरैः सम्पन्नं तावत्संङ्ख्याग्रंथिमदेकं पवित्रमित्येकः पक्षः । नवागुलायामसरग्रन्थिकं वेति द्वितीयः । तत्तदावरणगतशक्तिसमसङ्ख्याकाङ्गुलायामसर
। सूत्रत्रिसरी-अ१. सूत्रत्रसरी-बी, ब२, भ.
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नित्योत्सव :
ग्रन्थिकं वेति तृतीयः । आदिमपक्षद्वये पवित्राणि सर्वेषां साधारणानि । अन्तिमे तु पक्षे मूलदेव्याः षोडशनवान्यतराङ्गुलायामसरग्रन्थिकम् महाकामेश्वर्यादीनां तिसृणां त्र्यङ्गुलायामादिकम्, अङ्गदेवीनां षण्णां तत्सङ्ख्याकाङ्गुलायामादिकम्, नित्यानां पञ्चदशानां पञ्चदशाङ्गुलायामादिकम् गुरुपङ्क्तित्रयस्य तत्तदोषसमसङ्ख्यागुलायामादिकम्, आयुधदेवीनां चतुरङ्गुलायामादिकमिति विशेषः । पक्षत्रयेऽपि व्याप्तस्य श्रीगुरोः प्रधानदेवीवत् । जीवतस्तस्य स्वस्य च क्रमागमज्ञशिष्यशक्तिसामयिकानां च कण्ठादिनाभ्यन्तायाममङ्गीकृतपक्षान्यतमसङ्ख्यसरग्रन्थिकं एकग्रन्थिकं वा । क्रमः कालनित्याक्षरक्रमः । आगमः कादिकालीमतादिः । अन्येषां शक्तिसामयिकानां कण्ठादिनाभ्यन्तमानं नवसरमेकग्रन्थिकं च । वितानाद्देवताविष्टायाममष्टोत्तरशतसरग्रन्थिकम् । शक्त्यावतारकं नाम मण्टपस्य तत्परिधिसमप्रमाणमेकसरग्रन्थिकम् । होमाः षोडशनवान्यतराङ्गुलायाममेकसर मेकग्रन्थिकं च पवित्रं कुर्यात् । ग्रन्थिः सूत्रवेष्टनरूपः । वेष्टनसङ्ख्या तूत्तमादिभेदेन षट्त्रिंशच्चतुर्विंशतिद्वादशात्मिका ऐच्छिकी वा । तन्मन्त्रस्तु बाला वा कवचं वा । उक्तपक्षत्रये एकतमस्यैवाश्रयणीयत्वं, मानसांक अनिष्टापादकं सर्वथा नाचरेदिति स्थितिः । इत्थमुपकल्पितानि गोरोचन - कुङ्कुमरक्तचन्दनमृगमदपङ्कालिप्तानि लाक्षागैरिकान्यतरचित्रितग्रन्थिकानि पवित्राणि प्राग्वदधिवास्य श्रावण्यां रात्रौ शक्त्यवतारकं पवित्रं वितानाल्लम्बयित्वा मण्टपं तत्सूत्रेणावेष्ट्य प्रधानदेवीपूजान्ते ज्ञानमुद्रोपात्तैः पुष्पैः समं श्रीदेव्याद्यावरणान्तदेवताभ्यः तत्तत्पादुकया पृथक् पृथक् समर्प्य अग्नये च पुरो निधाय श्रीगुरुशक्तिसामयिकेभ्यः प्रदाय स्वयं धृत्वा शिप्येभ्यो दद्यात् । एतावत्कर्तुमसम्भवे षण्णवत्यङ्गुलायामसरग्रन्थिकानि त्रीणि पवित्राणि कृत्वा श्रीदेव्यै समर्पयेत् । शेषं पूर्ववत् । एतन्मुख्यकालातिक्रमे मिथुनादितुलान्तसङ्क्रान्तिगतासु कृष्णाष्टमीकृष्णचतुर्दशीपूर्णिमासु वा कार्यम् ॥ इति पवित्रारोपणविधिः ॥
१४०
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भाद्रपदकृत्यम्
ततो भाद्रपद्यां पूर्ववदधिवासितेनैकैकेन केतकीपुष्पेणालाभे पत्रेण वा ज्ञानमुद्रा सर्वाः देवता अर्चयेत् । पुष्पं तु निष्कासितकेसरमिति श्रीगुरुमुखागमः । शेषं समानम् ॥ इति भाद्रपदकृत्यम् ॥
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यौवनोल्लासः तृतीयः -श्रीक्रमः
आश्वयुजकृत्यम्
अथाश्वयुज्यां पुष्पविशेषं निवेद्य विशेषकरणकः क्रमः प्रवर्तनीयः । अथवा—
आश्वयुज्यां विशेषस्तु दर्शान्तप्रतिपत्तिथिम् । आरभ्य पूजयेत् देवीं गन्धपुष्पोपहारकैः ॥
१४१
इति तन्त्रराजवचनात् तच्छुक्लप्रतिपदादिपूर्णावधिकः प्रयोगोऽनुष्ठेयः । तत्र प्रतिपद्रात्रौ विशेषतः पुष्पं नैवेद्याद्युपचारैः क्रमं प्रवर्त्य प्रधानदेवतायै शतमाज्याहुतीः आवरणदेवताभ्यः तद्दशांशं हुत्वा जपं होमसमसङ्ख्याकं विधाय अविवाहिताक्षतां प्राङ्निमन्त्रितां कन्यामेकां अभ्यक्तस्नातां आसने उपवेश्य तस्यां देवीं आवाह्य बालया पञ्चधा उपचर्य यथाविभवं वसनाभरणानि दद्यात् । एवं द्वितीयादिचतुर्दश्यन्तं द्विशतादिहोमजपकन्याद्वयादिपूजनानि कृत्वा पूर्णिमायां वृद्ध्या शतेन सह षोडशशतहोमजपषोडशकन्यापूजनानि कुर्यादिति एकः पक्षः । प्रतिपदि प्रकृतिहोमः शतमाहुतयो वृद्धिहोमश्च शतं एवं जपः कन्यके द्वे । द्वितीयादिषु त्रिशतादिहोमजपौ व्यादिकन्यका इत्यपरः । एनयोरेकमाश्रयेत् । तिथिवृद्धौ प्रतिपदादिक्रमेण शतादिहोमादिकम् । तिथिहासे तु तस्मिन्नेव दिने तद्वितयकृत्यं, एकस्मिन्नेव काले होमादिकं च कुर्यात् । अवशिष्टमविशिष्टम् । एवं कृते विद्या सिद्धा भवति । राजा च साधकस्य अर्चको भवति । अथवा–कुलार्णवोक्तनवरात्रपक्षोऽपि एकोत्तरवृद्ध्या वा तदसम्भवे यथोक्तक्रमेणैव वा कर्तव्यः । अयं स्वतन्त्रो न तु पूर्णिमाऽङ्गम् । तत्पक्षे पूर्णिमापूजाऽपि प्रत्येकमुक्तरीत्या कर्तव्येति दिक् ॥ इत्याश्वयुजकृत्यम् ॥
I
कार्तिक कृत्यम्
अथ कार्तिक्यां प्राग्वदधिवासितं कुंकुमं सावरणायै देव्यै समर्प्य गोधूमादिपिष्टप्रकृतिकैः घृतपूरितैः प्रज्वालितकर्पूरवर्तिभिः प्रदीपैः नित्यहोमक्रमेण तत्तद्देवताभ्यो हुत्वा देव्याः पुरः शुचिनि भूतले षोडश दीपान् दत्वा अङ्गदेवीभ्यो नित्याभ्यः ओघत्रयगुरुभ्यः तत्तत्स्थाने निवेश्य तदभितस्त्रिकोणादिचतुरश्रान्ताकृत्या च निधाय प्रतिदेवतमेकैकं दीपं निवेदयेत् । एतावदसम्भवे एकस्मिन्नेव भाजने मध्ये एकं तदभितो नव वा नवयोनिचक्राष्टदल कमलान्यतमालङ्कृते वा तत्र मध्ये एकं कोणेषु
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१४२
. नित्योत्सवः दलेषु वाऽष्टौ दीपान् प्रज्वाल्य देव्यै मूलेन सप्रसूनं निवेदयेत् । शेषमभिहितवत् ।। इति कार्तिककृत्यम् ॥
मार्गशीर्षकृत्यम् अथ मार्गशीर्षपूर्णिमायां सावरणां श्रीदेवीं सुगन्धिभिः कुसुमैरभ्यर्च्य माषपिष्टापूपान् कर्पूरसुरभिलं नारिकेलोदकं च प्रागुक्तान्यतमया भङ्गया सर्वाभ्यो देवताभ्यो निवेदयेत् । अन्यदविशेषम् ॥ इति मार्गशीर्षकृत्यम् ॥
पौषकृत्यम् ततः पौष्यां प्राग्वदधिवासपूर्वकं शर्करया गुडेन वा साकं गव्यं दुग्धं उक्तेन केनचित्प्रकारेण निवेदयेत् । अन्यदविशेषम् ॥ इति पौषकृत्यम् ॥ .
माघकृत्यम् तदनु माध्यां प्राग्वदधिवासितैः शुक्लैस्तिलैः अलाभे रक्तकृष्णैर्वा शुद्धस्सकुसुमैरभ्यर्च्य शर्करादुग्धापूपान् निवेदयेत् । अत्रापूपाः गोधूमादिपिष्टप्रकृतिका इति सम्प्रदायः । इतरत् समानम् ॥ इति माघकृत्यम् ॥
फाल्गुनकृत्यम् अथ फाल्गुन्यां सौवर्णराजतपुष्पैः पङ्कजैः कल्हारैः आम्रकुसुमैः मधूकैश्च यथासम्भवं मिलितैः प्राग्वदधिवासितैः सावरणां श्रीदेवीं वरिवस्येत् ॥ इति फाल्गुनकृत्यम् ॥ ___अयमेव नैमित्तिकार्चनविधिः गणपतिश्यामावार्तालीनां सामान्यक्रमोक्तानां देवतानाम् । सर्वत्रामुकपौर्णिमायां अमुकेन द्रव्यविशेषेण अमुकदेवतां पूजयिष्ये इति सङ्कल्पः ॥
अत्राधिकमासापाते एकमासकृत्यस्य मासद्वय आवृत्तिः । क्षयमासप्रसक्तौ त्वेकस्मिन् मासे मासद्वयकृत्यमपि कार्य भवति । नैमित्तिकार्चनमुख्यगौणकालातिक्रमे मुलविद्यासहस्रजपः प्रायश्चित्तमानातं तन्त्रराजे
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१४३
यौवनोल्लासः तृतीयः-श्रीक्रमः नैमित्तिकातिक्रमणे सहस्रं प्रजपेत्तथेति ॥ इति ॥ इति पञ्चपर्वार्चनविधिः ॥
तन्त्रान्तरोक्तेषु युगमन्वादिषु विशेषदिवसेष्वपि श्रीदेव्यर्चनं अभ्युदयायैव । सूत्रकारेण काम्यहोमस्यैवोक्तत्वात् तत्पूजाऽनुक्तिरिति शिवम् ॥ इति यौवनोल्लासे नैमित्तिकप्रकरणम् ॥
यथामति मयाऽकारि स्वयं श्रीक्रमपद्धतिः । भ्रमं प्रमादस्खलितं क्षमयन्त्विह साधवः ॥ इति श्रीमद्भासुरानन्दनाथचरणारविन्दमिलिन्दायमानमानसेन उमानन्दनाथेन
विरचिते कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवनिबन्धे
अभिनवे यौवनोल्लासः तृतीयः सम्पूर्णः
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः
उपोद्धातः नत्वा श्रीभासुरानन्दनाथपादाम्बुजद्वयम् । 'प्रधीरुमानन्दनाथः प्रौढोल्लासं तनोत्यमुम् ॥ यत्र श्रीमन्महाराज्ञीमन्त्रिण्याः क्रम ईरितः । प्रधानानुसृतिद्वारा न्याय्यं हि नृपसेवनम् ॥ त्रितार्या बालया चेह बालया वाऽऽदितोऽन्विताः । मन्त्राः क्रमजुषो दीक्षा त्वारम्भोल्लास ईरिता ॥
काल्यकृत्यं आह्निकं च श्रीमान् साधकः श्यामलां देवीं आरिराधयिषुः श्रीक्रमोक्तक्रमेण काल्यकृत्याह्निके निवर्तयेत् । अत्र विशेषः-श्रीगुरुपादुकायामादौ त्रितारीस्थाने बालायोगः । सर्वकारणभूतायाः संविदश्चिन्तनं मूलाधारादिद्वादशान्ताख्यललाटो_भागावधिकमेव । रश्मिस्रगननुस्मरणम् । तत्र तत्र यथोचितं सम्बुद्धयादीनामूहः। आदित्यमण्डले वक्ष्यमाणया भङ्गया सङ्गीतयोगिन्या भावनम् । मूलेन अर्घ्यदानम् । वक्ष्यमाणमृष्यादिन्यासत्रयं चेति । इदं चाह्नित स्वतन्त्रोपास्तौ पुरश्चरणकाले च, न तु श्रीक्रमाङ्गत्वेन सहानुष्ठाने ॥
यागमन्दिरप्रवेशः अथापराओं यागमन्दिरमागत्य द्वारस्थण्डिलं गोमयेनोपलिप्य यागगृहं च रङ्गवल्लीपुष्पमालावितानकादिभिश्चालङ्कृत्य द्वारस्य दक्षवामशाखयोः ऊर्ध्वभागे च क्रमेण
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः
१४५ ऐं क्लीं सौः भद्रकाल्यै नमः, ३ भैरवाय. ३ लम्बोदराय नमः ॥ इति तिस्रो द्वारदेवताः सम्पूज्य अन्तः प्रविष्टः ३ रक्तद्वादशशक्तियुक्ताय दीपनाथाय नमः इति पुप्पाञ्जलिना भूमौ दीपनाथमिष्ट्वा सपर्यासामग्री स्वस्य दक्षमागे निधाय दीपानभितः प्रज्वाल्य गन्धमाल्यादिभिः अलङ्कृतात्मा ताम्बूलेन जातीपत्रफललवङ्गैलाकर्पूराख्यपञ्चतिक्तेन वा सुरभिलवदनः सुप्रसन्नमनाः स्वास्तीर्णे ऊर्णामृदुनि शुचिनि बालातृतीयबीजेन द्वादशवारमभिमन्त्रिते मूलमन्त्रोक्षिते आसने ३ आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मासनाद्यन्यतमेन आसनेनोपविश्य ३ समस्तगुप्तप्रकटसिद्धयोगिनीचक्रदेवताश्रीपादुकाभ्यो नमः इति मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिः म्ववामदक्षपार्श्वयोः क्रमेण गुरुपादुकया श्रीगुरुं महागणपतिमन्त्रेण च गणपतिं प्रणम्य ३ ऐं ह्रः अस्त्राय फट् इति मन्त्रेण मुहुरावृत्तेन अङ्गुष्ठादिकरतलान्तं कूर्परयोश्च विन्यस्य देहे च व्यापकं कृत्वा स्वस्य देवतैक्यं भावयन्में क्लीं सौः अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ इति मन्त्रं सकृदुच्चार्य युगपद्वामपाणिभूतलत्रिराघातकरास्फोटत्रयकरदृष्टयवलोकनपूर्वकं तालत्रयेण भौमान्तरिक्षदिव्यान् भेदावभासकान् विघ्नानुत्सारयेत् । तालत्रयं नाम दक्षतर्जनीमध्यमाभ्यामधोमुखाभ्यां वामकरतले सशब्दमुपर्युपरि त्रिरमिघातः ॥
प्राणायामः अथ ३ नम इत्यङ्गुष्ठमन्त्रमुच्चार्य अंकुशेन शिखां बद्धा श्रीक्रमोक्तप्रकारेण भूतशुद्धिं आत्मप्राणप्रतिष्ठां च विधाय मूलेन विंशतिधा षोडशधा दशधा सप्तधा त्रिधा वा प्राणानायम्य ॥
षडंगादिन्यासपञ्चकम् नेजोरूपदेवीमयं भावयन्नात्मानं निजदेहे न्यासजालात्मकं वज्रकवचं आमुश्चेत् ।
यथा--
___ही श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं सर्वजनमनोहरि हृदयाय नमः ॥
७ सर्वमुखरञ्जिनि शिरमे म्वाहा ॥
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१४६
७
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इति मन्त्रान् हृदयादिषु न्यसेत् इति षडङ्गन्यासः ॥ १ ॥ अथ श्री मोक्तमातृकान्यासं कृत्वा ॥ २ ॥
ऐं क्लीं सौः रत्यै नमः इति मूलाधारे, ३ प्रीत्यै नमः इति हृदये, ३ मनोभवाय नमः इति मुखे न्यसेत् ॥ इति रत्यादिन्यासः || ३ ||
नित्योत्सवः
क्लीं ह्रीं श्रीं सर्वराजवशङ्करि शिखायै वषट् ॥ सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि कवचाय हुम् ॥ सर्वदुष्टमृगवशङ्करि नेत्रत्रयाय वौषट् ॥
सर्वसत्ववशङ्करि सर्वलोकवशङ्करि अमुकं मे वशमानय स्वाहा
अस्त्राय फट् ॥
ऐं क्लीं सौः ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः नमः । ब्रह्मरन्ध्रे ॥
३.
ॐ नमो नमः । ललाटे ॥
३
३
३
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भगवति नमः । भ्रूमध्ये ॥
श्रीमातङ्गीश्वरि नमः । दक्षनेत्रे ॥
३
३
३
३
३
३
सर्वराजवशङ्कर नमः । दक्षांसे ||
३
सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि नमः | वामांसे ॥
३ सर्वदुष्टमृगवशङ्करि नमः । हृदये ॥
३
सर्वसत्ववशङ्करि नमः । दक्षस्तने ॥ सर्वलोकवशङ्करि नमः । वामस्तने ॥
सर्वजनमनोहरि नमः । वामनेत्रे ॥ सर्वमुखरञ्जिन नमः । मुखे ॥ नमः । क्षोत्रे ॥
ह्रीं नमः । वामश्रोत्रे ॥
श्रीं नमः । कण्ठे ॥
अमुकं मे वशमानय नमः । नाभौ ॥
स्वाहा नमः | स्वाधिष्ठाने ||
सौः क्लीं ऐं श्रीं ह्रीं ऐं नमः । मूलाधारे च न्यसेत् ॥
३
इति मूलखण्डसप्तदशकन्यासः ॥ ४ ॥
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प्रौढोल्लासः चतुर्थ: - श्यामाक्रमः
एतानेव प्रतिलोममूलमन्त्रखण्डान् मूलाधारस्वाधिष्ठाननाभिवामस्तनदक्षस्तनहृदयवामदक्षांसकण्ठवामदक्षश्रोत्रमुखवामदक्षनेत्रभ्रूमध्यललाटब्रह्मरन्ध्रेषु क्रमात् न्यसेत् ।
यथा
ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं ऐं श्रीं ह्रीं ऐं नमः । मूलाधारे || स्वाहा नमः । स्वाधिष्ठाने |
३
अमुकं मे वशमानय नमः । नाभौ ॥ सर्वलोकवशङ्करि नमः । वामस्तने ॥ ३ सर्वसत्ववशङ्करि नमः । दक्षस्तने ॥ ३ सर्वदुष्टमृगवशङ्करि नमः । हृदये || सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि नमः | वामांस || सर्वराजवशङ्करि नमः । दक्षांस || श्रीं नमः । कण्ठे ॥
नमः । वामश्रोत्रे ॥
क्लीं नमः । दक्षश्रोत्रे ॥
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३
३
३
३
३
३
सर्वमुखरञ्जिनि नमः । मुखे ॥ सर्वजनमनोहरि नमः । वामनेत्रे ॥ श्रीमातङ्गीश्वरि नमः । दक्षनेत्रे || भगवति नमः । भ्रूमध्ये || ॐ नमो नमः । ललाटे ॥
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः नमः । ब्रह्मरन्ध्रे ||
इति प्रतिलोममूलमन्त्रखण्डन्यासः ॥ ५ ॥
मन्दिरार्चनम्
૧૪
अथामृताम्भोनिधिमध्यस्थमणिद्वीपमध्यगते कदम्बोद्याने मुक्ताकुसुममालिकाहरितपट्टवितानास्तरणवन्दनमालिकाद्यलङ्कृतं धूपधूपितं प्रज्वलप्रदीपपरंपरं चतुर्द्वारं मरकतमण्टपं विचिन्त्य तस्य प्रागादिषु द्वारेषु -
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૧૪૮
नित्योत्सवः
ऐं क्लीं सौः सां सरस्वत्यै नमः, लां लक्ष्म्यै, शं शङ्खनिधये, पं पद्मनिधये नमः ॥
इति सम्पूज्य --
ऐं क्लीं सौः लां इन्द्राय वज्रहस्ताय सुराधिपतये
३
३
३
३
३
३
ऐरावतवाहनाय सपरिवाराय नमः । पूर्वे ॥
३
रां अमय शक्तिहस्ताय तेजोऽधिपतये अजवाहनाय सपरिवाराय नमः | आग्नेये || 'ai यमाय दण्डहस्ताय प्रेताधिपतये
इति प्रागादिषु अष्टासु दिक्षु शक्रादीनभ्यर्च्य,
1 यं-ब२, ब३.
महिषवाहनाय सपरिवाराय नमः । दक्षिणे || क्षां ऋत खड्गहस्ताय रक्षोऽधिपतये नरवाहनाय सपरिवाराय नमः । नैर्ऋतं ॥ वां वरुणाय पाशहस्ताय जलाधिपतये
ऐं क्लीं सौः ॐ ब्रह्मणे पद्महस्ताय लोकाधिपतये हंसवाहनाय सपरिवाराय नमः । इति इन्द्रेशानयोः मध्ये ॥
मकरवाहनाय सपरिवाराय नमः | पश्चिमे || यां वायवे ध्वजहस्ताय प्राणाधिपतये रुरुवाहनाय सपरिवाराय नमः । वायव्ये || सां सोमाय शङ्खहस्ताय नक्षत्राधिपतये अश्ववाहनाय सपरिवाराय नमः | उत्तरे || हां ईशानाय त्रिशूलहस्ताय विद्याधिपतये वृषभवाहनाय सपरिवाराय नमः । ऐशान्ये ॥
श्री विष्णवे चक्रहस्ताय नागाधिपतये गरुडवाहनाय सपरिवाराय नमः । इति निर्ऋतिवरुणयोः दिगन्तरे ॥
ॐ वास्तुपतये ब्रह्मणे नमः । इति वास्तुनि चार्चयेत् ॥
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प्रौढोल्लास : चतुर्थ:- श्यामाक्रमः
यत्रोद्धारः
अथ चन्दनपङ्कप्रकृतिके मण्डल क्षीरमिश्रितेन सिन्दूरादिना बिन्दुत्रिकोणपञ्चकोणाष्टदलषोडशदलाष्टपत्रचतुष्पत्रचतुरश्रात्मकं चक्रं विलिख्य विलेख्य वा सुवर्णरजतताम्रस्फटिकमरकतरत्नाद्युत्कीर्ण वा तत्समास्तीर्णपट्टवसने श्रीखण्डरक्तचन्दनादिनिर्मिते पीठे निवेश्य यन्त्रप्राणप्रतिष्ठां कुर्यात् । यथा
ऐं क्लीं सौः श्यामायन्त्रस्य प्राणा इह प्राणाः,
३ श्यामायन्त्रस्य जीव इह स्थितः,
३
श्यामायन्त्रस्य सर्वेन्द्रियाणि,
श्यामायन्त्रस्य वाङ्मनः प्राणाः इहायान्तु स्वाहा ॥
૧૪૧
इति मन्त्रेण लिखितयन्त्रप्राणप्रतिष्ठां विदध्यात् । सुवर्णादिकृतस्य यन्त्रस्य तु प्राणप्रतिष्ठा श्रीक्रमोक्ता अत्राप्यनुसन्धेया । अत्र देवतानामाद्यूहस्त्वावश्यक एव । एवं देवताऽन्तरक्रमेष्वपि । ततो मूलेन चक्रे पुष्पाञ्जलिं विकीर्य ॥
1
अर्घ्यशोधनम्
श्रीक्रमोक्तक्रमेण सामान्यविशेषा आसादयेत् । अत्र चोभयोरप्यर्घ्ययोः प्रवेशरीत्या अन्तरन्तश्चतुरश्रादिबिन्द्वन्तमण्डलकरणम् ॥
ऐं क्लीं सौः अं आत्मतत्त्वाय आधारशक्तये वौषट् इत्याधारस्थापनम् ॥ उं विद्यातत्त्वाय पद्मासनाय वौषट् इति पात्रनिधानम् ॥ ३ मं शिवतत्त्वाय सोममण्डलाय नमः इति शुद्धजलापूरणमेकत्र ॥
३
ब्रह्माण्डखण्डसम्भूतमशेषरससम्भृतम् । आपूरितं महापात्रे पीयूषरसमवह ||
इति क्षीरपूरणमन्यत्र । उक्तं षडङ्ग, मूलेन दशधा अभिमन्त्रणम्, चतुर्णवतिमन्त्राभिमन्त्रणाभावश्च विशेषः । ततो विशेषार्ध्यविन्दुभिः सम्प्रोक्ष्य वरिवस्यावस्तूनि ॥
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१५०
नित्योत्सव:
चक्रदेवीपूजा
ऐं क्लीं सौः आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति पीठं पुष्पैरभ्यर्च्य बिन्दुमध्ये ३ श्रीमातङ्गीश्वरीमूर्तये नमः इति देव्या मूर्ति भावयित्वा, हृदि वक्ष्यमाणरूपां देवीं सञ्चित्य ३ श्रीमातङ्गीश्वर्यै लं पृथिव्यात्मकं गन्धं कल्पयामि नम इत्यादिताम्बूलान्तं मानसोपचारैरभ्यर्च्य, तां तेजोरूपेण परिणतां ब्रह्मरन्धं प्रापय्य वहन्नासापुटद्वारा कृतविनिर्गमां कुसुमगर्भिते अञ्जलौ सन्निहितां देवीं ३ श्रीमातङ्गीश्वरि अमृतचैतन्यमावाहयामीति चक्रे भावितायां मूर्त्या आवाह्य मूलान्ते श्रीमातङ्गीश्वरि आवाहिता भव इत्यादिरीत्या आवाहन - संस्थापन -संनिधापन- संनिरोधन-संमुखीकरणावकुण्ठनानि तत्तन्मुद्राप्रदर्शनपूर्वकं विधाय, वन्दनधेनुयोनिमुद्राश्च प्रदर्शयेत् । तत्प्रकारश्च श्रीक्रमतो ज्ञातव्यः । ततः ऐं क्लीं सौः श्रीमातङ्गीश्वर्यै पाद्यं कल्पयामि नम इत्यादिभङ्गया पाद्यार्थ्याचमनीयस्नानवासोगन्धपुष्पधूपदीपनीराजनछत्र चामरयुगलदर्पणनैवेद्यपानीयता - म्बूलान्तान् षोडशोपचारान् परिकल्पयेत् । नैवेद्याङ्गत्वेन पूर्वोत्तरापोशनकरप्रक्षालनगण्डूषाचमनीयानि च दत्वा ताम्बूलं समर्पयेत् । नैवेद्ये त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलकरणम् । मूलमन्त्रेण प्रोक्षणम् । वमित्यमृतबीजेनाभिमन्त्रणपूर्व धेनुमुद्रया अमृतीकरणम् । मूलेन सप्तवारमभिमन्त्रणं प्राणादिमुद्राप्रदर्शनं च कार्यम् । अथ मूलमन्त्रान्ते श्रीमातङ्गीश्वरीश्रीपादुकां पूजयामीति वामकरतत्त्वमुद्रासन्दष्टद्वितीयशकलगृहीतक्षीरबिन्दुसहसमर्पितैः दक्षकरोपात्तैः कुसुमैः देवीं त्रिस्सन्तर्प्य देव्या अग्नीशासुरवायव्यभागेषु मौलौ प्रागादिदिक्षु च प्रागुक्तषडङ्गमन्त्रान्ते क्रमेण
ऐं क्लीं सौः
३
ः हृदयाय नमः हृदयशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ ३ शिरसे स्वाहा शिरःशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || शिखायै वषट् शिखाशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ कवचाय हुं कवचशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ नेत्रत्रयाय वौषट् नेत्रशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || अस्त्राय फट् अस्त्रशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयापि नमः || इति लयाङ्गत्वेन अङ्गदेवता आराध्य ||
३
३
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः
गुर्वोपत्रयपूजा देव्याः पश्चात् प्रागपवर्गरेखात्रये दक्षिणसंस्थाक्रमेण गुर्वोत्रयं वरिवस्येत् । यथा---
दिव्यौघः ऐं क्लीं सौः परप्रकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, परमेशानन्द, परशिवानन्द, कामेश्वर्यम्बाश्रीपादुकां. मोक्षानन्द, कामानन्द, अमृतानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति दिव्यौघः ॥
ऐं क्लीं सौः ईशानानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, तत्पुरुषानन्द, अघोरानन्द, वामदेवानन्द, सद्योजातानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति सिद्धौघः ॥
ऐं क्लीं सौः पञ्चोत्तरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, परमानन्द, सर्वज्ञानन्द, सर्वानन्द, सिद्धानन्द, गोविन्दानन्द, शङ्करानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति मानवौधः ॥
आवरणार्चनम् त्र्य) देव्यग्रकोणादिप्रादक्षिण्यक्रमेण
ऐं क्लीं सौः रतिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, प्रीति, मनोभव. श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति प्रथमावरणम् ॥ पञ्चारस्याराणां मूलेषु प्राम्वत्-.
