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सुगणाबाई बड़जाते जैन ग्रन्थमाला - ४
(दिल्ली सस्तासाहित्य मंडल ) पहली बार ; मूल और अनुवाद के साथ २००० ( वर्धा भारत जैन महामंडल )
दूसरी बार मात्र अनुवाद १९४२ १००० तीसरी बार मार्च चौथी बार मार्च
१९५० २००० १९५३ २०००
मूल्य : सवा दो रुपये
प्रकाशकः जमनालाल जैन प्रवन्ध मंत्री
भारत जैन महामंडल, वर्धा
मुद्रकः परमेष्ठीदास जैन जैनेन्द्र प्रेस ललितपुर (उ० प्र०)
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समर्पण
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सौ. श्रीमती अजवाली कोजिनकी सप्रेम सहचारिता के बिना
साहित्य-क्षेत्र में मैं कुछ भी नहीं कर सकतासादर समर्पण
बेचरदास
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विषय
प्रकाशक की ओर से
सपादकीय
महावीर और उनकी वाणी
२०
मैं उन्होका काम कर रहा हॅू २२
महावीर वाणी के तृतीय
१ मंगल-सूत्र २ धर्म-सूत्र
३ अहिंसा-सूत्र
...
संस्करण की प्रस्तावना २३
३
440
...
2.
...
...
विषय-सूची
...
४ सत्य सूत्र ५ अस्तेनक-सूत्र ६ ब्रह्मचर्य - सूत्र ७ अपरिग्रह - सूत्र ८ अरात्रिभोजन - सूत्र
९ विनय सूत्र
५५
१० चतुरगोय-सूत्र -११-१ अप्रमाद-सूत्र
६१
११-२ अप्रमाद - सूत्र ७१
१२ प्रमादस्थान - सूत्र
...
पृष्ठ
विषय
५. १३ कषाय - सूत्र
७
१४ काम सूत्र
·
...
७
१३
१९
२५
२९
३९
४३
४७
१५ अशरण- सूत्र
१६ चाल - सूत्र १७ पण्डित - सूत्र
१८ आत्म-सूत्र
१९ लोकतत्त्व - सूत्र
200
...
000
शुद्धिपत्रक ७९ संस्कृतानुवाद
...
...
१०५
११५
१२१
१२७
२०
पूज्य - सूत्र
१३५
२१ ब्राह्मण - सूत्र
१४१
२२ भिक्षु-सूत्र
१४७
१५५
२३ मोक्षमार्ग- सूत्र २४ जतिमदनिवारण-सूत्र १६५
२५ क्षमापन-सूत्र
...
800
...
...
...
...
पृष्ठ
८७
१७१
पारिभाषिक शब्दों के अर्थ १७३
महावीरवाणी के पद्योंकी
***
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..
९९
अक्षरानुक्रमणिका १७९
१८८
१-५०
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1
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प्रकाशक की ओर से
पहली बार 'महावीर वाणी ' सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली की ओरसे जनवरी सन् १९४२ में प्रकाशित हुई थी । उसके बाद महामण्डल की ओर से, सुगणावाई ग्रन्थमाला के अन्तर्गत हो, इसका केवल हिन्दी अनुवाद - अंश प्रकाशित किया और प्रायः अमूल्य हो वह चितरित हुआ ।
अब यह पुस्तक अपने पूर्व और पूर्ण रूप में सम्पादक और प्रकाशक की अनुमतिपूर्वक प्रकाशित की जा रही हैयह हमारे लिये प्रसन्नता की बात है ।
इस महंगाई में भी मूल्य में अधिक वृद्धि नहीं की गई है । हम चाहते हैं कि इस 'वाणी' का घर-घर में प्रचार हो । सुगणाबाई -ग्रन्थमाला श्री. चिरंजीलाल जो बड़जाते की मॉ को स्मृति में चल रही है और यह उसका चौथा पुप्प है । इसकी विक्री से प्राप्त होनेवाली रकम से यथा-शक्ति दूसरे प्रकाशन भी भेंट किए जा सकेंगे।
आशा है, इस पुस्तक का समाजमें यथोचित आदर और उपयोग होगा । दृष्टि-दोष से यदि कुछ अशुद्धियाँ रह गई हों तो कृपया पाठक सुधार
·
पन्ना भुवन, भुसावल
वीर जयन्ती, २४७६ ता० ३१ मार्च १९५०
लें
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}
फकीरचन्द पन्० जैन प्रबन्ध मंत्री भारत जैन महामण्डल
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पुनश्च -
तीन वर्ष के बाद 'महावीर वाणी' का तीसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है ।
इस बार 'महावीर वाणी' में सम्पादक ने कुछ संशोधन किए हैं। ' विवाद -सूत्र' निकालकर 'जाति-मद-निवारण सूत्र' दिए गए हैं तथा कुछ गाथाएं, निकाल दी गई हैं ।
पाठकों की सुविधा के लिए पुस्तक का हिन्दी अनुवादअंश अलग से छापा गया है । प्राकृत और संस्कृत में रुचि न रखने वालों के लिए यह संस्करण उपयोगी होगा ।
पुस्तक पं० परमेष्ठीदास जी के जैनेन्द्र प्रेस में छपी है। उनका जो सम्बन्ध है वह व्यावसायिकता से ऊपर है। उन्होंने छपाई के सम्बन्ध में पर्याप्त दिलचस्पी ली है और शुद्ध छपाई का ध्यान रखा है । हम छपाई के काम को झाड़ू देने का काम समझते हैं । कितना भी बारीकी से देखा जाय, कुछ न कुछ गलतियाँ - अशुद्धियाँ रह जाती है। जो हो; भाई परमेष्ठीदास जी को धन्यवाद देना अपनी ही प्रशंसा करने जैसा होगा ।
वर्धा १५ मार्च, ५३
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- जमनालाल जैन
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संपादकीय
'महावीरवाणी'नी आ जातनो मा श्रीजी आवृत्ति गणाय. प्रथम आवृत्ति २००० नकल दिल्लीसस्तासाहित्य मंडळ द्वारा प्रकाशित थयेली.
पछी मूळगाथा विनानो केवळ हिन्दी अनुवाद (१००० नकल) भाई श्रीचिरंजीलालजी घडजातेए पोतानां मातुश्रीना स्मरणमा वर्धाथी छपावेलो.
भाईश्री चिरंजीलालजी बडजाते सद्गत श्री. जमनालालजी बजाजना विशेष संपर्कमा आवेला जैनधर्मपरायण एक सजन भाई छे. वर्धामा रहे छ भने यथाशक्ति जनसेवामा तत्परता यतादी रह्या छे. महावीरवाणी द्वारा मारो एमनी साथे स्नेहयुक्त मधुर गाढ परिचय थई गयो छे. मूळ अने हिन्दी अनुवादवाळु आ प्रस्तुत प्रकाशन तेमणे पोतानां मातुश्रीना स्मरणमा प्रकाशित करवा सारु भारे तत्परता दाखवी छे. ते अर्थे तेमनुं अहीं नामस्मरण सविशेष उचित छे. आभाई भारत जैन महामंडळना सविशेष कार्यकर छे.
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त्यारवाद मूळ साथेनी अनुवादवाळी बीजी आवृत्ति (२००० नकल) भारत जैन महामंडलना कार्याध्यक्ष भाईश्री रिषभदास शंकाजीए पोतानी उक्त संस्था द्वारा प्रकाशित करेली.
आ प्रस्तुत आवृत्ति ( २२०० नकल) पण एज संस्था (भारत जैन महामंडल ) भाईश्री चिरंजीलालजी बडजातेनी सहायता द्वारा छापीने प्रकाशित करी रही छे.
प्रकाशक संस्थाना प्राणरूप भाई रांकाजीनो परिचय मने वीसापुर जेलमां १९३० मां थयेल छे. तेओ त्यां सत्याग्रही तरीके एक के वे वरसनी जेल लईने आवेला. धर्मचर्चाने निमित्ते मारो अने एमनो सविशेष परिचय थई गयो. आ भाई हमणां हमणां पोतानो बधो समय राष्ट्रसेवा अने भारत जैन महामंडळनी सार्वजनिक प्रवृत्तिओमां रोकी रह्या छे. माननीय श्री. विनोबाजीनी अहिंसामूलक भूदान यज्ञनी सर्वोदयी प्रवृत्तिमां एमने विशेष रस छे. आ भाई पण वर्धामां रहे छे अने तेथी ज वर्धामां वसेला संतकोटिना महानुभावो सद्गत श्री. कि. घ. मशरुवाळा, निर्वाण पामेला पू. बापुजी वगेरेना संपर्कमा रहेनारा छे. वर्धा निवासने कारणे अने सद्गत जमनालालजीनी गोसेवा प्रवृत्तिमां विशेष रस होवाने लीघे तेमो माननीय श्री. विनोबाजीना पण विशेष संपर्कमा छे.
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मारो भने एमनो जेलनिवाल दरमियान थयेलो स्नेहसंपर्क महावीरवाणीने निमित्त बाज सुधी एवो ने एवो चालु रहेल छे-विशेप सुमधुर गाढ बनेल के. मा भाईने महावीरवाणी प्रत्ये नियाज प्रेम के तेने लीधे ज तेमओए माननीय विनोबाजीपातेथी आ पुस्तक विशे विशेष सूचन मागेलु,पने परिणामे आ पुस्तकमां थोडी वघघट थयेली छे अने पाडळ संस्कृत अनु. चादनो उमेरो पण थयेल छे. तथा आ पाणी माटे माननीय विनोबाजीना खास सूचक 'धे शब्दो' सुद्धां मळी शक्या छे.
__माटे हु भाई रांकाजीनो सविशेप आभारी छु अने राष्ट्रसेवानी असाधारण प्रवृत्तिमा रोकायेला होवा छतां श्री विनोबाजीए 'महावीरवाणी' प्रत्ये जे पोतानो सद्भाव व्यक्त करी बताव्यो छे ते माटे तेमनो.पण सविशेष आभार मानवार्नु अहीं जतुं करी शकाय एम नथी.
या वखते माननीय डॉ. भगवानदासजीए पोते खास नवी प्रस्तावना लखी मोकली छे एटलुंज नहीं पण तेमणे सर्व धर्म समभावनी दृटिए अने पोते खरेखर समन्वयवादी छे ए भावनाने लीधे नवी प्रस्तावनामा तेमणे महावीरवाणी प्रत्ये पोतानी असाधारण लागणो प्रगट करेल छे भने जैन बंधुओनी उदारता वाचत असाधारण विश्वास वतावचा साथे
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महावीरवाणीना प्रचार माटे पोतानो अंगत अभिप्राय पण दर्शावेल छे.
आथी खास आशा बंधाय छे के तटस्थ डॉ. भगवानदासजीनां वचनोनी जैन समाज जरूर कदर करशे. महावीरवाणी प्रत्ये डॉक्टर महाशयनी लागणी बदल अहीं हुं तेमनो पण सविशेष.आभार मार्नु छु.
१९४२ थी १९५३ सुधीमां भूळ अने अनुवाद साथेनी महावीरवाणीनी प्रण आवृत्तिओ थई गणाय अने जो तेमां केवळ हिंदी अनुवादवाळी आवृत्तिने मेळवीए तो चार आवृत्तिओ पण थई गणाय. आम एकंदर चार वर्षना गाळामां आ पुस्तकनी सात हजार नकलो प्रजामा पहोंची कहेवाय.
__आवा विषम समयमां ज्यां अहिंसा अने सत्यना मार्ग तरफ प्रजानां मन डगमगतां देखाय छे अने ज्यारे लोको-भगवान महावीरना अनुयायी लोको पण त्यांसुधी य भानवा लाग्या छे के व्यवहारमा सत्य अने अहिंसानो मार्ग नहीं ज चाली शके, ए तो मंदिरमा के सभामां बोली बताववानो मार्ग छे. एवे कपरे काळे आ पुस्तकनी सात हजार नकलो बार वर्षनायगाळामांगई ते पुस्तकनुं अहोभाग्य जकहेवाय.
सौथी प्रथम आवृत्ति वखते भाई मानमलजी गोलेच्छा (जोधपुर-खीचनवाळा) ए आर्थिक सहायता [१ ]
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मापी मने पोतानो ऋणी बनावेल ते माटे ते भाईर्नु नामस्मरण अवश्य करी लङ छु..
पहेली आवृत्ति वखते हुँ अमदावादमा, डॉ. भगवानदासजी धनारसमां बाटलं लावु अंतर होईने तेओ तत्काल प्रस्तावना लखी मोकले ए कठण तुं, परंतु मारा उपरना नियाज स्नेहने लीधे ५ काम भाई गुलायचंद जैन (वर्तमानमा अध्यक्ष श्री महावीर भवन पुस्तकालय अने वाचनालय दिल्ली ६) सारी रीते प्रयास करीने पण वजावी शक्या छे एटले ए स्वजनन पण नाम संकीर्तन अहीं जरूर करी लउं छु.
आ उपरांत मारा स्नेही कवि मुनिश्री अमरचंदजी, पंडित सुखलालजी, भाई दलसुखभाई (बनारस हिन्दु युनिवर्सिटी) तथा भाई शांतिलालजी (व्यावर गुरुकुळ मुद्रणालय)नो पण आ प्रवृत्तिमां मने जे सहकार मळ्यो छे ते भूली शकाय तेम नथी.
आ वधा महानुभावोनो पण हु जरूर ऋणाछु.
गुजरात युनिवर्सिटीए आ पुस्तकने इन्टरआर्टना प्राकृतभाषाना अभ्यासक्रममा योजेलुं छे ते माटे ए संस्थानो तेम ए संस्थाना संचालकोनो पण अहीं आभार मानवो जरूरी छे अने डॉ. भगवानदासजीए पण पोतानी प्रस्तावनामां ए संस्थाने अभिनंदन पाठवेल छे. छेले भाई जमनालालजी जैन ('जैनजगत'
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ना सहकारी संपादक) तथा आ पुस्तकना मूळ तथा हिन्दी अनुवादना मुद्रक भाई परमेष्ठीदासजी जैन ( मालीक जैनेन्द्र प्रेसः ललितपुर उत्तरप्रदेश ) पवने महाशयोप आ पुस्तकना मुद्रणमां जे भारे दिलचस्पी बतावेल छे ते माटे तेमनो वन्नेनो हुं विशेष आभारी हूं.
अहीं आ बावत खास जणाववी जोईए के जो आ बन्ने भाईओ पुस्तकना मुद्रण-संशोधन माटे दिलचस्पी न लीघी होत तो मुद्राराक्षसना प्रभावने ली पुस्तकने अंते आपेल शुद्धिपत्रक केटलुं य लांबु थई गयुं होत.
डॉ. भगवानदासजीए पोतानी प्रस्तावनामां जणावेल छे के प्रस्तुत आवृत्चिना कागळ सारा नधी अने तेनुं समर्थक कारण पण पोते ज समजावेल छे. तेम हुं पण अहीं आ वात नम्रपणे जणाववानी रजा लउं छं के प्रस्तुत पुस्तकमां मूळ गाथामनुं अने अनुवादनुं मुद्रण मनपसंद नथी छतां महावीर चाणी प्रत्ये सद्भाव राखनारो वाचक वर्ग आ मुद्रण प्रत्ये पण उदारता दाखवी तेने वधावी लेशे प आशा अस्थाने नथी.
महावीरवाणीनी कायापलट
आगली बधी आवृत्तिभ करतां आ संस्करणमां जे विशेषता छे ते आ प्रमाणे छे :
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-१ महावीरवाणीनी तमाम प्राकृत गाथाओनो संस्कृत
अनुवाद तेमना सळंग आंकडा आपीने पाछळ आपेल हे. जे वाचको हिन्दी नथी जाणता तेम ज प्राकृन पण नथी जाणता तेमने मर्थे श्री विनोबाजीए संस्कृत अनुवाद आपवानी सूचना करेली. ते प्रमाणे या अनुवाद आपेल छे. तेमां क्यांय क्यांय संक्षिप्त टिप्पण पण आपल छे. संस्कृत अनुवादनी भाषा आम तो सरळ संस्कृत राखी छे छनां तेमां छांदस प्रयोगो पण मूळ प्राकृत भाषा साधे तुलना करी जोवानी हटिए आपेला छे.