ऐं क्लीं सौः द्रां द्रावण बाणश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, द्रीं शोषणबाण, क्लीं बन्धनबाण. ब्लू मोहनबाण, सः उन्मादनबाणश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ । बाणाय श्री इत्यत्र सर्वपर्यायेषु-अ, बर, ब३, भ. ही-भ. श्रीं-अ.
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१५२
नित्योत्सवः
पञ्चारस्याराणामग्रेषु च
ऐं क्लीं सौः ह्रीं कामराजश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, क्लीं मन्मथ, ऐं कन्दर्प, ब्लू मकरकेतन, स्त्री मनोभवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति द्वितीयावरणम् ॥ अष्टदलस्य दलानां मूलेषु पूर्ववत्
क्लीं सौः आं ब्राह्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ई माहेश्वरी, ऊं कौमारी, ऋ वैष्णवी, लूं वाराही, ऐं माहेन्द्री, औं चामुण्डा, अः चण्डिकाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ अष्टदलस्य दलानां अग्रेषु च
ऐं क्लीं सौः लक्ष्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सरस्वती, रति, प्रीति, कीर्ति, शान्ति, पुष्टि, तुष्टिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति तृतीयावरणम् ॥
षोडशदले प्राग्वत्___ऐं क्लीं सौः वामाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ज्येष्ठा, रौद्री, शान्ति, श्रद्धा, सरस्वती, क्रियाशक्ति, लक्ष्मी, सृष्टि, मोहिनी, प्रमथिनी, आश्वासिनी, वीचि, विद्युन्मालिनी, सुरानन्दा, नागबुद्धिकाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति चतुर्थावरणम् ॥ द्वितीयाष्टदले प्राग्वत्
क्लीं सौः अं असिताङ्गभैरवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, इं रुरु, उं चण्ड, क्रं क्रोध, लं उन्मत्त, एं 'कपालि, ओं भीषण. अं संहारभैरवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति पञ्चमावरणम् ॥ चतुर्दले प्राग्वत--
ऐं क्लीं सौः मातङ्गीश्वरीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सिद्धलक्ष्मी, महामातङ्गी, महासिद्धलक्ष्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति षष्ठावरणम् ॥ 1 कपाल-अ.
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प्रौढोलास: चतुर्थ:: -- श्यामाक्रमः
१५३
चतुरश्रस्यान्तराग्नेयादिकोणेषु क्रमेण
ऐं क्लीं सौः गं गणपतिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, दुं दुर्गा, वं बटुक. क्षं क्षेत्रपाल श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ||
देव्यादिद्वारेषु प्रागाद्यास्वेकादशसु दिक्षु -
ऐं क्लीं सौः सां सरस्वत्यै नमः इत्यादि ऐं वास्तुपतये ब्रह्मणे नमः इत्यन्तैः मन्त्रैः प्रागुक्तैः वास्तुपतिपर्यन्तदेवताः समभ्यर्च्य, पूर्व रेखायां च - ऐं क्लीं सौः हंसमूर्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, परप्रकाश, पूर्ण, नित्य, करुणश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति सम्प्रदायगुरूंश्च पूजयेत् ॥ इति सप्तमावरणम् ॥
सर्वा अप्यावरणदेवताः देव्या अभिमुखासीनाः स्वयं तत्तदभिमुखः पूजयामीति भावयेत् ॥
गुरुपादुकापूजा
अथ स्वशिरसि ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं ग्लौं ह ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व र यीं ह्सौं स्हौः श्रीशिवादिगुरु श्रीपादुकाः पूजयामीति सामान्यपादुकया शिवादिगुरून्, ऐं क्लीं सौः हस्ख्फें ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व र यीं ह्सौं स्हौः अमुकाम्बासहितामुकानन्दनाथश्रीगुरुश्रीपादुकां पूजयामीति च स्वगुरुमभ्यर्च्य ॥
देव्याः पुनः पूजा
पुनर्देवीं त्रिः सन्तर्प्य प्राग्वत् षोडशधा चोपचरेत् ॥
बलिदानम्
ततः श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण होमं कृत्वा कारयित्वा वा (अकृत्वा वा इति पाठान्तरम्) शुद्धजलेन त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलत्रयं विधाय ऐं व्यापकमण्डलाय नम इति पुष्पैः समभ्यर्च्य अर्धान्नसलिलपूर्ण सक्षीरोपादिममध्यमं सगन्धकुसुमं साधारं पात्रं निधाय ऐं क्लीं सौः श्रीमातङ्गीश्वरि इमं बलिं गृह्ण गृह्ण हुं फट् स्वाहा, ऐं क्लीं
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नित्योत्सवः
सौः श्रीमातङ्गीश्वरि शरणागतं मां त्राहि त्राहि हुं फट् स्वाहा, ऐं क्लीं सौः क्षेत्रपालनाथ इमं बलिं गृह्ण गृह्ण हुं फट् स्वाहा, -- इति मन्त्रान् क्रमेण पठन् देव्या दक्षिणभागे बलित्रयं प्रदाय तत्त्वमुद्रास्पृष्टं क्षीरं बल्युपरि निषिच्य, वामपाणिघात - करास्फोटान् कुर्वाणः समुदञ्चितवक्त्रो नाराचमुद्रया बलिं भूतैः ग्राहयित्वा, पाणी प्रक्षाल्य देव्यै प्रदक्षिणनती: विधाय पुष्पाञ्जलिं समर्प्य जपेत् ॥
मातङ्गीश्वरीमन्त्रजप:
यथा -अस्य श्रीमातङ्गीश्वरीमहामन्त्रस्य दक्षिणामूर्नृषये नमः --- शिरसि । गायत्रीछन्दसे नमः - -मुखे । श्रीमातङ्गीश्वरीदेवतायै नमः - हृदये । ऐं बीजाय नमः - गुह्ये । सौः शक्तये नमः - पादयोः । क्लीं कीलकाय नमः - - नाभौ । मम अभीष्टसिद्धये विनियोगाय नमः -- - इति करसम्पुटे न्यस्य मूलेन त्रिर्व्यापकं कृत्वा न्यासोक्तैरङ्गमन्त्रैः कराङ्गन्यासौ कृत्वा ध्यानम्—
1
मातङ्ग भूषिताङ्ग मधुमदमुदितां नीपमालाढ्यवेण
सद्रीणां शोणचेलां मृगमदतिलकामिन्दुरेखाऽवतंसाम् । कर्णोद्यच्छङ्खपत्रां स्मितमधुरदृशा साधकस्येष्टदात्रीं ध्यायेद्देवीं शुकाभां शुकमखिलकलारूपमस्याश्च पार्श्वे ॥
इति ध्यात्वा मनसा पञ्चधोपचर्य पुरश्चरणे वक्ष्यमाणपूर्वोत्तराङ्गमन्त्रसहितं मूलं श्रीक्रमोक्तेन विधिना यथाशक्ति जप्त्वा पुनः न्यासादि विधाय
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ॥
इति देव्या वामहस्ते सामान्यार्घ्यसलिलेन जपं समर्प्यस्तुवीत ॥
मातङ्गीस्तुति:
यथा
-
मातङ्ग मातरीशे मधुमदमथनाराधिते महामाये । मोहिनि मोहप्रमथिनि मन्मथमथनप्रिये नमस्तेऽस्तु ॥
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प्रौढोल्लास : चतुर्थ:
स्तुतिषु तव देवि विधिरपि पिहितमतिर्भवति विहितमतिः । तदपि तु भक्तिर्मामपि भवतीं स्तोतुं विलोभयति ॥ यतिजनहृदयनिवासे वासववरदे वराङ्गि मातङ्गि । वीणावादविनोदिनि नारदगीते नमो देवि ॥ देवि प्रसीद सुन्दरि पीनस्तनि कम्बुकण्ठि घनकेशि । मातङ्गि विद्रुमोष्ठि स्मितमुग्धाक्ष्यम्ब मौक्तिकाभरणे ॥ भरणे त्रिविष्टपस्य प्रभवसि तत एव भैरवी त्वमसि । त्वद्भक्तिलब्धविभवो भवति क्षुद्रोऽपि भुवनपतिः ॥ पतितः कृपणो मूकोऽप्यम्ब भवत्याः प्रसादले शेन । पूज्यः सुभगो वाग्मी भवति जडश्चापि सर्वज्ञः || ज्ञानात्मके जगन्मय निरञ्जने नित्यशुद्धपदे । निर्वाणरूपिणि शिवे त्रिपुरे शरणं प्रपन्नस्त्वाम् || त्वां मनसि क्षणमपि यो ध्यायति मुक्तामणीवृतां श्यामाम् । तस्य जगत्त्रितयेऽस्मिन् कास्ता ननु याः स्त्रियोऽसाध्याः || साध्याक्षरेण गर्भितपञ्चनवत्यक्षराञ्चिते मातः । भगवति मातङ्गीश्वरि नमोऽस्तु तुभ्यं महादेवि ॥ विद्याधरसुर किन्नरगुबकगन्धर्वयक्षसिद्धबरैः । आराधिते नमस्ते प्रसीद कृपयैव मातङ्ग || वीणावादनवेळानर्तदलाबुस्थगितवामकुचम् । श्यामलकोमलगात्रं पाटलनयनं स्मरामि महः ॥ अवटुतटघटित चूलीताडिततालीपलाशताटङ्काम् । वीणावादनवेळाकम्पितशिरसं नमामि मातङ्गीम् ॥ माता मरकतश्यामा मातङ्गी मदशालिनी । कटाक्षयतु कल्याणी कदम्बवनवासिनी ॥ वामे विस्तृतिशालिनि स्तनतटे विन्यस्तवीणामुखं
तन्वीं तारविराविणीमसकलैरास्फालयन्ती नखैः ।
:--श्यामाकमः
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नित्योत्सवः अधोन्मीलदपाङ्गमंसवलितग्रीवं मुखं बिभ्रती
माया काचन मोहिनी विजयते मातङ्गकन्यामयी ॥ वीणावाद्यविनोद'गीतनिरतां लीलाशुकोल्लासिनी
बिम्बोष्ठी नवयावकार्द्रचरणामाकीर्णकेशाळिकाम् । हृयाङ्गी सितशङ्खकुण्डलधरां शृङ्गारवेषोज्वलां
मातङ्गी प्रणतोऽस्मि सुस्मितमुखीं देवीं शुकश्यामलाम् ॥ स्रस्तं केसरदामभिः वलयितं धम्मिल्लमाबिभ्रती
तालीपत्रपुटान्तरेषु घटितैस्ताटकिनी मौक्तिकैः । मूले कल्पतरोर्महामणिमये सिंहासने मोहिनी
काचित् गायनदेवता विजयते वीणावती वासना ॥ वेणीमूलविराजितेन्दुशकलां वीणानिनादप्रियां
क्षोणीपालसुरेन्द्रपन्नगवरैराराधिताङ्घिद्वयाम् । एणीचञ्चललोचनां सुवसनां वाणी पुराणोज्वलां
श्रोणीभारभरालसामनिमिषां [षः] पश्यामि विश्वेश्वरीम् ॥ मातङ्गीस्तुतिरियमन्वहं प्रजप्ता
जन्तूनां वितरति कौशलं क्रियासु । वाग्मित्वं श्रियमधिकां च गानशक्तिं
सौभाग्यं नृपतिभिरर्चनीयतां च ॥ इति मन्त्रकोशे तृतीयपटलीयो मातङ्गीस्तवः सम्पूर्णः ॥
सुवासिनीपूजाऽऽदि शेषकृत्यम् अथ श्यामलां शक्तिमाहूय श्रीक्रमोक्तक्रमेण पञ्चमवर्ज तामुपचर्य तच्छेषमुररीकृत्य हविःप्रतिपत्त्यादिक्रमशेष समापयेत् । हविःप्रतिपत्तौ मूलेन सर्वेण तत्त्वत्रयशोधनं विशेषः ॥ 'नैकनि–श्री.
' वलिम्--श्री.
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः
श्यामोपासकनियमाः एतदुपासकस्यावश्यानुष्ठेयाः नियमाः यथा
कदम्बतरुं न छिन्द्यात् । वाचा 'कालीति पदं नोच्चारयेत् । वीणावेणुवादननर्तनगाधागोष्ठीषु प्रवर्तमानासु पराङ्मुखो न भवेत् । गायकान् न निन्द्यात् इति ॥
पुरश्चरणसंकल्पः एवं नित्यसपर्यो निर्वर्तयन् पुरश्चरणमाचरेत् । तच्च जपहोमतर्पणब्राह्मणभोजनाख्याङ्गचतुष्टयसमष्टिरूपम् । तत्प्रकारस्तु-दीक्षाप्रकरणोक्तकाले श्रीगुर्वनुज्ञातो ब्राह्मणैः स्वस्ति वाचयित्वा आचम्य प्राणानायम्य अमुकशर्मवर्मादिरहं श्यामामन्त्रसिद्धिकामो लक्षसङ्ख्याकं जपं, प्रकृते कलियुगत्वात् तच्चतुर्गुणितं, तद्दशांशहवन-तद्दशांशतर्पणतद्दशांशब्राह्मण भोजनानि च करिष्य इति सङ्कल्पयेत् । एवं तत्तन्मन्त्रेषु तत्र तत्र प्रोक्तजप सङ्ख्याऽऽदिसङ्कल्पो ज्ञेयः ॥
मत्रजपः
अथ सति सम्भवे तन्त्रान्तरदृष्टेन विधिना ग्रामात् बहिः क्रोशे नगराच्च क्रोशद्वये क्षेत्रं परिगृह्णीयात् । अथवा समुद्रमहानदीतीरयोः पश्चिमाभिमुखवृषशून्यशिवायतनयोः विष्णुगृहपुण्यक्षेत्रतीर्थारण्यपर्वतशिखराश्वत्थबिल्वमूलविविक्तनिजगृहगोष्ठानां श्रीगुरुस्वेष्टदेवतासन्निध्योश्चान्यतमं देशमासाद्य दीपस्थानविन्यस्ते व्याघ्रचर्ममृगाजिनचित्रकम्बलकुशकटरक्तपटपट्टवसनोर्णावस्त्राद्यन्यतमे आसने उपविश्य विनानुत्सार्य प्राणानायम्य सङ्कल्प्य वक्ष्यमाणलक्षणया अक्षमालया वक्ष्यमाणसंस्कारया रुद्राक्षाद्यन्यतमया वा मालया पूर्वाङ्गमन्त्रपूर्वकं प्रत्यहं सहस्रसङ्ख्याकं मूलमन्त्र तद्दशांशान् उत्तराङ्गमन्त्रांश्च जप्त्वा पुनासादिकं कृत्वा । पूर्वाङ्गमन्त्रो यथा
1 कमलिनीपदं-भ.
भोजनतद्दशांशमार्जनानि च करिष्ये इति संकल्पयेत् । अपसंख्या १०००.., तद्दशांशहोमसंख्या १००००, तद्दशांशतर्पणसंख्या १०००, तद्दशांशब्राह्मणभोजनसंख्या १००, तइशांशमार्जनसंख्या १०॥ एवं-बर.
३ संख्यऽऽदिकल्पो-अ१.
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नित्योत्सवः
हसन्ति हसितालापे मातङ्गिपरिचारिके । मम भयविघ्ननाशं कुरु कुरु ठः ठः ठः हुं फट् स्वाहा ॥ इति ॥
मूलमन्त्रश्च-न्यासोक्तसप्तदशखण्डसमष्टिरूपः ॥
उत्तराङ्गमन्त्रास्तु--ऐं नमः उच्छिष्टचाण्डालि मातङ्गि (हुं फट् स्वाहा इति पाठान्तरम्) सर्ववशङ्करि स्वाहा-इति श्यामाझं लघुश्यामा ॥
ऐं क्लीं सौः वद वद वाग्वादिनि स्वाहा—इति तदुपाङ्गं वाग्वादिनी ॥ ॐ ओष्ठापिधाना नकुली दन्तैः परिवृता पविः ।
सर्वस्यै वाच ईशाना चारु मामिह वादयेत् ॥ इति तत्प्रत्यङ्गं नकुली ॥
जपकाल: अयं च जपो अपराह्ने कर्तव्यः, अपराह्ने श्यामेति सूत्रेण अपराहस्य पूजाकालत्वविधानात् । अन्ये त्वामध्यन्दिनमेव । देशोपप्लवादिसम्भावनायामासायाहमपीति स्थितिः ॥
स्त्रीशूद्रयोः प्रणवप्रत्यायः द्विजातीनां जपाद्यन्तयोः प्रणवोच्चारः । स्त्रीशूद्रयोस्तु सबिन्दुकचतुर्दशस्वर उच्चार्यः ॥
पुरश्चरणांगहोमः एवं जपोत्तरं तस्मिन्नेवाहनि श्रीक्रमोक्तेन विधिना कुण्डस्थण्डिलान्यतरप्रतिष्ठापितेऽनौ देव्या उपचारान्ते सर्वासामावरणदेवतानां एकैकाहुतिं तत्तन्मन्त्रैः प्रधानदेवतायाः दशाहुतीश्च स्वाहाऽन्तमूलेन उद्देशत्यागपूर्वकं एकैकेन त्रिमध्वक्तेन पलाशकुसुमेन हुत्वा अथ जपदशांशं च हुत्वा होमशेषं समापयेत् ।
मन्त्रान्ते या वहिजाया सा तु मन्त्रस्वरूपिणी ।
तदन्तेऽन्यां प्रयुञ्जीत सा होमानतया मता ॥ इति शक्तिसङ्गमतन्त्रवचनात् स्वाहाऽङ्गमन्त्रेष्वपि पुनः स्वाहाप्रयोगः कार्यः ।
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प्रौढोल्लासः चतुर्थ::- श्यामाक्रमः
इदं च द्रव्यं इह इन्द्रियकामाग्निहोत्राङ्गदधिवन्नित्यं काम्यं च, संयोगपृथक्त्वात् । तिलैः शान्त्या इत्यादिविधीनामन्यतः सिद्धहोमाश्रयेण, गोदोहनस्य तादृशप्रणयनाश्रयेणेव, फलायगुणविधिरूपत्वात्, सत्यां कामनायां अयमेव होमो द्रव्यान्तरैरपि वक्ष्यमाणैः कार्यः काम्यस्य नित्यबाधकत्वात् ॥
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पुरश्चरणांगं तर्पणम्
ततो नद्यादौ चतुरश्रमण्डलं विधाय तत्र चिन्तिते श्यामायन्त्रे देवीमावाह्य पञ्चधा उपचर्य सुरभिलेन सुवर्णरजतताम्रादिपात्रगृहीतेन सलिलेन मूलान्ते श्रीमातङ्गीश्वरीं तर्पयामीति होमदशांशं तर्पयेत् । सत्यानुकूल्ये जपस्थान एव वा पूजाचक्रे तर्पयेत् । " तर्पणेऽपि तथैव स्यान्नमसोन्ते पुनर्नमः" इति शक्तिसङ्गमतन्त्रोक्तेः नमोन्तेष्वपि मन्त्रेषु पुनः नमस्तर्पयामीति प्रयोगः । तन्त्रान्तरानुसारिणो मार्जनपक्षेऽपि नमोयोजनं तत्रैवोक्तम् ।।
पुरश्चरणांगं भोजनम्
ततः तर्पणदशांशसङ्ख्याकानेतद्विद्यादीक्षितानलाभे यथासम्भवं तत्तन्मन्त्रदीक्षितान्वा सदाचारान् प्रातः निमन्त्रिताभ्यञ्जितान् ब्राह्मणान् सुवासिनी: कुमारीश्च यथाविभवं वस्त्रगन्धादिभिः देवताधियाऽभ्यर्च्य मृष्टान्नेन भोजितान् ताम्बूलदक्षिणापरितोषितान् प्रदक्षिणीकृतनमस्कृतानाशिषो गृहीत्वा विसृजेत् ॥
तर्पणदशांशब्राह्मणभोजनाशक्तौ तु तर्पणोक्तवज्जले देवतामावाह्य उपचर्य च मूलान्ते आत्मानमभिषिञ्चामि नमः इति कुम्भमुद्रया तर्पणदशांशवारं मूर्धन्यभिषेकं वा कुशैः मार्जनं वा विधाय तद्दशांशं ब्राह्मणान् भोजयेत् ॥
इत्येकः पक्षः । प्रतिलक्षान्ते सर्वान्ते वा होमादि कुर्यादित्यपरौ ॥
होमप्रत्या जपः
होमाशक्तौ ब्राह्मणानां पुरश्चरणजपसङ्ख्याद्विगुणो जप इति मुख्यः पक्षः । होमसङ्ख्याद्विगुणो जप इति गौणः । क्षत्रियादीनां त्रयाणां त्रिगुणादिर्जपः । एवं
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नित्योत्सवः तर्पणेऽपि । द्विजभक्तस्य शूद्रस्य द्विजस्त्रीणामपि होमप्रतिनिधिः जप एव । तेषां होमे तु नाधिकारः । ब्राह्मणभोजनस्य तु न क्वापि प्रतिनिधिः ॥
आरब्धस्य पुरश्चरणादेः आशौचेऽपि कार्यत्वम् इदं च पुरश्चरणमारब्धं सत् आशौचप्राप्तावपि कार्यम् । नित्यार्चनादि च । तदुक्तम्
जपो देवार्चनविधिः कार्यों दीक्षान्वितैनरैः ।
नास्ति पापं यतस्तेषां सूतकं वा यतात्मनाम् ॥ इति देवीयामले ।
सूतके मृतके चैव नित्यं विष्णुमयस्य च ।
सानुष्ठानस्य विप्रेन्द्र सद्यः शुद्धिः प्रजायते ॥ इति नारदपाश्चरात्रे ।
शिवविप्ण्वर्चने दीक्षा यस्य चामिपरिग्रहः । इति तस्येति शेषः ।
ब्रह्मचारियतीनां च शरीरे नास्ति सूतकम् ॥ इति विष्णुयामले।
ब्राह्मणस्यैव पूज्योऽहं शुचेरप्यशुचेरपि । पूजां गृह्णामि शूद्राणां त्वाचारनिरतात्मनाम् ॥ यज्ञव्रतविवाहेषु श्राद्धे होमार्चने जपे । आरब्धे सूतकं न स्यादनारम्भे च सूतकम् ॥ आरम्भो वरणं यज्ञे सङ्कल्पो व्रतजापयोः ।
नान्दीमुखं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया ॥ इति विष्णुवचनम् । ब्राह्मणम्येत्युपलक्षणं क्षत्रियवैश्ययोः ।
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः नचैवापूज्य भुञ्जीत शिवलिङ्गं महेश्वरि ।
सूतके मृतके चापि न त्याज्यं शिवपूजनम् ॥ इति लिङ्गपुराणे । पराशरोऽपि
उपासने तु विप्राणामङ्गशुद्धिः प्रजायते ॥ इति च । एवमन्यान्यपि वचनानि तन्त्रान्तरेषु बहुलं उपलभ्यमानानि विस्तरभयान्नेह लिखितानि । सूतकाढौ नैमित्तिककाम्ययोः अनधिकार एव, साधकम्य प्रतिबन्धकबाहुल्यात् ॥
सिद्धिपर्यन्तं पुरश्चरणस्य अभ्यासः एकेन पुरश्चरणेन यदि न मन्त्रः सिध्यति तदा तस्य द्वयं त्रयं वा कुर्यात् । तथाऽपि तदसिद्धौ सिद्धिकारकाः प्रयोगाः ग्रन्थान्तरोक्ताः ग्राह्याः । सिद्धिसूचकानि चान्यतो ज्ञेयानि. इह तु विस्तरभयान्न लिखितानि ॥
सम्यक्सिद्धैकमन्त्रस्य पञ्चाङ्गोपासनेन हि । सर्वे मन्त्राश्च सिध्यन्ति तत्प्रभावात् कुलेश्वरि ॥ सम्य सिद्धैकमन्त्रस्य नासाध्यं विद्यते क्वचित् ।
बहुमन्त्रवतः पुंसः का कथा शिव एव सः ॥ अतः पुरश्चरणमावश्यकमिति ॥
__ पुरश्चरणप्रत्याम्नायाः अथ सङ्गत्या पुरश्चरणप्रत्याम्नायाः कतिचित् लिख्यन्ते । शशिसूर्योपरागे त्रिरात्रमेकरात्रं वा पूर्वमुपोष्य एक भुक्तं वा विधाय ग्रहणारम्भे घटिकार्धात् प्रागेव स्वातः समुद्रगाया नद्यास्तटाकादेर्वा नाभिमात्रजले तिष्ठन् , अशक्तौ तु तट एवोपविष्टः, आचम्य, प्राणानायम्य, देशकालौ सङ्कीर्त्य, ॐ अमुकराशिगते सवितरि सोमस्य सूर्यस्य वा ग्रहणे अमुकगोत्रोऽमुकशर्मवर्मादिरहं अमुकविद्यासिद्धिकामः स्पर्शमारभ्य विमुक्तिपर्यन्तं जपं करिप्य इति सङ्कल्प्य जपेत् । ततोऽपरेद्युः
1 भक्तं-ब२,
३.