२ आगली आवृत्तियोमां सौधी प्रथम आवृत्तिमां मूळ गाथाम ३५५ हती, पछीनी आवृत्तिमां पंदरमा अशरणसूत्रमां छेल्ले एक गाथा वघारेली तेथी तेमां मूळ गाथाओ ३४६ थई. आ आवृत्तिमां कुल गाथाओ ३१४ छे पटले आगली आवृत्ति करता आमांधी वत्रीश गाथामो घटाडी छे. तेनी वीगत या प्रमाणे हे :
वीजा धर्मसूत्रमाथी चार गाथाओ घटाडी छे जे गाथाओ जूनी आवृत्तिमां पांचनी, छट्टी, सातमी अने यादमी तथा अग्यारसी, पारसी अने तेरमी हती अर्थात् बीजा धर्मसूत्रमाथी कुले सात गाथाओ ओछी धई है.
श्रीजा अहिंसासूत्रमाथी जूनी आवृत्तिमां जे
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२४मी अने २५मी गाथा तथा इसमा चतुरंगीयसूत्रमाथी जुना प्रमाणे ९७मी भने ९८मी गाथा हती ते गाथामो आमां ओछी करी छे.
पछी अगियारमा वीजा अप्रमादसूत्रमाथी जूनी आवृत्ति प्रमाणे १२७ थी १३५ सुधीनी पटले कुले नव गाथाओ ओछी करी छे.
चोवीशमुं विवादसूत्र आलुंज काढी नाख्यु के पटले एनी कुले १९ गाथाओ ओछी थई.
आम तो ७+२+२१९+१९ कुले ओगणचाळीश गाथाओ घटी के पटले बधी मळोने ३०७ गाथाओ रहेवी जोईए पण २४मा विवादसूत्रने बदले जातिमदनिवारणसूत्र नकुंज गोठव्युं छे. तेनी गाथाओ कुले सात छे पटले ३०७४७ मळी आ आवृत्तिमां कुले ३१४ गाथा थई, आ जोतां जूनी भावृत्ति करतां आमांथी कुले ३२ गाथाओ घटी.
वाचकोनी रुचि प्रत्यक्ष जीवन तरफ रहे भने प्रत्यक्ष जीवन ज भविष्यना जीवननो पायो छेपमाटे ए तरफ ज विशेष ध्यान खेचाय ते दृष्टिने लक्ष्यमां राखी मा आवृत्तिमां थोडीघणी पधघट करी छे.
वर्तमानमा आपणे जोईए छीए के तमाम धर्माचलंबीमोनुं ध्यान प्रत्यक्ष सृष्टि करतां परोक्ष सृष्टि तरफ घणुं पधारे छे. तेओ ईश्वरने नामे, मंदिरने नामे, देवदेवीमोने नामे, धर्मनां मनाता कर्म[१४]
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कांडोने नामे घणो घणो भोग मापे छे, घणो घणो त्याग करे के भने एबुं वीजें घj घणुं कष्ट सहन करे के तेम छतां मापणुं वर्तमान जीवन सुखमय, संतोषमय, शांतिमय नथी बनी शकतुं. कुटुंबमां पचोज विखवाद चाल्या करे छे अने समाजमां तथा राष्ट्रमा पण एवाज हानिकारक विखवादो थया करे छे, नवा नवा ध्या करे छे. आपणुं लक्ष्य वर्तमान जीवननां शांति सुख संतोष अने वात्सल्य तरफ ज होय तो आवु केम बनी शके ?
आ तरफ विशेष लक्ष्य वेचाय माटेज मा संस्करणमां थोडी कांटछांट करी छे भाई रांकाजीनी सूबना आज हकीकतने लक्ष्यमा राखीने कांटछांट माटे थपली हती एटले पण आ कांटछांट करवानुं गमी गयुं छे.
आ महावीरवाणी आपणा प्रत्यक्ष जीवनमा सुख शांति संतोष अने वात्सल्य प्रेरनारी थाय प एक ज आकांक्षा छे.
महावीरवाणीना जे वाचको अजैन के तेमने सारु महावीरवाणीमां मावेलुं लोकतत्त्व सूत्र १९ मुं काईक बघारे पडतुं पारिभाषिक लागे बरु छतां य ते द्वारा ते पाचकोने जल प्रवचन विशे थोडी घणी माहिती जरूर मळशे एम मानीने तेने बदव्यु गथी.
जैन प्रवचनमा अन्मजातिवादने मूळधीज स्थान
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नथी, खरुं कहेवामां आवे तो भगवान महावीरना धर्मचक्र प्रवर्तनना जे वीजा वीजा हेतुओ हता तेमां जन्मजातिवादने मीटावी देवानो पण एक खास हेतु हतो ज. ए वातने लक्ष्यमां लाववा खातर २४ मुं जातिमदनिवारण सूत्र खास सांकळवामां आव्युं छे. ते बधी गाथाओ अने पने मळती बीजी वीजी अनेक गाथाओ उत्तराध्ययन सूत्र वगेरे अनेक सूत्रोमां भरी पडी छे परंतु ते बधीने अहीं न आपतां मात्र आचारांग अने सूत्रकृतांग सूत्रमांथी थोडां वचनो वानगी रूपे अहीं गोठवेलां छे ते उपरथी वाचको जोई शकशे के जैन प्रवचनमां मूळधी ज जन्मजातिवादने जराय स्थान नथी पटलं ज नहीं पण एनो विशेष विरोध भगवान महावीरे ज पोते. करेलो छे.
दुःख अने खेदनी वात तो ए छे के वर्तमानमां जेओ जैन धर्मना आचार्य कहेवाय छे तेओ पण हजी सुधी अस्पृश्यताने जाळवी रह्या छे अने केम जाणे ते तेमनो सदाचार न होय तेम पाळी रह्या छे. खरी रीते ए रीतनुं वर्तन जैन प्रवचनथी तद्दन विरुद्ध छे, "अहिंसांनी दृष्टि पण तद्दन अनुचित छे अने भगवान महावीरना वचनोथी तो ए सदंतर वेगळं छें ए चात वर्तमान जैन उपदेशकोना अने तेमना अनुयायी मोना खास ख्यालमां आवे माटे ज श्री जातिमंदनिवारण सूत्रने अहीं सांकळेलं छे
>
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प्रस्तुत पुस्तकमा श्रमण भगवान महावीर एक सुंदर चित्र जरूरी लागतु हर्तु तथा तेमनो मानवतानी दृष्टिप प्रामाणिक परिचय मापवानुं पण तेटलुंज जरूरी जणातुं तुं छतां य आमाथी पेलं चित्र मूकवार्नु तो चनी शक्युं छे अने तेमनो परिचय आपवान हाल तुरत नथी बनी शक्यु ते माटे वाचको जरूर क्षमा यापशे पण निकटना भविष्यमां महावीरवाणीनो गुजराती अनुवाद मारे चाचको समक्ष रजु करवानो मनोरथ छे ते वखते आ परिचय मापवा जरूर प्रयास करवानुं धारी राख्यु छे.
__उपरांत जे जे वचनो महावीरवाणीमां आवेलां छे तेवांज वचनो बुद्धवाणीमा अने वैदिकवाणीमांउपनिषदो जने महाभारत वगेरेमां-सुद्धा मळी आवे छे ते संगेन तुलनात्मक लखाण पण आ वाणीनी प्रस्तावनामां जरूरी छे अने डॉ. भगवानदासजीप पोतानी प्रस्तावनामां आ 'वचनो विशे जे एक यीजी सूचना करेली छे ते विशे पण खास लखवा जेवू के तेमनी सूचना ए हती के आ वचनो भगवान महावीरे जे जे प्रसंगे कहेला होय ते तमाम प्रसंगोवाळी ढूंकी नौघ ते ते वचनो साये आपी देवी जोईप जेथी वचनोने वांवतां ज तेमनो भाशय हृदयमा जडाई जाय अने आ वचनो यधारे असरकारक बने.
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आ वन्ने मुद्दामओ विशे पण हवे पछी लखवानी कल्पना करी हाल तो मूकी छांडी छे.
'आ उपरांत केटलांक वचनोनो आशय समजाववा सारु थोडं विवेचन करचु जरूरी छे. जेमके दाखला तरीके-धर्मसूत्रमा आवेली चोथी गाथानो मर्थ आ प्रमाणे छ
"जरा अने मरणना वेगथी धोधवंध घहेता प्रवाहमा तणाता प्राणीओने माटे धर्म ज बेटरूप छ अने धर्म ज शरणरूप छे." ____ मानो अर्थ कोई एम न समजी बेसे के धर्म कोई पण देहधारीनां जरा अने मरणने अटकावी शके छे. जेम जन्मवू आपणे वश नथी तेम जरा अने मरण पण तमामने माटे स्वाभाधिक छे. मोटा मोटा ज्ञानीओ, संतो, तीर्थंकरो अने चक्रवर्तीओ खरा अर्थमां धर्मावलंबी थई गया पण तेमो घरडा थतां अटक्या नहीं तेम मरतां पण अटक्या नहीं. मात्र तेमर्नु धर्मावलंबन तेओने शांतिथी, संतोपथी अने अविषमभावे जीवन जीरवामां खप लागतुं अने धर्मावलंबननो खरो अर्थ पण प ज छे
जे विकार स्वाभाविक छ तेने कोई अटकावी शके ज नही मात्र ते विकारोथता आपणने कदाच अज्ञानताथी अशांति असंतोप उपजे तो धर्माचलंबनथी तेमर्नु समाधान थाय छे. आ भर्थ 'धर्म ज शरणरूप १८ ],
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छे' ते वाक्यने यरोवर छे. आज रीते आ पचनो विशे आवां टिप्पणो करवानी जरूर छे.
संपादकीय कथनमा हवे आथी बधारे लखवू आवश्यक नथी.
आमहावीरवाणी तमाम प्राणीने, तमाम भूतोने, तमाम जीवोने अने तमाम सत्त्वाने सुखकर, संतोषकर अने समाधानकर नीवडो एवी भावना भावी विरमुं छ.
मूळ अने अनुवाद पूरो थया पछी पाछळ आपेलो बधो भाग अमदावादमां शारदा मुद्रणालये छापेल छे. तेना मालीक अने व्यवस्थापके या छापकाम धगुंज सुंदर थाय तेम पूरती काळजी राखी छेते, ए काम ज कही आपे छः एटलुज नहीं चित्रनी पसंदगी पण श्रीवालाभाईए पोते घणी काळजीथी करी छे. आ वधा मारा अंगत स्वजनो छे छतां य या मुद्रणालयना कामने विशेष प्रसिद्धि मळे ए दृष्टिए ज अहीं था प्रेसना नामर्नु सास संकीर्तन करूं छु.
ता ९-७-५३ १२/व भारती निवास सोसायटी मेलिसब्रिज : अमदावाद-६
वेचरदास दोशी
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महावीर और उनकी वाणी बुद्ध और महावीर भारतीय आकाश के दो उन्नवल नक्षत्र हैं. गुरु शुक्र के समान तेजस्वी और मंगल-दर्शन. बुद्ध का प्रकाश दुनिया में व्यापक फैल गया. महावीर का प्रकाश भारत के हृदय की गहराई में पैठ गया. बुद्धने मध्यम-मार्ग सिखाया. महावीर ने मध्यस्थ-दृष्टि दी. दोनों दयालु और अहिंसा-धर्मी थे. बुद्ध बोध-प्रधान थे, महावीर वीर्यवान तपस्वी थे।
बुद्ध और महावीर दोनों कर्मवीर थे. लेखन-वृत्ति उनमें नहीं थी. ये निग्रंथ थे. कोई शास्त्र रचना उन्होंने नहीं की. पर वे जो बोलते जाते थे, उसीमें से शास्त्र बनते थे. उनका बोलना सहज होता था. उनकी बिखरी हुई वाणी का संग्रह भी पीछे से लोगों को एकत्र करना पड़ा.
बुद्ध वाणी का एक छोटासा सारभूत संग्रह, धम्मपद के नाम से दो हजार साल पहिले ही हो चुका था, जो. बौद्धसमाज में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में भगवद्गीता के समान प्रचलित हो गया है. महावीर की वाणी अभी तक जैनों के आगमादि ग्रंथों में, बिखरी पड़ी थी. उसमें से चुन करके, यह एक छोटासा संग्रह, आत्मार्थियों के उपयोग के लिये श्री रिषभदासजी की प्रेरणा से प्रकाशित किया गया है. वैसे तो इस पुस्तक की यह तीसरी आवृत्ति है. पर यह [२०]
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पुनर्मुद्रण नहीं है, बल्कि परिवर्धित आवृत्ति है जिसमें अधिक व्यापक दृष्टि से संकलन हुआ है. मेरे सुझाव पर इसमें मूल वचनों के संस्कृत रूपांतर भी दिये हैं. उससे महावीरवाणी समझने में सुलभता होगी।
धम्मपद काल मान्य हो चुका है. महावीर-वाणी भी हो सकती है, अगर जैन-समाज एक विद्वत्-परिषद के जरिये पूरी छानवीन के साथ, वचनों का और उनके क्रम का निश्चय करके, एक प्रमाणभूत संग्रह लोगों के सामने रक्खे. मेरा जनसमाज को यह एक विशेष सुझाव है. अगर इस सूचना पर अमल किया गया तो, जैन विचार के प्रचार के लिये, जो पचासों किताबें लिखी जाती है, उनसे अधिक उपयोग इसका होगा.
ऐसा अपौरुपेय संग्रह जब होगा तब होगा, पर तव तक पौरुपेय-संग्रह, व्यक्तिगत प्रयत्न से, जो होंगे वे भी उपयोगी होंगे। "साधक सहचरी” नाम से ऐसा ही एक संग्रह श्री संतवालजी का किया हुआ, प्रकाशित हुआ है. 'यह दूसरा प्रयत्न है. मैं चाहता हूं कि केवल जैन समाज ही नहीं, पर चित्त-शुद्धि की चाह रखनेवाले, जो जैन संप्रदाय के नहीं हैं वे भी, इसका चिंतन मनन करेंगे. पड़ाव छपरी (विहार) ३०-३-५३ -विनोवा
[२१]
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मैं उन्हींका काम कर रहा हूं
"महावीर वाणी मुझे बहुत ही प्रिय लगी है. संस्कृत छाया दे रहे हो उससे उसे समझने में सहूलियत होगी. आज तो में बुद्ध और महावीर की छत्र छाया में उन्हींके प्यारे बिहार में घूम रहा हूं और मानता हूं कि उन्हीं का काम मैं कर रहा हूं. इन दिनों 'धम्मपद की पुस्तक मेरे साथ रहती है. जब महावीर वाणी का आपका नया संस्करण निकलेगा तव वह भी रखूगा. पढने के लिए मुझे समय मिले या न मिले, कोई चिंता नहीं. ऐसी चीजें नजदीक रहीं तो उनकी संगति से भी बहुत मिल जाता है. वैसे पहेले महावीर-वाणी मैं देख चुका हूं. फिर भी प्रिय वस्तु का पुनर्दर्शन प्रियतर होगा. आजकल सैकड़ों पुस्तकों की हर भाषामें भरमार हो रही है. अगर मेरी चले तो बहुत से लेखकों को मैं खेती के काम में लगाना चाहूंगा और गीता, धम्मपद, महावीर-वाणी जैसी चंद किताबों से समाजको उज्जीवन पहुँचाऊँगा !* पड़ाव : अंबा (गया)
-विनोबा ११-११-५२ ___* ऊपरको पक्तियां रांकाजीको लिखे गए एक पत्रसे ली गई है जो उन्होंने 'महावीर-वाणी' पुस्तकके विषयमें लिखी थीं। [२२]
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और नये संस्करण इ. का मुझे ति. Cो का पत्र, ति.
महावीर वाणी के तृतीयसंस्करण की
प्रस्तावना अध्यापक श्री वेचरदास जीवराज दोशीजो का पत्र, ति. १५-६-१९५३ ई. का मुझे ति. १८-६-५३को मिला, और नये संस्करणके छपे फ़ौ भी मिले। द्वितीय को अपेक्षा इसमे जो परिवर्तन किया गया है, अर्थात् कुछ अंश छोड़ दिया है, कुछ वढाया है, उसकी चची, श्रीजमनालालजी जैनने अपने "पुनश्च" शीर्षकके निवेदनमे, किया है तथा श्रीवेचरदासजीने उक्त पत्रमे अधिक विस्तार से किया है। फलत., प्रथम और द्वितीयमे ३४५ तथा ३४६ गाथा थीं, इसमे ३१४ हैं। 'जातिमदनिवारणसूत्र ' जो बढ़ाया है वह बहुत ही अच्छा, शिक्षाप्रद,समयोचित, आवश्यक, समाजशोधक सूक्त है । यदि अन्य प्रमुख जैनाचार्योंकी उक्तियाँ, इसकी टीकाके रूपमे इसके 'परिशिष्ट ' के रूपमे, नहीं तो चौथे संस्करणमे, रख दी जाय तो और अच्छा हो, यथा रविपेण (५ वीं शती)के 'पद्मचरित'मे,
, [२३]
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"मनुष्यजातिरेकैव, जातिनामोद्भवोद्भवा, वृत्तिमेदाद् हि तभेदात् चातुर्वर्ण्यमिहाऽश्नुते । ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात्, क्षत्रियाः शस्त्रधारणाव , वणिजोऽर्थार्जनात् न्यायाव,शगान्यग्वृत्तिसंश्रयात्।"
तृतीय संस्करण का एक और श्लाघ्य विशेष गुण यह है कि प्रत्येक श्लोकके नीचे, उस प्राचीन मूल ग्रंथका संकेत कर दिया है जिसमे वह मिलता है, यथा 'उत्तराध्यनसूत्र' 'दशवैकालिकसूत्र', आदि। एक और कार्य, आगामी संस्करणों मे कर्तव्य है। प्रसिद्ध है कि बुद्धदेवने 'धम्मपद'को प्रत्येक गाथा विशेप विशेष अवसर पर कही; उन अवसरों के वर्णन सहित 'धम्मपद'के कोई कोई संस्करण छपे हैं। प्रायः महावीरस्वामीने भी ऐसे अवसरों पर गाथा कही होंगी; उनको भी छापना चाहिये। यह रीति इस देश की बहुत पुरानी है; अति प्राचीन इतिहास, पुराण, रामायण, महाभारत, भागवत आदि मे, अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजशाल, ब्रह्मविद्याके भी, गूढ सिद्धांत, आख्यानका कथानकाकी लपेट मे कहे गये हैं, जो उदाहरणो का काम देते हैं, इस प्रकार से,रोचकता के कारण, सिद्धांत ठीक ठीक समझ मे भी आ जाते हैं और स्मृति मे गड़ जाते हैं , कभी भूलते नहीं।
पुस्तकके अंतमें सब गाथाओंका संस्कृत रूपांतर छाप [२४]
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दिया है, यह भी बहुत उत्तम काम किया है। कालके प्रभावसे, महावीरके समयकी प्राकृत भाषा (यथा उनके समकालीन बुद्धकी पाली) लुप्त हो गई है, किंतु संस्कृत उनसे सहस्रों वर्ष पहिले से आज तक भारत मे पढी, समझी, और विद्वन्मंडली मे कुछ कुछ बोली भी जाती है; अतः इस संस्करणका, उक्त संस्कृत अनुवादके हेतु, उस मंडलीमें अधिक प्रचार और आदर होगा, विशेष कर भारत के उन प्रांतों मे जहां हिन्दी अभी तक समझी नहीं जाती है, यद्यपि भारतके नये संविधान मे उसे 'राष्ट्रमापा' घोषित कर दिया है । स्मरणीय है कि महावीर निर्वाणके कुछ शतियाँ वाढ, जिनानुयायी धुरंघर प्रकांड विद्वानोने प्राकृतभापाका प्रयोग छोड़ दिया; क्योंकि प्राकृत भाषाऍ नित्य बदलती रहती हैं, यथा कालिदासादिके नाटकोंके समय की आठ प्राकृतों मे से एक का भी व्यवहार आज नहीं है; इन विद्वानोने अपने रचे ग्रंथों को चिरजीविता देने के लिये संस्कृतमें लिखा; यथा, उमास्वामी (द्वितीयशताब्दी ई०) ने नितांत प्रामाणिक 'तत्वार्थाधिगमसूत्र', जिसे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही मानते हैं; अकलंकने 'राजवार्तिक' नामकी टीका 'तत्त्वार्थाघिगमसूत्र' पर; 'कलिकालसर्वज्ञ' राजगुरु हेमचंद्राचार्य (१२वीं शती) ने 'प्रमाणमोमांसा', 'हैम-वृहदभिधान' नामक संस्कृत शब्दों का कोष, तथा अन्य कई विशालकाय ग्रंथ; हरिभद्र
[२५]
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(९वाँ)ने षड्दर्शनसमुच्चय' समंतमद्र (६वी )ने 'आप्तमीमांसा इति प्रभृति।
मुझे यह त्रुटि जान पड़ती है कि इस नये संस्करण का कागज वैसा अच्छा नहीं है जैसा प्रथम संस्करण का था। क्या किया जाय ? समयके फेरसे सभी वस्तुओं के मूल्य मे अतिवृद्धि, एक ओर; पुस्तक इतनी महर्ष न हो जाय कि अल्पवित्त सजन क्रय न कर सकें, दूसरी और; इन दो कठिनाइयों के बीच ऐसा करना पड़ा।
दूसरा खेद मुझे यह है की इस श्रेष्ठ ग्रंथ का प्रचार बहुत कम हुआ । सन् १९५१की जनगणना मे, जैनो की संख्या, स्थूल अंकों मे, समग्र भारत मे १३००००० (तेरहलाख)थी; सबसे अधिक वंबई राज्य मे, ५७२०००; फिर राजस्थान मे, ३२८०००; सौराष्ट्र मे, १२४०००; मध्यभारत मे, १०००००; उत्तरप्रदेशमे, ९८०००। तेरहलाख की संख्या प्रायः दो लाख परिवारों में बँटी हुई समझी जा सकती है। जैन परिवार प्रायः सभी साक्षर होते हैं। यदि दो कुलोके बीच मे भी एक प्रति रहै तो एक लक्ष प्रतियाँ चाहिये। सो, पहिले संस्करण की दो सहन प्रतियां छपी, स्यात् दूसरेकी भी [२६]
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इतनी ही; इस तीसरे की भी प्राय. इतनी छौंगी । यह संख्या कथमपि पर्याप्त नहीं है |
छः वर्षों चाद, गत अप्रैल मास मे, विशेष कार्यवश, मुझे कलकत्ता जाना पडा । वहाँ, कुछ जैन सज्जनोके निर्वघसे २७ अप्रैलको, सुन्दर और विशाल 'जैन उपाश्रयभवन 'मे महावीरजयंती के समारोहका प्रारंभ, एक प्रवचनसे करनेके लिये गया । प्रायः वारह सौ सज्जन और देवियाँ एकत्र थीँ। मैने पूछा कि 'महावीरवाणी' आप लोगोंने देखा है ? किसीने भी 'हाँ' नहीं कहा। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ । कलकत्तामें प्राय. पाँच सहस्र जैन परिवार, जिन मे पच्चीस सहस्र प्राणी होंगे, निवास करते हैं, ऐसा मुझे बतलाया गया । परमेश्वरकी दया से
अपनी व्यापारकुशलता और उत्साहसे, जैन सज्जन जैसे साक्षर है वैसे बहुवित्त धनी और कोई कोई कोटिपति भी हैं, यही दगा बंबई, राजस्थान, सौराष्ट्र आदि प्रान्तोंकी है; यदि उनके पास कोई प्रामाणिक सुख्यात सज्जन छपे परिपत्र लेकर जायँ तो निश्वयेन लाख रुपये इस उत्तम धर्मकार्यके लिये सहज मे मिल जाये, और एक लाख प्रतियाँका, नहीं तो कमसे कम पचास सहस्र का, उत्तम संस्करण, अच्छे पुष्ट कागज पर और अच्छी पुष्ट कपटे की जिन्द का, छप जाय, जैसा प्रथम [ ३७ ]
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संस्करण का था जो सस्ता - साहित्य - मंडल, नई दिल्ली से निकला था । जैन समाजने अर्वौ रुपये सुंदरसे सुन्दर मंदिरों . और मूर्तियाँ पर व्यय किया है; महावीर जिनके उपदेश आदेश' प्रचारके लिये लाखों रुपये व्यय करना उसके लिये क्या कठिन है ?
श्रीबेचरदासनीके, ति. २९-६ - १९५२ के पोस्टकार्डसे विदित हुआ कि गुजरात युनिवर्सिटीने, प्राकृतभाषा के पाठ्यक्रममें, 'इन्टर' वर्गके लिये, महावीरवाणी को रख दिया है; यह बहुत सभाजनीय अभिनंदनीय काम किया है; इससे भी ग्रंथके प्रचार मे बहुत सहायता मिलेगी ।
सौर १९ आषाढ, २०१० वि०
( जूलाई, ३१९५३ ई० )
[२८]
(डाक्टर) भगवानदास
" शातिसदन", सिग्रा, बनारस - २
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॥ श्री चाँदमलजी - मूलचन्दजी - खूबचन्दजी सेठिया - सुजानगढ़ - द्वारा प्रदत्त ॥
महावीर-वाणी
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:१: संगल-सुन
नमोक्कार नमो अरिहताए। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं। नमो उज्झायाणं ।
नमो लोए सबसाहूर्ण। एसो पंच नमुक्कारो, सबपावप्पणासणो। मंगलाणं च सम्वेसि, पढम हवइ मंगलं ॥
[पचातिक सू.
मंगल अरिहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं ।
साहू मंगल । केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगल ।
(पाति० संथारा० सू०
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मङ्गल-सून
नमस्कार
अर्हन्तों को नमस्कार, सिदो को नमस्कार श्राचाया को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार,
लगेक (संसार) में सब साधुनों को नमस्कार । -~~यह पञ्च नमार समस्त पापो का नाश करनेवाला है, और मर महलों में प्रथम (मुरर) माल है।
मगल थईन्त मगल है, मिन्ढ साल है।
सायु मगल है, घलो-प्रवपिन अर्थात सर्वज्ञ-कथित धर्म मसाल है।
,
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महावीर-वाणी
लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा। सिद्धा लोगुत्तमा ।
साहू लोगुत्तमा । केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो।
[पंचप्रति० संथारा सू०]
सरणं अरिहंते सरणं पवजामि । सिद्ध सरणं पवज्जामि ।
साहू सरसं पवज्जा मि । केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवजामि ।
[पंचप्रति० संथारा० सू०]
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५
मगल-सूत्र लोकोत्तम
श्रहन्त बोरोतम (समार में श्रेष्ट) है; सिद्ध लोकोत्तम है, माधु लोकोत्तम है; केवली-प्ररूपित धर्म लोकोत्तम है ।
शरण अईन्त की गरण स्वीकार करता हूँ, सिद्धों की शरण स्वीकार करता है; माधुओं की शरण स्वीसार करता है, देवली-प्ररूपित धर्म की शरण न्योनार करता है।
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:२:
धम्म-पुत्तं
(१) धम्मो मंगलमुक्किह अहिंसा संजमो तयो । देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धन्मे सया मणो ॥२॥
[दश० अ० । गा० ]
(२) अहिस सच्चं च अतेणगं च,
__ तत्तो य वम्भं अपरिग्गहं च । पडिबजिया पंच महन्बयारिण, चरिज धम्म जिणदेसियं विदू ॥२॥
उत्तरा० अ० २१ गा० १२]
पाणे य नाइवाएज्जा, अदिन्नं पि य नायए । साइयं न मुसं वूया, एस धम्मे वुसीमओ ॥३॥
[सू श्रु० १०८ गा० १६]
(४) जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइसा य, गई सरणमुत्तमं ॥४॥
[उत्तरा० अ० २३ गा०६८]
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महावीर वाणी
(५) जहा सागडिओ जाणं, समं हिचा महापहं । विसम मगगमोइएणो, अक्खे भग्गम्मि सोयई ॥५॥
[उत्तरा० अ०५ गा० १४]
एवं धर्म विउकम्म, अहम्मं पडिवन्जिया । वाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई ॥६॥
[उत्तरा० अ०५ गा. ११]
(७) जा जा चच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्म कुण्माणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥७॥
- उत्तरा० अ० १४ गा० २४] जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्म च कुणमाणस्स, सकला जन्ति राइओ ॥६॥
[उत्तरा ० १४ गा० २५]
(६) जरा जाव न पौडेइ, वाही जाव न वढइ । जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥१॥
[दश० अ०८ गा० ३६]
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धर्म-सूत्र
(५)
जिस प्रकार मूर्स गाढ़ीवान जान बूझकर साफ सुधरे राजमार्ग को छोड विपस (ऊँचे-नीचे, ऊबड - सावद ) मार्ग पर जाता है और गाडी को धुगे टूट जाने पर शोक करता है(६)
उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य धर्म को छोड़ अधर्म को ग्रहण कर, अन्त में मृत्यु के मुह मे पढकर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है ।
७ )
जो रात और दिन एक बार प्रतीत की थोर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नही याते, जो मनुष्य अधर्म (पाप) करता है, उसके वे रात-दिन विकुल निष्फल जाते है |
(5)
जो रात और दिन एक बार प्रतीत की ओर चले जाते हैं, ये फिर कभी वापस नही श्राते, जो मनुष्य धर्म करता है उसके वे रात और दिन सफल हो जाते है ।
(६)
जबतक बुढ़ापा नहीं सताता, जबतक व्याधियों नहीं बहतीं, जबतक इन्द्रियाँ होन ( श्रशक्त) नहीं होतीं, ततक धर्म का
श्राचरण कर लेना चाहिये- -चाट मे कुछ नही होने का ।
P
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१०
महावीर वाणी
(१०)
मरिहिसि रावं ! जया तथा वा, मणोरमे कामगुणे विहाय |
धम्मो नरदेव ! ताणं,
न विजई अन्त्रमिहेह किंचि ॥ १० ॥
इको हु धम्मो
[ उत्तरा० अ० १४ गा० ४०
]
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धम-सूत्र
(१०)
हे राजन् ! जब आप इन मनोहर काम भोगों को छोटकर पर-लोक के यात्री बनेंगे, तब एक मात्र धर्म हो आपको रक्षा करेगा । हे नरदेव ! धर्म को छोड़कर जगत् में दूसरा कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है ।
११
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अहिंसा-सुत्तं
(११) तस्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देखियं । अहिंसा निउरणा दिट्ठा, सबभूएसु संजमो ॥१॥
[दश० अ. ६ गा०६
जावन्ति लोप पाणा, तसा अदुवा थावरा । ते जाएमजाणं वा, न हणे नो वि धायए ॥२॥
[दश श्र० ६ गा० १०]
सयं तिवायाप पाणे, अदुवऽन्नहिं घायए । हणन्तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्ड अपणो ॥३॥
सूत्रः श्रु. १ अ. . उ० । गा० ३]
(१४) जगनिस्सिएहि भूएहि, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव ॥४॥
[उत्तराः १०८ गा० 10]
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:३:
अहिंसा-सूत्र
भगवान महावीर ने अठारह धर्ग-स्थानो में सबसे पहला स्थान अहिंसा का प्रतनाया है।
मत्र जीवो के साथ मयम से व्यवहार रखना अहिंसा है; वह सब सुखों को देनेवाली मानी गई हैं।
समार में जितने भी उस और स्थावर प्राणी है उन सब को, जान और अनजान में न स्वयं मारना चाहिए और न दूमरो से मरवाना चाहिए।
जो मनुष्य प्राणियों को स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करनेवालों का अनुमोदन करता है, वह संमार में अपने लिये वैर को बढ़ाता है।
(१४) मंमार में रहनेवाले बस और स्थावर जीवों पर,मन से, वचन से और शरीर से,-किसी भी तरह दंड का प्रयोग न करना चाहिए।
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महावीर वाणी
( १५ )
सव्वे जीवा वि इच्छति, जीविडं न मरिज्जिरं । तम्हा पाणिव घोरं, निग्गंधा वज्जयंति णं ॥ ५ ॥
1
१४
[ दश० ० ६ गा० ११ ]
( १६ )
त्थं सव्व सव्वं दिस्स, पारणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥ ६ ॥
सव्वाहि अणुजुत्तीहिं, सवे अक्कन्तदुक्खा य,
[ उत्तरा० श्र० ६ गा० ७ ]
( १७ )
।
मईमं पडिलेहिया । सत्रे न हिंसया || ७ ||
[ सूत्र श्रु० १ ० ११ गा० ]
(१८)
एवं खु नाखियो सारं, ज न हिंसइ किंचण । अहिंसासमय चेव स्यावन्तं चियाशिया ॥ ८ ॥
| सुन्न० ० १ ० ११ गा० १० ]
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अहिंसा-सूत्र
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसीलिए निग्रन्थ (जैन मुनि) घोर प्राणि-वध का सर्वथा परित्याग परते है।
भय और वैर से निवृत्त साधकको, जीवन के प्रति मोह-ममता रखनेवाले सब प्राणियों को सर्वत्र अपनी ही पान्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करनी चाहिए ।
(१७) बुद्धिमान मनुष्य हो जीव-निकायों का सत्र प्रकार की युक्तियो से सन्यज्ञान प्राप्त करे और 'सवी जीव दुख से घबराते है-ऐमा जानकर उन्हें दुख न पहुंचाये।
ज्ञानी होने का सार ही यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंमा न परे । इतना ही हिंसा के सिद्धान्त का ज्ञान यधेट है। यही अहिंसाका विज्ञान है।
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महावीर-वाणी
(१६) सबुझमाणे उ नरे मईम,
पावाउ अचाणं निवएना । हिंसप्पसूचाई दुहाइ भत्ता, वेरानुवन्धीणि महमयाणि ॥ ६ ॥
[सूत्र० श्रु० , अ. १८ गा० २१]
समया सव्वभूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे । पाणाइवायविरई, जावजीचाए दुकरं ॥ १० ॥
[उत्तरा श्र. १६ गा० २५]
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:
अहिंसा-सूत्र
SEx.