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नित्योत्सवः
ग्रहणकालीनस्य जपस्य समसङ्ख्याकं तद्दशांशं वा होमं, तद्दशांशं तर्पणं, तत्समसङ्ख्याकं तद्दशांशं वा ब्राह्मणभोजनं च कुर्यात् । यद्वा — ग्रहणपुण्यकाल एव मन्त्रानुसारेण जपस्य तत्समांशस्य तद्दशांशस्य वा होमस्य तदनुगुणस्य तर्पणस्य च कालं विभज्य जपाद्याचरेत् । परेद्युः तर्पणसमसङ्ख्याकं तद्दशांशं वा ब्राह्मणभोजनं कारयेदित्येकः प्रकारः ॥
कृष्णाष्टम्यां प्रातः कृतनित्यक्रियः पूर्ववत् सङ्कल्प्य अयुतचतुष्टयं जपं सप्तधा विभज्य प्रत्यहं चतुर्दशोत्तरसप्तशताधिकसहस्रपञ्चकसङ्ख्यया (५७१४) तत्कृष्णत्रयोदशीपर्यन्तं (६×५७१४ = ३४,२८४) जप्त्वा चतुर्दश्यां षोडशोत्तरसप्तशताधिकसहस्रपञ्चकं (५७१६;५७१६+३४२८४=४००००) जपेत् । सङ्कल्पे चाद्य कृष्णाष्टमीमारभ्य एतच्चतुर्दशीपर्यन्तमिति विशेषः । होमादिविधिस्तु तद्दशांश एवेत्यन्यः ॥
प्रातः नित्यक्रियोत्तरं प्राग्वत् सङ्कल्प्य अकारादिक्षकारान्तान् मातृकावर्णान् आनुलोम्येनोच्चार्य मूलं च सकृदुच्चार्य पुनर्मातृकावर्णान् विलोमानुच्चारयेत् । इत्येवंरीत्या प्रत्यहमष्टोत्तरशतसङ्ख्यया मासमात्रं जप्त्वा होमादि कुर्यात् । सङ्कल्पस्तु एतदनुगुण एवोः इत्यपरः ||
यथासम्भवं अनयोः प्रत्याम्नाययोः जपस्य चतुर्गुणितत्वं तर्पणादेश्च तद्दशांशत्वं बोध्यम् । प्रत्यहं रात्रौ त्रिकालं सर्वोपचारैरिष्टदेवतां साङ्गां सावरणां अर्चयेत् । एवं षण्मासान् मासमात्रं वा पूजयितुः पुरश्चरणमन्तरेणापि विद्यासिद्धिः भवति । सङ्कल्पश्चैतदनुरूप एवोह्यः इति चापरः ||
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सूर्योदयं समारभ्य यावत्सूर्योदयावधि । तावज्जत्वा निरातङ्कः सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥ सहस्रारे गुरोः पादपद्मं ध्यात्वा प्रपूज्य च । केवलं देवभावेन जप्त्वा सिद्धीश्वरो भवेत् ॥
इति चान्यः ॥
प्रकारान्तराणि च ग्रन्थान्तरेषु द्रष्टव्यानीति दिक ॥
' तत्समसंख्याकं तद्दशांशं वा तर्पणं
-अ.
" मासत्रयं इत्यधिकः भ.
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः
कूर्मचक्रलक्षणम् समीकृते भूतले प्राक्प्रत्यगायताः दक्षिणोत्तरायताश्चतस्रश्चतस्रो रेखा विलिख्य नवकोष्ठानि विधाय तत्र पूर्वादिप्रादक्षिण्यक्रमेण अष्टसु कोष्ठेषु क च ट त प य श ळा ख्यान् अष्टवर्गान् अकारादिस्वरद्वयं च विलिख्य मध्यकोष्ठे श्रीकारं विलिखेत् । इदं च कूर्मचक्रं क्षेत्रग्रामगृहभेदात् त्रिविधम् । तत्र क्षेत्रग्रामयोः तत्तन्नामाद्यक्षरयुक्तं कोष्ठं मुखं कूर्मस्य । एतदेवास्य दीपस्थानमुच्यते । गृहे तु गृहपतेः नामाद्यक्षरयुक् कोष्ठं मुखम् । तत्पार्श्वद्वयगतकोष्ठद्वयं हस्तौ । तदधःस्थितं कुक्षिः । तदधःस्थितौ तु चरणौ। कुक्षिमध्यगतं कोष्ठं पृष्ठम् । चरणमध्यगतं कोष्ठं च पुच्छं इति विवेकः । एवमुक्तप्रकारम्य क्षेत्रादौ विभावितस्य कूर्मस्य मुखे पृष्ठे वा जपे होमे च सर्वार्थसिद्धिः । करयोः तनौ कोष्ठान्तराणि अनुपयुक्तानीति कूर्मचक्रानावश्यकतोक्ता कतिपयेषु स्थलेषु । यथा
कुरुक्षेत्रे प्रयागे च गङ्गासागरसङ्गमे ।
महाकाळे च काश्यां च दीपस्थानं न चिन्तयेत् ॥ इति । दीपस्थानोपलक्षितत्वात् कूर्मचक्रमपि दीपस्थानमित्युक्तम् । इह चक्रे चोक्तेषु कोष्ठेषु रिपुस्थानं बिचिन्त्य तत्त्यागपूर्वकमवशिष्टं मित्रस्थानमुपादेयम् । अरिमित्रविचारो यथा
अद्वयस्य ठकारेण ठकारस्यापि तेन च । लद्वयस्य पकारेण पकारस्यापि तेन च ॥ ओद्वयस्य षकारेण षकारस्यौयुगेन च । जकारस्य टकारेण झकारस्य खकारतः ॥ उकारस्य लकारेण फकारस्य धकारतः । भकारस्य तु रेफेण यकारस्य सकारतः ॥ अरित्वमेषां वर्णानां अन्येषां मित्रभावना ॥ इति ॥
मालासंस्कारः ताच अकारादिक्षकारान्तमातृकावर्णरुद्राक्षमुक्ताफलमाणिक्यस्फटिकप्रवाळस्वर्णरजतशङ्करक्तचन्दनोपादानकमणिपुत्रजीवपद्मवीजकुशग्रन्थ्यादिमय्यः ।।
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१६४
नित्योत्सवः
अक्षमालायाः संस्कारानपेक्षा
अक्षमाला हि ब्रह्मरन्ध्रस्य दक्षभागादिन | भिमभिव्याप्य वामभागपर्यन्तमवरोहारोहणक्रमेण ब्रह्मनाड्यां अन्योन्याभिमुखत्वेन ग्रथितैः आनुपूर्व्येणोच्चारितैः अकारादिभिः ळकारान्तैः पुनः प्रातिलोम्येनोच्चारितैः च ळकारादिभिः अकारान्तैः वर्णैः शतबीजात्मिका भवति । क्षकारस्य मेरुस्थानीयस्य ळकारद्वयस्य मध्य उच्चारणमात्रम् । न तु जपसङ्ख्याऽन्तर्गणना । अत्रानुलोम्येन अवरोहारोहयोः प्रथमं मातृका ततो मन्त्रः । प्रातिलोम्येन अवरोहारोहयोस्तु प्रथमं मन्त्रः ततो मातृकेति तत्त्वम् । शतान्ते अ क च ट त प य शाख्यवर्गाष्टकादित्वेन जपस्य अष्टोत्तरशतत्वं ज्ञेयम् । एवं सहस्रादौ च । अस्या मालाया न संस्कारापेक्षा ॥
रुद्राक्षमालासंस्कारः
अष्टोत्तरशतं रुद्राक्षान् षड्गुणिते वक्ष्यमाणान्यतमे सूत्रे सप्रणवैकैकमा - तृकोच्चारणपूर्वकमन्तरान्तरा सग्रन्थिकं अन्योन्याभिमुखं गोपुच्छाकारेण सर्पाकारेण वा प्रथयित्वा स्थूलमेकं रुद्राक्षमेकीकृते सूत्राग्रद्वये मेरुत्वेन ग्रथयित्वा नवसङ्ख्याकैः अश्वत्थपत्रैः अष्टदलपद्मं विरच्य तत्र मालां निवेश्य मूलमन्त्रान्ते गोमूत्रगोमयगव्यदुग्धदधिवृताख्येन पञ्चगव्येन, ॐ सद्यो जातं प्रपद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः । भवे भवे नाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥ - - इति मन्त्रान्ते कुशोदकेन च प्रक्षाळ्य, ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः - इति मन्त्रान्ते चन्दनागरुकर्पूरादिभिराघर्षणं विधाय ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ — इति मन्त्रेण धूपयित्वा ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ इति मन्त्रेण चन्दनकस्तूरीकुङ्कुमकर्पूरैः लेपयित्वा, अक्षमालां वामकरपुटे निधाय, ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ॥ - इति मन्त्रेण अष्टोत्तरशतवारमभिमन्त्र्य, रुद्राक्षमालायाः प्राणाः इह प्राणाः । रुद्राक्षमालायाः जीव इह स्थितः । रुद्राक्षमालायाः सर्वेन्द्रियाणि रुद्राक्षमालायाः वाङ्मनः प्राणाः इह आयान्तु
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प्रौढोल्लासः चतुर्थ::- श्यामाक्रमः
स्वाहा ||—इति मन्त्रेण प्राणप्रतिष्ठां कृत्वा, उपास्यदेवतां तत्रावाह्य, मूलेन पञ्चधा उपचर्य, तेन मातृकावर्णैश्चाभिमन्त्र्य, होमप्रकरणोक्तरीत्या अग्निमुखं विधाय मूलेन अष्टोत्तरशताज्याहुतीः हुत्वा, सम्पाताज्यं मालायां निक्षिपेत् । अशक्तौ तु होमसङ्ख्याद्विगुणं मूलमन्त्राभिमन्त्रणं इति ॥
मालाऽन्तरसंस्कार:
अथान्यासां मालानां संस्कारः — उक्तरीत्या ग्रथितां मालां प्रासादमन्त्रेण पञ्चगव्यं क्षणं निक्षिप्य, तस्मादुद्धृत्य, कुशोदकेन प्रक्षाल्य, चन्दनादिभिरुपलिप्य, पात्रे निधाय, पञ्चायतनदेवताः तत्तन्मन्त्रेणावाह्य, पञ्चधोपचर्य, प्रासादेन शतवारानभिमन्त्र्य, सूर्यादीन् ग्रहानिन्द्रादीन् दिक्पालांश्च तत्तन्मन्त्रेण सम्पूज्य, सघृतैः तिलैः यथाशक्तिवारं मूलेनाग्नौ जुहुयात् । अशक्तौ अभिमन्त्रयेत् । ततो यथाविभवं काञ्चनं गुरवे दक्षिणां दत्वा ब्राह्मणांश्च भोजयेत् । इति ॥
१६५
संस्कारान्तरं यथा -- सूत्रं मणींश्च पञ्चगव्ये दिनत्रयं संस्थाप्य, चतुर्थदिने उद्धृत्य, अस्त्रेण प्रक्षाल्य, हृन्मन्त्रेण स्वेष्टमन्त्रेण वा प्रत्येकं आवृत्तेन मणीनन्योन्याभिमुखं ग्रथयित्वा, स्थण्डिले स्वेष्टदेवतासपर्यामण्डलं विधाय तत्र तामभ्यर्च्य, मूलमष्टोत्तरशतसङ्ख्यं जप्त्वा तत्तत्कल्पोक्तपुरश्चरणहोमद्रव्येण वृतेन वा यथाशक्ति हुत्वा, मण्डले मालां निधाय, तस्यामस्त्रमन्त्र - मूलमन्त्र - षडङ्गमन्त्रांश्च विन्यस्य, तां स्वेष्टदेवतारूपां विभाव्य, सम्पूज्य, सर्वभूतबलिं दत्वा, आचार्यै दक्षिणाऽऽदिभिः परितोष्य ब्राह्मणान् भोजयेदिति ॥
उक्तसंस्कारविधिः त्रैवर्णिकविषयः । स्त्रीशूद्राणां तु उपास्यमूलमन्त्रेणैव सबै कार्यम् ॥
यन्मन्त्रजपार्थं या माला संस्कृता तया तस्यैव जपः कार्यो नान्यस्य । अत्र च
विशेष :
शिवमन्त्रेण संग्रथ्य शक्तिमन्त्रं जपेदपि । शक्तिमन्त्रेण संग्रथ्य शिवमन्त्रं जपेच्छिवे ॥
वेण मातृकाभिर्वा थ्यन्ते मणयो यदि । तदा सर्वेऽपि जप्तव्या मनवो मालया तया ॥ इति ॥
ध्रुवः प्रणवः ॥
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नित्योत्सवः
देवताभेदेन सूत्रभेदः
देवताभेदेन सूत्रभेद उक्तः । यथा - देव्या रक्तपट्टसूत्रम् । शिवस्योर्णाभवं श्वेतं वा वल्कलं वा । सूर्यगणेशयोः कार्पासजम् । तच्च सुवासिन्या ब्राह्मण्या कर्तितम् । स्वसमानजातीययोषित्कर्तितं वा । त्रिगुणं त्रिगुणीकृतम् । यत्र ब्राह्मणीकर्तितं न मिलति तत्र वर्णान्तरीयकेवलसुवासिनीकर्तितं ग्राह्यम् । अन्येषु सूत्रेषु वैच्छिकं गुणस्थौल्यं मानं च ॥
1
मालासंस्कारकाल:
मालासंस्कारकालस्तु — विष्णोः द्वादश्यां पूर्वाह्नः । शक्तेः अष्टमीनवमीचतुर्दशीनां रात्रिः । शिवस्य त्रयोदशीदिवा । सूर्यस्य सप्तमीदिवा इति ॥
मालाभेदेन फलभेद:
मालाभेदेन फलभेदो यथा – मातृकाऽक्षमाला क्षिप्रं मन्त्रसिद्धयै । रुद्राक्षमाला मोक्षाय । मौक्तिकमाणिक्यमय्यौ साम्राज्याय । स्फाटिकी सर्वेभ्यः कामेभ्यः । पुत्रजीवमयी सम्पत्सारस्वतावाप्त्यै । पद्मबीजमयी श्रीयशोभ्याम् । रक्तचन्दनमयी वश्यभोगाभ्याम् । इत्यन्यासामपि फलानि ग्रन्थान्तरेषु द्रष्टव्यानि ॥
प्रायश्चित्तम्
सूत्रे जीर्णे नवेन ग्रथयित्वा मूलेनाष्टोत्तरशतवारानभिमन्त्रयेत् । जपसमये प्रमादात् करगलितायां छिन्नायां वा मालायां निषिद्धस्पर्शे वा अष्टोत्तरशतमूलमन्त्रजपः प्रायश्चित्तम् ॥
अपभेदा:
अथ जपभेदाः । ज्ञानार्णवे—
निगदेनोपांशुना वा मानसेनाथवा जपेत् । निगदः परमेशानि स्पष्टं वाचा निगद्यते ॥ अव्यक्तश्च स्फुरद्वक्त उपांशुः परिकीर्तितः । मानसस्तु वरारोहे चित्तेनान्तररूपवान् ॥
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प्रौढोल्लास: चतुर्थ:-श्यामाक्रमः निगदेन तु यज्जप्तं लक्षमात्रं वरानने । उपांशुस्मरणेनैव तुल्यं भवति शैलजे ॥ उपांशुलक्षमात्रं तु यज्जप्तं कमलेक्षणे ।
मानसस्मरणेनैव तुल्यमेकेन सुन्दरि ।। इति ॥ स्वच्छन्दतन्त्रसारे तु
जपस्तु षविधः प्रोक्तस्तत्प्रकारोऽयमुच्यते । वाचिकं मानसं चैव यौगिकं योगवाचिकम् ॥ योगमानसिकं चैव वाङ्मानसिकयौगिकम् । वाचा केवलयोच्चार्य मन्त्रं देवीं विभाव्य च ॥ जपेद्यत् परमेशानि वाचिकं तत्प्रकीर्तितम् । देव्या रूपं च सञ्चिन्त्य सावधानेन चेतसा ॥ मन्त्रस्याप्यनुसन्धानं मानसं परिकीर्तितम् । त्रिस्थानेन त्रिबीजानि क्रमात् सञ्चिन्त्य मार्गतः ॥ आरोहो यौगिकं प्रोक्तमुच्यते योगवाचिकम् । लक्ष्ये मनः समायोज्य वाचा मन्त्र जपेच्छिवे ॥ योगवाचिकमेतत् स्याद्योगमानसिकं शृणु । लक्ष्येण मानसं पूर्व संयोज्य मनसा जपम् ॥ योगमानसिकं विद्यादथान्यदपि चोच्यते । मनसाऽपि जपेन्मन्त्रं बीजानारोहणक्रमात् ॥ वाङ्मानसिकयोगाख्यं जपमेतदनुत्तमम् । वाचिकेन जपेनैव केवला वाक् प्रवर्तते ।। मानसाच्छूियमाप्नोति यौगिकाद्योगसिद्धयः । वाङ्मानसजपेनैव वाज्ज्ञानेश्वर्यसिद्धयः ।। भवन्ति परमेशानि योगमानसिकेन तु ।
अणिमादीनि चान्यानि सर्वाणि लभते ध्रुवम् ॥ 1 देवि-बर, ब३, अ.
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१६८
नित्योत्सवः
वाङ्मानसिकयोगाख्यजपेन परमेश्वरि । वागाद्यकुलपर्यन्तमचिराल्लभते नरः ॥ येन केन जपेनैव ह्रस्वदीर्घप्लुतक्रमात् । जता विद्याश्च मन्त्राश्च सर्वे सर्वार्थदायिनः ॥ भवन्ति गुरुवक्त्रेण लब्धाः सर्वाङ्गसुन्दरि । स्वयं निरीक्ष्य ये कोशं मन्त्रं विद्यामथापि वा ॥ गृह्णीयुर्ये व्रजेयुस्ते रौरवं नरकं शिवे । तस्मादास्तिक्यसंयुक्तः साधको देशिकाज्ञया ॥ शिवागमान्निरीक्षेत नान्यथा वीरवन्दिते ॥ इति ॥
होमे वह्निस्थितिविचारः
तत्र मुहूर्तचिन्तामणौ-
सैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे गुणेऽभ्रे भुवि वह्निवासः । सौख्याय होमः शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च ॥
अस्यार्थः
शुक्लप्रतिपदादिहोमदिनसङ्ख्ययैकमधिकमकमादित्यादिवारसङ्ख्यां च
मेलयित्वा चतुर्भिर्हरणेन त्रये शिष्टे शून्ये वा वह्निर्भुवि वसति । तदा होमः सुखाय भवति । एकस्मिन् द्वये वा शेषे क्रमाद्दिवि पाताळे च वह्निवासः । तदानीं होमेन प्राणार्थनाशौ भवतः इति ॥
――
तत्रैव ग्रहविचारो रुद्रयामळे -
तेषां स्थितिक्रमं वक्ष्ये नक्षत्रेषु यथा स्थिताः । सूयों बुधो भृगुश्चैव शनिश्वन्द्रो महीसुतः ॥ जीवो राहुश्च केतुश्च नवैते देवि खेचराः । सूर्यभाच्चन्द्रभं यावत् गणयेच्च महेश्वरि ॥
त्रीणि त्रीणि च ऋक्षाणि रविभादीनि दापयेत् । सूर्यादीनां फलं देवि शृणु वक्ष्ये यथाक्रमम् ॥
1 भावयेत् —–ब २.
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प्रौढोल्लासः चतुर्थः-श्यामाक्रमः आदित्ये तु भवेच्छोको बुधे चैव धनागमः । शुक्रे लाभं विजानीयाच्छनौ पीडा न संशयः ॥ चन्द्रे लाभो महान् देवि भौमे चैव तु बन्धनम् । गुरुणा च धनप्राप्तिः राहौ हानिस्तथैव च ॥ केतुना जायते मृत्युः फलमेवं महेश्वरि ।
क्रूरहोमस्तथा देवि क्रूरग्रहमुखो भवेत् ॥ इति ।। सूर्यभं सूर्याक्रान्तं नक्षत्र, चन्द्रभं तद्दिवसनक्षत्रम् । दापयेत् सूर्यादिभ्यः इति शेषः । मूर्यनक्षत्रादिचन्द्रनक्षत्रपर्यन्तं नक्षत्राणां त्रयं त्रयं सूर्यादिस्वामिकमित्यर्थः । करहोमो मारणोच्चाटनादिफलकः । शेषं सुगमम् । एवं वह्निस्थितिं ग्रहांश्च विचार्य, सौम्यहोमः सौम्यग्रहेषु क्रुरश्च क्रूरग्रहेषु कार्यः ।।
कुण्डस्थण्डिलयो:परिमाणम् तत्र एकोनपञ्चाशत्सङ्ख्याकाहुतिपर्यन्तं स्थण्डिलमेव । तच्च अष्टादशाङ्गुलप्रमाणं परितः अङ्गुष्ठोन्नतम् । अग्रे कुण्डेन सह विकल्पोऽशक्तिशक्तिभ्यां व्यवस्थितिः । पञ्चाशदादिनवनवतिसङ्ख्याहुतिपर्यन्तं मुष्टिमात्रम् । मुष्टिः अरनिः । शतादिनवनवत्यधिकनवशत्याहुतिपर्यन्तं अरनिमितम् । निप्कनिष्ठमुष्टिईस्तोऽरनिः । सहस्रादिहोमे हस्तमात्रम् । अयुतादौ द्विहस्तम् । लक्षादौ चतुर्हस्तम् । दशलक्षादौ पड्ढम्तम् । कोटिहोमादौ अष्टहस्तं दशहस्तं वा । चतुर्विंशत्यगुलैः हस्तः । अङ्गुलं तु तिर्यनिहिताष्टयवप्रमाणं स्वमध्यमामध्यपर्वमितं वा ज्ञेयम् । मुष्टया वा चतुरङ्गुलानि । अर्धयवोनचतुस्त्रिंशताङ्गुलैः द्विहस्तम् । सार्धेकचत्वारिंशता त्रिहस्तम् । अष्टचत्वारिंशता चतुर्हस्तम् । पादोनचतुःपञ्चाशता पञ्चहस्तम् । पादोनैकोनषष्टया षड्ढस्तम् । सार्धत्रिषष्टया सप्तहस्तम् । अष्टषष्टया यवोनया अष्टहस्तम् । द्विसप्तत्या नवहस्तम् । षट्सप्तत्या दशहस्तं कुण्डं स्थण्डिलं वा भवति । कुण्डाङ्गानां व्यासखातनाभिकण्ठमेखलायोनीनां सम्यज्ज्ञान एव कुण्डं युक्तम् । अन्यथा अत्यन्तमनिष्टम् । स्थण्डिलं चतुरश्रमङ्गुलोत्सेधं चतुरङ्गुलोत्सेधं वा । स्थूलद्रव्यहोमे तत्तत्परिमाणम्यापर्याप्तौ स्वोत्तरपरिमाणमपि ग्राह्यम् ॥
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नित्योत्सव :
होमे इतिकर्तव्यताविशेषः
बहु-ऋत्विक्कर्तृके होमे यथाकालं प्रत्याहुत्युद्देशत्यागयोः कर्तुमशक्यत्वात् यजमानो देवतां द्रव्यं च मनसा ध्यात्वा अमुकदेवताया इदं सर्वहोमद्रव्यजातं न ममेति त्यजेत् ॥
ऋत्विजस्त्वाचान्ताः कृतप्राणायामाः प्रत्येकं देशकालौ सङ्कीर्त्य अमुकेन वृतोऽहं अमुकसङ्ख्याकहोममध्ये अमुकांशेन यजमानोपकल्पितामुकद्रव्येण होमं करिष्ये इति सङ्कल्प्य आसनविधिं भूतशुद्ध्यादिकं तत्तद्देवतर्ण्यादिन्यासत्रयं कृत्वा अग्नौ देवताध्यानमानसपूजाऽन्ते प्राङ्मुखा वोदङ्मुखा वा जुहुयुः । होमसङ्ख्यासमाप्तौ परिधिपरिस्तरणान्तःपतितं हविः सर्वमग्नौ प्रक्षिपेत् । तद्बहिः पतितं तु न ॥
१७०
अनेकदिनसाध्ये तु होमे प्रतिदिवस कयाचित् सङ्ख्यया संस्थाप्य वह्निरक्षणपूर्वकं शुभदिने समाप्तिं कुर्यात् । प्रतिदिनं होमाद्यन्तयोः प्रधानदेवतां अङ्गदेवताश्च गन्धपुष्पादिभिः अग्निमध्ये पूजयेत् । आरम्भे समाप्तिदिने अग्निमूलमन्त्रेण स्वाहास्वधासहितमग्निं पूजयेत् । तत्र गन्धादिकं बहिरेव अग्नये दद्यात् ॥
यत्र होम एव प्रयोगविशेषे फलप्रदत्वात् प्रधानं न पुनर्जपाङ्गं तत्र ब्राह्मणभोजनसङ्ख्या तन्त्रे विशेषानुक्तौ स्मृत्युक्ता ग्राह्या । तत्र लक्षहोमे षष्ट्यधिका नवशती मुख्यः पक्षः । विंशत्यधिका पञ्चशती मध्यमः । दशाधिका त्रिशती
अधमः ॥
यत्र प्रधानदेवताऽङ्गत्वेन स्मृतितन्त्रोक्तयोरविरोधे समुच्चयपक्षमाश्रित्य ग्रहा अपि पूज्यन्ते तत्र तदङ्गब्राह्मणभोजनमपि कार्यम् । तत्रोत्तमे पक्षे विंशत्यधिका सप्तशती ब्राह्मणानां भोजनीया । मध्यमपक्षे चत्वारिंशदुत्तरं शतत्रयम् । अध च दशाधिकं शतमिति ॥
.