(१६) सम्यक बोध को जिसने प्राप्त कर लिया वह बुद्धिमान् मनुष्य हिंसा से उत्पन्न होनेवाले वैर-वर्द्धक एवं महाभयंकर दुःखों को जानकर अपने को पाप-कर्म से बचाये ।
(२०). संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति-फिर वह शत्रु हो या मित्र - समभाव रखना, तथा जीवन-पर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना-वास्तव में बहुत
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· ४ :
सच्च-सुत्तं
( २१ ) निच्चकालऽप्पमत्तेरा, मुसावायत्रिवज्जणं । भासियन्त्र हियं मच्च, निच्चाऽऽउत्तेण दुक्कर ॥१॥ [ उत्तरा श्र० १६ गा० २६ ]
3
अपट्टा पट्टा वा हिंसगं न मुसं वूया,
( २३ )
कोहा चा जड़ वा भया ।
नो वि अन्न वया ॥२॥
[ दश० अ० ६ गा० १२]
( २३ )
मुसावायो य लोगम्मि, सञ्चसाहूहि गरहि । विस्सासों य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥ ३२॥ [ दश श्र० ६ गा० १३ ]
( २४ )
न लवेज्ञ पुट्ठो सावज्ज, न निरट्ठी न सम्मयं । उभयस्सन्तरेण वा ||१|| [ उत्तरा० ० १ गा० २५ ]
पट्टा परट्ठा वा,
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CE
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सत्य-मूत्र
(२१)
सदा अ-प्रमादी और सावधान रहेकर, असत्य को त्याग कर, हितकारो सत्य वचन ही बोलना चाहिए। इस तरह सत्य बोचना बड़ा कठिन होता है।
(२२) अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूसरों के लिए क्रोध से अथवा भय से-किसी भी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचानेवाला असत्य वचन न तो स्वयं योलना, न दूसरों से खुलवाना चाहिए।
(२३) मृपावाद (असत्य) संसार में सभी सरपुरुषों द्वारा निन्दित उपराया गया है और सभी प्राणियों को अविश्वसनीय है। , इसलिए सूधाबाद सर्वथा छोड़ देना चाहिए ।
अपने स्वार्थ के लिए, अथवा दूसरों के लिए, दोनों में से - किसी के भी लिए, पूछने पर पाप-युक्त, निरर्थक एवं मझेदक वचन नहीं बोलना चाहिए।
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महावीर वाणी
( २५ )
तहेव सावज्जऽणुमोरणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवधायणी । से कोह लोह भय हास मारणयो, न हासमाणो व गिर वजा ||५||
२०
[ दश० श्र० ७ गा० ५४ ] ( २६ )
दिट्ठ' मियं असंदिद्ध, पडिपुराणं वियंजियं । श्रयं परम् पुच्चि भासं निमिर अत्वं ॥ ६ ॥
[ दश००८ गा० ४६ ]
( २७ ) भासा दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुट्ठ परिवजण सया । छसु सजए सामणिए सया ज
वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं ॥७॥ [ दश० थः ७ गाः २६ ] (==)
सयं समेच्च अदुवा बि सोच्चा, भासेज धम्मं हिययं पयागं । जे गरहिया सगिया गप्पचगा,
न ताणि सेवन्ति सुधीरधम्मा || 5 || [ सून्न० श्रु० १ ० १३ गा० १६ ]
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सत्य-सूत्र
(२५) श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरो को दुख पहुंचानेवाली वाणी न बोले ।
श्रेष्ठ मानव इसी तरह कोध, लोभ, भय और हास्य मे भो पापकारी वाणी न बोले । हंसते हुए भी पाप-वचन नहीं बोलना चाहिए।
(२६) शामा: साधक को दृष्ट (सत्य), परिसित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट-अनुभृत वाचालता-रहित, और किसी को भी उहिग्न न करनेवाली वाणी बोलना चाहिए ।
भाषा के गुण तथा टोपी को भली-भांति जानकर दृषित भाषा को सदा के लिए मोद देनेवाला, पटकाय जीवो पर सयत रहनेवाला, तया साधुन्ध-पान मे सदा तत्पर बुद्धिमान साधक केवल हितकारी मयुर भाषा बोले ।
श्रेज धीर पुरष स्वय जानकर अथवा गुरुजनों से सुनकर प्रजा का हित करनेवाले धर्मका उपदेश करे । जो श्राचरण निन्ध हों, निदानवाले हो, उनका भी सेवन न करे।
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महावीर-वाणी
(२६) सबकसुद्धिं समुपेहिया मुणी,
गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया । मिय अदुट्ट अणुवीइ भासए, सयाण मज्मे लहई पसंसणं ॥६॥
[ दश० अ० ७ गा० ५५]
(३०) तहेव काण काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे ति नो वए ॥१०॥
[दशक अ० ७ गा० १२ ]
(३१) वितह वि तहामुन्ति, ज गिरं भासए नरो। तम्हा सो मुट्ठो पावेणं, कि पुरण जो सुसं वए ? ॥११॥
[ दश० अ० ७ गा० ५ ]
(३२) तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चा वि सा न बत्तबा, जो पावस्स आगमो ॥१२॥
[ दश० श्र. ७ गाः ११ ]
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सत्य-सूत्र
(२६) विचारवान मुनि को वचन- शुद्धि का भली-भांति ज्ञान प्राप्त करके दूषित वाणी सदा के लिए छोड देनी चाहिए और खूब सोच-विचार कर बहुन परिमित और निर्दोष वचन बोलना चाहिए । इस तरह बोलने से सत्पुरुषो में महान् प्रशसा प्राप्त होती है।
(३०) लाने को काना, ना सरु को नपु खक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि रात्य है, तथापि ऐसा नहीं कहना चाहिए । (क्योकि इससे उन व्यन्त्यिो को दुख पहुँचता है।)
(३१) जो मनुष्य भूलसे भी मूलत असत्य, किन्तु ऊपर से सत्य मालूम होनेवाली भाषा बोल उठना है, और वह भी पापसे अछूता नहीं रहता, तब मना जो जान-बूझकर अमत्य बोलता है। उसके पाप का तो कहना ही क्या।
जो भाषा कठोर को, दूसरों को भारी दुःख पहुंचानेवाली हो-वह सत्य ही क्यों न हो-नही बोल्नी चाहिए। क्यों कि उससे पाप का भासव होता है ।
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: ५ :
तेराग-सुत्तं ( ३३ ) चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहु ं । दंतसोहरणमित्तं पि, उग्गहं से अजाइया ||१|| [ दश० अ० ६ गा० १४ ]
( ३४ )
तं पणा न गिरहति, नो वि गिरहावए परं । अन्न वा गिरहमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ||२|| [ दश० अ० ६ गा० १५ ] (, ३५ )
उड्ढ अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पारणा । हत्थे हि पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नसु य नो गहेज्जा ||३||
[ सूत्र० श्रु० १ ० १० गा० २] ( ३६ )
तिव्यं तसे पाणिणो थावरे य जे हिंसति श्रयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अत्तहारी, ण सिक्ख सेयवियरस किचि ||४||
[ सूत्र० श्र० १ श्र० ५ उ० १ गा० ४]
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अस्तेनक-सूत्र
( ३३-३४) पदार्य सचेतन हो या शयेनन, अल्प हो या बहुत धार तो त्या, दर्शन पुरेदने की सीक भी जिस गृहस्थ के अधिकार मे हो टमको श्राज्ञा लिये बिना पूर्ण:पयमी साधक न तो स्वय ग्रहण करते है, न इसरो को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते है, और न ग्रहण करने वालो का अनुमोदन हो करते हैं।
ऊँची, नोची थोर तिरही दिशा में जहाँ कहीं भी जो बस और स्थावर प्राणी हो उन्हें लयम से रह कर अपने हाथो से, परी से,-किसी भी श्रग से पीडा नही पहुंचानी चाहिये । दृमगेकी विना दी हुई बस्नु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चाहिए ।
जो मनुष्य अपने सुर के लिये श्रम तथा स्थावर प्राणियो की ऋग्ता-पूर्वक हिसा करता है-उन्हे अनेक तरह से कष्ट पहुंचाता है, जो दृमरी की चोरी करता है, जो श्रादरणीय प्रतो का कुछ भी पालन नहीं करता, (वह भयकर क्लेश उठाता है)।
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२६
महावीर वाणी
(300)
दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जरणं । अवज्जेसणिज्जरस, गिरहरणा अवि दुकरं ||२५|| [ उत्तरा० श्र० ११ गा० २७ ]
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अस्तेनक-सूत्र
( ३७ )
दोन कुरेदने की सोंक श्रादि तुच्छ वस्तुएँ भी बिना दिए चोरी मे न लेना, (बड़ी चीजो को चोरी से लेने की तो बात हो क्या ? ) निर्दोष एवं परणीय भोजन-पान भी दाता के यहाँ से दिया हुआ लेना, यह बड़ी दूर बात है ।
२७
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बंभचरिय-सुत्त
(३८) विरई अवंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उग महब्वयं वंभ, धारेचव्वं सुदुघर ॥२॥
[ उत्तरा १० : गा० २८ ]
(३६) अबभचरियं घोरं, पमाणे दुरहिट्ठियं । नाऽऽयरन्ति सुरणी लोए, भेयाययणवज्जिो ॥२॥
[दशः श्र ६ गा० १६]
मृलमेयमहम्मस्स महाठोसससुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्ग, निग्गंथा वज्जयन्ति एवं ॥३॥
[ दश० ० ६ गा...]
(४१ ) विभूसा इस्थिसंसगो, पणीयं रसभोयणं । नरस्मऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउड जहा ॥
[ दशक अ गाट ५७ ]
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ब्रह्मचर्य-सूत्र
(२८) काम-भोगो का रस जान लेनेवाले के लिए अ-ब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्मवर्य महानत का धारण करना, बडा कठिन कार्य है।
( ३६ ) जो मुनि सयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक मे रहते हुए भी दु सेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयकर अ-ब्रह्मचर्य का भी सेवन नहीं करते।
(४०) यह श्य-ब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महा-दोषों का स्थान है इसलिए म्यिन्य मुनि मैथुन-संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं।
श्रात्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का श्रृंगार, स्त्रियों का ससर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन~ सब तालपुट विष के समान महान् भयकर है।
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महावीर-वाणी
(४२) रुवलावएरमविनासहास,
न जंपिय इगिव-पेहिय वा । इत्थीण चित्तसि निवेसइत्ता, दछु वबम्से समणे तबस्सी ॥५॥
[ उत्तग० ० ३२ गा० १५ ]
अदमणं चेव अपत्थण च,
अचिनणं चेव अकित्तण च । इत्थीजणस्साऽऽरियमाणजुग्गं, हिय सया वयवए रयाएं ॥६॥
[ उत्तरा० अ० १२ गा० १५ ]
(४४) मणपल्हायजगणी, कामरागत्रिवड्ढणी । वंभचेररओ भिक्ग्यू, थीकहं तु वित्रज्जए जा
[ उत्तरा० अ० १६ गा० २]
समं च सश्र थीहि, मकह च अभिक्खण। बभचेररयो भिवख, निच्चसो परिवज्जए l
[ उत्तरा० अ० १६ गा० ३ ]
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ब्रह्मचर्य-सूत्र
( ४२ )
श्रम तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुरवचन, संकेत- चेप्टा, हाव-भाव और कटाक्ष आदि का मनसे तनिक भी विचार न लाये, और न इन्हें देखने का कभी प्रयत्न करे ।
३१
( ४३ )
स्त्रियों को राग- पूर्वक देखना उनकी अभिलाषा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कोर्तन करना, यादि कार्य ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिए । ब्रह्मचर्य व्रत में सदा रत रहने को इच्छा रखनेवाले पुरुषों के लिए यह नियम अत्यन्त हितकर है, और उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है ।
( ४४ )
ब्रह्मचर्य में अनुरक्त भिक्षु को मनमें वैविक यानन्द पैदा करनेवाली तथा काम-भोग की व्यासक्ति बढ़ानेवाली स्त्री-कथा को छोड़ देना चाहिए |
( ४५ )
ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियों के साथ बात-चीत करना और उनसे बार-बार परिचय प्राप्त करना सदा के लिए छोड़ देना चाहिये ।
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महावीर वाणी
( ४६ ) चारुल्ल विय- पेहिय ।
अगपच्चंगसंठाण, वंभचेररथ थीणं चक्खुगिज्भं विवज्जए ॥६॥
>
३२
[ उत्तरा० ० १६ गाः ४ ]
( ४७ )
कूइयं रुइय गीयं, हसियं थरिणय- कन्द्रिय । वंभररथो थीएं, सोयगिव्यं विवज्जए || १०॥
[ उत्तरा० श्र० १६ गा० १ ] ( 2 )
हाम किड रई दुप्प, सहम्साऽवत्तासियाणि य । भचेरर थीण, नागुचिन्ते कयाइ वि ॥ ११॥
[ उत्तरा० श्र० १६ गा० ६ ]
( ४६ )
पणीय भक्तगण तु खिन मयविवरण | वंभचेररयो भिक्व, निच्चसो परिवज्जए ||१शा
]
[ उत्तरा० १६ गा० ७ ( ५० )
धम्मलद्ध' मियं काले, जत्तत्थं परिणहा एवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा, वभचेररय सया ॥१३॥
[ उत्तरा० अ० १६ गा०]
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ब्रह्मचर्य - सूत्र
( ४६ )
ब्रह्मचर्य - रत भिक्षु को न तो स्त्रियों के श्रङ्ग-प्रत्यर्थी की सुन्दर थाकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न आँखों में विकार पैदा करनेवाले हाव-भावो और स्नेह-भरे मीठे वचनों की ही ओर ।
३३
( ४७ )
ब्रह्मचर्य -रत भिक्षु को स्त्रियों का कूजन (श्रव्यक्त श्रावाज) रोदन, गीत, हास्य, सोस्कार और करय-कन्दन - जिनके सुनने पर विकार पैदा होते हैं-सुनना छोड़ देना चाहिए ।
(४८)
ब्रह्मचर्य - रत भिड स्त्रियों के पूर्वानुभूत हास्य, कोड़ा, रति, दर्प, सहमा वित्रामन यादि कार्यों को कभी भी स्मरण न करें ।
(2)
ब्रह्मचर्य - रत भिन्नु को शीघ्र ही वासना-वर्धक पुष्टि-कारक भोजन-पान का सा के लिए परित्याग कर देना चाहिए ।
( ५० )
ब्रह्मचर्य -रत स्थिर चित्र भिक्षु को सयम-यात्रा के निर्वाह के लिए हमेशा धर्मानुकृत विधि से प्राप्त परिमित भोजन हो करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यों न लगो हो, लालच-वश अधिक मात्रा में कभी भोजन नहीं करना चाहिए ।
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महावीर वाणी
(५१)
जहां दवणी परिन्धये वणे. समान्य नोस उड विन्दियगी व पगामभोइणो.