काम्यहमद्रव्याणां मानं फलं च
तिलैश्चुळुकमितैः शतसङ्ख्याकैर्वा प्रत्याहुतिहोमः शान्त्यै, आज्येन च कर्षप्रमाणेन । ग्रासमितैरन्नैरन्नाय । अमृतासमिद्भिः कनिष्ठास्थूलाभिः चतुरङ्गुलप्रमाणाभिः ज्वरोपशमनाय चूतपल्लवैश्च । दूर्वाभिः तिसृभिस्तिसृभिरायुषे । कृतमालकुसुमैः धनाय । उत्पलैः भोगाय । बिल्वदलैः राज्याय । समत्रैः पद्मः
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प्रौढोल्लासः चतुर्थ:-श्यामाक्रमः साम्राज्याय । मुष्टिमितैः लाजैः कन्यायै । नन्द्यावतैः कवित्वाय । 'वजुळमल्लिकाजातीपुन्नागैः भाग्याय । बन्धूकजपाकिंशुकमधूकैः ऐश्वर्याय । कदम्बैः वश्याय । लवणैः शुक्तिप्रमाणैः आकर्षणाय । शालितण्डुलैः अर्धमुष्टिमितैः धान्याय । कुङ्कुमगोरोचनादिभिः गुञ्जामितैः सौभाग्याय । पलाशपुष्पैः तेजसे कपिलाघृतेन चोक्तमानेन। धुत्तूरकुसुमैरुन्मादाय । विषवृक्षनिम्बश्लेप्मातकविभीतकसमिद्भिः दशाङ्गुलप्रमाणाभिः शत्रुनाशाय । निम्बतैलाक्तैः लवणैः उक्तमानैः मारणाय । काकोलूकपक्षेणैकैकेन विद्वेषणाय । तिलतैलाक्तैः मरीचैः विंशत्या कासश्वासप्रशमनाय इति । पुष्पेषु स्थूलमेकैकं, अल्पानि द्वित्रीणि इति वा विवेकः । एतानि द्रव्याणि काम्यजपाङ्गेषु होमेषु तत्तज्जपदशांशसङ्ख्याकानि । प्राधान्येन होमे तु सङ्ख्याऽनुक्तौ सहस्रसङ्ख्याकानि । इह च प्रथमं अभीष्टदेवतायै विज्ञाप्य अमुककर्मसिद्धयर्थं एतावदाहुतीः करिष्यामीति सङ्कल्पयेत् । कर्षस्तु दशगुञ्जामितमाषषोडशकप्रमाणः । शुक्तिः कर्षद्वयम् । मुष्टिस्तु पलम् ॥
पुरश्चरणकाले विहितानि । मनःस्थैर्यशौचमौनमन्त्रार्थचिन्तननिर्वेदश्रद्धोत्साहक्रोधाभावसन्तोषेन्द्रियनिग्रह - ब्रह्मचर्यगुरुप्रणतिसुगन्धामलकस्नानसुवसनसुरभिळानुलेपनमध्यपत्रवर्जपलाशपत्रावलिमितैकवारभोजनप्रक्षाळितदर्भास्तीर्णधौतवस्त्रशयनत्रिषवणस्नानादीनि । अशक्तौ तु प्रातःखानमात्रम् ॥
निषिद्धानि अप्रियानृतभाषणकरञ्जविभीतकार्कस्नुहिछायाक्रमणप्रतिग्रहादीक्षितस्त्रीशुद्धपति - तनास्तिकसंभाषणबढेकमलिनवस्त्रधारणकाम्यकर्माविहितकर्मकांस्यभोजनासत्सङ्गोप्णजल - खानकञ्चुकोष्णीषधारणप्राणिहिंसापादुकायानशय्याऽऽरोहणनमत्वकुशरहितकरत्वादीनि अतिभोजनं च ॥
भोज्यानि शुक्लैकविधान्नं हैमन्तनीवारककुषष्टिका यवाः शूद्वानवहताः गुडवर्जितमैक्षवं कृष्णतिलमुद्गकलायकन्दविशेषनारिकेळकदळीलवलीपनसाम्रामलकाकसामुद्रलवणानु - द्भुतसारगव्यपिप्पलीजीरकनारङ्गादीनि ॥
'वकुल-अ. 'तिलतैलाक्तैः इत्यधिकः-अ. भक्तल-अ.
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नित्योत्सवः
अभोज्यानि ____ गुडकृत्रिमलवणपर्युषितनिस्नेहकीटादिदूषितकाञ्जिकग्रञ्जनबिल्वकरञ्जलशुनमृणाळकोद्रवतैलपकमाषमसूरचणकगोधूमदेवधान्यादीनि ॥
भोजनपर्यायः स्वेष्टदेवतायै निवेदितं सव्यञ्जनमन्नं मूलेन प्रोक्ष्य सप्तवारं प्रतिद्रव्यमभिमन्त्र्य अभीयात् । उदकं द्वात्रिंशद्वारं मूलाभिमन्त्रितं पिबेत् ॥
___ जपादिसमय आवश्यकोपाधौ शुचौ देशे तं निवर्त्य स्नात्वा शेषं समापयेत् । अशक्तौ तु मन्त्रभस्मान्यतरस्नानवस्त्रपरिवर्तने केवलं कुर्यादिति ॥ ____इत्थं कृतपुरश्चरणः सिद्धमनुः देवताप्रसादसम्पन्नः स्वातन्त्र्येणोपास्तौ श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण नैमित्तिकार्चनपरः सति कामे काम्यमनुतिष्ठन् पूर्णमनोरथः सुखी विहरेदिति शिवम् ॥ इति श्रीभासुरानन्दनाथचरणारविन्दमिळिन्दायमानमानसेनोमानन्दनाथेन निर्मिते अभिनवे कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवनिबन्धे श्यामाक्रमनिरूपणं
नाम प्रौढोल्लासश्चतुर्थः समाप्तः॥
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः-दण्डिनीक्रमः
___ उपोद्धात: नत्वा श्रीभासुरानन्दनाथपादाम्बुजद्वयम् । तनोत्युमानन्दनाथः तदन्तोल्लासमद्भुतम् ॥ अत्र संविन्महाराज्ञीदण्डनाथाक्रमः स्मृतः । दुष्टनिग्रहशिष्टानुग्रहौ यस्या वशंवदौ ॥ प्रसाद्य सचिवेशानी पञ्चमीक्रममाचरेत् । वाग्लौमुपक्रमा यत्र सर्वाङ्गमनवो मताः ॥ दीक्षाविधिरिहापेक्ष्यः आरम्भोल्लास ईक्ष्यताम् । सन्ध्या तु तान्त्रिकी न स्यात् सूत्रकारैरसूत्रणात् ॥ निशीथे किं तु कुर्वीत बालया प्रातराह्निकम् । तस्याः खल्विष्टमन्त्रात् प्रागुपदेष्टव्यता यतः ॥
काल्यकृत्यं आह्निकं च साधकस्तावन्निशीथे प्रबुद्धः श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण श्रीगुरुध्यानादिप्राणायामान्तं विधिं विदध्यात् । तत्र च श्रीगुरुपादुकायां 'आदौ त्रितारीस्थाने वाक् ग्लौं इति वीजद्वयं योज्यम् । ततो हृदयपरमाकाशे स्फुरतः अखण्डानन्ददायिनः परसंवित्परिणतः अनाहतस्य नादस्य अनुसन्धानेन भस्मितनिखिलकश्मलो मूलं मनसा दशवारमावर्त्य उत्थाय निर्वर्तितावश्यको गृह एव वारुण-मान्त्र-भास्मननानेप्वन्यतमं कुर्यात् । वारुणे मूलेन त्रिरुदकाञ्जलिदानं शिरसि, त्रिराचमनं, त्रिः प्रोक्षणं च विदध्यात् ।
इह ललिताङ्गत्वेन वाराह्या निशीथोपास्त्तावाहिकं दिवा सपर्या चानुष्ठेयैव । इत्यधिकःश्री, अ१.
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नित्योत्सवः मान्त्रभास्मननाने स्मृत्युक्ते एव । अथ वाससी धौते परिधाय विधृतपुण्डूः मूलेन त्रिराचम्य द्विः परिमृज्य सकृदुपस्पृश्य चक्षुषी नासिके श्रोत्रे असे नाभिं हृदयं शिरश्वावमृशेत् ॥
यागमन्दिरप्रवेशः एवं त्रिराचम्य यागमन्दिरमासाद्य गोमयेनोपलिप्तद्वारस्थण्डिलं द्वारस्य दक्षवामोर्श्वभागेषु क्रमेण
ऐं ग्लौं भद्रकाल्यै नमः, भैरवाय, लम्बोदराय नमः ॥ इति तिस्रो द्वारदेवताः समर्थ्य अन्तःप्रविष्टो रङ्गवल्लीपुष्पमालावितानकादिभिरलङ्कृत्य यागमन्दिरं, ऐं ग्लौं रक्तद्वादशशक्तियुक्ताय दीपनाथाय नमः इति पुष्पाञ्जलिना भूमौ दीपनाथमिष्टा, सपर्यासामग्री दक्षभागे निधाय, दीपानभितः प्रज्वाल्य, गन्धमाल्यादिभिरात्मानमलङ्कृत्य, ताम्बुलसुरभिलवदनो जातीपत्रफललवङ्गैलाकर्पूरीख्यपञ्चतिक्तामोदितवदनो वा प्रसन्नमनाः स्वास्तीर्णे ऊर्णामृदुनि शुचिनि बालान्त्यबीजेन द्वादशवारमभिमन्त्रिते मूलमन्त्रोक्षिते आसने ऐं ग्लौं आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मासनाद्यन्यतमेनासनेनोपविश्य, ऐं ग्लौं शिवादिश्रीगुरुभ्यो नमः ऐं ग्लौं समस्तगुप्तप्रकटसिद्धयोगिनीचक्रश्रीपादुकाभ्यो नमः इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः स्ववामदक्षपार्श्वयोः क्रमेण गुरुपादुकया श्रीगुरुं महागणपतिमन्त्रेण च गणपतिं प्रणम्य ऐं ग्लौं ऐं ह्रः अस्त्राय फट् इति मन्त्रेणावृत्तेन अङ्गुष्ठादिकरतलान्तं कूपरयोः देहे च क्रमेण न्यासव्यापके कृत्वा स्वस्य देवतैक्यं भावयन् , ऐं ग्लौं अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते गच्छन्तु शिवाज्ञया । इति मन्त्रं सकृदुच्चार्य युगपद्वामपाणिभूतलत्रिराघातकरास्फोटत्रितयक्रूरदृष्टयवलोकनपूर्वक तालत्रयेण भौमान्तरिक्षदिव्यान् भेदावभासकान् विनानुत्सारयेत् । तालत्रयं नाम दक्षमध्यमातर्जनीभ्यामधोमुखाभ्यां वामकरतले सशब्दमुपर्युपरि त्रिरभिघातः ॥
1 च ब्यापकं कृत्वा-श्री, अ.
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तदन्तोल्लास: पश्चमः-दण्डिनीक्रमः
१७५
प्राणायामः अथ नमः इति अङ्गुष्ठमन्त्रमुच्चार्य अंकुशेन शिखां बद्धा श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण भूतशुद्धिं आत्मप्राणप्रतिष्ठां च विधाय मूलेन प्राग्वत् विंशतिधा षोडशधा दशधा सप्तधा त्रिधा वा प्राणानायम्य ॥
द्वितारीन्यासः तेजोरूपदेवीमयं भावयन्नात्मानं स्वदेहे न्यासजालात्मकं वज्रकवचमामुञ्चेत् । तत्रादौ अं ऐं ग्लौं अं नमः शिरसि । आं ऐं ग्लौं आं नमः मुखवृत्ते । इत्यादिरीत्या क्षान्तमातृकासम्पुटितमुक्तबीजद्वयं मातृकास्थानेषु न्यसेत् ॥ इति द्वितारीन्यासः ॥
करषडंगन्यासौ ऐं ग्लौं अन्धे अन्धिनि नमः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ २ रुन्धे रुन्धिनि नमः तर्जनीभ्यां नमः ॥ २ जम्भे जम्भिनि नमो मध्यमाभ्यां नमः ॥ २ मोहे मोहिनि नमः अनामिकाभ्यां नमः ॥
२ स्तम्भे स्तम्भिनि नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ इति पञ्चभिः मन्त्रैः अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तं न्यस्य,
ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्तालि वार्तालि हृदयाय नमः ॥
२ वाराहि वाराहि शिरसे स्वाहा ॥ २ वराहमुखि वराहमुखि शिखायै वषट् ॥ २ अन्धे अन्धिनि नमः कवचाय हुम् ॥ २ रुन्धे रुन्धिनि नमः नेत्रत्रयाय वौषट् ॥
२ जम्भे जम्भिनि नमः अस्त्राय फट् ॥ इति मन्त्रैः हृदयादिषु न्यसेत् ॥ इति करषडङ्गन्यासौ ॥
नेह करन्यासे अस्त्रमन्त्रः, तेन करतलन्यासो न भवति ॥
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नित्योत्सवः
अर्घ्यशोधनम् ततः श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण सामान्यविशेषायें आसादयेत् । अत्र चोभयोरप्यर्थ्ययोः प्रवेशरीत्या अन्तरन्तश्चतुरश्रादिमण्डलकरणम् , २ अं आत्मतत्त्वाय आधारशक्तये वौषट् इत्याधारस्थापनम् , २ उं विद्यातत्त्वाय पद्मासनाय वौषट् इति पात्रनिधानम् , २ मं शिवतत्त्वाय सोममण्डलाय नम इति शुद्धजलापूरणम् ,
ऐं ग्लौं ब्रह्माण्डाखण्डसम्भूतमशेषरससम्भृतम् ।
आपूरितं महापात्रं पीयूषरसमावह ॥ इति क्षीरपूरणे मन्त्रान्तरं चोक्तम् , षडङ्ग, चतुर्नवतिमन्त्राभिमन्त्रणाभावः, मूलेन दशधा अभिमन्त्रणं च विशेषः । अथ विशेषार्थ्यबिन्दुभिः सपर्यासामग्री पावयित्वा ।
सप्तार्णमत्रपञ्चकन्यासः अन्धे अन्धिनि नमः इत्यादीन् पञ्चमन्त्रान् उक्तबीजद्वयादिकान् शिरोवदनहृदयगुह्यपादेषु न्यस्य,
अष्टखण्डन्यासः मुलम्य खण्डैरष्टभिः वक्ष्यमाणेषु स्थानेषु न्यसेत् । यथा— ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्ताळि वार्ताळि वाराहि वाराहि वराहमुखि
वराहमुखि नमः इति पादादिजानुपर्यन्तम् ॥ २ अन्धे अन्धिनि नमः इत्याजानुकटि ॥ २ रुन्धे रुन्धिनि नमः इत्याकटिनामि ॥ २ जम्भे जम्भिनि नमः इत्यानाभिहृदयम् ।। २ मोहे मोहिनि नमः इत्याहृदयकण्ठम् ॥ २ स्तम्भे स्तम्भिनि नमः इत्याकण्ठभ्रूमध्यम् ॥ २ सर्वदुष्टप्रदुष्टानां सर्वेषां सर्ववाक्चित्तचक्षुर्मुखगतिजिह्वास्तम्भनं
कुरु कुरु शीघ्रं वश्यं नमः इत्याभूमध्यललाटम् ॥ २ ऐं ग्लौं ठः ठः ठः ठः हुँ अस्त्राय फट् इत्याललाटब्रह्मरन्धं चेति ॥
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः-दण्डिनीक्रमः
१७ मातृकास्थानेषु मूलपदन्यासः ततो मूलमन्त्रस्य द्विचत्वारिंशत्पदानि 'मातृकास्थानेषु न्यसेत् । यथा
ऐं ग्लौं ऐं नमः शिरसि, ग्लौं मुखवृत्ते, ऐं नेत्रयोः, नमो कर्णयोः, भगवति नासापुटयोः, वार्ताळि कपोलयोः, वार्ताळि ओष्ठयोः, वाराहि दन्तपङ्क्तयोः, वाराहि "ब्रह्मरन्धे, वराहमुखि °मुखान्तः, वराहमुखि दक्षदोर्मूले, अन्धे तन्मध्यसन्धौ, अन्धिनि तन्मणिबन्धे, नमो तदङ्गुलिमूले, रुन्धे तदगुल्यो, रुन्धिनि वामदोर्मूले, नमो तन्मध्यसन्धौ, जम्भे तन्मणिबन्धे, जम्भिनि तदङ्गुलिमूले, नमो तदङ्गुल्यग्रे, मोहे दक्षोरुमूले, मोहिनि तज्जानुनि, नमो तत्पादसन्धौ, स्तम्भे तदङ्गुलिमूले, स्तम्भिनि तदगुल्यो, नमो वामोरुमूले, सर्वदुष्टप्रदुष्टानां वामजानुनि, सर्वेषां तत्पादसन्धौ, सर्ववाक्चित्तचक्षुर्मुखगतिजिह्वास्तम्भनं तदङ्गुलिमूले, कुरु तदङ्गुल्यो, कुरु पार्श्वयोः, शीघ्रं पृष्ठे, वश्यं नाभौ, ऐं जठरे, ग्लौं हृदि, ठः दक्षकक्षे, ठः अपरगळे, ठः वामकक्षे, ठः हृदादिहस्तयोः, हुं हृदादिपादयोः, अस्त्राय हृदादिपाय्वन्तम् , ऐं ग्लौं फट् नमः- हृदादिमूर्धान्तम् ॥ इति ॥
तत्त्वाष्टकन्यासः ततः ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्ताळि वार्ताळि वाराहि वाराहि वराहमुखि वराहमुखि इत्यादिरीत्या प्रागुक्तानां अष्टानां खण्डानां प्रत्येकमन्ते क्रमेण ह्वां शर्वाय क्षितितत्त्वाधिपतये नमः, ह्रीं भवाय अम्बुतत्त्वाधिपतये नमः, हळू रुद्राय वह्नितत्त्वाधिपतये नमः, हैं उग्राय वायुतत्त्वाधिपतये नमः, ह्रौं ईशानाय भानुतत्त्वाधिपतये नमः, सों महादेवाय सोमतत्त्वाधिपतये नमः, हं पशुपतये यजमानतत्त्वाधिपतये नमः, भौं भीमाय आकाशतत्त्वाधिपतये नमः, इति उक्तेषु पादादिजान्वित्यादिषु अष्टसु स्थानेषु तत्त्वाष्टकं न्यसेत् ॥ 'स्वांगेषु न्यसेत्-बर, ब३, अ. जिह्वाग्रे-श्री.
कण्ठे-श्री.
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१७८
नित्योत्सवः
यन्तप्राणप्रतिष्ठा अथ व्यापकत्रयं मूलेन कृत्वा स्वपुरतः श्वेतपटपट्टदुकूलान्यतमे लिखिते लेखिते वा सुवर्णरजतताम्रचन्दनपीठादौ लिखिते उत्कीर्णे वा दृष्टिमनोहरे भूपुरत्रयसहस्रपत्रशतपत्राष्टपत्रषडरपञ्चारत्र्यश्रबिन्दुमये चक्रे कुसुमाञ्जलिं विकीर्य
ऐं ग्लौं वार्ताळियन्त्रस्य प्राणाः इह प्राणाः, ऐं ग्लौं वार्ताळियन्त्रस्य जीव इह स्थितः, ऐं ग्लौं वार्ताळियन्त्रस्य सर्वेन्द्रियाणि, ऐं ग्लौं वार्ताळि
यन्त्रस्य वाङ्मनःप्राणाः इहायान्तु स्वाहा ॥ इति यन्त्रप्राणप्रतिष्ठां विदध्यात् ॥
पीठपूजा ऐं ग्लौं स्वर्णप्राकाराय नमः, सुराब्धये, वराहद्वीपाय, वराहपीठाय, आं आधारशक्तये, कुं कूर्माय, कं कन्दाय, अं अनन्तनाळाय नमः ॥ इति पीठस्य मध्ये ॥
ऐं ग्लौं – धर्माय नमः, ऋ ज्ञानाय, लं वैराग्याय, लं ऐश्वर्याय नमः ॥ इति तस्य आग्नेयादिदिक्षु ॥
ऐं ग्लौं अधर्माय नमः, ऊँ अज्ञानाय, लं अवैराग्याय, लं अनैश्वर्याय नमः ॥ इति प्रागाद्यासु दिक्षु चाभ्यर्च्य ॥
ऐं ग्लौं त्र्यरपञ्चारषडरदळाष्टकशतपत्रसहस्रारपद्मासनाय नमः इति चक्रमनुना चक्रमिष्ट्वा ॥
ऐं ग्लौं वह्निमण्डलाय नमः, सूर्यमण्डलाय, सोममण्डलाय, सं सत्वाय, रं रजसे, तं तमसे, आं आत्मने, अं अन्तरात्मने, पं परमात्मने, ह्रीं ज्ञानात्मने नमः ॥ इति च तत्रैव वरिवस्येत् ॥
स्वर्णप्राकाराय नमः इत्याद्याः ह्रीं ज्ञानात्मने नमः इत्यन्ताः एते , सप्तविंशतिः पीठमनवो ज्ञेयाः ॥
आसनपूजा ततः २ हौं प्रेतपद्मासनाय सदाशिवाय नमः इति पुष्पैः बिन्दौ देव्यासनमभिपूज्य,
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः-दण्डिनीक्रमः
मूर्तिकल्पनम् तत्र २ लू षा ई वराहमूर्तये ठः ठः ठः ठः हुं फट् ग्लौं ऐं इति मूर्तिकरण्या विद्यया चक्रे देव्या मूर्ति सङ्कल्प्य,
देवीध्यानम् हृदि देवीं ध्यायेत् । यथा
पाथोरुहपीठगतां पाथोधरमेचकां कुटिलदंष्ट्राम् । कपिलाक्षित्रितयां घनकुचकुम्भां प्रणतवाञ्छितवदान्याम् ॥ दक्षोलतोरिखड्गौ मुसलमभीतिं तदन्यतस्तद्वत् ।
शङ्ख खेटहलवरान् करैर्दधानां स्मरामि वार्ताळीम् ॥ अरिः सुदर्शनम् ।।
देव्याः षोडशोपचारपूजा अथ वक्ष्यमाणेन प्रकारेण देव्यै मनसा पञ्चोपचारानर्पयित्वा भक्तानुग्रहात्तेजोरूपेण परिणतां ब्रह्मरन्धं प्राप्य वहन्नासापुटद्वारा निर्गतां कुसुमगर्भिते निजाञ्जलौ सन्निहितां तां मूर्ती मूलविद्यया आवाह्य आवाहिता भवेत्यादिरीत्या तत्तन्मुद्राप्रदर्शनपूर्वक आवाहन-संस्थापन-सन्निधापन-सन्निरोधन-सम्मुखीकरण-अवकुण्ठनानि विधाय वन्दनधेनुयोनिमुद्राश्च प्रदर्शयेत् । मुद्राप्रकारस्तु श्रीप्रकरणे उक्तोऽनुसन्धेयः । ततः-ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्ताळि वार्ताळि हृदयाय नमः इत्यादिकान् प्रागुक्तान् षडंगमन्त्रान् २ अन्धे अन्धिनि नमः इत्यादिकान् पंचांगमन्त्रांश्च न्यासोक्तभङ्गया देव्याः तत्तदङ्गे कुसुमेन विन्यस्य, ऐं ग्लौं वारा? पाद्यं कल्पयामि नमः इत्यादिरीत्या देव्यै पाद्यार्थ्याचमनीयस्नानवासोगन्धपुष्पधूपदीपनीराजनछत्रचामरयुगळदर्पणनैवेद्य - पानीयताम्बूलाख्यान् षोडशोपचारान् कृत्वा, नैवेद्याङ्गत्वेन पूर्वोत्तरापोशनकरप्रक्षाळनगण्डूषाचमनीयानि च प्रदद्यात् । नैवेद्ये त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलकरणम् , मूलेन प्रोक्षणम् , वं इति धेनुमुद्रया चामृतीकरणम् , मूलेन सप्तवारमभिमन्त्रणम् , प्राणादिमुद्राप्रदर्शनं च विधेयम् ॥
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१८०
नित्योत्सवः
देवीतर्पणम् अथ मूलान्ते वार्ताळीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामीति वामकरतत्त्वमुद्रासन्दष्टद्वितीयशकलगृहीतक्षीरबिन्दुसहपतितैः दक्षकरोपात्तकुसुमक्षेपैः देवी दशवारं सन्तर्प्य पूर्वोक्तानां षडङ्गमन्त्राणां अन्ते-हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, शिरःशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, शिखाशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, कवचशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, नेत्रशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, अस्त्रशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, इति क्रमेण देव्यङ्गे अग्नीशासुरवायुकोणेषु मौळौ प्रागादिदिक्षु च षडङ्गानि सम्पूज्य ॥
ओघत्रययजनम् पृष्ठतः प्रागपवर्ग रेखात्रये दक्षिणसंस्थाक्रमेण गुर्वोत्रयं यजेत् । यथा
ऐं ग्लौं परप्रकाशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, परमेशानन्द, परशिवानन्द (परसिद्धानन्द इति पाठान्तरं), कामेश्वर्यम्बानन्द, मोक्षानन्द, कामानन्द, अमृतानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति दिव्यौघः ॥
ऐं ग्लौं ईशानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, तत्पुरुषानन्द, अघोरानन्द, वामदेवानन्द, सद्योजातानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति सिद्धौघः ॥ ____ ऐं ग्लौं पञ्चोत्तरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, परमानन्द, सर्वज्ञानन्द, सर्वानन्द, सिद्धानन्द, गोविन्दानन्द, शङ्करानन्दनाथश्रीपादुकां - पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति मानवौघः ॥
आहत्य एकोनविंशतिगुरवः ॥
आवरणार्चनम् अङ्गाद्यावरणान्तानां अर्चनप्रकारस्तु देव्यर्चनोक्त एव ॥
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः ——– दण्डिनीक्रमः
१८१
त्र्यश्रे देव्यग्रकोणमारभ्य प्रादक्षिण्यक्रमेण -
ऐं ग्लौं जम्भिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, मोहिनी, स्तम्भिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || इति प्रथमावरणम् ॥
पञ्चारे प्राग्वत्
ऐं ग्लौं अन्धिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, रुन्धिनी, जम्भिनी, मोहिनी, स्तम्भिनी श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति द्वितीयावरणम् ॥
षट्कोणस्य कोणमूलेषु प्राग्वत्
ऐं आक्षा ई ब्राह्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ईळा ई माहेश्वरी, ऊ हा ई कौमारी, ॠ सा ई वैष्णवी, ऐ शाई इन्द्राणी, औ वा ई चामुण्डाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति सम्पूज्य,
तस्यैव कोणाग्रेषु मध्ये च प्राग्वत्
ऐं ग्लौं य म र यूं यां यीं यूं मैं यौं यः याकिनि जम्भय जम्भय मम सर्वशत्रूणां त्वग्धातुं गृह्ण गृह्ण अणिमाऽऽदि वशं कुरु कुरु स्वाहा याकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
२ र म र यूं रां रीं रूं रैं रौं र राकिनि जम्भय जम्भय मम सर्वशत्रूणां रक्तधातुं पिब पिब अणिमाऽऽदि वशं कुरु कुरु स्वाहा राकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
२
२
ल म र यूं लां लीं लूं लैं लौं ल: लाकिनि जम्भय जम्भय मम सर्वशत्रूणां मांसधातुं भक्षय भक्षय अणिमाऽऽदि वशं कुरु कुरु स्वाहा लाकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
डमर यूं डां डीं डूं डै डौं डः डाकिनि जम्भय जम्भय मम सर्वशत्रूणां मेदोधातुं ग्रस ग्रस अणिमाऽऽदि वशं कुरु कुरु स्वाहा डाकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
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१८२
नित्योत्सवः
आपादुकां पूजयामादि वशं कर
म र यूं सां
२ क म र यूं कां की दूं मैं कौं कः काकिनि जम्भय जम्भय मम
सर्वशत्रूणां अस्थिधातुं भञ्जय भञ्जय अणिमाऽऽदि वशं कुरु
कुरु स्वाहा काकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ २ स म र यूं सां सी सूं मैं सौं सः साकिनि जम्भय जम्भय मम
सर्वशत्रूणां मज्जाधातुं गृह्ण गृह्ण अणिमाऽऽदि वशं कुरु कुरु
स्वाहा साकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ २ ह म र यूं हां ही हूं हैं हौं हः हाकिनि जम्भय जम्भय मम
सर्वशत्रूणां शुक्लधातुं पिब पिब अणिमाऽऽदि वशं कुरु कुरु
स्वाहा हाकिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति धातुनाथानिष्ट्वा, षडरस्य दक्षवामपार्श्वयोः क्रमेण
ऐं ग्लौं क्रोधिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
२ स्तम्भिनीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ तत्रैव
२ स्तम्भनमुसलायुधाय नमः ॥
२ आकर्षणहलायुधाय नमः ॥ पडरात् बहिः देव्याः पुरतः--
ऐं ग्लौं क्षौं क्रौं चण्डोच्चण्डाय नमः ॥ इति तृतीयावरणम् ॥ अष्टदले प्राग्वत्
ऐं ग्लौं वार्ताळीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, वाराही, वराहमुखी, अन्धिनी, रुन्धिनी, जम्भिनी, मोहिनी, स्तम्भिनीश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ तहहिः पुरतो देव्याः
ऐं ग्लौं महामहिषाय देवीवाहनाय नमः ॥ इति चतुर्थावरणम् ॥
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः - दण्डिनीक्रमः
शतपत्रे देवीपुरतोऽष्टत्रिंशद्दलसन्धिषु -
ऐं ग्लौं जम्भिन्यै नमः, इन्द्राय, अप्सरोभ्यः, सिद्धेभ्यः, द्वादशादित्येभ्यः, अग्नये, साध्येभ्यः, विश्वेभ्यो देवेभ्यः, विश्वकर्मणे, यमाय, मातृभ्यः, रुद्रपरिचारकेभ्यः, रुद्रेभ्यः, मोहिन्यै, निर्ऋतये, राक्षसेभ्यः, मित्रेभ्यः, गन्धर्वेभ्यः, भूतगणेभ्यः, वरुणाय, वसुभ्यः, विद्याधरेभ्यः, किन्नरेभ्यः, वायवे, स्तम्भिन्यै, चित्ररथाय, तुम्बुरवे, नारदाय, यक्षेभ्यः, सोमाय, कुबेराय, देवेभ्यः, विष्णवे, ईशानाय, ब्रह्मणे, अश्विभ्यां धन्वन्तरये, विनायकेभ्यो नमः ॥
तद्बहिः
"
ऐं ग्लौं रौं क्षौं क्षेत्रपालाय नमः ॥
२ सिंहवराय देवीवाहनाय नमः ॥
१८३
तद्बहिः
ऐं ग्लौं महाकृष्णाय मृगराजाय देवीवाहनाय नमः || इति पञ्चमावरणम् ॥ सहस्रारे अष्टधा विभक्ते प्रतिपञ्चविंशत्युत्तरशतदळं प्राग्वत् क्रमेण -
ऐं ग्लौं ऐरावताय नमः, पुण्डरीकाय, वामनाय, कुमुदाय, अञ्जनाय, पुष्पदन्ताय, सार्वभौमाय, सुप्रतीकाय नमः ॥
एते दिग्गजाः सुराब्धेर्बहिर्वा प्रागाद्यासु यष्टव्याः । बाह्यप्राकारस्याष्टासु प्रागाद्यासु दिक्षु अध ऊर्ध्वं च क्रमेण प्राग्वत्
ऐं ग्लौं क्षौं हेतुकभैरवक्षेत्रपालाय नमः । हेतुकभैरवश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥
३ त्रिपुरान्तक भैरवक्षेत्रपालाय नमः । त्रिपुरान्तकभैरवश्री -
३ अग्निभैरवक्षेत्रपालाय नमः । अग्निभैरवश्री०
३ यमजिह्वभैरवक्षेत्रपालाय नमः । यमजिह्वभैरवश्री ०
३ एकपादभैरव क्षेत्रपालाय नमः । एकपादभैरवश्री० ३ कालभैरव क्षेत्रपालाय नमः । कालभैरवश्री ० ३ कराळभैरव क्षेत्रपालाय नमः । कराळभैरवश्री०
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१८४
- नित्योत्सवः
mr
m
३ भीमरूपभैरवक्षेत्रपालाय नमः । भीमरूपभैरवश्री. ३ हाटकेशभैरवक्षेत्रपालाय नमः । हाटकेशभैरवश्री. ३ अचलभैरवक्षेत्रपालाय नमः । अचलभैरवश्रीपादुकां पूजयामि
तर्पयामि नमः ॥ इति षष्ठावरणम् ॥ सर्वा अप्यावरणदेवताः देव्यभिमुखासीनाः, स्वयं च तत्तदभिमुखः पूजयामि इति भावयेत् ॥
देवीपुनःपूजाऽऽदि बलिदानान्तम् इत्थं षडावरणीमभ्यर्च्य पुनर्देवी त्रिवार सन्तर्प्य पुनः षोडशभिः उपचारैः उपचर्य श्रीक्रमोक्तेन विधिना होमं तदन्ते बलिदानं च कुर्यात् ॥
होमाकरणपक्षे–देव्याः पुरतो वामभागे हस्तमानं सामान्योदकेनोपलिप्य, त्रिकोणवृत्तचतुरश्रात्मकं मण्डलं परिकल्प्य, रुधिरान्नहरिद्रान्नमाहिषद्वितयसक्तुशर्कराहेतुफलत्रयमाक्षिकमुद्गत्रयमाषचूर्णदधिक्षीरघृतैः शुद्धोदनं संमर्य, कुक्कुटाण्डप्रमाणान् दश पिण्डान् कपित्थफलमानं च एकं पिण्डं विधाय तत्र निधाय, तत्समीपे सादिमसद्वितीयतृतीयं चषकं च निक्षिप्य, ऐं ग्लौं क्षौं हेतुकभैरवक्षेत्रपालाय नमः इत्यादिभिः पूर्वोक्तैः दशभिः मन्त्रैः हेतुकादिभ्योऽचलान्तेभ्यो दशभ्यः क्रमेण दश पिण्डान् दशदिक्षु दत्त्वा, मध्ये स्थूलमेकं पिण्डं चषकं च ऐं ग्लौं क्षौं क्रौं चण्डोच्चण्डाय नमः इति मन्त्रेण तस्मै दद्यात् ॥
फल त्रयम्-त्रिफला । मुद्त्र यं-हरितं कृष्णं पीतम् ॥ अथ पाणिं प्रक्षाळ्य देव्यै पुष्पाञ्जलित्रयं दत्त्वा प्रदक्षिणनमस्कारोत्तरं जपेत् ।।
वाराहीमब्रजपः यथा
अस्य श्रीवाराहीमहामन्त्रस्य ब्रह्मणे ऋषये नमः इति शिरसि, गायत्र्यै छन्दसे नमः इति मुखे, वाराबै देवतायै नम इति हृदये, ऐं ग्लौं बीजाय 'चं चण्डो-अ, श्री.
" कृष्णं पीतं वा-बर, ब३. कृष्णं सूक्ष्मं पीतं वा-अ. कृष्णां सूक्ष्मं च-अ१. कृष्टां कृष्टा सूक्ष्मं च-भ.
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः-दण्डिनीक्रमः
१८५ नमः इति गुह्ये, फट् शक्तये नमः इति पादयोः, ठः ठः ठः ठः कीलकाय नमः इति नाभौ, मम सर्वाभीष्टसिद्धयर्थे विनियोगाय नमः इति करसम्पुटे च न्यस्य, मूलेन त्रिः व्यापकं कृत्वा, अन्धे अन्धिनि नमः इत्यादिभिः पञ्चभिः मन्त्रैः पूर्वोक्तैः अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तं, २ ऐं नमो भगवति वार्ताळि वार्ताळि हृदयाय नमः इत्यादिभिश्च हृदयादिषु न्यासं विधाय, उक्तप्रकारेण ध्यात्वा, मनसा २ श्रीवाराबै लं पृथिव्यात्मकं गन्धं कल्पयामि नमः, २ श्रीवारायै हं आकाशात्मकं पुष्पं कल्पयामि नमः, २ श्रीवाराटं यं वाय्वात्मकं धूपं कल्पयामि नमः, २ श्रीवारायै रं अम्यात्मकं दीपं कल्पयामि नमः, २ श्रीवारायै वं अमृतात्मकं नैवेद्यं कल्पयामि नमः, नैवेद्याङ्गत्वेन च २ श्रीवाराटं सं सर्वात्मकं ताम्बूलं कल्पयामि नमः, इति पञ्चोपचारानाचर्य, विघ्नदेव्यङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गसहितं मूलमन्त्रमष्टोत्तरशतवारान् यथाशक्ति वा श्रीक्रमोक्तेन विधिना जपेत् ॥
स्तं स्तम्भिन्यै नमः इति वाराह्या विनदेवीमन्त्रः । एतं जपारम्भे त्रिवारं जपेत् । मूलमन्त्रश्च न्यासोक्ताष्टखण्डसमष्टिरूपः । लं वाराही लूं उन्मत्तभैरवीपादुकाभ्यां नमः इति वाराह्यङ्गं लघुवाराही। ॐ ह्रीं नमो वाराहि घोरे स्वप्नं ठः ठः स्वाहा इति तदुपाङ्गं स्वमवाराही । ऐं नमो भगवति महामाये पशुजनमनश्चक्षुस्तिरस्करणं कुरु कुरु हुं फट् स्वाहा इति तत्प्रत्यङ्गं तिरस्करिणी । एतान् त्रीन् मन्त्रान् मूलजपान्ते तद्दशांशं जपेत् । पुनः न्यासध्यानादि कृत्वा जपं निवेद्य स्तुवीत ॥
वाराहीस्तोत्रम् यथा--- कुवलयनिभा कौशेया|रुका मकुटोज्ज्वला
हलमुसलिनी सद्भक्तेभ्यो वराभयदायिनी । कपिलनयना मध्ये क्षामा कठोरघनस्तनी ___जयति जगतां मातः सा ते वराहमुखी तनुः ॥ १ ॥
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नित्योत्सवः तरति विपदो घोरा दूरात्परिहियते भय
स्खलितमतिभिर्भूतप्रेतैः स्वयं वियते श्रिया । क्षपयति रिपूनीष्टे वाचां रणे लभते जयं
वशयति जगत्सर्वं वाराहि यस्त्वयि भक्तिमान् ॥ २ ॥ स्तिमितगतयस्सीदद्वाचः परिच्युतहेतयः .
क्षुभितहृदयास्सद्यो नश्यदृशो गळितौजसः । भयपरवशा भग्नोत्साहाः पराहतपौरुषाः
भगवति पुरस्त्वद्भक्तानां भवन्ति विरोधिनः ॥ ३ ॥ किसलयमृदुर्हस्तः क्लिश्येत कन्तुकलीलया
भगवति महाभारः क्रीडासरोरुहमेव ते । तदपि मुसलं धत्से 'हस्ते हलं समयगृहां
हरसि च तदाघातैः प्राणानहो तव साहसम् ॥ ४ ॥ जननि नियतस्थाने त्वद्वामदक्षिणपार्श्वयोः
मृदुभुजलतामन्दाक्षेपप्रणर्तितचामरे । सततमुदिते गुह्याचारगुहां रुधिरासवै
रुपशमयतां शत्रून् सर्वानुभे मम दैवते ॥ ५ ॥ हरतु दुरितं क्षेत्राधीशः स्वशासनविद्विषां __ रुधिरमदिरामत्तः प्राणोपहारबलिप्रियः । अविरतचटत्कुर्वदंष्ट्रास्थिकोटिरटन्मुखो __ भगवति स ते चण्डोच्चण्डः सदा पुरतः स्थितः ॥ ६ ॥ क्षुभितमकरैर्वीचीहस्तोपरुद्धपरस्परै
श्चतुरुदधिभिः क्रान्ता कल्पान्तदुर्ललितोदकैः । जननि कथमुत्तिष्ठेत् पाताळसर्पबिलादिला
तव तु कुटिले दंष्ट्राकोटी न चेदवलम्बनम् ॥ ७ ॥ तमसि बहुळे शून्याटव्यां पिशाचनिशाचर
प्रमथकलहे चोरव्याघ्रोरगद्विपसङ्कटे । 1 धत्से–भ, ब२, ब३.
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः-दण्डिनीक्रमः क्षुभितमनसः क्षुद्रस्यैकाकिनोऽपि कुतो भयं
सकृदपि मुखे मातस्त्वन्नाम सन्निहितं यदि ॥ ८॥ विदितविभवं हृद्यैः पद्यैर्वराहमुखीस्तवं ___ सकलफलदं पूर्ण मन्त्राक्षरैरिममेव यः । पठति स पटुः प्राप्मोत्यायुश्चिरं कवितां प्रियां
सुतसुखधनारोग्यं कीर्ति श्रियं जयमुर्वराम् ॥ ९ ॥ इत्यनुग्रहाष्टकम् ॥ देवि क्रोडमुखि त्वदनिकमलद्वन्द्वानुषक्तात्मने ___ मह्यं द्रुह्यति यो महेशि मनसा कायेन वाचा नरः । 'तस्याद्य त्वदयोऽअनिष्ठुरहलाघातप्रभूतव्यथा
पर्यस्यन्मनसो भवन्तु वपुषः प्राणाः प्रयाणोन्मुखाः ॥ १ ॥ देवि त्वत्पदपद्मभक्तिविभवप्रक्षीणदुष्कर्मणि __ प्रादुर्भूतनृशंसभावमलिनां वृत्तिं विधत्ते मयि । यो देही भुवने तदीयहृदयान्निर्गत्वलॊहितैः
सद्यः पूरयसे करांब्जचषकं वाञ्छाफलैर्मामपि ॥ २ ॥ चण्डोच्चण्डमखण्डदुष्टहृदयप्रोक्षिप्तरक्तच्छटा
हालापानमदाट्टहासजनिताटोप प्रतापोत्कटम् । मातर्मत्परिपन्थिनामपहृतैः प्राणैस्त्वदङ्घ्रिद्वय___ ध्यानो दामरवैर्भवोदयवशात् सन्तर्पयामि क्षणात् ॥ ३ ॥ वाराहि व्यथमानमानसगळत्संज्ञं त्वदाज्ञाबलात्
सीदद्धैर्यमपाकृताद्धयवसितं प्राप्ताखिलाहितिम् । क्रन्दद्वन्धुजनं कळङ्कितकुलं कण्ठे व्रणोद्यत्कृमि
पश्यामि प्रतिपक्षमाशु सततं श्रान्तं लुठन्तं पुनः ॥ ४ ॥ बाराहि त्वमशेषजन्तुषु पुनः प्राणात्मिका स्पन्दसे
शक्तिव्याप्तचराचरामिह खलु त्वामेतदभ्यर्थये । त्वत्पादाम्बुजसङ्गिनो मम सकृत् पापं चिकीर्षन्ति ये
तेषां मा कुरु शङ्करप्रियतमे देहान्तरावस्थितिम् ॥ ५ ॥ 1 तस्याशु-श्री, अ१. 'स्फुरद्वक्षसम्—बर, ब३, अ, भ. डामरवैभ-बी, वर, अ.
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१८८
नित्योत्सवः
विश्वाधीश्वरवल्लभे विजयसे या त्वं नियत्यात्मिके भूतानां पुरुषायुषावधिकरी पाकप्रदा कर्मणाम् । तां याचे भवतीं किमप्यवितथं योऽस्मद्विरोधी जनस्तस्यायुर्मम वाञ्छितावधि भवेन्मातस्तवैवाज्ञया ॥ ६ ॥ मातस्सम्यगुपासितुं जडमतिस्त्वां नाद्य शक्नोम्यहं
यद्यप्यञ्चितदेशिकाङ्घ्रिकमलानुक्रोशपात्रस्य मे । जन्तुः कञ्चन चिन्तयत्यकुशलं यस्तस्य तद्वैशसं
भूयादेवि विरोधिनो मम च ते श्रेयःपदासङ्गिनः ॥ ७ ॥ श्यामां तामरसारुणत्रिणयनां सोमार्धचूडां जग
त्त्राणव्यग्रहलामुदग्रमुसलामत्रस्तमुद्रावतीम् । ये त्वां रक्तकपालिनीं शिववरारोहे वराहाननां
भावे सन्दते कथं क्षणमपि प्राणन्ति तेषां द्विषः ॥ ८ ॥
इति निग्रहाष्टकम् ॥
बृन्दाराधनं, गुरुसंतोषणं, शक्तिवटुकपूजा च
#
अथ योगिनीवीरयुग्मसमुदायात्मकं बृन्दं गन्धादिभिः आराध्य, यथाविभवं श्रीगुरुं सन्तोष्य, समग्रयौवना लक्षणवती : मदनविवशाः तिस्रः शक्तीर्बटुकं चाहूयाभ्यज्य स्त्रपयित्वा, मध्ये वार्ताळीबुद्धयैकां क्रोधिनीस्तम्भिनीबुद्ध्या च द्वे पार्श्वयोरुपवेश्य, चण्डोच्चण्डधिया वटुकं चाग्रे समुपवेश्य द्वितारीनमः सम्पुटितैः तत्तन्नाममन्त्रैः गन्धादिभिः क्षीरादिभिश्च सर्वैः द्रव्यैः सन्तोष्य, मम श्रीवार्ताळीमन्त्रसिद्धिः भूयादिति शक्तीः प्रार्थयेत् । ताश्च प्रसीदन्त्वधिदेवता इति प्रतिब्रूयुः ॥
हविः प्रतिपत्तिः
अथ
श्रीक्रमोक्तक्रमेण हविः प्रतिपत्तिकर्मादिविशेषार्घ्यविसर्जनान्तं शेषं निर्वर्तयत् । हविःप्रतिपत्तौ मूलेन तत्त्वत्रयशोधनमेवेति विशेषः ॥
1 सकृद्यत्त्वत्पदा -भ, ब२, ब३, अ.
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तदन्तोल्लासः पञ्चमः -- दण्डिनीक्रमः
मन्त्रसाधनम्
एवं नित्यक्रममाचरन् श्यामाक्रमोक्तेन पुरश्चरणप्रकारेण प्रत्यहं सहस्रसङ्ख्यया लक्षसङ्ख्याकं प्रकृते कलियुगत्वाच्चतुर्गुणितं जपं पुरश्चरणं कृत्वा तद्दशांशं नारिकेलोदकैः सन्तर्प्य, तद्दशांशं तापिञ्छकुसुमैः तिलैः चुळुकमितैः शतसङ्ख्याकैर्वा हरिद्राखण्डैर्वा तन्त्रान्तरोक्तैः त्रिमध्वक्तैः हेतुमिश्रैश्च जुहुयात् । इह पञ्चधोपचारात् प्राक् महाव्याहृत्यादिषु च आज्येनैव होम: । इतरेषु तापिञ्छादिना । एवं सिद्धमन्त्रः स्वतन्त्रोपास्तौ श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण ' नैमित्तिकार्चनरतः सत्यां कामनायां पूर्वोक्तेनैव क्रमेण तत्तत्काम्यानुगुणं होमं कृत्वा सफलमनोरथ आज्ञासिद्धः सुखी विहरेत् । इति शिवम् ॥
इति श्रीभासुरानन्दनाथचरणारविन्दमिळिन्दायमानमानसेन उमानन्दनाथेन विरचिते कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवे अभिनवे निबन्धे तदन्तोल्लासः पञ्चमः सम्पूर्णः ॥
1 नित्यनै-ब२, ब३, अ.