३४
न भयारिस्सहियाय करसई ||२४||
[ उत्तरा० ० ३२ गा० ११ ]
(४२)
विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमंडण । वंभचेररओ भिक्ख, सिगारत्थ न धारए ||१५|| [ उत्तरा० अ० १६ गाः]
( 23 )
सहरू गन्धे य, रसे फास तब य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज ||१६||
[ उत्तरा० श्र० १६ गा० १० ]
( ५४ )
दुज्जए कोमभोगे य, निच्चसो परिवज्जए । संकट्ठाणाणि सव्त्राणि, वज्जेज्जा पाहावं ॥१॥
[ उत्तरा - १६ गाः १४
]
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महावीर-बाणी
(५१) जैसे बहुत ज्यादा इंधनवाले जाल में पचन से उचे नित दावाग्नि शान्ट नहीं होती, उसी तरह मादा से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी को इंद्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती । अधिक मोजन किसी को मी हितर नहीं होता ।
(५२) ब्रह्मचर्य-रत भिनु को श्रृंगार के लिए, शरीर की शोमा और सजावट का कोई भी अजागे काम नहीं करना चाहिये।
(३) ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, गन्ध, रम और स्पर्श-इन पाँच प्रकार के काम-गुणों को सदा के लिये छोड़ देना चाहिये ।
स्थिर चित्त मिधु, दुर्जय काम-गोगों को हमेशा के लिए छोड दे। इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुँचनेकी सम्भावना हो, उन सब शबा-स्थानों का.भी उसे, परित्याग कर देना चाहिए।
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३६
महामीर वाणी
( ४५ )
कामाशुगिद्विभय खु दुक्.
सन्चरस लोगस्स मदेवगरम |
जं काइये माणसियं च किंचि,
तस्मन्त गच्छई वीयरागो ||१८||
[ उत्तरा० श्र० ३२ गा० १३ ]
( ५६ )
aaryaraon, जक्खरक्खस किन्नरा । भयारि नमसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति ते ॥१६॥ [ उत्तरा० अ० ६६ गा० १६ ]
(५७)
एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चारणेणं, सिज्झिस्सन्ति तहा परे ॥ २० ॥ [ उत्तरो० अ० १६ मा १७ ]
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ब्रह्मचर्य-मूत्र
(४) देवलोक महित समान संमार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुय का मूल पुस्-माय काम भोगों को पासना ही है। जो माध इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता छ, यह गारिक नया मानषिक सभी प्रकार के दुयो मे छूट जाता है।
जो मनुष्य इस कार दुष्कर प्राचर्य का पालन करता है, उमे टे. दानव, गन्धर्य, यक्ष, रास और शिन्नर श्रादि समी नमबार मते है।
यह प्रापचयं धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है । इस द्वारा पूर्वकाल में स्तिने ही जीव सिद्ध हो गये है, वर्तमान में हो रहे हैं, और भविष्य में होंगे।
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: : अपरिग्रह-सूत्र
प्राणि-मान के सरक ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) ने कुछ पस्न आदि स्थूल पदार्थों को परिग्रह नहीं घतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मूर्चा का-थाशक्ति का रखना यतलाया है।
पूर्ण-संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर भादि सभी प्रकार के परिप्रहों का त्याग करना होता है । समस्त पाप-कर्मों का परित्याग करके सर्वथा निम्मद होना तो और भी कठिन बात है।
(६०) जो संयमी ज्ञातपुग्न (भगवान् महावीर) के प्रवचनों में रत है, वे विड़ और उभेद्य आदि नमन तथा तेल, घी, गुड श्रादि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन में नंकल्प तक नहीं करते।
( १) परिग्रह-विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पान, कम्बल और रजोहरण प्राशि वस्तुएँ रखते हैं, वे सब एर-मात्र संयम की रक्षा के किए ही रखते हैं- काम में लाते हैं । (इनके रखने में क्सिी प्रकार की भासत का भाव नहीं है।)
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::
अपरिग्गह-सुत्तं
(25)
न सो परिभाहो वृत्तो, नाचपुतेण ताडणा । मुच्छा परिगाहो वृत्तो, टड लुत्तं महेसिणा ||१||
[ दश ० ६ ० २१ ]
( १६ )
परिहविवज्जणं ।
धा-धन्न - पेसवग्गेसु मन्त्रारंभ परिच्चायो, निम्मम मुदुक्कर ॥२॥ [ उत्तरा० अ० १६ गा० २६
}
>
( ६० ) त्रिइमुठभेइम लोग, तेल्ल सप्पि च फाणिय | न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्त थोरया ॥३॥
[ श० अ० ६ गा० १८]
( ६१ )
जं पिवत्थं च पात्रं वा, कवलं पायपु छ । पिमंजमलज्जा, धारेन्ति परिहरन्ति य || || [ ६० भ० ६० १० ]
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अपरिग्रह-सूत्र
(६२)
४१
ज्ञानी पुरुष, संयम-साधक उपकरणों के लेने और रखने में कहीं भी किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं करते । और तो क्या, अपने शरीर तक पर भी ममता नहीं रखते ।
(६३)
t
are करना, यह / अन्दर रहनेवाले लोभ को झलक है श्रतएव मैं मानता हूँ कि जो साधु मर्यादा विरुद्ध कुछ भी संग्रह करना चाहता है, यह गृहस्थ है -- साधु नहीं है ।
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अराइभोयण-मुत्त
(६४) प्रत्यंगमि आउच्चे, पुरत्था य अणुगए । श्राहारमाइयं सत्र, मणसा वि न पत्थए ।।१।।
[वश० प्र० गा० २८]
मन्तिमे सुहमा पाणा, तसा अदु व थावरा । जाई राओं असंतो, कहमेसरिण चरे ॥२॥
[दरा: प्र६ गाः २४]
(६६) उउल्लं वीयसंसत्त, पागा निचड़िया महिं । दिया ताई वित्रज्जेज्जा, राप्रो तत्थ कह चरे ? ॥३॥
[दरा० ० ६ गा० २१]
(६७) एयं च दोसं दट्टणं, नायपुत्तेण भासियं । सवाहारं न भुजति, निगांथा राइभोयणं ॥४॥
दिशः भ० ६ गा० २६]
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अरात्रि-भोजन-सूत्र
(६४) सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के श्रस्त हो जाने के पाद निर्धन्य मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान प्रादि की मन मे भी इच्छा नहीं करनी चाहिए।
(६५) संसार में बहुत से अस और स्थावर प्राणी बड़े ही सूपम होते है ये रात्रि में देखे नहीं जा करते सब रात्रि में भोजन कैसे किया जा सकता है?
(१६) जमीन पर कहीं पानी पता होता है। कहीं पोज बिखरे हो? ६, और कहीं पर सूक्ष्म कीडे-मकोडे घाटि जीव होते हैं । दिन में तो उन्हें देख-भालकर बचाया जा सकता है, परन्तु रात्रि मे उनको बचा कर भोजन से किया जा सकता है ?
(६७) इस तरह सघ दोषों को सर ही ज्ञातपुत्र ने कहा है कि नियन्य मुनि, शधि में किसी भी प्रकार का भोजन न करें।
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महावीर-वारणी
(६८) चउबिहे वि हारे, राईभोयगरजपा । मन्निही-संचओ चेव; धज्जेयच्चो सुदुक्कर ।।५।।
[उत्तरा० अ० १९ गा० ३०]
(६६) पाणिवह-मुसाबायाऽवृत्त-मेहुण-परिगहा विरो। राइभोयणविरो, जीरो भवई भणासवो ॥६॥
[ उत्तरा ० ३. गा२]
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भरात्रि-भोजन-सूत्र
(६८) अन्न धादि चारों ही प्रकार के थाहार का राधि में सेवन नहीं करना चाहिए । इतना ही नहीं, दूपरे दिन के लिए भी रात्रि में खाद्य सामग्री का सहयह करना निषिद्ध है। प्रत. भरात्रिभोजन वास्तव में बड़ा दुष्कर है।
(६६)
हिंसा, झूट, चोरो, मैथुन, परिग्रह और राग्नि भोजन-जो जीव इनसे विरत (पृथक) रहता है, वह श्रनाम्नवा (आत्मा में पाप-कर्म के प्रविष्ट होने के द्वार प्रास्रव कहलाते हैं, उनसे रहित श्रमानव) हो जाता है।
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:: विणय-सुत
(७०) मूलाओ संधप्पभवो दुमस्स,
संघाउ पच्छा समुवेन्ति साहा । माहा-प्पसाहा विरहन्ति पत्ता, तम्रो य से पुष्कं फलं रसोय ॥शा
[ दश: घ, ६ . २ गा]
(11) यं धम्मस्ल विणश्रो, मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्ति सुयं सिग्छ, निस्सेम चाभिगच्छा ॥२॥
श: अ. उ०२ गी० २]
(७२) अह पंचहि ठाणेहि, जेहि सिक्खा न लन्मइ । थम्भा कोहा पमाएप, रोगेणाऽऽलस्सएण य ||
[उत्तरा० मा ११ गा०३]
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:
:
विनय-सूत्र
(७०) .वृक्ष के मूज से सबसे पहले स्कन्ध पैदा होता है, कन्धं के बाद शाखाएँ और शासोधों से दूसरी छोटी-छोटी टहनिया निकलती है। छोटी इनियों से पत्ते पैदा होते हैं । इसके बाद शमशः फूल, फल और रस उत्पन्न होते है।
(७१)
इसी भांति धर्म का मूज विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम रम है | विनय से ही मनुष्य बहुत जल्दी लापायुक्त संपूर्ण शास्त्र-ज्ञान तयो कीर्ति सम्पादन करता है।
इन पाँच कारणों से मनुष्य सरची शिक्षा प्राह नही कर मकता :
अभिमान से, क्रोध से, प्रमाद से, कुष्ठ श्रादि रोग से, और भारपसे।
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४८
महावीर - वाणी
(७३-०४)
हहिं ठाणेहिं, सिक्खासीलि त्ति बुचर | अहस्सिरे सयाद न य मन्ममुदाहरे ॥४॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सचरए, सिक्खा सीलि त्ति वुञ्च ॥५शा
[ उत्तरा अः ११ गा० ४-६ ]
(52)
आणानिह सकरे, इंगियागार संपन्ने से
·
गुरुणमुववायकारए ।
विणीए त्ति वुच्चइ ॥६॥
[ उत्तरा० अ० १ गा० २]
(७६-७६)
यह पन्नरसहि ठाणेहिं, सुविणीए त्तिं बुच्चइ | नीयावित्ती अचवले, माई अकुले ॥७॥ अपच अहिक्खिवई, पवन्धं च न कुबई । मेत्तिज्जमाणो भयइ, सुर्य लद्ध, न मज्जइ ||८|| नय पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुपइ | पिसाऽवि मित्तरस रहे कल्ला भास ॥६॥ कलहडमरवज्जिए, बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिसलीये, सुविरणीए ति वच्चइ ||१० ll [ उत्तरा० अ० ११ गा० १०-११-१२-१३ ]
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विनय-सूत्र
(७३-७४)
इन कारणों से मनुष्य शिक्षा-शोल कहलाता है
:
૪
हर समय हँसनेवाला न हो, सतत इंद्रिय निग्रहो हो, दूसरों को मर्मभेदी वचन न बोलता हो, सुशील हो, दुराचारी न हो, रसलोलुन न हो, सत्य में रत हो, क्रोधी न हो-शान्त हो ।
( ७५)
जो गुरु को श्राज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके इति तथा कारों को जानता है, वही शिष्य विनीत कहलाता हैं ।
( ७६-७६ )
इन पन्द्रह कारणो से वुद्धिमान मनुष्य सुविनीत कहलाता है : उद्धत न हो- नम्र हो, चपल न हो स्थिर हो, मायाची न हो-सरल हो, कुतूनो न हो-गम्भीर हो, किमी का तिरस्कार न करता हो, क्रोध को अधिक समय तक न रखना हो--शोध हो ग्रान्त हो जाता हो, अरने से मित्रता का व्यवहार रखनेवालों के प्रति पूरा सद्भाव रखता हो, शास्त्रोंके अध्ययन का गर्व न करता हो, किसी के दोषों का भण्डाफोड़ न करता हो, मित्रों पर क्रोधित न होता हो, प्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भनाई हो करता हो, किसी प्रकार का भगदा-फसाद न करता हो, बुद्धिमान हो, अभिजात अर्थात् कुजीम हो, सज्जाशील हो, एकाम हो ।
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महावीर-वाणी
(८०) । आणाऽनिद्दे सकरे, गुरूणमणुववायकारए । पटिणीए असंयुद्ध', अविरणीए त्ति वुच्चइ ॥११॥
[ उत्तरा०प० । गा० ३ ]
(८१-८३) अभिक्खण कोही हवइ, पबन्ध च पकुबई । मेतिज्जमाणो वमइ, सुयं लद्ध ए मज्जई ॥१२॥ अवि पावपरिक्खेत्री, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुपियस्साऽवि मित्तस्स, रहे भासह पावगं ॥१३|| पइएणवादी दुहिले, थद्ध लुद्ध अणिग्गहे । अमंत्रिभागी अचियत्ते, अविणीप त्ति वुच्चइ ॥१४ ॥
[ उत्तराः श्र० ११ गा: ७.६ ]
(४) जस्सन्तिए धम्मपयाई सिक्खे,
तस्सन्तिए वेणइय पउंजे । सकारए सिरसा पंजलीओ, काय-गिरा भो । मणमा य निच्चं ॥१२॥
श० ० ६ ० १ गा० १२]
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विनय-सूत्र
(२०) जो गुरु की आज्ञा का पालम नहीं करता, जो उनके पास नहीं रहता, जो उनसे शत्रुता का बर्ताव रखता है, जो वियेशून्य है, उसे अविनीत कहते हैं।
(८१-८३ ) जो वार-बार क्रोध करता है, जिसका क्रोध शीघ्र ही शान्त नहीं होता, जो मित्रता रखनेवालो का भो तिरस्कार करता है, जो शास्त्र पढ़कर गर्व करता है, जो दूसरों के दोषों को प्रकट करता रहता है, जो अपने मित्रों पर भी क्रुद्ध हो जाता है, जो अपने प्यारे-से-प्यारे मित्र को भी पीठ-पीछे घुराई करता है। जो मनमाना बोल उठता है-यस्वाती है, जो स्नेही-जनो से भी द्रोह रखता है, जो अहंकारी है, जो लुन्ध है, तो इन्द्रियनिग्रही नहीं, जो
आहार आदि पाकर अपने साधर्मी को न देकर अकेला ही खानेवाला अविसंभागी है जो सवको अप्रिय है. वह अविनीत कहलाता है।
(४) शिष्य का कर्तव्य है कि वह जिस गुरु से धर्म-प्रवचन सीखे, उसकी निस्तर वनय भक्ति करे। मस्तक पर अंजलि चढ़ाकर गुरु के प्रति सम्मान प्ररित घरे। जिस तरह भी होसके मन से, वचन से और शरीर से हमेशा गुरु की सेवा करे।
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महावीर-वाणी
(८५) थभा व कोहा व मयप्पमाया,
गुरुरसगासे विणयं न मिग्ये 1 मो चेव उ तस्स अभूडभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥१६॥
[दशः अ. ६ उ. । गा० 1]
(८६) वियत्ती अविरणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य । जम्सेयं दुहश्रो नाय, सिक्खं से अभिगन्छ। ॥१७॥
[दश अं. ३ उ० २ गा० २२]
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विनय-सूत्र
(८५)
जो शिष्य श्रभिमान, क्रोध, मइया प्रमाद के कारण गुरु को विनय (भक्ति) नहीं करता, वह अभूति अर्थात् पतन को प्राप्त होता है । जैसे बॉप का फन उपके ही नाश के लिए होता है, उसी प्रकार अविनीत का ज्ञानन्त्रज्ञ भी उसी का सर्वतः श करता है ।
•
५३
(६६)
'अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है, और विनीत को सम्पत्तिये दो बाते जिसने जान ली हैं, वही शिक्षा प्राप्त कर
है }
सकता
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चाउरंगिज्ज-सुत्तं
(५७) चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहारणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥
[ उत्तरा० अ० ३ गा० १ ]
र) एगया खत्तिो होड, सओ चंडाल-बुक्कसो । तो कीड-पयंगो य, नो कुन्थु-रिवीलिया ॥२॥
[ उत्तरा० अ० ३ गा० ४ ]
(6) ग्वमावजोगीमु पाणिणो कम्मकिचिसा । न निविज्जन्ति मसारे, सब्वमु व खत्तिया ॥३॥
[ उत्तरा० श्र० ३ गा० ५ ]
(६०) कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणुमासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥४॥
[ उत्तरा० अ० ३ गा० ६]
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: १०.
चतुरङ्गीय-सूत्र
(८७)
संसार मे जीवो को इन चार श्रेष्ठ श्रद्धों ( जोवन-विकाम के साधनों ) का प्राप्त होना बढ़ा दुर्लभ है :
मनुष्यश्व, धर्मश्रवण, धदा और संयम में पुरुषार्थं ।
(55)
कभी वह त्रिय होता है और कभी चारदाळ, कभी वर्ण-मंकर---बुक्कस, कभी कोड़ा, कभी पतन, कभी कुंथुश्रा, वो कभी चोरी होता है। F
( 2 )
पाप-कर्म करनेवाले प्राणो इस भाँति हमेशा बदलतो रहने वाली योनियों में वारम्बार पैदा होते रहते हैं, किंतु इस दु.खपू ससार से कभी खिन्न नहीं होते, जैसे दुःखपूर्ण राज्य से क्षत्रिय । ( ६० )
जो प्राणी काम वासनाथो से विमृव है, ये भयङ्कर दुःख तथा चैत्रमा भोगते हुए चिरकाञ्च तक मनुन्चेतर योनियों में भरते रहते हैं ।
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महावीर वाणी
( ६१ )
कम्मारणं तु पहाणार, आणुपुत्री कयाइ उ । star सोहिमगुपत्ता, आययन्ति मगुस्सयं ॥७॥
[ उत्तरा० : ३ गा० ७ ]
E
( १२ )
माणुस्सं विग्गहं लछु', सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पडिवज्जन्ति, तत्रं खन्तिमहिंसयं ॥६॥
[ उत्तरा० अ० ३ गा० ८ ]
( ३ )
आच सवल, सद्धा परमदुल्लहा 1 सोच्चा नेयाज्यं मग्ग, वहवे परिभस्सई ॥७॥
·
[ उत्तरा० अ० ३ गा० ६ ]
( ६४ )
सुई च ल सद्ध च वीरियं पुण दुल्लहं ।
बहवे रोयमारणावि, नो य णं पडिवजए ||
[ उत्तराः म० ३ ० १० ]
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चतुरझोय-सूत्र
(६१) संसार में परिभ्रमण करते-करते जब कभी बहुत काल में पार-कमों का वेग क्षीण होता है और उसके फलस्वरूप अन्तरात्मा क्रमशः शुद्धि को प्राप्त करता है, तब वहीं मनुष्य-जन्म मिलता है।
मनुष्य-शरीर पा लेने पर भी सद्धर्मका श्रवण दुर्लभ हैं, जिसे सुनकर मनुष्य. तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करते हैं।
(६३) सौभाग्य से यदि कभी धर्म का श्रवण हो भी जाय, तो उस पर श्रद्धा का होना अत्यन्त दुर्लभ है । कारण कि बहुत-से लोग न्याय-मार्ग को - सत्य-सिद्धान्त. को-सुनकर भी उससे दूर रहते हैं-उसपर विश्वास नहीं रखते।
(६४) सद्धर्म का श्रवण और उसपर श्रद्धा-दोनों प्राप्त कर लेने पर भी उनके अनुसार पुरुषार्थ करना तो और भी कठिन है। क्योंकि संसार में बहुल-से लोग ऐसे हैं, जो सद्धर्म पर दृढ़ विश्वास रखने हुए भी उसे प्राधरण में नहीं बात !
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महावीर-वारणी
(६५) माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्म सोच्च सद्दहे। तबस्सी वीरियं लद्ध, संवुड़े निद्धणे रयं ॥
[ उत्तरा० अ०३ गा० ११]
(६६), सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मों सुद्धस्स चिट्ठइ । निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्ते व पावए ॥१०॥
[उत्तरा० अ० ३ गा०११].
(७) विगिंच कम्मणों हेड, जस संचिणु खन्तिए । , सरीरं पाढवं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ॥११॥
[उत्तरा० अ०३ गा० १३]
(६८) चउरगं दुल्लहं, मत्ता, संजम पडिवजिया । तवसा धुयकम्मसे, सिद्ध हवइ सासए ॥१२॥
[उत्तरा० : ३ गा० २०]
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चतुरङ्गीय-मूत्र
(६५) परन्तु जो तपस्वी मनुग्यस्य को पाकर, सद्धर्म का अरण कर, उसपर श्रद्धा जाता है और तदनुमार पुरुषार्थ कर आस्रव रहित हो जाता है, वह अन्तरात्मा पर ने कर्म रज को झटक देता है।
(६६) जो मनुष्य निष्कपट एवं सरल होता है,जयो की आमा शुद्ध होती है। और, जिस की प्रारमा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है। घी में सीची हुई मग्नि जिस प्रकार पूर्ण प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल और शुद्ध साधक ही पूर्ण निर्वाण को प्राप्त होता है।
कंगा पैदा करनेवाले कारण को हूँ टो-उका छेद करो, और फिर पमा प्रादि के द्वारा अभय यश का संचय करो। ऐमा करनेवाला मनुष्य इस पार्थिव शरीर को छोड़कर अर्ध्व-दिशा को पास करता है-अर्थान उच्च और श्रेष्ठ गति पाता है।
(1) जो मनुष्य उक्त पार अंगो को दुर्लभ जानबर संयम मार्य स्वीकार करता है, वह तप के द्वारा बन कमांश का नाश कर सदा के लिये सिद्ध हो जाता है।
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:११:
अप्पमाय-सुत्तं
(६६ ) , असंखयं जीविय मा पमायए,
जरोवरणीयस्स हु नथि ताण । एवं विजाणाहि जणे पमत्ते, के नु विहिसा अजया गहिन्ति ? I/m
[उत्तरा० १ ४ गा..]
(१००) जे पावकम्मे हि धणं मगुस्सा,
समाययन्ति अमय गहाय पहाय ते पासपयट्टिए नरे, राणुवद्धा नरयं उबेन्ति ॥१॥
[उत्तरा० अ० ४ गा० २ ]
(१०१) वित्तेण ताणं न लभे पमत्त,
___ इमम्मि लोए अदुवा परत्थ । दीवापणठे व अणतमोहे नयाउयं
दठुमट्ठमेघ ॥शा [उत्तरा० ० ४ गा• ५ ]
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:११
अप्रमाद-सूत्र
(६) जीवन भमस्टन है-अर्थात् एक बार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुस्ता; प्रत एक जण भी प्रमाद न करो।
प्रमाद, हिसा और असंयम में अमूल्य यौवन-काल बिता टेने के बाद जर वृन्दावस्था प्रायगी, तब तुम्हारी कान रक्षा चरेगा ~ तब किम को गाण लोगे " यह खूर सोच-विचार को।
(१००) जो मनुष्य अनेक पाप-बम कर, वैर-विरोध बढ़ाकर अमृत की तरह धन का संग्रह करते है, ये अन्त में कमी के हद पाश में बंधे हुए सारी धन-सम्पत्ति यहीं छोटकर, नरक को प्राप्त होते हैं ।
(११) ममत्त पुरष धन' के द्वारा न तो इस लोक में ही अपनी रक्षा कर माता है और न परलोक में । फिर भी धन के असीम मोह मे मूद मनुष्य, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग नहीं दीस पडता, से ही न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नहीं देख पाता |
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महावीर-वाणी
(१०२) तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए,
सकम्मुणा किञ्चइ पावकारी । एवं पया पेच्च इहं च लोए, ___ कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ४
[उत्तराः ०४ गा० ३ ]
(१८३) संसारमावन्न परस्स अट्ठा,
साहारण जं च करेइ कम्म । कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले, न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति ॥५॥
[उत्तरा० अ०४ गा० ४]
(१८४) सुन्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽपमत्ते ॥६॥
[उत्तराः ० . गा०६]
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अप्रमाद-सूत्र
(१०२)
जैसे चोर सेंध के द्वार पर पकडा जाकर अपने ही दुष्कर्म के कारण चीरा जाता है, वैसे ही पाप करनेवाला प्राणी भी इस बोक में तथा परजोक में-दोनो ही जगह-भयङ्कर दुःख पाता है । क्योंकि कृत कर्मों को भोगे बिना कभी छुटकारा नहीं हो सकता ।
(१०३)
ससारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्नियो के लिए, बुरे से बुरे पाप-कर्म भी कर डालता, है, पर जम उनके दुष्फल भोगने का समय श्राता है, तब अकेला ही दुःख भोगता है, कोई भी भाईबन्धु उसका दुःख बंटानेवाला--सहायता पहुँचानेवाला नहीं होता।
(१०४) भाशु-प्रज्ञ पंदित-पुरुष को मोह-निद्रा में सोते रहनेवाले समारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब ओर से जागरूक रहना चाहिए-किसीका विश्वास नहीं करना चाहिए । 'काल निर्दय है और शरीर निर्बत' यह जानकर भारएड पक्षी की तरह हमेशा अप्रमत्त भाव से विचरना चाहिए।
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महावीर-वाणी
(१०५) चरे पयाई परिसकमाणो,
जं किंचि पास इह मरणमाणो । लाभन्तरे जीवियं चूहइत्ता, ° पच्छा परिन्नाय मलावधसी |
[उत्तरा० अ० ४ गा. ७ ]
(१०६) छन्दनिरोहेण उवेइ मोक्खं,
आसे जहा सिक्खिय-वम्मधारी । पुन्बाई वासाई चरेऽप्पसत्ते, __ तम्हा मुणी खिष्णमुवेइ मोक्खं ॥८॥
[ उत्तरा० भ० ४ गा०८]
(१०७) स पुत्वमेवं न लभेज्ज पच्छा,
एसोचमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले पाउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥६॥
[उत्तरा भाग.]
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अप्रमाद सूत्र
(२०५)
सलार में जो धन जन आदि पदार्थ है, उन सब को पाशरूप जानवर सुसु को वढी सावधानी से फूंक फूंक कर पाँच, रखना चाहिये। दतक शरीर सरपत है, स्वतक उसका उपयोग अधिक से अधिक लयम- धर्म की साधना के लिए कर लेना चाहिए। बाद मे जब वह बिलकुल हो शक हो जाये तब बिना किसी मोह
"
ममता के मिट्टी के ढेले के समान उमत त्याग कर देना चाहिए ।
६५
(१०६)
जिस प्रकार शिक्षित (सधा हुआ ) तथा कवचधारी घोड़ा युद्ध ने विजय प्राप्त करता है, उसी तर विवेकी मुसुल भी जीवनसत्राम में विजनी होम् नोक्ष प्राप्त करता है । जो मुनिः दीर्घकाल तक श्रप्रमत्तरूप में संयम वर्ग का श्राचरण करता है, वह शीघ्रातिशोध मोक्ष-पद पाता है ।
( १०७)
शाश्वत चादी लोग कल्पना दिया करते है कि 'सत्कर्म-साधना की भी क्या जल्दी है, आगे कर लेगे । परन्तु चो करते-करते भोग-विलास में हो उनका जीवन समाप्त हो जात है, और एक दिन मृत्यु सामने था खटी होती है, शरीर नष्ट हो जाता } श्रन्तित समय में कुछ भी नही बन पाता, उस समय तो मूर्ख मनुष्य के भाग्य में कवन्न पचताना ही शेप रहना है ।
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महावीर-वाणी
(१०८) खिप्पं न सक्केई विवेगमे,
तम्हा समुहाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी, आयाणुरक्खी चरमप्पमत्ते ॥१॥
(उत्तरा० अ० ४ गा. 10]
(१०६) मुह मुहुँ मोहगुणे जयन्त,
अणेगरूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ती असमजसं च, न तेसि भिक्खू मणसा पउस्से ॥११॥
[उत्तरा० अ० १ गा०1]
(११०) मन्दा य फासा बहुलोहणिजा,
तहपगारेसु मणं न कुजा । रक्खिज कोहं विणएज माण, मार्य न सेवे पयहेज लोहं ॥१२॥
उत्तरा० भ० १ गा० १२]
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६७
अप्रमाद-सूत्र
(१०८)
श्रात्म-विवेक भटपट प्राप्त नहीं हो जाता - इसके लिए भारी साधना को श्रावश्यकता है। महदि जनों को बहुत पहले से हो संयम पथ पर हदता से खड़े होकर काम-भोगों का परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी संहर की वास्तविकता को समकर अपनी श्रात्मा की पापों से रक्षा करते हुए सर्वदा अप्रमादीरूप से विचरना चाहिये ।
( १०६ )
मोह गुणों के साथ निरन्तर युद्ध करके विजय प्राप्त करनेवाले धमण को अनेक प्रकार के प्रतिकृत स्पर्शो का भी बहुत बार सामना करना पडता है । परन्तु भिक्षु उनपर तनिक भी अपने मन को तुच्ध न करे - शान्त भाव से अपने लक्ष्य को भीर हो असर होता रहे।
aru
( ११० )
संयम-जीवन में मन्दता जाने वाले काम-भोग बहुत ही लुभावने मालूम होते हैं । परन्तु संयमी पुरुष उनकी ओर अपने मन को कभी श्राकुष्ट न होने दे । श्रात्म-शोधक साधक का कर्त्तव्य है कि वह क्रोध को दबाए, भहकार को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ को छोड़ दे ।
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महावीर-वाणी
(१११) जे संखया तुच्छ परपवाई,
ते पिन-टोसाणुगया परस्मा । एए अहरमे ति दुगुछमाणो, खे. गुणे जाब सरीरसेए ॥१३॥
[उत्तरायः ४ गा०1३]
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६६
त्र्यप्रमाद-सूत्र
( १११ )
जो मनुष्य ऊपर-ऊपर से संस्कृत जान पड़ते हैं परन्तु वस्तुतः तुच्छ हैं, दूसरों की निन्दा करनेवाले हैं, रागी - छपी हैं, परवश है, वे सब अवचरण वाले हैं- इस प्रकार विचार पूर्वक दुर्गुणों से घृणा करता हुआ मुमुक्षु शरीर-नाश पर्यन्त ( जीवनपर्यन्त ) केवल सद्गुणों की ही कामना करता रहे।
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: ११-२ :
अप्पमाय-सुत्तं
(११३.) दुमपत्तए पडुयए जहा निवडड राङगणा अच्छए । एवं मणुयाण जीवियं, समय गोयम' मा पमायए || १ ||
(११३)
कुसग्गे जह ओसविन्दुए, थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए ॥ ॥
(११४)
इद
इन्तरियम्मि आउए, जीवियए बहुपञ्चवायए । विहरणा हि रयं पुरेकडं, समयं गोयम । मा पमायए || ३ ||