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उन्मनोल्लासः षष्ठः-परापद्धतिः
उपोद्धातः नत्वा श्रीभासुरानन्दनाथपादाम्बुजद्वयम् । गृणात्युमानन्दनाथ उन्मनोल्लासवैभवम् ॥ आराधनपदं यत्र परा श्रीहृदयात्मिका । पदे पदे सुखानि स्युः प्रभुचित्तविदो न किम् ॥ दीक्षाविधिरिहापेक्ष्य आरम्भोल्लास ईक्ष्यताम् । न तु सन्ध्योपास्तिरुक्ता सूत्रकारैरसूत्रणात् ॥ पञ्चमीमभिराध्याथ पराक्रमपरो भवेत् । एतस्मिन् मनवः सर्वे शक्तिबीजादिमाः स्मृताः ॥
काल्यकृत्यं आह्निकं च श्रीमान् साधकः कल्ये प्रबुद्धः शयन एव स्थितः श्रोत्राचमनभस्मधारणे विधाय, श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण श्रीगुरोर्ध्यानं वक्ष्यमाणया मूलपूर्विकया सामान्यपादुकया उक्तसुमुखादिमुद्राप्रदर्शनपूर्वकं वन्दनं च विधाय, वक्ष्यमाणया रीत्या प्राणानायम्य ब्रह्मरन्ध्रसम्बन्धिनि सहस्रदलकमले सुखासीनाया वक्ष्यमाणध्यानोक्तमूर्त्याः शक्तिबीजामिन्नायाः पराऽम्बायाः चरणयुगळविगळदमृतरसविसरपरिप्लुतं ध्यात्वा आत्मानं, मूलं मनसा दशवारमावर्त्य, वहन्नाडीपार्श्वपदमुत्थाय, निर्वर्तितावश्यकः उक्तया भङ्गया विहितदन्तधावनादिनानश्च शुचिवासो वसानः विधृतपुण्डूः सर्वेण मूलेन त्रिराचम्य द्विः परिमृज्य सकृदुपस्पृश्य चक्षुषी नासिके श्रोत्रे असे नाभिं हृदयं शिरश्वावमृशेत् ॥
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उन्मनोल्लासः षष्ठः - परापद्धतिः
यागमन्दिरप्रवेशः
एवं त्रिराचम्य, यागमन्दिरमासाद्य, द्वारस्थण्डिलं गोमयेनोपलिप्य, यागगृहं च रङ्गबल्लीपुष्पमालिकावितानादिभिश्चालङ्कृत्य द्वारस्य दक्षवामशाखयोः ऊर्ध्वभागे चक्रमेण—
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सौः भद्रकाल्यै नमः, भैरवाय, लम्बोदराय नमः ॥
इति तिस्रो द्वारदेवताः सम्पूज्य, अन्तः प्रविष्टः सौः रक्तद्वादशशक्तियुक्ताय दीपनाथाय नमः इति पुष्पाञ्जलिना भूमौ दीपनाथमिष्ट्वा, सपर्यासामग्रीं स्वदक्षिणभागे निधाय, प्रज्वालितदीपो गन्धमाल्यादिभिरलङ्कृतात्मा जातीपत्रफलैलालवङ्गकर्पूराख्यपञ्चतिक्तेनामोदितवदनः प्रसन्नमनाः स्वास्तीर्णे ऊर्णामृदुनि शुचिनि मूलेन द्वादशवारमभिमन्त्रिते सकृत्प्रोक्षिते चासने सौः आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मस्वस्तिकाद्यन्यतमेन आसनेनोपविश्य, सौः समस्तगुप्तप्रकटसिद्धयोगिनीचक्रदेवताश्रीपादुकाभ्यो नमः इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः सौः ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं ग्लौं हरू ह स क्ष म ल व र यूं स ह क्ष म ल व रयीं ह्सौं स्हौः अमुकाम्बा - सहितामुकानन्दनाथश्रीगुरुश्रीपादुकां पूजयामीति मन्त्रेण मस्तके निजदेशिकमभिवन्द्य गं गणपतये नमः इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारस्ते गच्छन्तु शिवाज्ञया ॥
इति मन्त्रं सकृदुच्चार्य युगपद्वामपाणिभूतलत्रिराघातकरास्फोटत्रितयक्रूरदृष्टयवलोकनपूर्वकं ताळत्रयेण भौमान्तरिक्षदिव्यान् भेदावभासकान् विघ्नानुत्सारयेत् । ताळत्रयलक्षणं तु पूर्वोक्तमेव ग्राह्यम् ॥
प्राणायामः
अथ श्रीक्रमोक्तेन विधिना भूतशुद्धिमात्मप्राणप्रतिष्ठां च विधाय सौःवर्णपूर्वकं मातृकावर्णैः श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण बहिर्मातृकान्यासं कृत्वा षोडशवारमावृत्तेन मूलेन पूरकं चतुःषष्टिवारमावृत्तेन कुम्भकं द्वात्रिंशद्वारमावृत्तेन रेचकं इति विंशतिधा षोडशधा दशधा सप्तधा त्रिधा वा प्राणानायम्य ॥
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नित्योत्सवः
. अङ्गन्यासः
तेजोरूपदेवीमयं भावयन्नात्मानं मुहुरावृत्तेन सौः नमः इति नमोऽन्तेन मूलेन शिरोमुखहृन्मूलाधारेषु न्यासं विधाय, सर्वाङ्गे च व्यापकं कृत्वा, सौः स् हृदयाय नमः, सौः औ शिरसे स्वाहा, सौः : शिखायै वषट् , सौः स् कवचाय हुम् , सौः औ नेत्रत्रयाय वौषट् , सौः : अस्त्राय फट् , इति मूलमन्त्रावयवैद्विरावृत्तैः वर्णषडङ्ग, सर्वेण मूलेन षड्वारमावृत्तेन मन्त्रषडङ्गं च कुर्यात् । इह मूलमन्त्रस्य तृतीयोऽवयवः केवलो विसर्गों न त्वकारविशिष्ट इति च ज्ञेयम् ॥
चिदनौ सर्वतत्त्वविलापनम् ___ अथ काकचञ्चूपुटाकृतिना मुखेन बाह्यमनिलमन्तराकृष्य संस्तभ्य, मूलं सप्तविंशतिवारमावर्त्य, वक्ष्यमाणक्षित्यादिशिवान्तषट्त्रिंशत्त्वत्त्वात्मकं वेद्यं नाभौ मुद्रितं विभाव्य, पुनः प्रोक्तवारं मूलं जप्त्वा, नम इति शिखाबन्धोत्तरं पुनः पूर्ववत् अनिलमापूर्य, तेन सर्वकारणचिद्रूपममिमुद्दीप्य, तत्र प्राङ्मुद्रितस्य वेद्यस्य विलयनं भावयित्वा ॥
अर्घ्यशोधनम् श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण सामान्यविशेषाये आसादयेत् । अत्र चोभयोरप्यर्थ्ययोः प्रवेशरीत्या अन्तरन्तश्चतुरश्रादिबिन्द्वन्तमण्डलकरणम् , अं आत्मतत्त्वाय आधारशक्त्यै वौषडित्याधारस्थापनम् , उं विद्यातत्त्वाय पद्मासनाय वौषडिति पात्रनिधानम् , मं शिवतत्त्वाय सोममण्डलाय नम इति शुद्धसलिलापूरणम् ।
ब्रह्माण्डखण्डसम्भूतमशेषरससंभृतम् ।
आपूरितं महापात्रे पीयूषं अर्ध्यमावह ॥ इति क्षीरपूरणम् , हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामीत्याद्यस्त्रान्तं प्रागुक्तषडङ्गद्वयम् , मूलेन दशधा अभिमन्त्रणम् , चतुर्नवतिमन्त्राभिमन्त्रणाभावश्च विशेषः । ततो विशेषार्थ्यबिन्दुभिः सम्प्रोक्ष्य वरिवस्यावस्तूनि ॥
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उन्मनोल्लास: षष्ठः-परापद्धतिः
. . तत्त्वकदम्बस्य हृत्पद्मस्थापनम् पूर्व नाभौ मुद्रयित्वा तप्तायोद्रवमिव चिदनौ विलापितं षट्त्रिंशत्तत्त्वकदम्बरूपं वेद्यं हृत्सरोजमानीय स्थापयेत् ॥
पराचक्रनिर्माणम् अथ सकुसुमक्षेपैः मूलपूर्वकैः वक्ष्यमाणैः मन्तैः पराम्बायाश्चक्ररूपं आसनं निर्मिमीत । यथा
सौः पृथ्वीयोगपीठाय नमः, अप् , तेजः, वायु, आकाश, गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, उपस्थ, पायु, पाद, पाणि, वाक्, प्राण, जिह्वा, चक्षुः, त्वक्, श्रोत्र, अहङ्कार, बुद्धि, मनः, प्रकृति, पुरुष, नियति, काल, विद्या, कला, राग, माया, शुद्धविद्या, ईश्वर, सदाशिव, शक्ति, शिवयोगपीठाय
नमः ॥ इत्येवं पराचक्रं निर्माय ॥
चक्रे देव्याः पूजा ब्रह्मरन्ध्र
अकळशशाङ्कामा त्र्यक्षा चन्द्रकलावती ।
मुद्रापुस्तलसद्वाहा पातु मां परमा कला ॥ इति ध्यातां सादाख्यचन्द्रकलारूपां श्रीपराम्बां मूलेन हृदयगते पराचक्रे आवाह्य, मूलान्ते श्रीपराम्बाऽऽवाहिता भव इत्यादिरीत्या तत्तन्मुद्राविधानपूर्वकं आवाहनाद्यवगुण्ठनान्तं कृत्वा, वन्दनधेनुयोनिमुद्राः प्रदी, मूलेन पुनः पुनरावृत्तेन श्रीपरादेव्यै पाचं कल्पयामि नमः इत्यादिरीत्या पाद्यार्थ्याचमनीयस्नानवासोगन्धपुष्पधूपदीपनीराजनछत्रचामरयुगदर्पणनैवेद्यपानीयताम्बुलाख्यान् षोडशोपचारान् विधाय, नैवेद्याङ्गत्वेन पूर्वोत्तरापोशने हस्तप्रक्षाळनगण्डूषाचमनीयानि च दद्यात् । नैवेद्ये त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलकरणम् , मूलेन प्रोक्षणम् , वं इति धेनुमुद्रया अमृतीकरणम् , मूलेन सप्तवाराभिमन्त्रणम्, प्राणादिमुद्राप्रदर्शनं चानुष्ठेयम् । ततो वामकरतत्त्वमुद्रासन्दष्टद्वितीयशकलगृहीतक्षीरबिन्दुसहपतितैः दक्षकरोपात्तैः कुसुमैः, सौः स्
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नित्योत्सव :
प्रकाशरूपिणीपराभट्टारिकाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सौः औ विमर्श - रूपिणीपराभट्टारिकाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, सौ: : प्रकाशविमर्शरूपिणीपराभट्टारिकाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, इति त्रिभिः मन्त्रैः क्रमेण देव्या मूलाधारहृन्मुखेष्वभ्यर्च्य सौः महाप्रकाशविमर्शरूपिणीपराभट्टारिकाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इति मन्त्रेण देवीं दशवारं सन्तर्प्य ॥
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देव्यां अखिलतत्वहोमभावनम्
तामेव कालाग्निकोटिदीप्तां ध्यात्वा, तस्यां सौः पृथ्वीं जुहोमि स्वाहा, सौः अपो जुहोमि स्वाहा, इत्यादिरीत्या प्राम्विलाप्य हृदये स्थापितं षट्त्रिंशत्तत्त्वकदम्बकं पृथक् पृथक् मनसा जुहुयात् ॥
इह क्रमे अयमेव होम: ॥
गुर्वोषत्रययजनम्
ततो मूलपूर्विकयोक्तया श्रीगुरुपादुकया मस्तकस्थं श्रीगुरुं त्रिः सम्पूज्य पुनश्चिदग्निमुद्दीप्तं विभाव्य देव्याः पश्चात् प्रागपवर्गे रेखात्रये दक्षिणसंस्थाक्रमेण गुर्वोघत्रयं यजेत् । यथा
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सौः पराभट्टारिकादेव्यम्बाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, अघोरानन्दनाथश्री, श्रीकण्ठानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः || इति दिव्यौघः ॥
सौः शक्तिधरानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, क्रोधानन्दनाथश्री', त्र्यम्बकानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति सिद्धौषः ॥
"
सौः आनन्दानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, प्रतिभादेव्यम्बानन्द, 'वीरानन्द, संविदानन्द, मधुरादेव्यम्बानन्द ज्ञानानन्द, श्रीरामानन्द, योगानन्दनाथश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति मानवौघः ॥
1 परा-अ.
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उन्मनोल्लासः षष्ठः-परापद्धतिः
१९५
बलिदानम् ततः त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलं कृत्वा ऐं व्यापकमण्डलाय नमः इति पुप्पेणाभ्यर्च्य, अर्धान्नं सलिलपूर्ण सक्षीरोपादिममध्यमं च पात्रं निधाय, ॐ ह्रीं सर्वविघ्नकृद्भयः सर्वभूतेभ्यो हुं फट् स्वाहेति त्रिः पठित्वा बलिं दत्त्वा, तत्त्वमुद्रास्पृष्टं क्षीरं बल्युपरि निषिच्य, वामपाणिघातकरास्फोटौ कुर्वाणः समुदञ्चितवक्त्रो नाराचमुद्रया बलिं भूतैः ग्राहयित्वा, पाणी प्रक्षाळ्य, मानसिकीः प्रदक्षिणनतीः विधाय, देव्यै पुष्पाञ्जलिं दद्यात् ॥
परामनुजप:
अथ अस्य श्रीपराभट्टारिकामहामन्त्रस्य भैरवाय ऋषये नमः इति शिरसि, गायत्र्यै छन्दसे नमः इति मुरवे, पराऽम्बायै देवतायै नमः इति हृदये, सं बीजाय नमः इति गुह्ये, औः शक्तये नमः इति पादयोः (कीलकाय नमः इति नाभौ), मम सर्वाभीष्टसिद्धये विनियोगाय नमः इति करसम्पुटे च न्यस्य, मूलेन त्रिर्व्यापकं कृत्वा,
सां अङ्गुष्ठाभ्यां (हृदयाय) नमः, सी तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा), सूं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट), सैं अनामिकाभ्यां नमः (कवचाय हुं), सौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः (नेत्रत्रयाय वौषट्), सः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः (अस्त्राय फट) इति मन्त्रैः कराङ्गन्यासौ कृत्वा,
अकळङ्केति ध्यात्वा,
सौः परादेव्यै लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि, सौः परादेव्यै हं आकाशात्मकं पुष्पाणि पूजयामि, सौः परादेव्यै यं वाय्वात्मकं धूपमाघ्रापयामि, सौः परादेव्यै रं अम्यात्मकं दीपं दर्शयामि, सौः परादेव्यै वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि, सौः परादेव्यै सं सर्वात्मकं ताम्बूलादिसर्वोपचारान् समर्पयामि इति षडुपचारैः मनसा अभ्यर्च्य,
मूलं सहस्रं त्रिशतं शतं वा श्रीक्रमोक्तेन विधिना जप्त्वा स्तुवीत ॥
सौः-अ, अ१. 'अयं कुण्डलितो भागः (श्री) कोश एव.
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नित्योत्सवः
परास्तुतिः यथा--- याऽघोरादिभिरेतैः पारम्पर्यक्रमागतै थैः । प्रथते तां विश्वमयीं विश्वातीतां स्वसंविदं नौमि ॥ १ ॥ आनन्दचरणकमलामकळङ्कशशाङ्कमण्डलच्छायाम् । तन्मण्डलाधिरूढां तत्कलया कलितचित्कलां नौमि ॥ २ ॥ इच्छादिशक्तिशूलांबुजमूलां मूलकुण्डलीरूपाम् । नित्यामप्यणुरूपामणोश्च महतो महीयसीं नौमि ॥ ३ ॥ मौक्तिकमणिगणरुचिरां शशाङ्कनिर्मोकनिर्मलं क्षौमम् । निवसानां परमेशी नमामि सौवर्णसम्पुटान्तःस्थाम् ॥ ४ ॥ भक्तजनभेदभञ्जनचिन्मुद्राकलितदक्षपाणितलाम् । पूर्णाहन्ताकारणपुस्तकवर्येण रुचिरवामकराम् ॥ ५ ॥ सृष्टिस्थितिलयकृद्भिर्नयनाम्भोजैश्शशीनदहनाख्यैः । मौक्तिकताटङ्काभ्यां मण्डितमुखमण्डलां परां नौमि ॥ ६ ॥ षड्गतिषडूर्मिषडरीन् धिक्कृत्याशु स्वभक्तवर्गस्य । कञ्चुकपञ्चकनोदनसञ्चितसंवित्प्रकाशिनी नौमि ॥ ७ ॥ अध्वातीतं बुद्धवा बुधाः प्रबुद्धाः परं पदं यस्याः । कैवल्यं यान्ति हठात् कटाक्षपातेन तां परां नौमि ॥ ८ ॥ यः पठतीदं स्तोत्रं पात्रं स भवेच्च पञ्चवर्गस्य ।
गुरुचरणकमलभाजा सहजानन्देन योगिनाऽभिहितम् ॥ ९॥ इति परास्तुतिः सम्पूर्णा ॥
हविःशेषस्वीकरण: अथसौः आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥ सौः विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥ सौः शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥
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उन्मनोल्लासः षष्ठः-परापद्धतिः इति मन्त्रैः तत्त्वत्रयशोधनपूर्वकं हविःशेषं स्वीकृत्य, मूलेन देवी विसृज्य, तेनैव ब्रह्मरन्धं नीत्वा विशेषार्घ्यपात्रमामस्तकमुद्धत्य, “आर्दै ज्वलति" इति मन्त्रेण तदर्घ्यमात्मनः कुण्डलिन्यगौ हुत्वा कामकलाऽऽत्मकं देवीरूपं भावयन्नात्मानं कृतकृत्यो भवेत् ॥
मत्रसाधनम् एवं नित्यक्रमं निवर्तयन् श्यामाक्रमोक्तक्रमेण लक्षजपं पुरश्चरणं कलौ तञ्चतुर्गुणितं प्रत्यहमयुतसङ्ख्यया ग्रहणादिजपप्रत्याम्नायान्वा कृत्वा, होमतर्पणब्राह्मणभोजनानि क्रमेण दशांशतः कुर्यात् । होमद्रव्यस्य तन्त्रान्तरेष्वदर्शनात् , आज्यमेव । ततः सिद्धमनुः काम्यलिप्सुर्यदि श्यामाक्रमोक्तैरेव द्रव्यैः हुत्वा पूर्णमनोरथः सुखी विहरेत् । एतदेकविश्रान्तिमभिलषतोऽपि अयमेवोपास्तिक्रमः इति शिवम् ॥
इति भासुरानन्दनाथचरणारविन्दमिळिन्दायमानमानसेन उमानन्दनाथेन
निर्मिते अभिनवे कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवनिबन्धे पराक्रमनिरूपणो नाम उन्मनोल्लासः षष्ठः सम्पूर्णः ॥
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः
उपोद्धातः नत्वा श्रीभासुरानन्दनाथपादाम्बुजद्वयम् । नन्दत्युमानन्दनाथोऽनवस्थोल्लासकल्पनात् ॥ साधारणो यत्र सर्वोपास्यानां क्रम ईरितः । आरम्भोल्लासगीता स्यादिह दीक्षा पृथक् पृथक् ॥ सत्रितार्या बालया च सर्वेऽङ्गमनवो मताः । मन्त्रेऽनुक्तषडङ्गे तु मायाषड्दीर्घजातियुक् ॥
तत्र तावदुक्तगुणः साधकः उक्ते काले सद्गुरोः अवाप्तदीक्षाविधिः एतत्क्रमान्ते वक्ष्यमाणेन प्रकारेण शोधितसिद्धसाध्यारिभावं अवमृष्टऋणधनादिकं च स्वेष्टमन्त्रमासाद्य तत्प्रतिपाद्यदेवताक्रमं यावज्जीवं निवर्तयेत् ॥
___ काल्यकृत्यं आह्निकं च इह प्रकृतिभूतात् श्रीक्रमतः काल्यकृत्याह्निकयोः विशेषो यथाश्रीगुरुपादुकायामादौ त्रितायुत्तरं बाला वाक् ग्लौमिति पञ्चबीजयोजनम् , हृदि रविबिम्बे च तत्तद्देवताध्यानम् , रश्मिस्रगननुस्मरणम् , यथोचितं तत्र तत्र सम्बुद्ध्यादीनामूहः, मूलेनार्घ्यदानम् , तन्त्रान्तरोक्तं तत्तदृष्यादिन्यासत्रयं षडङ्गं च, अनुक्तौ तु वक्ष्यमाणं चेति ॥
यागमन्दिरप्रवेशः अथ यागमन्दिरमागत्य, द्वारस्थण्डिलं गोमयेनोपलिप्य, देवताऽऽयतनं च रङ्गवल्लीपुष्पमालावितानादिभिश्वालङ्कृत्य, द्वारस्य दक्षवामशाखयोरूर्वभागे च क्रमेण
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः -- साधारणक्रमः
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः भद्रकाळ्यै नमः, भैरवाय
नमः,
प्राणायामः
१९९
लम्बोदराय
नमः ॥
इति तित्रो द्वारदेवताः सम्पूज्य, अन्तः प्रविष्टः ६ रक्त द्वादशशक्तियुक्ताय दीपनाथाय नमः इति पुष्पाञ्जलिना भूमौ दीपनाथमिष्ट्वा, सपर्यासामग्री स्वस्य दक्षिणतो निधाय, दीपानभितः प्रज्वाल्य, दीपौ वा, गन्धमाल्यादिभिः अलङ्कृतात्मा ताम्बूलेन जातीपत्रफललवङ्गैलाकर्पूराख्यपञ्चतिक्तेन वा सुरभिळवदनः प्रसन्नचेताः स्वास्तीर्णे ऊर्णामृदुनि शुचिनि बालातृतीयबीजेन द्वादशवारमभिमन्त्रिते मूलमन्त्रोक्षिते आसने ६ आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मस्वस्तिकाद्यन्यतमेनासनेनोपविश्य, ६ समस्तगुप्तप्रकटसिद्धयोगिनीचक्रदेवता श्रीपादुकाभ्यो नमः इति मूर्धनि बद्धाञ्जलिः स्ववामदक्षपार्श्वयोः क्रमेण, ६ गुं गुरुभ्यो नमः, ६ गं गणपतये नमः, इति श्रीगुरुं गणपतिं च प्रणम्य, ६ ऐं ह्रः अस्त्राय फट् इति मन्त्रेण मुहुर्मुहुरावृत्तेन अङ्गुष्ठादिकरतलान्तं कूर्परयोश्च विन्यस्य, देहे च व्यापकं कृत्वा, आत्मनो देवतैक्यं भावयन्, ६ " अपसर्पन्तु ” इति मन्त्रं सकृदुच्चार्य, युगपद्वामपाणिभूतलत्रिराघातकरास्फोटत्रितयक्रूरदृष्ट्यवलोकनपूर्वकं ताळत्रयेण भौमान्तरिक्षदिव्यान् भेदावभासकान् विघ्नानुत्सारयेत् । ताळत्रयं तूक्तमेव ॥
ततो ६ नमः इत्यङ्गुष्ठमन्त्रमुच्चार्य, 'अंकुशेन शिखां बध्वा, श्रीक्रमोक्तक्रमेण भूतशुद्धिं आत्मप्राणप्रतिष्ठां च विधाय मूलेन प्रागुक्तवद्विंशतिधा षोडशधा दशधा सप्तधा त्रिधा वा प्राणानायम्य ॥
"
माकाषडंगन्यासौ
तेजोमयदेवतारूपं भावयन् आत्मानं त्रितारीबालापूर्वकं मातृकान्यासं तन्त्रान्तरोक्तं तत्तद्देवताषडङ्गन्यासं च कृत्वा, अनुक्तौ तु ६ ह्रां हृदयाय नमः, ६ ह्रीं शिरसे स्वाहा, ६ ह्रूं शिखायै वषट्, ६ हैं कवचाय हुम्, ६ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ६ हः अस्त्राय फट् इति षडङ्गं न्यस्य ॥
1 ' कुशेन' इति बहुकोशपाठः.