(११५)
दुलहे तु माणुसे भवे, चिरकालेा वि सन्त्र- पाणिं । मादाय विवाग कालो, समर्थ गोयम ! मा पमायए ॥४॥
ני
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:११-२: अप्रमाद-सूत्र
(११२) जैसे वृक्ष का पत्ता पतझाड़-भातुकालिक रात्रि-समूह के चीत नाने के बाद पीना होकर गिर जाता है, वैसे ही मनुष्यो का जीवन भी आयु समाप्त होने पर सहसा नष्ट हो जाता है। इसलिए है गौतम ! क्षण-मान भी प्रमाद न कर ।
(११३) जैसे प्रोस की वूद कुशा को नोक पर थोड़ी देर तक ही रहती है, वैसे ही मनुष्यों का जीवन भी बहुत अल्प है-शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाला है। इसलिये है गौतम । पण मात्र भी प्रसाद न कर।
(११४) अनेक प्रकार के विन्नों से युक्त अत्यन्त अल्प आयुगाले इस मानव-जीवन में पूर्व सञ्चित कर्मों की धूल को पूरी तरह झटक दे। इसके लिए है गौतम क्षण मात्र मी प्रमाद न कर ।
- (११५) दीर्घकान के बाद भी प्राणियों को मनुष्य-जन्म का मिलना बड़ा दुर्लम है, क्योंकि कृत-कर्मों के विपाक अत्यन्त प्रगाढ़ होते हैं। हे गौतम ! सय मात्र भी प्रमाद न कर ।
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महावीर-बाणी
(११६)
एवं भवसंसारे ससरड, सुहासुहेहि कम्महि । जीवो पमायबहुलो, समय गोयम 1 मा पमायए ॥१॥
[ उत्तरा० अ०० गा० १५]
(११७) लद्ध ण वि माणुसत्तणं, आरियत्तं पुणराचि दुल्लभं । बहवे दत्सुया सिलक्खुया, समयं गोयम ! मा पमायए ।।६।।
(११८) लहूण वि आरिपत्तण, अहीएपचिन्दिया हु दुल्लहा । विगलिन्दियया हुदीसई, समयं गोयम मा पमायए ॥॥
(११६) अहीणपचेन्दियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतिथिनिसेवए जणे, समयं गोयम | मा पमायए ||८||
(१२०) लण वि उत्तम सुइ, सदहणा पुणरावि दुल्लहा। गिछत्तनिसेवए जणे, सगय गोयम ! मा पमाय ॥६॥
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अप्रमाद-सूत्र
૭૩ (११६) प्रमाद-बहुन जीच अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण अनन्त पार भय चक्र मे इधर से उधर घूमा करता है। है गौतम ! आए मान भी प्रमाद न कर।
(१७) मनुष्य-जन्म पा लिया तो क्या ? थार्यत्व का मिलना बहा कठिन है । बहुत-से जीव मनुप्याच पार भी दस्यु धौर म्लेच जातियों में जन्म लेते हैं। हे गौतम ! पण मात्र भी प्रमाद न कर।
(११८) प्रार्यत्व पार भी पाँच इन्द्रियों को परिपूर्ण पाना पड़ा कठिन है । बहुन-मे लोग थार्य क्षेत्र में जन्म लेकर भी विकल इन्द्रियों वाले टेने जाते है । हे गौतम हिण-मात्र भी प्रमाद न कर,।
(११६) पांघो इन्दियाँ परिपूर्ण पार भी उत्तम धर्म का अधण माप्त होना कठिन है। बहुत से लोग पाखण्डी गुरुयो की सेवा किया करते है । हे गौतम ! सण-मात्र भी प्रमाद न कर ।
उत्तम धर्म का धयण पाकर भी उपपर श्रद्धा का होना यहा कठिन है । बहुत-से लोग सब कुछ जान-बूझकर भी मिथ्यात्व को उपासना में ही लगे रहते है। है गौतम क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर।
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महावीर-बाणी
(१२१) धम्म पि हु सद्दहन्तया, दुल्लहया कारण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समय गोयम । मा पमायए ॥१०॥
[ उत्तरा० अ० १० गा० १६-२०]
(१२२) परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवन्ति ते । से सम्बवले य हायई, समयं गोयम | मा पमायए ॥११॥
[उत्तरा० अ० १० गा० २६ ]
(१२३) अरई गण्डं विसूइया, आयंका विविहा फुसन्ति ते । . विहडइ विद्ध सइ ते सरीरयं, समयं गोयम ! मा पमायए
॥१२॥
(१२४) वोच्छिन्द सिणेहमापणो, कुमुयं सारइयं व पाणिय । से सबसिणेहवज्जिए, समय गोयम | मा पमायए ॥१३॥
(१२५) चिच्चाण धणं च भारियं, पवइओ हि सि अणगारियं । मा बन्न पुणो वि आत्रिए, समयं गोयम मा पमायए ॥१४
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'अप्रमादनमून
७५ (१२१) धर्म पर श्रद्धा होने पर भी शरीर से धर्म का प्रावरण करना बड़ा कठिन है ! संसार में बहुत से धर्म-श्रद्धानी मनुष्य भी कामभोगों में मूच्छित रहते हैं। हे गौतम ! य-मात्र मी प्रमाद न कर |
(१.२। तेरा शरीर दिन-प्रति-दिन जीर्ण होता जा रहा है, सिर के बाल पककर श्वेत होने लगे हैं, अधिक क्या-शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार का बज घटता जा रहा है । हे गौतम ! शह-मात्र भी प्रमाद न कर ।
(१२३) अचि, फोड़ा, विसूचिका ( हैजा) श्रादि अनेक प्रकार के रोग शरीर में बढ़ते जा रहे हैं। इनके कारण तेरा शरीर बिल्कुल क्षीण तथा ध्वस्त हो रहा है। हे गौतम ! क्षण-मात्र भी प्रसाद न कर ।
(१२४). . जेसे कमज शरत्काल के निर्मल जल को भी नहीं छूताअलग अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तू भी संसार से अपनी समस्त श्रासक्सियाँ दूर कर, सब प्रकार के स्नेह बन्धनों से रहित हो जा । हे गौतम ! क्षण-रात्र भो प्रमाद न कर ।
(१२५)
स्त्री और धन का परित्याग करके तू महान् अनगार पद को पा चुका है, इसलिए अब फिर इन यमन की हुई वस्तुओं का पान न कर । हे गौतम ! क्षण-मान भी माद न कर ।
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महावीर-वाणी
(१२६) उपउझिय मित्तवन्धवं, विडलं चेव थपोहसंचयं । मा त विइयं गवेनए, ममयं गोयम मा पमायए ॥१५॥
[ उत्तरा० १० १० गा० २७-३० ]
(१२७) अवले जह भारवाहाए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समय गोयम ! मा पमायए ॥१६॥
(१२८) तिएणो सि अएएवं मह, किं पुण चिसि तीरमागओ? अभितुर पारं गमित्तर, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१॥
[ उत्तरा १० १० गा० ३३-३४ ]
(१२६) बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमटुपदोवसोहियं । राग दोसं च छिन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमे ॥८॥
[ उत्तरा. १० १० गा० ३७]
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थरमाद-मूत्र
७.०
(१२) विपुल धनराशि नया मित्र-मान्धवी को एपार स्वेच्छापूर्वक छोड़ार, अब दोबारा उनकी गवेपणा (पूजताछ ) न कर। हे गौतम । क्षय-मात्र भो'प्रमाद न कर।
(१२७) घुमावदार पिपम मार्ग को चोदकर तू सोधे और साफ मार्ग पर चल । विषम मार्ग पर चलनेवाले निर्मल भारवाहक की तरह बाद में पद्धतानेवाला न अन । है गौतम । क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर।
(१२८) तू विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका है, अब भला किनारे श्रामर क्यों अटक रहा है ? उस पार पहुंचने के लिए जितनी भी हो सके शीघ्रता कर । हे गौतम ! इण-मात्र मी प्रमाद न कर ।
(१६) भगवान महावीर के इस भांति अर्थयुक्त पदोचाले सुभाषित वचनों को सुनकर श्री गौतम स्वामी राग तथा देष का छेदन कर सिद्-गति को प्राप्त हो ग्ये ।
॥भी बांदमलजी - मूलचन्दजी - खूनचन्दी सठिया - सुजानगढ़ - द्वारा प्रदा ॥
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:१२:
पमायट्ठाण-सुतं
(१३०) पमायं कम्ममाहेसु, अप्पमायं तहावरं । तभावादेसओ वावि, वालं पडियमेव वा ॥१॥
[सूत्रः श्रु० १ ०८ गा० ३]
(१३१) जहा य अडप्यभवा वलागा,
अंडं वलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तराहा, मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ।
(१३२) रागो य दोसो वि य कम्मवीयं,
कम्मं च मोहापभवं वयन्ति । कम्म च जाईमरणस्स मूलं,
दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति ॥३॥
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:१२.
प्रमाद-स्थान-सूत्र
(१३०) प्रमाद को कर्म कहा गया ईशार अप्रमाद को अकर्म--अर्थात् जा प्रवृत्तियाँ प्रमाद-उन है ये कम-सन्धन करनेवाली है, और जो प्रवृत्तियों प्रमाद रहित है वे र्म-बन्धन नहीं करती। प्रमाद के होने थौर न होने से ही मनु माम मूर्य और पटित कहलाता है।
जिस प्रकार अगुजी हे मे पैदा होती है और अंडा बगुली से पटा होना है, उसी प्रकार मोह का उत्पत्ति-स्थान तृष्णा है और ताण व उत्पत्ति स्थान मोह है।
(१३) राग भार दंप-टोनी फर्म के चौज है । अतः मोह ही कर्म का उम्पादक माना गया है । क्म-सिद्धान्त के अनुभवी लोग कहते हैं कि ममार में जन्म-मरण का मूल कर्म है, और जन्ममरप~यही एकमान दुप्प है।
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f
महावीर वाणी
( १३३ )
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहों, मोहो हो नस्स न होइ तरहा ।
तरहा या जस्स न होइ लोहो, लोहो हो जस्स न विचरणाइ ||४||
[ उत्तराः श्र० ३२ गाः ६-६ ]
(१२४)
निसेवियन्या,
पायं रसा द्वित्तिकरा नराणं ।
रसा पगाम न
दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति,
दुर्म जहा साउफलं व पक्खी ||४|| [ उत्तरा० अ० ३२ गा० १० ] (१३५)
रुवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयगे,
आलोयलोले समुबेइ मच्चु ||६||
[ उत्तरा० अ० ३० गा० २४ ]
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प्रमाद-स्थान-सूत्र
८१
(१३३)
जिसे मोह नहीं उसे दुःख नहीं, जिसे तृष्णा नहीं उसे मोह नहीं; जिसे लोभ नहीं उसे तृष्णा नहीं, और जिपके पास बोभ करने योग्य कोई पदार्थ-सग्रह नहीं है, उपमे लोभ भी नहीं ।
(१३४)
दूध-दही श्रादि रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि रस प्रायः मनुष्यो में मादकता पैदा करते हैं । मत्त मनुष्य की थोर काम-वासनायें वैसे ही दौडो थाती है, जैसे स्वादिष्ट फळवाले वृक्ष की ओर पसी ।
(१३५)
जो मूर्ख मनुष्य सुन्दर रूप के प्रति तीव्र आसक्ति रखता है, वह काल में ही नष्ट हो जाता है । रागातुर व्यक्ति रूपदर्शन की लालमा में वैसे ही मृत्यु को प्राप्त होता है, जैसे दीपक की ज्योति को देखने की ज्ञानसा मे पतग ।
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८२
महावीर-वाणी
रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं,
कुतो सुह होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेस-दुक्ख, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥जा
(१३७) एमेव स्वम्मि गो पोस,
उवेइ दुक्खोहपरपरायो । पद्धचित्तो य चिणाइ कम्म,
जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८॥
रूवे विरत्तो मणुभो विसोगो,
एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमसे वि सन्तो, जलेण वा पोखरिणीपलासं l
[उत्तरा० अ० ३२ गा० ३२-३४]
(१३६) एविन्दियत्या य मणरस अत्था,
दुक्खस्स हेउ भणुयस्स रागिणों । ते चेव थोव पि कयाइ दुक्ख, न वीयरागस्स करेन्ति किचि ॥१८॥
[उत्तरा० अ० ३२ गा० १००]
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FI
प्रसाद-स्थान-सूत्र
(१३६) रूप में प्रासक्त मनुष्य को कहीं भी कभी किंचिन्मान सुख . नहीं मिल सकता। खेद है कि जिसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य महान् कष्ट उठाता है, उसके उपभोग में कुछ भी सुख न पाकर कोश तथा दुःख हो पाता है ! . .
(१३७) जो मनुष्य कुत्सित रूपों के प्रति हेच रखता है, वह भविष्य में अलोम दुःह-परंपरा का भागी होता है। प्रदुष्टचित्त द्वारा ऐसे पापा संचित किये जाते हैं, जो बिपाक-कान में भयंकर दुःखरूप होते हैं।
( १३८) .. रूप-वरक्त मनुन्य ही वास्तव में शोक-रहित है । वह संसार में रहते हुबे भी दुःख-प्रदाह से अलिप्त रहता है, जैसे कमल का पत्ता जल से ।
(१३६) रागी मनुष्य के लिए ही उपर्युक्त इन्द्रियों तथा मन के विषम-भोग दुःख के कारण होते हैं। परन्तु वीतरागी को किती प्रकार कभी तनिक-सा दुःख नहीं पहुँचा सकते. ।
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महावीर-वाणी
(१४०) न कामभोगा समयं उवेन्ति,
न यावि भोगा विगई उवेन्ति । जे तप्पडोसी य परिगाही य, सो तेसु मोहो विगई उवेइ ॥११॥
[उत्तरा० अ० ३२ गा० .०१]
(१४१) अणाइकोलप्पभवस्स एसो,
सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो । वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता, कमेण अच्चन्तसुही भवन्ति ॥१२॥
[ उत्तरा० अ० ३२ गा० .]