१ करषडंगन्यासौ कृत्वा— अ०
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नित्योत्सवः
अर्घ्यशोधनम्
श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण सामान्यविशेषा आसादयेत् । अत्र चोभयोरप्यर्ष्ययोः प्रवेशभङ्गन्याऽन्तरन्तश्चतुरश्रादिबिन्द्वन्तमण्डलकरणम्, ६ अं आत्मतत्त्वाय आधारशक्तये वौषडित्याधारस्थापनम्, ६ उं विद्यातत्त्वाय पद्मासनाय वौषट् इति पात्रनिधानम्, ६ मं शिवतत्त्वाय सोममण्डलाय नमः इति शुद्धजलपूरणम्,
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ब्रह्माण्डखण्डसम्भूतमशेषरससम्भृतम् । आपूरितं महापात्रे पीयूषं अर्घ्यमावह ॥
इति क्षीरपूरणम्, तत्तद्देवताषडङ्गं, उक्तषडङ्गं वा, मूलेन दशधा अभिमन्त्रणम्, चतुर्नवतिमन्त्राभिमन्त्रणाभावश्चेति विशेषः । अथ विशेषार्घ्यबिन्दुभिः सम्प्रोक्ष्य वरिवस्यावस्तूनि,
यन्तोद्धारः
उपलिप्तायां भुवि क्षीरमिश्रेण सिन्दूरादिना बिन्दुत्रिकोणषट्कोणाष्टदळचतुर्दळचतुरश्रात्मकं चक्रं विलिख्य विलेख्य वा, चामीकररजतपञ्चलोहरत्नस्फटिकाद्युत्कीर्ण वा रक्तचन्दनादिनिर्मिते पीठे निवेश्य, ६ अमुकयन्त्रस्य प्राणा इह प्राणाः, ६ अमुकयन्त्रस्य जीव इह स्थितः, ६ अमुकयन्त्रस्य सर्वेन्द्रियाणि, ६ अमुकयन्त्रस्य वाङ्मनःप्राणाः इहायान्तु स्वाहा इति यन्त्रप्राणप्रतिष्ठां विदध्यात् । इह मन्त्रे तत्तद्देवतानामपदोहज्ञापकममुकेतिपदं ज्ञेयम् । अथ ६ आधारशक्तिकमलासनाय नमः इति मन्त्रेण तत्र पीठे पुष्पाञ्जलिं समर्प्य ॥
चक्रे प्रधानदेवतायाः तदंगदेवतानां च पूजा
स्वहृदि तत्तद्देवतां ध्यात्वा, ६ अमुकायै लं पृथिव्यात्मकं गन्धं कल्पयामि नमः इत्यादि सं सर्वात्मकं ताम्बूलं इत्यन्तषडुपचारैरुपचर्य, ततस्तां देवतां भक्तानुग्रहात्तेजोरूपेण परिणतां ब्रह्मरन्ध्रं प्राप्य वहन्नासापुटद्वारा बहिर्निर्गतां कुसुमगर्भिते अञ्जलौ सन्निधाय मूर्तिमतीं च मूलेन बिन्दौ आवास, " आवाहिता भव ” इत्यादिरीत्या यथालिङ्गं आवाहनसंस्थापनसन्निधापनसन्निरोधनसम्मुखीकरणाव
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः --- साधारणक्रमः
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गुण्ठनानि तत्तन्मुद्रया कृत्वा, वन्दनधेनुयोनिमुद्रा प्रदर्श्य, सामान्यायदकेन ६ अमुकायै पाद्यं कल्पयामि नमः इत्यादिरीत्या पाद्यार्ध्याचमनीयस्नानवासोगन्धपुष्पधूपदीपनीराजनछत्रचामरयुगदर्पणनैवेद्यपानीयताम्बूलाख्यान् षोडशोपचारान्, नैवेद्याङ्गत्वेन पूर्वोत्तरापोशने हस्तप्रक्षाळनगण्डूषकरणाचमनीयानि च दद्यात् । नैवेद्ये त्रिकोणवृत्तचतुरश्रमण्डलकरणम्, मूलेन प्रोक्षणम्, वं इति धेनुमुद्रया अमृतीकरणम्, मूलेन सप्तवाराभिमन्त्रणम्, प्राणादिमुद्राप्रदर्शनं चानुष्ठेयम् । ततो मूलान्ते अमुकदेवताश्रीपादुकां पूजयामि इति मन्त्रेण वामकरतत्त्वमुद्रासन्दष्टद्वितीयशकलगृहीतक्षीरबिन्दुसहपतितैः दक्षकरोपात्तकुसुमैः प्रधानदेवतां त्रिः सन्तर्प्य, तस्याम्नीशासुरवायुषु मौळौ प्रागादिदिक्षु च क्रमेण तत्तद्देवताषडङ्गमन्त्रैः ६ हृदयाय नमः हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि इति क्रमेण षडङ्गमन्त्रैः अङ्गदेवताः समभ्यर्च्य ॥
त्रयम्
प्रधानदेवतायाः पश्चात् प्रागपवर्ग दक्षिणसंस्थाक्रमेण तत्तत्तन्त्रोक्तं गुर्वोधत्रयं यजेत् । तदज्ञाने तु—
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ऐं गुरुभ्यो नमः, ६ ऐं गुरुपादुकाभ्यो नमः । इति दिव्यौघः ॥
६ ऐं परमगुरुभ्यो नमः, ऐं परमगुरुपादुकाभ्यो नमः । इति सिद्धौघः ॥
६ ऐं आचार्येभ्यो नमः, ६ ऐं आचार्यपादुकाभ्यो नमः, ६ ऐं पूर्वसिद्धेभ्यो नमः, ६ ऐं पूर्वसिद्धपादुकाभ्यो नमः । इति मानवौघः ॥ इति गुवघत्रयम् ॥
आवरणार्चनम्
त्र्य देवताऽग्रकोणमारभ्य प्रादक्षिण्यक्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः इच्छाशक्ति श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ज्ञानशक्तिश्री०, क्रियाशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति प्रथमावरणम् ॥
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नित्योत्सवः
षड प्राम्वत् तन्त्रान्तरोक्तोपलब्धतत्तद्देवताषडङ्गमन्त्रोत्तरं हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नम: । तदज्ञाने ६ ह्रां हृदयाय नमः हृदयशक्तिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः इत्यादिरीत्या अङ्गदेवतापूजनं. वा ॥ इति द्वितीयावरणम् ॥
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अष्टदले पारिभाषिकपश्चिमादिदिक्षु वाय्वादिविदिक्षु च प्रादक्षिण्यक्रमेणऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः आं ब्राह्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, ई माहेश्वरी, ऊं कौमारी, ॠ वैष्णवी, लुं वाराही, ऐं माहेन्द्री, औं चामुण्डा, अः महालक्ष्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति
तृतीयावरणम् ॥
चतुर्दले देव्यग्रदळादिप्रादक्षिण्यक्रमेण
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः गणपतिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः, दुर्गा, बटुक, क्षेत्रपाल श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ॥ इति चतुर्थावरणम् ॥
चतुरश्ररेखायां यथास्थितप्रागादिप्रादक्षिण्यक्रमेण --
ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः लां इन्द्राय वज्रहस्ताय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
रां अग्नये शक्तिहस्ताय तेजोऽधिपतये अजवाहनाय सपरिवाराय
६
६
६
६
६
नमः ॥
टां यमाय दण्डहस्ताय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
क्षां निर्ऋतये खड्गहस्ताय रक्षोऽधिपतये नरवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
वां वरुणाय पाशहस्ताय सलिलाधिपतये मकरवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
यां वायवे ध्वजहस्ताय प्राणाधिपतये रुरुवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः साधारणक्रमः
सां सोमाय शङ्खहस्ताय नक्षत्राधिपतये अश्ववाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
हां ईशानाय त्रिशूलहस्ताय विद्याऽधिपतये वृषभवाहनाय सपरिवाराय नमः ॥
इत्यभ्यर्च्य ॥ इति पञ्चमावरणम् ॥
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देवतायाः पुनःपूजा
अथ पुनर्मूलेन देवतां त्रिः सन्तर्प्य, पुनः धूपदीपनैवेद्यताम्बूलानि दत्वा ॥
होम:
सति सम्भवे श्रीक्रमे होमप्रकरणोक्तेन क्रमेण स्थण्डिलकल्पनादिप्रधानदेवतापञ्चोपचारान्ते - ६ इच्छायै स्वाहा इच्छाया इदं न मम इत्यादिरीत्या – आवरणदेवताक्रमेण इच्छाऽऽदिभ्यः ईशानान्ताभ्यो देवताभ्यः एकैकामाज्याहुतिं मूलेन प्रधानदेवतायै दशवारं च हुत्वा विधिशेषं निर्वर्तयेत् ॥
होमाकरणपक्षे बलिमात्रं दद्यात् । यथा - देवताया दक्षिणतः त्रिकोणवृत्त - चतुरश्रात्मकं मण्डलं कृत्वा, ६ ऐं व्यापकमण्डलाय नमः इति पुष्पैरभ्यर्च्य, अर्धभक्तपूरितोदकं सक्षीरादित्रयं पात्रं तत्र विन्यस्य, ६ ॐ ह्रीं सर्वविघ्नकृद्भ्यः सर्वभूतेभ्यो हुं फट् स्वाहा इति मन्त्रं त्रिः पठित्वा, बलिं प्रदाय, दक्षकरार्पितं वामकरतत्त्वमुद्रास्पृष्टं क्षीरं बल्युपरि निषिच्य समुदञ्चितवक्त्रः ताळत्रयं कुर्वन् बाणमुद्रया बलिं भूतैः ग्राहयित्वा योनिमुद्रया प्रणमेत् इति ॥
प्रदक्षिणनतिमूलमब्रजपाः
अथ प्रक्षाळितपाणिः प्रदक्षिणनतीर्विधाय तत्तत्तन्त्रोक्तर्घ्यादिन्यासत्रयकराङ्गन्यासध्यानान्ते देवतायै पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा, मूलमष्टोत्तरशतवारं जप्त्वा, पुनर्न्यासादि कृत्वा, गुह्यातिगुह्येति मन्त्रेण देवतावामहस्ते सामान्यजलेन जपं समर्पयेत् । देवतापुंस्त्वे तु गोप्ता त्वं देवेति वाच्यम् । देव्या वामकरो देवस्य दक्षकरश्च जपसमर्पणाधिकरणम् ॥
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नित्योत्सवः ऋप्यादीनामज्ञाने-अस्य श्रीअमुकमन्त्रस्य ब्रह्मणे ऋषये नमः इति शिरसि, गायत्र्यै छन्दसे नमः इति मुखे, अमुकदेवतायै नमः इति हृदये, ॐ बीजाय नमः इति गुह्ये, ही शक्तये नमः इति पादयोः, मम सर्वाभीष्टसिद्धये विनियोगाय नमः इति करसम्पुटे च न्यस्य, मूलेन त्रिर्व्यापकं कृत्वा, उक्तषडङ्गं कराङ्गयोः विन्यस्य, तत्तद्देवताऽनुगुणं ध्यात्वा, श्यामाक्रमोक्तान्यतमया मालया श्रीक्रमोक्तविधिना जप्त्वा स्तुवीत ॥
देवतास्तुतिः यथा--- सच्चित्सुखैकरूपं सकलजगद्भाससंश्रयीभूतम् । भक्तेप्वनुग्रहवशात् बहुधोपास्यात्मकं भजे वस्तु ॥ १ ॥ पीतारुणादिभासं फलदानायाभिसन्धिभेदेन । आसेचनकावयवामासेवे देवतामिहोपास्याम् ॥ २ ॥ द्विचतुःप्रमुखैदोभिर्विधृतवराभीतिशूलचक्राद्यैः । पालितविश्वत्रितयः पायान्मां कोऽपि निरवधिभूमा ॥ ३ ॥ बिन्दुत्रिकोणषडरद्विपदळवेदच्छदैः सचतुरथैः । चारुणि विहारशीलं चक्रे कलयामि किञ्चन ज्योतिः ॥ ४ ॥ इच्छाऽऽदिभिः तथाऽङ्गैः ब्राह्मयाद्याभिर्गणेश्वरप्रष्ठैः । इन्द्रादिभिश्च पञ्चभिरावरणैः स्तौमि दैवतं सेव्यम् ॥ ५ ॥ एकार्णादिशतार्णावधिकैर्मनुभिर्निरुच्यमानात्मा । यन्त्रमनुदेशिकस्वोपासकभेदातिगा चिदाविः स्यात् ॥ ६ ॥ कल्पोक्तसङ्ख्यजपतद्दशांशहोमादिमोदितस्वान्तम् । वाञ्छितदायि विपक्षव्ययदक्षं भातु साधकश्रेयः ॥ ७ ॥ दीनाधीनदयारसवशंवदस्मेरसुन्दरापाङ्गा । मूर्तिमती मम मुनिभिर्महनीया भाग्यधोरणी जयति ॥ ८॥ साधारणमपि तदिदं स्तोत्रमसाधारणप्रभावाढ्यम् । पठतां क्रमावसाने प्रथते पुंसां मनीषितमशेषम् ॥ ९॥
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः इति श्रीभासुरानन्दनाथान्तेवासिना शुभा। कृतोमानन्दनाथेन साधकश्रेयसे स्तुतिः ॥
सुवासिनीपूजादि विशेषाय॑विसर्जनान्तम् अथ श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण पञ्चमवर्ज यथार्हपञ्चमसहितं वा सुवासिनीपूजनम् , तत्त्वत्रयशोधनम् , हविःप्रतिपत्तिं च निवर्त्य, मूलेन देवतामावाहनविलोमक्रमेण आत्मन्युद्वास्य, विशेषाय॑ विसृजेत् ॥
मनसाधनम्
एवं नित्यसपर्यो कुर्वन् श्यामाक्रमोक्तेन क्रमेण पुरश्चरणजपं तत्तत्कल्पोक्तसङ्ख्याकं, अनुक्तावक्षरलक्षसङ्ख्याकं, कलौ तच्चतुर्गुणितं, प्रत्यहं त्रिसहस्रादिक्रमेण कृत्वा, होमतर्पणब्राह्मणभोजनानि तत्तद्दशांशं कुर्यात् । होमश्च द्रव्यविशेषादर्शने आज्येनैव । अथ सिद्धमन्त्रः श्रीक्रमोक्तेन क्रमेण नैमित्तिकाचनपरो यदि काम्यमभिलषेत् तदुक्तप्रकारेण जपादिकं विदध्यात् ॥ इति सर्वदेवतासाधारणक्रमः ॥
मत्राणां जातिनिर्णयः अधिकारिभेदश्च अत्रोपदेश्यानां मन्त्राणां सामान्यतो जातिनिर्णयोऽधिकारिभेदश्च निरूप्यते । सौमिलन्
मायाबीजं ब्राह्मणः स्याच्छीबीजं क्षत्रियः स्मृतम् । कामबीजं भवेद्वैश्यो वाग्भवं शूद्र ईरितम् ॥ चतुर्बीजपरित्यक्तो मन्त्रः पौलस्त्यसंज्ञकः । चतुर्बीजं ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां त्रिबीजकम् ॥
बीजद्वयं तु वैश्यानां शूद्राणां त्वेकबीजकम् ॥ इति ॥ अस्यार्थः-मा ये ति हृल्लेखा। श्रीकामबीजवाग्भवैः प्रत्येकं सम्बद्धा मन्त्राः क्रमेण ब्राह्मणादयः स्युः इत्यर्थः । चतुर्बी जप रित्यक्तः उक्तबीजचतुष्टयरहितः । चतु रिति प्रत्येकं प्रणवादिबीजचतुष्टयसम्बद्धाः मन्त्राः इत्यर्थः । दातव्या इति शेषः । इदं च पदं
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नित्योत्सवः प्रत्येकमिति च पदं उत्तरत्राप्यनुषज्यते । त्रि बीज कं ,यादिबीजत्रययुक्ता इत्यर्थः । बीजद्वयं कामबीजवाग्भवयुक्ता इत्यर्थः । ए क मिति वाग्भवबीजयुक्ता इत्यर्थः ॥
अथ मन्त्रविशेषाणां अधिकारिणः । कुलमूलावतारे
उमामहेश्वरं चैव दक्षिणामूर्त्यघोरकम् । हयग्रीवं च वाराहमष्टाक्षरमतः परम् ॥ प्रणवाद्य वासुदेवं लक्ष्मीनारायणं तथा । वर्णत्रये तु दातव्यं नान्यवर्णे कदाचन ॥ नारसिंहं पाशुपतं तथा चैव सुदर्शनम् । वर्णद्वये च दातव्यं नान्ययोश्चैव कर्हिचित् ॥ अमिमन्त्राश्च ये केचित् सूर्यमन्त्राश्च ये तथा । ' तारादिघृणिमन्त्राश्च दातव्याश्च त्रिवर्णके ॥ आनुष्टुभं शक्तिमन्त्रास्तथा विन्ध्यनिवासिनी । समनीलसरस्वत्या दातव्याश्चादिवर्णके ॥ मातङ्गिन्युग्रतारा च काळिका श्यामळा तथा । छिन्नमस्ता च बाला च दातव्या सर्ववर्णके ॥ तारादिस्तु गणेशस्य हरिद्रासंज्ञकस्तथा । त्रिवर्णेष्वेव दातव्यः कथितः सर्वसिद्धिदः ॥ त्रिपुरायाश्च ये मन्त्राः ये मन्त्रा वटुकादयः । सर्ववर्णेषु दातव्याः पुरन्ध्रीणां विशेषतः ॥ हृदादिहुंफट्कारादि सङ्कराणां प्रशस्यते ॥ इति ॥
कलौ सिद्धमन्त्राः अथ कलौ सिद्धमन्त्राःव्यर्ण एकाक्षरोऽनुष्टुप् त्रिविधो नरकेसरी । एकाक्षरोऽर्जुनोऽनुष्टुद्विविधस्तुरगाननः ॥ चिन्तामणिः क्षेत्रपालो भैरवो यक्षनायकः । गोपालो गजवक्त्रश्च चेष्टका यक्षिणी तथा ॥
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः मातङ्गी सुन्दरी श्यामा ताराकर्णपिशाचिनी । शबर्येकजटा वामा काळी नीलसरस्वती ॥ त्रिपुरा काळरात्रिश्च कलाविष्टप्रदा इमे ॥ इति ॥
गुरुशिष्ययोः वर्णाश्रमादिव्यवस्था नारदपाञ्चरात्रे
ब्राह्मणः सर्वकालज्ञः कुर्यात् सर्वेष्वनुग्रहम् । तदभावे द्विजश्रेष्ठः शान्तात्मा भगवन्मयः ॥ क्षत्रविद्शूद्रजातीनां क्षत्रियोऽनुग्रहक्षमः । क्षत्रियस्यापि च गुरोरभावादीदृशो यदि ॥ वैश्यः स्यात्तेन कार्यों वै द्वये नित्यमनुग्रहः । सजातीयेन शूद्रेण तादृशेन महामते ॥ अनुग्रहाभिषेकौ च कायौं शूद्रस्य सर्वथा । वर्णोत्तमेऽथ च गुरौ सति वाऽपि श्रुतेऽपि वा ।। स्वदेशतोऽथवाऽन्यत्र नेदं कार्य शुभार्थिना ।
क्षत्रविट्शूद्रजातीयः प्रातिलोम्यं न दीक्षयेत् ॥ इति ॥ रुद्रयामळे
न पत्नी दीक्षयेत् भर्ता न पिता दीक्षयेत् सुताम् ।
न पुत्रं च तथा भ्राता भ्रातरं नैव दीक्षयेत् ॥ इति ॥ योगिनीतन्त्रे
निर्वीर्य तु पितुर्मन्त्रं तथा मातामहस्य च ।
सोदरस्य कनिष्ठस्य वैरिपक्षाश्रितस्य च ॥ इति ॥ कनिष्ठस्य स्वापेक्षया न्यूनवयस्कस्य यस्य कस्यापि ॥
गणेशविमर्शिन्याम्प्रमादाच्च तथाऽज्ञानात् पितुर्दीक्षां समाचरन् । प्रायश्चित्तं ततः कृत्वा पुनर्दीक्षां समाचरेत् ॥ इति ॥
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नित्योत्सवः पितुरित्युपलक्षणं मातामहादीनामपि । प्रायश्चित्तं तु अयुतसावित्रीजपः सर्वत्र, तथा दर्शनात् । सिद्धमन्त्रग्रहणे तु नायं निषेधः ॥
तथा च सिद्धयामळे
यदि भाग्यवशेनैव सिद्धविद्यां लभेत् प्रिये ।
तदैव तां तु दीक्षेत त्यक्त्वा गुरुविचारणाम् ॥ इति ॥ "सिद्धमन्त्रो न दुष्यति" इति तन्त्रान्तरवचनाच्च । पुण्यतीर्थे उपरागे सति पित्रादेरपि इष्टमन्त्रो ग्राह्य एव । तथाच वैशम्पायनसंहितायां व्यासवचनं शौनकं प्रति
प्रसन्नहृदयः स्वस्थः पिता मे करुणानिधिः ।
कुरुक्षेत्रे महातीर्थे सूर्यपर्वणि दत्तवान् ॥ इति ॥ प्रकरणात् मन्त्रमिति सम्बध्यते । शैवागमेऽपि
भिक्षुभ्यश्च वनस्थेभ्यो वर्णिभ्यश्च महेश्वरि । गृहस्थो भोगमोक्षार्थी मन्त्रदीक्षां न चाचरेत् ॥ त्यक्तामयः क्रियाहीनाः यतयो ह्यपरिग्रहाः ।
वनस्थास्तादृशा एव वर्णी न्यूनाश्रमी यतः ॥ वर्णी ब्रह्मचारी न्यूनाश्रमी गृहस्थापेक्षया । एवं गृहस्थाद्यतिभिरपि मन्त्रो न ग्राह्य इत्यवगम्यते ॥
वयोमेदेन सिद्धिप्रदा मन्त्राः अथ बाल्ययौवनवार्धक्येषु सिद्धिप्रदाः मन्त्राः क्रमेणबीजमन्त्रास्तथा मन्त्रा मालामन्त्रा इति त्रिधा । बीजमन्त्रा दशार्णान्तास्ततो मन्त्रा नखावधि ॥
विंशत्यधिकवर्णा ये मालामन्त्रास्तु ते स्मृताः ॥ इति ॥ एत एव अवस्थान्तरेष्वपि द्विगुणजपात् सिध्यन्ति ।
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः साधारणक्रमः
मन्त्राणां व्यक्तिविशेषाः
पुंस्त्रीनपुंसकाः प्रोक्ता मनवस्त्रिविधा बुधैः । वषडन्ताः फडन्ताश्च पुमांसो मनवः स्मृताः ॥ वौषट्स्वाहाऽन्तिमा नायों हुंनमोन्ता नपुंसकाः ॥ इति ॥
एतेषां विनियोगस्तु —
वश्योच्चाटनरोधेषु पुमांसः सिद्धिदायकाः । क्षुद्रकर्मरुजां नाशे स्त्रीमन्त्राः शीघ्रसिद्धिदाः ।
आभिचारे स्मृताः क्लीबा एवं ते मनवस्त्रिधा ॥ इति ॥
सिद्धारिशोधनप्रकारः
अथाशङ्कादीनां बहूनां विचार्यत्वेऽप्यावश्यकमात्रं लिख्यते । तत्र सिद्धारिशोधनप्रकार:
ऊर्ध्वाभिश्च तिरश्चीभिः रेखाभिः पञ्च पञ्चभिः । कोष्ठषोडशकं कृत्वा मातृकाणैः प्रपूरयेत् । एकत्रिरुद्रनवदृङ्निगमार्कपंक्ति
षण्णागभूपमनुबाणहयेषु तिथ्याम् ॥
काम क्रमादकथप्रभृतीन् मनीषी वर्णान् समालिखतु षोडशषोडशत्रीन् ॥
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अस्यार्थः- -रुद्रः एकादशकोष्ठम् । दृक् द्वितीयम् । निगमाः चतुर्थम् । अर्क: द्वादशम् । पंक्तिः दशमम् । नागः अष्टमम् । भूपः षोडशम् । मन वः चतुर्दशम् । बाणाः पञ्चमम् । हयाः सप्तमम् । तिथिः पञ्चदशम् । कामः त्रयोदशं चेत्यर्थः । एकादितिथ्यन्तेषु कोष्ठेषु प्रथमं क्रमात् अकारादीन् स्वरान् विलिख्य, ततः कादितान्तान्, ततः थादिसान्तान् वर्णान् विलिख्य, ततः प्रथमकोष्ठे तृतीये एकादशे च हळक्षान् विलिखेत् इति ॥
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विदितेषु कोष्ठानां चतुष्केषु चतुष्विह । यत्र साधकनामादिवर्णस्तत्सिद्धिसंज्ञकम् ॥
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२१०
नित्योत्सवः
प्रादक्षिण्यक्रमेणास्माच्चतुष्कत्रितयं परम् ॥ साध्यं तथा सुसिद्धं च शत्रुश्चेत्यभिधीयते ॥ एकैकस्मिन् चतुष्केऽपि यस्मिन् कोष्ठे तदक्षरम् । तदाद्युक्तक्रमेणैव सिद्धसाध्यादिकल्पना ॥ एवं साध्यचतुष्कादौ तत्तुल्यस्थानकोष्ठतः । साध्यसिद्धः साध्यसाध्यः इत्याद्याख्याः क्रमान्मताः ॥ 'सिद्ध सिद्धप्रभृत्यर्थं न तत्षोडशसद्मसु । यत्र यस्य मनोराद्यो वर्णः सोऽपि तदाह्वयः ॥ स्पष्टोऽर्थः ॥
अथैतेषां फलानि कुलमूलावतारे
सिद्धः सिध्यति कालेन साध्यः सिध्यति वा न वा । सुसिद्धस्तत्क्षणादेव अरिर्मूलं न कृन्तति ॥ इति ॥
तन्त्रराजे -
सिद्धसिद्धो जपात् सिध्येत् द्विगुणात् सिद्धसाध्यकः । सिद्धः सुसिद्धः संप्राप्तेः सिद्धारिर्हन्ति गोत्रजान् ॥ साध्यसिद्धोऽतिसंक्लेशात् साध्यसाध्योऽतिदुःखकृत् । साध्यसुसिद्धो भजनात् साध्यारिः स्वस्त्रियं हरेत् ॥ सुसिद्धसिद्धोऽर्धजपात फलं दद्यात् यथेप्सितम् । सुसिद्धसाध्यो जापाद्यैः सिद्धये स्यादतोऽन्यथा ॥ सुसिद्धे च सुसिद्धस्तु पूर्वजन्मकृतश्रमः । तस्मात् तं सर्वसिद्धीनां साधने योजयेन्मनुम् ॥ सुसिद्धारिरशेषेण स्वकुलं मारयेत् ध्रुवम् । अरिसिद्धः सुतं हन्यादरिसाध्यस्तु कन्यकाम् ॥ तत्सुसिद्धस्तु पत्नीं स्वामर्यरिः साधकापहः ॥ इति ॥
संप्राप्तेः प्राप्तिमात्रात् । जापाद्यैरित्याद्यिशब्देन होमतर्पणब्राह्मणभोजनानि गृह्यन्ते ॥
1 सिद्धसाध्यप्रभृत्यर्णः यन्त्रषोडशसद्मसु – अ१.
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः साधारंणक्रमः
ऋणधनशोधनप्रकारः
द्विगुणीकृत्य साध्यस्थं स्वरव्यञ्जनमण्डलम् । साधकाख्याजुषा तेन मेळयित्वाऽष्टभिर्हरेत् ॥ शेषः साध्यस्य राशिः स्याद्योजयेत् 'साधकेऽन्यथा । साधकाधिकशेषस्तु ऋणी साध्यः शुभावहः || शोधितो न्यूनशेषस्तु वर्णलक्षजपाच्छुभः ॥ इति ॥
1
साध्यो मन्त्रः, तेन स्वरव्यञ्जनसमुदायेन । अन्यथेति साधकनामगतं स्वरव्यञ्जनसमूहं द्विगुणीकृत्य साध्यगतस्वरव्यञ्जननिकरेण सम्मेळ्य अष्टभिः हरेत् । शेषं साधकराशिं जानीयादित्यर्थः । शोधित इति उक्तेन सिद्धारिक्रमेण शोधितोऽनुकूलो मन्त्रो यदि साधकान्यूनशेषः स्यात्तदा यावत्या वर्णसङ्ख्यया न्यूनता तावल्लक्षजपादिना ऋणमपाकृत्य पुरश्चरणादिकं कुर्यादित्यर्थः । प्रकारान्तराणि चान्यतो ज्ञातव्यानीति दिक् ॥
ऋणीधनीचक्रम् कोष्ठान्येकादशान्येव वेदेन पूरितानि च । अकारादिहकारान्तं लिखेत् कोष्ठेषु तत्त्ववित् ॥ प्रथमं पञ्चकोष्ठेषु ह्रस्वदीर्घक्रमेण तु । द्वयं द्वयं लिखेत्तत्र विचारे खलु साधक ॥ शेषेष्वेकैकवर्णास्तु क्रमतस्तु लिखेत् सुधीः ।
षट्कालकालवियदग्निसमुद्रवेद
खाकाशशून्यदहनाः खलु साध्यवर्णाः ।
युग्मद्विपञ्चवियदम्बरयुक्शशाङ्क
व्योमाब्धिवेदशशिनः खलु साधकार्णान् ॥
नामाज्झलादकटबाद्गजभुक्तशेषं
ज्ञात्वोभयोरधिकशेषमृणं धनं स्यात् ॥
·३११
* साधको-अ, भ.
9 अयं खण्डः (श्री) कोश एवोपलभ्यते.
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नित्योत्सवः अस्यार्थः-साध्यवर्णान् स्वरव्यञ्जनरूपेण पृथक् पृथक् तान् षट्कलाद्यकैः गणितान् तथा साधकनामाक्षरान् युग्मायकैः गणयित्वा, अष्टसङ्ख्याभिः हृत्वा उभयोश्च साध्यसाधकयोः अधिकं ऋणं शेषं धनं ज्ञात्वा मन्त्रं दद्यात् ॥
यदा मन्त्रश्चेदृणी भवति तदा मन्त्रः शुभदायको भवति । धनी चेन्मन्त्रे यद्यधिकाङ्कः स्यात् तदा मन्त्र जपेत् सुधीः ।। समेऽपि च जपेन्मन्त्रं न जपेत्तु ऋणाधिकम् । शून्ये मृत्युं विजानीयात् तस्माच्छून्यं परित्यजेत् ॥
रुद्रयामळे
इन्द्रक्षनेत्ररविपञ्चदशर्तुवेद
वयायुगाष्टनवभिर्गणितांश्च साध्यान् । दिग्मुर्गिरिः[१]श्रुतिगजाभिमुनीषुवेद
षड्वह्निभिस्तु गणितानथ साधकार्णान् ॥ नामाज्झलादित्यादिवचनं विष्णुविषयम् , रामार्चनचन्द्रिकोद्धृतत्वात् इति केचित् । वस्तुतस्तु-पूर्वस्यैव विचारणं हृतशेष इन्द्रःर[?] मित्यादिनामाक्षरमारभ्य यावत् साधकाक्षरं भवेत् तावत्सङ्ख्यं सप्तगुणं कृत्वा त्रिभिः हरेत् । यद्वा
साध्यनामाद्विगुणितं साधकेन समन्वितम् ।
अष्टभिश्च हरेच्छेषं तदन्यद्विपरीतकम् ॥
अस्यार्थः-साध्यनामाद्विगुणितं साधकाक्षरसमन्वितम् । अष्टभिश्च हरेत्तदन्यत् । साधकनामानं स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विगुणीकृत्य साध्येन युक्तं कृत्वा अष्टमिः हरेत् ॥ इति ऋणीधनीचक्रम् ॥ इति कुलाकुलचक्रविचारः ॥
कुलाकुलचक्रविचारापवादः अथ तदपवादः--कुलार्णवसोमसिद्धान्तरत्नसागररुद्रयामळकुलमूलावतारागस्त्यसंहितासिद्धान्तशेखरादिवचनगतोऽपुनरुक्तः संगृह्यते
एकाक्षरे तथा कूटे त्रैपुरे स्त्रीसमर्पिते । स्वप्नलब्ध नृसिंहार्कवराहाणां मनुष्वपि ॥
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः साधारणक्रमः
प्रासादे प्रणवे तद्वत् सपिण्डाक्षरमन्त्रके । मृत्युञ्जये च पाशाद्ये वैष्णवे चण्डनायके ॥ व्योमव्यापिनि मायायां मालामन्त्रेष्वघोरके । एकत्रिपञ्चषट्सप्तेभाङ्करुद्राक्षरेषु च ॥ नपुंसके च दन्तार्णे काळिकाश्यामळामनौ । सिद्धकाळीचण्डिकयोः मन्त्रे राममनुष्वपि ॥ गोपालमातृकामन्त्रे हरवल्लभया सह । श्रीविद्या सिद्धविद्या च मातङ्गी भुवनेश्वरी ॥ पद्मावती मधुमती दत्तात्रेयश्च पार्वती । मित्रेशोड्डीशषष्टीशचर्यानन्दमनुष्वपि ॥ सप्तप्रणवमन्त्राणां हरिद्रोच्छिष्टयोरपि । आसुरी सुमुखी चैव रेणुका च सरस्वती ॥ कुम्भोद्भवाणवश्चैव मतङ्गगणिकस्य च । शाबराणां च मन्त्राणां वृद्धजप्तमनुष्वपि ॥ कुलागतानां मन्त्राणां सिद्धान्नैव शोधयेत् । बहुरूपाह्वये मन्त्रे जैनबौद्धमनुष्वपि ॥ सिद्धारित्वादि धनितामृणितां च न शोधयेत् ॥
कूटे कूटाक्षरे मन्त्रे । स्त्री समर्पिते स्त्रीविशेषसमर्पिते इत्यर्थः । तथा च तन्त्रान्तरे
I
साध्वी चैव सदाचारा गुरुभक्ता जितेन्द्रिया । सर्वमन्त्रार्थतत्त्वज्ञा सुशीला पूजने रता । गुरुयोग्या भवेत् सा हि विधवा परिवर्जिता ।
यो दीक्षा शुभा प्रोक्ता मातुश्चाष्टगुणा स्मृता ॥ इति ॥
२१३
स्वप्न लब्ध इत्यत्र च कर्तव्यताविशेषो यथा
स्वमलब्धे तु कलशे गुरोः प्राणं निवेश्य च ।
वटपत्रे कुङ्कुमेन लिखित्वा ग्रहणं शुभम् । ततः शुद्धिमवाप्नोति झन्यथा विफलं भवेत् ॥ इति ॥
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३१४
नित्योत्सवः
इदं तु सद्गुरोरभावे । तत्संभवे तु तत एव गृह्णीयात् इति । प्रासादे प्रासादबीजाद्ये । पाशः पाशबीजम् । व्यो म व्यापि नि हकारादौ । माया यां हृल्लेखायाम् । अङ्के नवाक्षरे । दन्तार्णे द्वात्रिंशदक्षरे । हरिद्रो च्छिष्ट योः तत्तद्गुणपत्योः । अणुः मन्त्र इति । केषांचिन्मन्त्राणां शापाभाव उक्तो वातुलागमे
पुरा शापविहीनं च वर्तते मन्त्रपञ्चकम् । श्रीविद्यासाळुवं मन्त्रं नृसिंहार्कवराहकम् ॥ इति ॥
तन्त्रान्तरे तु —
मन्त्रादिषु च सर्वेषु हृल्लेखाकामबीजकम् ।
श्रीबीजं वा विनिक्षिप्य जपेन्मन्त्रस्य सिद्धये । तारसम्पुटितो वाऽपि दुष्टमन्त्रोऽपि सिध्यति ॥ इति ॥
हिरण्यगर्भसंहितायाम् —
स्वनामादिवर्णैः स्वमित्राक्षरैर्वा
मनुं सम्पुटीकृत्य येऽनुस्मरन्ति ॥
स मन्त्रस्तेषां सिध्यतीति शेषः । अनुस्मरणं जपः । तन्त्रान्तरे तु —
यत्र यस्य भवेत् भक्तिविशेषः स मनूत्तमः । वैरिकोष्ठमनुप्राप्तः सिद्धिदस्तस्य जायते ॥ गुरोरनुज्ञामात्रेण दुष्टमन्त्रोऽपि सिध्यति । गुरुं विलङ्घ्य शास्त्रेऽस्मिन्नाधिकारः सुरेश्वरि || इति ॥
अथापि रिस्कुन मन्त्रेण आभिचारादौ क्रियमाणे साधकस्यैवानिष्टापत्त्या सिद्धार्यादिविचारः कर्तव्य इति तन्त्रराजमतम् । वस्तुतस्तु --
नित्यनैमित्तिकान्मुक्तिः काम्यादैहिकमेव हि । प्रयोगात् परलोकस्य हानिरेव तु जायते ॥
इति वचनात् नित्यनैमित्तिकमात्रपरो भवेत् इत्युचितमिति दिक् ॥
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२१५.
अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः
मन्त्राणां संस्काराः लिजत्लादिकंपादोषशान्त्यै निरूप्यते । संस्कारदशकं सप्तकोटिमन्त्रगणे क्रमात् ॥ जननं जीवनं पश्चात् ताडनं बोधनं तथा । अथाभिषेको विमलीकरणाप्यायने पुनः ।
तर्पणं दीपनं गुप्तिर्दशैता मन्त्रसंस्क्रियाः ॥ जननं यथा
भूर्जपत्रे लिखेत् सम्यक् त्रिकोणं रोचनादिभिः । वारुणं कोणमारभ्य सप्तधा विभजेत् समम् ॥ एवमीशामिकोणाभ्यां जायन्ते तत्र योनयः । नववेदमितास्तत्र विलिखेन्मातृकाः क्रमात् ॥ अकारादिहकारान्तामीशादिवरुणावधि । देवीं तत्र समावाह्य पूजयेच्चन्दनादिभिः ॥ ततः समुद्धरेन्मन्त्रं जननं तदुदीरितम् ॥ दीपनं यथा
जपो हंसपुटस्यास्य सहस्रं दीपनं स्मृतम् ॥ (हंसः+मन्त्रः+सोऽहम् ॥) बोधनं यथा
नभोवहीन्दुयुक्ता/ सम्पुटस्य जपो मनोः । सहस्रपञ्चकमितो बोधनं तत् स्मृतं बुधैः ॥
(हरूं+मन्त्रः+हम् ॥) ताडनं यथा
सहस्रं प्रजपेदस्त्रपुटितं ताडनं तु तत् ॥
(फट+मन्त्रः+फट् ॥) 1 हंसंपु-ब२, १३, श्री.
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नित्योत्सवः अभिषेको यथावाग्धंसतारैर्जप्तेन सहस्रं पाथसा मनुम् । अभिषिञ्चेत वागाद्यैरभिषेकोऽयमीरितः ॥ (ऐं हंसः ॐ इति ॥) विमलीकरणं यथाहरिर्वयन्वितस्तारी वषडन्तो ध्रुवादिकः । सहस्रं तत्पुटं जप्याद्विमलीकरणं मनोः ॥
(ॐ त्रों वषट्+मन्त्रः+वषट् त्रों ॐ ॥) जीवनं यथा
स्वधावषट्पुटं जप्यात् सहस्रं जीवने मनुम् ।।
(स्वधा वषट्+मन्त्रः+वषट् स्वधा ॥) तर्पणं यथा
क्षीराज्ययुतपाथोभिस्तर्पणे तर्पयेन्मनुम् ॥ गोपनं यथा
जपेन्मायापुटं मन्त्रं सहस्रं गोपनं हि तत् ॥ (ह्रीं+मन्त्रः+हीम् ॥) आप्यायनं यथा
बालातार्तीयबीजेन गगनाद्येन सम्पुटम् । सहस्रं प्रजपेन्मन्त्रमेतदाप्यायनं मतम् ॥ (ह्सौः+मन्त्रः+सौः)
संस्कारदशकं प्रोक्तं मनूनां दोषनाशकम् ॥ अस्यार्थः--वि भजे त् तिर्यग्रेखाभिरित्यर्थः । एवं सप्तधा । तत्र पृथुत्रिकोणे योनयोऽल्पानि त्रिकोणानि । नव वे द मि ताः एकोनपञ्चाशत् । ईशा दि ईशानकोणादि । वरुणा व धि स्वाग्रवारुणकोणपर्यन्तम् । देवी मातृकां देवतां स्वोपास्य
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः
२१. मन्त्रदेवतां वा । चन्द ना दि भिः--आदिशब्देन पुष्पादीनि गृह्यन्ते । पञ्चोपचारः इत्यर्थः । स मुद्धरेत् स्वोपास्यमन्त्रवर्णान् क्रमेण तत्तत्कोष्ठेभ्यो गृहीत्वा पत्रान्तरे लिखेदित्यर्थः । जननं जननाख्यसंस्कारः । एवमेव दीपनादयोऽपि । हंस पुट स्य
आद्यन्तयोः हंसमन्त्रसम्पुटितस्य । अस्य स्वोपास्यमन्त्रस्य । नभो हकारः, वह्निः रकारः, इन्दुः बिन्दुः, तैर्युक्तोऽर्षी ऊकारः, तेन ह्रूं एतेन सम्पुटितस्य मन्त्रस्य सहस्रपञ्चकजपेन बोधनमित्युक्तम् । अस्त्रं फटकारं, तत्पुटितेन मन्त्रेण सहस्रजप्तेन ताडनमित्युक्तम् । वागिति ऐं हंसः ओं इति त्रिभिरभिषिञ्चेत् । पत्रान्तरे लिखितं मनु कुशाग्रतोयबिन्दुभिः प्रोक्षयेदित्यर्थः । हरिः तकारः, वय न्वितो रकारयुतः, तारी प्रणवयुतः, त्रोम् । ध्रुवस्तारः तदा दि कः ॐ त्रों वषट् । तत्पुटं एभिः सम्पुटितम् । मा या ह्रींकारः । बा ला तृ ती य बीजं सौः, गगनं ह, सौरित्यनेन । शेष सुगममिति । तन्त्रसारादिषु तु संस्काराणां प्रयोगभेदोऽपि दृश्यते । एतेषां संस्काराणां सकृदेवानुष्ठानम् , नत्वभ्यासः इति दिक् ॥
पुष्पविचारः अथ प्राक्विकीर्षितः पुष्पविचारः
पुष्पाणि तावत् पञ्चधा—परं अपरं उत्तमं मध्यमं अधमं चेति । मणिरत्नसुवर्णादिनिर्मितं कुसुमं परं, तच्च न कदाचिन्निर्माल्यम् । चित्रवसनादिकर्तनजं अपरम् , तच प्रतिदिनप्रोक्षणेन शुध्येत् । उत्तमं वृक्षभवं, तच्च प्रातरपचितं तत्सन्ध्यात्रितयावधि न निर्माल्यम् । मध्यमं फलरूपम् । अधमं पत्रजलरूपम् । एते च तत्तत्काल एवार्पणार्हे इति प्रयोगपारिजाते नारदः ॥
देवतायोग्यानि पुष्पादीनि भविष्यपुराणेपुष्पैररण्यसम्भूतैः पत्रैर्वा गिरिसम्भवैः । अपर्युषितनिच्छिद्रैः प्रोक्षितैर्जन्तुवर्जितैः ॥ आत्मारामोद्भवैर्वाऽपि भक्त्या सम्पूजयेत् सुरान् ॥
74
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नित्योत्सवः विष्णुधर्मोत्तरे
धर्मार्जितधनक्रीतैः यः कुर्याद्देवतार्चनम् ।
उद्धरिष्यत्यसन्देहात् सप्त पूर्वान् तथा परान् ॥ इति विप्रातिरिक्तविषयम् ,
समित्पुष्पकुशादीनि ब्राह्मणः स्वयमाहरेत् ।
शूद्रानीतैः क्रयक्रीतैः कर्म कुर्वन् पतत्यधः ॥ इति भविष्योक्तेः । अयं च निषेधो ब्राह्मणस्य नित्यार्चन एव, न तु नैमित्तिके काम्ये च ॥
लक्षपुष्पार्चनादौ तु क्रयक्रीतमपीप्यते । इति मन्त्रकोशकारोक्तेः । परोपवनादेः चौर्येणापि कुसुममादेयम् ॥
देवतार्थे च कुसुममस्तेयं मनुरब्रवीत् ॥ इति वचनात् । याचितपुष्पार्चनस्य वराहपुराणे अपराधेषु गणितत्वाच्च याचनमपि जलोपान्त एव निषिद्धम् , तीरादन्यत्र याचने तु न दोष इति प्रयोगपारिजातोक्तेः । तत्रैव स्वजात्याहृतं पुष्पं द्रव्येण आत्मीयं कृत्वा पूजयेदिति । अनेन विप्रस्यापि क्रयक्रीतार्चनाभ्यनुज्ञा दृष्टा ॥
वर्जनीयानि कृमिकीटावपन्नानि शीर्णपर्युषितानि च ।
स्वयं पतितपुष्पाणि त्यजेदुपहतानि च ॥ उपहतिस्तु मलादिना।
निर्गन्धं केशकीटादिदूषितं चोग्रगन्धकम् । मलिनं तुच्छसंस्पृष्टमाघ्रातं स्वविकासितम् ॥ अशुद्धभाजनानीतं स्नात्वा नीतं च याचितम् ॥
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः
२१९ स्नात्वेति मध्याहस्त्रानोत्तरमानयने निषेधः । निर्गन्धेष्वपि केषां चिदुपादानमुक्तं स्वच्छन्दसारे
निर्गन्धपुष्पजातीषु पलाशकुसुमैरपि ।
जपाबन्धूकपुप्पैश्च मन्दारैरपि पूजयेत् ॥ इति ॥ पुष्पसारसुधानिधौ
पुष्पं वस्त्रे न बध्नीयात् शिरसा न वहेद्बुधः ।
नयेत् पत्रपुटेनैव पाणिनाऽऽलम्ब्य वाग्यतः ॥ आश्वलायन:-- नाग्निना सह पुप्पं वा जलं चान्नं न चानयेत् ।
जलामिगन्धपुष्पान्नं न मूर्भोऽसेन वाहयेत् ॥ ग्रन्थान्तरे--
देहोपरि धृतं यच्चाप्यधोवस्त्रधृतं च यत् । वामहस्ते धृतं यच्च जलेन क्षाळितं च यत् ॥ देवतास्तन्न गृह्णन्ति पुष्पं निर्माल्यतां गतम् । समित्पुष्पकुशादीनि वहन्तं नाभिवादयेत् ॥ तद्धारी चैव नान्यान् हि निर्माल्यं तत् भवेत्तयोः । शुष्कं पर्युषितं कृष्णं भूमिगं नार्पयेत् सुमम् ॥ चम्पकं कमलं त्यक्त्वा कलिकामपि वर्जयेत् ॥ इति ॥
. सर्वदेवतासाधारणानि विहितानि च भविष्यपुराणे
जातीशमीकुशाः कङ्कुमल्लिकाकरवीरजम् । नागपुन्नागकाशोकरक्तनीलोत्पलानि च ॥ चम्पकं वकुळं चैव पद्मं बिल्वं पवित्रकम् । एतानि सर्वदेवानां विहितानि समानि च ॥
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नित्योत्सवः कङ्कु कुटजकम् । दुर्गाया विहितानि देवीपुराणे--
ऋतुकालोद्भवैः पुष्पैः मल्लिकाजातिपुष्पकैः । किंशुकैश्चम्पकैश्चैव 'किंकरातैश्च पाटलैः ॥ वकुलेश्चैव मन्दारैः कुन्दपुष्पैस्तिरीटकैः । करवीरार्कपुष्पैश्च शिशुपैश्चापराजितैः ॥ सितै रक्तैस्तथा पीतैः कृष्णैश्चैव चतुर्विधैः । सितरक्तैस्तथा पुष्पैः पद्मश्चापाण्डुरैस्तथा ॥ दमनैः सिन्दुवारैश्च सुरभिमरुवकैस्तथा । मञ्जरीभिः कुशानां च बिल्वपत्रैः सुशोभनैः ॥ रक्तान्वितैस्तथा सर्वैः जलजैः स्थलसम्भवैः । पत्रपुष्पैर्यथान्यायं सर्वोषधिमयैः शुभैः ॥
धान्यानां सर्वपत्रैश्च पुष्पैश्चैव प्रपूजयेत् ॥ इति ॥ रक्तो रक्तवर्णः । बिल्वपत्रैः पूजने राजसूयफलम् । करवीरस्रजा भमिष्टोमफलम् । वकुळसजा वाजपेयफलम् इति प्रयोगपारिजाते पुष्पसारसुधानिधौ च ।
शिवार्चने निषिद्धानि पत्रपुष्पफलानि च ।
तानि देव्याः प्रशस्तानि अनुक्तानि विशेषतः ॥ इति ताराभक्तिसुधाऽर्णवे । रुद्रयामळशक्तियामळयोः
सुन्दरीभैरवीकाळीताराब्रह्मविवस्वताम् । . विना तुळस्या या पूजा सा पूर्णा न कदाचन ॥ सावित्री च भवानी च दुर्गादेवीं सरस्वतीम् ।
योर्चयेत् तुळसीपत्रैः सर्वैः कामैः स ऋध्यति ॥ इति ॥ "बिल्वैर्वा तुळसीपुष्पैः” इति रहस्यनामसाहस्र ललितार्चने स्मर्यते ॥
___ केषांचित्कालावधिः तत्र हेमाद्रौ
पङ्कजं पञ्चरात्रं स्याद्दशरात्रं तु बिल्वकम् ।
तुळस्येकादशाहं तु पुनः प्रक्षाळ्य पूजयेत् ॥ 1 किंकिरा-अ, ब, ब२.
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अनवस्थोल्लासः सप्तमः-साधारणक्रमः
२२१
२२१
बोपदेवः
बिल्वापामार्गजातीतुळसिशमिशताकेतकीभृङ्गवूर्वा___ कुंदांभोजाहिदर्भा मुनितिलतगरा ब्रह्मकल्हारमम्लः । चम्पा चारातिकुम्भी दमनमरुवका बिल्वतोहानि शस्ताः
त्रिंशस्त्र्यकार्यरीशोदधिनिधिवसुभू भूयसा भूय एवम् ॥ त्रिंशादयो बिल्वप्रभृतीनां दिनसङ्ख्यावाचकाः । मुहुरावाश्च ॥
विहितनिषिद्धानि पाटला च शमीपत्रं दुर्गायास्तु हिताहितम् ॥ विहितनिषिद्धमित्यर्थः ॥
तिलकं मालती बाणस्तुळसी भृङ्गराजकम् । तमालं शिवदुर्गाथै निषिद्धविहितं भवेत् ॥ बाणो भाषया करसाला ॥
जयः काशः श्वेतपद्मं श्वेतमन्दारकं तथा । दुर्गायाश्चैव विष्णोश्च निषिद्धविहितं भवेत् ॥ जयः जयन्ती ॥
अगस्तिरतिमुक्तं च तिरीटं च हरे हरौ ।
अपामार्गस्य पुष्पं च दुर्गायाश्च हिताहितम् ॥ अतिमुक्तो माधवीलता । तिरीटं लोध्रम् ॥
निषिद्धानि अक्षतानकंधुत्तूरौ विष्णो वार्पयेत् सुधीः ॥ अक्षतनिषेधः सालग्रामपर एव न तु मूर्त्यामिति हेमाद्रिः ॥
बन्धूक केतकी कुन्दं केसरं कुटजं जपाम् । . शकरे नार्पयेत् विद्वान् मालती यूधिकामपि ॥
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२२२
नित्योत्सवः शक्तौ दूर्वार्कमन्दारान् मालूरं तगरं रवौ ।
विनायके तु तुळसी नार्पयेत् जातुचिबुधः ॥ इहार्कनिषेधो दुर्गेतरविषयः, विहितेषु तस्याप्युपादानात् ॥
मध्यमं फलरूपं कुसुमम् जम्बूदाडिमजम्भीरचिञ्चिणीबीजपूरकाः । रम्भा धात्री च बदरी रसाल: पनसोऽपि च ॥
एषां फलैर्यजेद्देवं . . . . . . . . . . . . ॥ देवमित्युपलक्षणं देव्या अपि ॥
अधमम् तुळसी वकुळो वृक्षः चम्पकश्च सरोजिनी । बिल्वकल्हारदमनास्तथा मरुवकं कुशः ॥ दूर्वाहिवल्ल्यपामार्गा विष्णुक्रान्ता मुनिद्रुमः ।
धात्रीयुतानामेतेषां पत्रैः कुर्यात् सुरार्चनम् ॥ इह तुळस्यादीनां पूर्वोक्तानां केषां चित् वकुळादिपत्रप्रायपाठेऽपि नाधमत्वम् । पत्ररित्युपलक्षणं फलस्यापि ॥
पर्युषितकुसुमविचारः भविष्यपुराणे
न पर्युषितदोषोऽस्ति जलजोत्पलचम्पके ।
तुळस्यगस्त्यवकुळे बिल्वे गङ्गाजले तथा ॥ अन्यत्र
तुळस्यां बिल्वपत्रे च जलजेषु च सर्वशः । न पर्युषितदोषोऽस्ति मालाकारगृहेषु च ॥ इति ॥
पर्युषितापवादः पारिजाते
जलं पर्युषितं त्याज्यं पत्राणि कुसुमानि च । तुळस्यगस्त्यबिल्वानि गाङ्गं वारि न दुष्यति ॥ इति.॥
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स्कान्दे
तस्य माला भगवतः परमप्रीतिकारिणी । शुष्का पर्युषिता वाऽपि न दुष्टा भवति कचित् ॥
तस्येत्युपक्रमात् दमनकस्य । भगवत इत्युपलक्षणं भगवत्या अपि ॥
पर्युषितमात्रस्यापि प्राह्यत्वम्
प्रयोगपारिजाते
अनवस्थोल्लासः सप्तमः साधारणक्रमः
यद्वा पर्युषितैश्चापि पुष्पाद्यैरविकारिभिः ।
गन्धोदकेन चैतानि त्रिः प्रोक्ष्यैव प्रपूजयेत् ॥ इति ॥ अथवा बिल्वतुळसीपत्रैर्वकुळपुष्पकैः ।
शुष्कैरपि पूजयेत् .
॥ इति ॥
सर्वस्यैतस्यापवादः
ग्रन्थान्तरे—
देवीपूजा सदा कार्या जलजैः स्थलजैरपि । विहितैर्वा निषिद्धैर्वा भक्तियुक्तेन चेतसा सर्वपुष्पैः सदा पूजा विहिताविहितैरपि । कर्तव्या सर्वदेवानां भक्तिरेवात्र कारणम् ॥ इति ॥
सूत्रकृता
इतोऽपि विस्तारो ऽन्यत्र द्रष्टव्यः इति दिक् ॥
२२३
निबन्धाध्ययनमहिमा
एतन्निबन्धाध्ययनेनापि सर्वदेवतोपास्तिफलं भवति । तदुक्तं भगवता
य इमां दशखण्ड महोपनिषदं महात्रैपुर सिद्धान्तसर्वस्वभूतामधीते स सर्वेषु यज्ञेषु यष्टा भवति । यं यं क्रतुमधीते तेन तेनास्येष्टं भवति इती श्रूय इत्युपनिषदिति शिवम् ॥ इति ॥
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२२४
नित्योत्सवः
अत्राधीते इत्यध्ययनविधेः अर्थज्ञानभाव्यकतया अस्य निबन्धस्य खण्डद शकार्थावग
मकत्वात् इति शिवम् ॥
ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिः
नित्योत्सवो निबद्धोऽयं यथाधीविभवं मया । भ्रमप्रमादस्खलितं समादधतु तद्विदः ॥ अनेन वागध्वरेण समाराध्या कथंचन । प्रीयतां देशिकात्मा मे देवी श्रीललिताम्बिका ॥ विश्वाश्वर्यतपोमयविश्वामित्रर्षिगोत्रतिलकेन । श्रीबालकृष्णविद्वत्सुतेन लक्ष्म्यम्बयोपलायेन || श्रुतपेटवोपनाम्ना चोळाधिपभोसलेन्दुमान्येन । नाटककाव्यादिकृता महितमहाराष्ट्रजातिहीरेण ॥ त्रय्यन्ततत्त्वशीलनदळित' जगच्छत्र [च्छास्त्र] जालमोहेन भारत्युपाख्यभास्करम खिदेशिकलब्धदैक्षनाम्नायम् ॥ आम्नायतन्त्रजालालोकपरेणार्यसम्प्रदायजुषा । ललितापदाब्जरोलम्बेन जगन्नाथपण्डितवरेण । कल्यब्देषु रसार्णवकरिवेदमितेष्विह व्यतीतेषु । नव्यः क्रोधनशरदि न्यबन्धि नित्योत्सवः शिवप्रीत्यै 11
इति श्रीमद्भासुरानन्दनाथचरणारविन्दमिळिन्दायमानमानसेन उमानन्दनाथेन निर्मिते अभिनवे कल्पसूत्रानुसारिणि नित्योत्सवनिबन्धे साधारणऋक्रमनिरूपणो नाम अनवस्थोल्लासः सप्तमः समाप्तिमगमत् ॥
इति नित्योत्सवनिबन्धः समाप्तः
श्रीगुरुचरणारविन्दार्पणमस्तु
जगच्छक
ब३ ; जगच्छक्ति – अ१ ; जगज्जाकृच्छमूहेन – भ.
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ग्रन्थनाम
अगस्त्य संहिता
आश्वलायनः
कादिमतम्
नित्योत्सवोदाहृतग्रन्थग्रन्थकारसूची
२१२ प्रयोगपारिजातः २१७, २१८,
२१९
८७
कुलमूलावतारः
२०६, २१०, २१२ कुलार्णवः ४१, १३६, १४१, २१२
गणेशविमर्शिनी
•
२०७ मन्त्रकोशकार:
ग्रन्थान्तरम्
२१९, २२३ मन्थानभैरवतन्त्रम् ज्ञानार्णवः १४, ४४, ५१, ७२, ९७, १६६ मुहूर्तचिन्तामणिः डामरम् ७९ | योगिनीतन्त्रम् तन्त्रराज: ६, १३६, १४२, २१०, २१४ रत्नसागरः तन्त्रसारः ११, २१७ तन्त्रान्तरम् ४, १४३, २१३, २१४ - २ ताराभक्तिसुधार्णवः
.
·
देवीपुराणम्
देवीयामम्
नारदपाश्चरात्रम् .
पराशरः
पारिजातः
पुष्पसार सुधानिधिः
75
.
पुटसङ्ख्या | ग्रन्थनाम
·
"
२२०, २२३
बोपदेवः
२२१ भविष्यपुराणम् २१७, २१८, २१९, २२२ मन्त्रकोशः
१५६
२१८
पुटसङ्ख्या
२
१६८
२०७
२१२
रहस्यनामसाहस्रम्
२२०
रुद्रयामलम् १६८, २०७, २१२-२, २२० २२० लिङ्गपुराणम्
१६१
२२० वराहपुराणम्
२१८
२१४
८४
५८
.
२६० वातुलागमः
१६०, २०७ वामकेश्वरतन्त्रम् .
१६१ |विद्यार्णवः २२२ | विष्णुः . २१९, २२० | विष्णुधर्मोत्तरम् .
·
१६०
२१८
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________________ 226 नित्योत्सवः पुटसङ्ख्या .14,70 / ग्रन्थनाम पुटसङ्ख्या ग्रन्थनाम विष्णुयामलम् . . . 160 | सिद्धयामलम् वैशम्पायनसंहिता . .3,208 सिद्धान्तशेखरः . शक्तियामलम् . . . 220 सुन्दरीमहोदयः . शक्तिसंगमतन्त्रम् 42, 89, 158, 159 सोमसिद्धान्तः . शारदातिलकम् . . . 87 सौत्रामणितन्त्रम् . शैवागमः . . . 208 सौभाग्यचन्द्रोदयः श्यामाक्रमः . . . 78 स्कान्दम् . श्यामारहस्यम् . . .50,70 स्वच्छन्दतन्त्रसारः साङ्यायनतन्त्रम् . . 128 हिरण्यगर्भसंहिता सारसङ्ग्रहः . . . 2-2 हेमाद्रिः . . 208 . . 212 . . . 212 . . 205 . . 5 . . 223 . 167, 219 . . 214 . 220, 221 Printed by J. R. Aria at the Vasanta Press, Adyar, Madras.