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(१४०) काम-मोग अपने-आप न किसी मनुष्य मे समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्दे परूप विकृति पैदा करते हैं। परन्तु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-दंप के नाना संकल्प बनाकर मोह से विकार-प्रस्न हो जाता है ।
(१४१) अनादि काल से उत्पन्न होते रहने वाले सभी प्रकार के सांसारिक दुखो से छूट जाने का यह मार्ग ज्ञानी पुरुपो ने बतलाया है। जो प्राणी उक मार्ग का अनुसरण करते हैं वे क्रमशः मोक्ष-धाम प्राप्त कर अत्यन्त सुखी होते हैं ।
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: १३ :
कसाय-सुत्तं
(१४२) कोहो य गणों व अणिगाहीया,
माया य लोभो य पवढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाइ पुणव्भवस्स ॥१॥
[दशः १० ८ गा० ४०]
( १४३) कोह माणं च माय च, लोमं च पाववढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणो ॥२॥
[दश प्र०८ गा० ३७]
(१४४) कोहो पीइ पणासेइ, माणो विणयनासो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सच्चविणासणो ॥३॥
[दश० ० ८ गा० ३८ ]
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दक्या जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसश्रो जिणे ॥४॥
[दशः ०८ गाय ३६]
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: १३ :
कृपाय - सूत्र
( १४२)
श्रनिगृहीत क्रोध और मान, तथा प्रवद्ध मान ( चढ़ते हुए ) माया और लोभ- ये चारों हो काले कुत्मित कपाय पुनर्जन्म रूपी संसार वृक्ष की जढो को सींचते है ।
(१४३)
जो मनुष्य यपना दिन चाहता है उसे पाप को बढ़ाने वाले कोव, मान, माया और लोभ-इन चार दोषों को सदा के लिये छोड़ देना चाहिए |
( १४४ )
कोच प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है; और लोभ सभी सद्गुण का नाश कर देता है ।
( १४५)
शान्ति से ोध को मारो, नम्रता से अभिमान को जीतो, सरलता से माया का नाश करो, श्रीर सन्तोष से लोभ को काबू में लायो ।
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महावीर-वाणी
(१४६) कसिणं पि जो इमं लोय, पडिपुराणं दलेज्ज इक्कस्स। तेणाऽवि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥॥
(१४७) जहा लाहो तहा लोहा, लाहा लोहो पवड्ढइ । दोमासकयं कज, कोडीए वि न निद्वियं ॥६॥
[उत्तरा० अ०८ गा० १६-१२]
(१४८) अहे वयन्ति कोहेण, माणेणं अहमा गई । माया गइपडिग्घाओ, लोहाओं दुहओ भयं ॥७॥
[उत्तरा०प० ६ गा० ५४]
(१४६) सुवरण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे,
सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ॥८॥
(१५०) पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह । पडिपुरणं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥६॥
[ उत्तरा० ० ६ गा० ४८-18 ]
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कपाय -सूत्र
(१४६)
अनेक प्रकार के बहुमूल्य पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व यदि किसी मनुष्य को दे दिया जाये, तो भी वह सन्तुष्ट न होगा । श्रहो ! मनुष्य को यह तृष्णा बड़ी दुप्पूर है ।
६६
( १४७ )
ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है । देखो न, पहले केवल दो मासे सुवर्ण की आवश्यकता थी; पर बाद में वह करोड़ों से भी पूरी न हो सकी ।
( १४८)
क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति में जाता है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इस लोक तथा परलोक में मद्दान् भय है ।
(१४६ )
चाँदी और सोने के कैलास के समान विशाल श्रमंस्य पर्वत भी यदि पास में हों, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृष्णा श्राकाश के समान अनन्त है 1 ( १५० )
चॉल थोर जी आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथिवी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है - यह जानकर संग्रम का ही श्राचरण करना चाहिए ।
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महावीर-वाणी
(१५१) कोह च माण च तहेव मायं,
लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा ।। एयाणि वन्ता अरहा महेसी, न कुवई पावं न कारवेई ॥१॥
[ सूत्र. श्रु. ११० ६ गा० २६ ]
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६१
कपाय- सूत्र
( १५१ )
क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार अन्तरात्मा के भयंकर दोष हैं। इनका पूर्णरूप से परित्याग करने वाले अर्हन्त महर्षि न स्वय पाप करते हैं और न दूसरों से करवाते हैं ।
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: १४ :
काम-सुत्तं
(१५२) सल्लं कामा विसं कामा, कामा श्रासीविसोवमा । कामे य पत्थेमारणा, अकामा जन्ति दोगाई || ||
[ उत्तरा० श्र० ६ गा० १३ ]
(१५३)
सव्वं नदृ विडम्बियं ।
सव्वं विलवियं गोयं सवे श्राभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ||२||
[ उत्तरा० अ० १३ गा० १६ ],
(१५४)
बहुकाल दुक्खा,
खणमेत्तसोक्खा
संसारमोक्रस विपक्खभूया,
पगामदुक्खा
गामसोक्खा |
खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥३॥
[उत्तराः श्र० १४ गा० १३]
( १५५ )
जहा किंपागफलाण, परिणामो न सुदरो । एवं भुत्ता भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ||४|| [ उत्तरा० श्र० १६ गा० "]
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: १४ :
काम - सूत्र
( १५२)
काम-भोग शल्यरूप हैं, विरूप हैं और विषधर के समान हैं । काम-भोगों की लालसा रखने वाले प्राणी उन्हें प्राप्त किए विना ही अतृप्त दशा में एक दिन दुर्गति को प्राप्त हो जाते हैं । ( १५३ )
गीत सब विज्ञापरूप हैं, नाट्य सब विडम्बनारूप हैं, श्राभरण सब भाररूप हैं । श्रधिक क्या; संसार के जो भी काम-भोग हैं,
3
सब-के-सब दुःखावह हैं।
( १५४ )
काम-भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले हैं और चिरकाल तक दुख प्रत्यधिक दुःख-हो-टु ख
देने वाले । उनमें सुख बहुत थोदा है,
है । मोक्ष सुख के ये भयंकर शत्रु हैं, अनयों की खान हैं।
( १५५ )
जैसे किंपाक फलों का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी भोगों का परिणाम भी अच्छा नहीं होता 1
प्रकार भोगे
हुए
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महावीर-वाणी
(१५६) जहा य किंपागफला सणोरमा,
रसेण वरणेण य भुजमाणा । ते खुड्डए जीविए पच्चमाणा । एसोवमा कामगुणा विवागे ॥५॥
उत्तरा० अ ३२ गा० २०]
(१५७) उक्लेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी ममइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥६॥
[ उत्तरा० श्र. २५ गा० ३६]
(१५८) चीराजिण नगिरिगणं, जड़ी संघाडि मुडिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्लीलं परियागयं जा
[उत्तरा० अ०५ गा० २१ ]
(१५६) जे केइ सरीरे सत्ता, वरणे रूवे य सम्बसो । मणसा काय-बक्केणं, सन्चे ते दुक्खसंभवा ।।८।।
[उत्तरा० श्रः ६ गा० १२]
( १६०) अच्चेइ वालो तूरन्ति राइओ,
न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा ।
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काम-सूत्र
(१५६) जैसे किपाक फल रूप रग और रस की दृष्टि से शुरू में साते समय तो बढे अच्छे मालूम होते है, पर खा लेने के बाद जीवन के नामक है, वैसे ही कामभोग भी प्रारंभ में बड़े मनोहर लगते हैं, पर विपान-काल में सर्वनाश कर देते हैं।
(१५७) जो मनुष्य भोगी है-भोगासक्त है, वही कर्म-मल से लिप्त होता है, अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी ससार में परिभ्रमण किया करता है और अभोगी समार बन्धन से मुक्त हो जाता है।
(१५८) मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, वाटिका (चौद्ध भिक्षुओ का-सा उत्तरीय वस्त्र), और मुण्डन श्रादि कोई भी धर्मचिह दुःशील भिक्षु की रक्षा नही कर सकते।
(१५६) जो अविवेको मनुष्य मन, वचन और काया ले शरीर, वर्ण तथा रूप मे श्रासक्त रहते हैं, वे अपने लिए दुख उत्पन्न करते हैं।
(६०) फाल वढी द्रत गति से चला जा रहा है, जीवन की एक-एक करके सब राबियाँ बीतती जा रही हैं, फल-स्वरूप काम-भोग
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महावीर-वाणी उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुर्म जहा खोणफलं व पक्खी ॥६॥
[ उत्तरा अ० १३ गा० ३१]
(१६१) अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया । विणिअट्ठन भोगेसु, आउं परिमिअमप्पणो ॥१०॥
[दशः ०८ गा०३४]
(१६२) पुरिसोरम पविक्म्मुणा, पलियन्तं मणुयाण जीवियं । सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जन्ति नरा असंवुडा ।।११।।
[सूत्र० श्रु. १०२ उ० । गा०1.]
(१६३) संबुज्मह ! किं न बुज्झह ?
संवोही खलु पेच्च दुल्लहा । नो हूवणमन्ति राइओ, नो सुलभं पुणरवि जीवियं ॥१२॥ [सूत्र० ० १ ० २ ० १ गा..]
(१६४) दुप्परिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुवयो साहू, जे तरन्ति अतरं वरिपया व ॥१३॥
[उत्तरा० अ० ८ गा० ६ ]
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'
काम- सूत्र
६७
1
चिरस्थायी नहीं है । भोग-विलास के साधनों से रहित पुरुष को भोग वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे फलविहीन वृक्ष को पक्षी ।
( १६१ )
मानव-जीवन नश्वर है, उसमे भी ध्यायु तो परिमित है, एक मोक्ष मार्ग हो भविचज्ञ है, यह जानकर काम-भोगों से निवृत्त हो जाना चाहिए ।
( १६२ )
हे पुरुष ! मनुष्यों का जीवन अत्यन्त अल्प है --- क्षणभंगुर है, श्रतः शीघ्र ही पापकर्म से निवृत्त हो जा । संसार मे श्रासक्त तथा काम-भोगो से मूच्छित प्रसयमी मनुष्य बार-बार मोह को प्राप्त होते रहते हैं ।
( १६३ )
समो, इतना क्यों नहीं समझते ? परलोक में सम्यकू बोधि का प्राप्त होना बड़ा कठिन है । बीती हुई रात्रियाँ कभी लौटकर नहीं आतीं। फिर से मनुष्य-जीवन पाना आसान नहीं । ( १६४ )
काम-भोग बढ़ी मुश्किल से छूटते हैं, अधीर पुरुष तो इन्हें सहसा छोड़ ही नहीं सकते । परन्तु जो नहाव्रतों का पालन करने वाले साधुपुरुष हैं, वे ही दुस्तर भोग- समुद्र को तैर कर पार होते हैं, जैसे--- व्यापारी वणिक समुद्र को ।
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:१५:
असरण-सुतं
(१६५) वित्त पसवो य नाइओ, तं वाले सरणं ति मन्नई। एए मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विन्नई ॥१॥
[सूत्रः श्रु० अ० २ उ०३ गा०१६]
(१६६) जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तुणो ॥२॥
[उत्तरा. अ. १६ गा० १५]
(१६७) इमं सरीरं अणिच्चं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥३॥
[उत्तरा० अ० १९ गा०१२]
(१६८) दाराणि सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा । जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुवयन्ति य ॥४॥
[उत्तराअ०१८ गा९१४]
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अशरए-सूत्र
(१६५) मूर्ख मनुष्य धन, पशु और जातिवानों को अपना शरण मानता है और समझता है कि ये मेरे है और मैं उनका हूँ। परन्तु इनमें से कोई भी आपत्तिकाल में त्राण तथा शरण नहीं दे सकता।
(१६६) जन्म का दुख है, जरा (बुहापा) का दुख है, रोग और मरण का दुस है। अहो । ससार दुःखरूर ही है ! यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक प्राणी जम देखो तब क्लेश हो पाता रहता है।
(१६७) यह शरीर अनित्य है, शुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुया है, दुख और क्लेशों का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ हो क्षणों के लिए निवास है, अाखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है।
(१६८) स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन, सब जोते जो के हो सायी हैं, मरने पर कोई भी साथ नहीं पाता ।
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१००
महावीर वाणी
( १६६ ) वेया अहीया न भवन्ति ताणं,
भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं,
को नाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ॥
॥
[ उत्तरा० अ० १४ गा० १२] ( १७० )
चिच्चा दुपयं च चउप्पय च,
खेत्तं सिंहं धरण - धन्नं च सव्व । कम्मप्पीओ, अवसो पयाइ,
परं भवं सुन्दरं पावगं वा ||६|| [ उत्तरा० श्र० १३ गा० २४ ] ( १७१ )
जहेह सीहो व मियं गहाय,
मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया,
*
कालम्मि तरसंसहरा भवन्ति ॥७॥ [ उत्तरा० श्र० १३ गा० २२ ] ( १७२ )
जमि जगई पुढो जगा कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जऽघुट्ठयं ॥८॥
[ सूत्र० श्र० १ ० २ ० १ गा० ४ ]
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अशरण-सूत्र
१०१
(१६) पढे हुए वेद यचा नहीं सकते, जिमाये हुए बाह्मण अन्धकार से अन्धकार में ही ले जाते हैं, पैदा क्येि हुए पुत्र भी रक्षा नहीं कर सकते मी दशा में कौन विवेकी पुरुष इन्हें स्वीकार करेगा?
(१७०) द्विपद (दास, दासी श्रादि), चतुष्पद (गाय, घोड़े श्रादि), क्षेत्र, गृह और धन-धान्य प्लब कुछ छोड़कर विवराता की दशा में प्राणो अपने कुन कमों के साथ अच्छे या घुरे परभव में चला जाता है।
(१७१) जिस तरह सिंह हिरण को पड़कर ले जाता है, उसी तरह अतममय मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है। उस समय माता पिता, भाई श्रादि कोई भी उसके दुस में भागीदार नहीं होतेपरलोक में उसके गथ नहीं जाते।
(१७२) संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृत कर्मों के कारण ही दुसी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता।
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महावीर वाणी
(१७३) असासए सरीरम्मि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयत्वे, फेणबुब्बुयसंनिभे ॥॥
[ उत्तरा० अ० १६ गा० १३ ]
(१७४) माणुसत्ते असारस्मि, वाहि-रोगाण आलए । जरामरणपत्थम्मि, खणं पि न रमामहं ॥१०॥
[उत्तरा० अ० ६ गा०१४]
(१७५) जीवियं चेव रुवं च, विज्जुसंपायचंचलं । जत्थ त मुज्मासि रायं! पेच्चथं नावमसि ।।१।।
[उत्तरा० अ० १८ गा० १३ ।
(१७६) न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ,
न मित्तवग्गा न सुया न वन्धवा । एक्को सयं पच्चगुहोइ दुक्खें, कत्तारमेव अगुजाइ कम्मं ॥१२॥
[उत्तरा० अ० १३ गा० २३]
(१७७) न चित्ता तायए भासा,
कुओ विनाणुसासणं । विसन्ना णवकस्मेहि,
वाला पंडियमाणिणो ॥१३॥
[ उत्तरा० अ० ६ गा...]
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१०३
अशरण-सूत्र
(१७३) यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, पहले या बाद में एक दिन इसे छोडना ही है, अत. इसके प्रति मुझे तनिक भी प्रीति ( आसक्ति) नहीं है।
(१७४) मावन-शरीर प्रसार है, अधि-व्याधियों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है, यतः मैं इसकी भोर से क्षणभर भी प्रसन्न नहीं होता।
(१७५) मनुष्य का जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चचल है । श्राश्चर्य है, हे राजन्, तुम इसपर मुग्ध हो रहे हो। क्यों नहीं परनोक का खयाल बरते?
(१७६) पापी जीव के दुःख को न जातिवाले बटा सस्ते हैं, न मिन्न वर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्धु । जब दुःस या पड़ता है, तव वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य रिसी के नहीं।
(१७७) चित्र-विचित्र भाषा श्रापत्तिकाल में त्राण नहीं, करती इसो प्रकार मंत्रात्मक भापा का अनुशासन भी त्राण करनेवाला कैसे हो सकता है ? श्रत भाषा और मान्त्रिक विद्या से त्राण पानेकी श्राशायाले पडितमाय मूढ न पापों में मग्न हो रहे हैं।
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: १६ :
वाल-सुत्तं
( १७८) भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे । वाले य मन्दिए मूढे, वज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ।।१।।
[ उत्तरा० अं० ८ गा० ५]
( १७६) जे गिद्ध कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई । न मे दिट्ठ परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई॥२॥
[ उत्तरा? अ० ५ गा०५]
(१८०) हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो॥३॥
(१८१) जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगठभइ । कामभोगाणुराएरणं, केसं संपडिवज्जइ ॥४॥
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: १६:
बाल-मूत्र
(१७)
जो बाह--- मूर्ख मनुष्य काम-भोगों के मोहक दोषों में आसक हैं, हित तथा निश्रेयस के विचार से शून्य हैं, ये मन्दबुद्धि संसार में वैसे ही फंस जाते हैं, जैसे मक्खी श्लेष्म ( कफ ) में ।
( १७६ )
जो मनुष्य काम-भोगों में घासत होते हैं, वे पाश में फंस कर बुरे से बुरे पाप कर्म कर डालते हैं। ऐसे लोगों की मान्यता होती है कि वो हमने देखा नहीं, और यह विद्यमान
कान भोगों का श्रानन्द तो प्रत्यक्ष सिद्ध है
1
( १-० )
"वर्तमान काल के काम-भोग हाथ मे है- पूर्ण तया स्वाधेन है । भविष्यकाळ मे परलोक के सुखों का क्या ठिकानामिले या न मिलें ? और यह भी कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं ।"
( १८१)
"मैं तो सामान्य लोगों के साथ रहूंगा -- श्रर्थात् जैसी उनकी दशा होगी, वैसी मेरो भो हो जायगी" मूर्ख मनुष्य इस प्रकार घटता-मरो बातें किया करते हैं और काम-भोगों को शासक्ति के कारण अन्त मे महान् क्लेश पाते है ।
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१०६
महावीर-वाणी
(१२) तो से दंड समारमई, तसेसु थावरेसु य । अट्ठाए य अणहाए, भूयगामं विहिंसई ॥१॥
(१३) हिंसे वाले सुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥६॥
(१८४) कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्ध य इस्थिसु । दुहओ मलं सचिणइ, सिसुनागु व्ब मट्टियं ॥७॥
(१८५) तो पुट्ठो आयकेणं, गिलाणो परितप्पइ । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणो ॥६॥
[ उत्तरा० अ० १ गा० ६-11]
(१८६) जे केई वाला इह जीवियट्ठी,
पावाई कम्माई करेन्ति रुदा । ते घोररूवे तमसिन्धयारे,
तिव्वाभितावे नरगे पडन्ति ॥६ [ सूत्रः श्रु० अ०५ उ०१ गा०३]
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चाल-सूत्र
१०७
(1 ) मूर्स मनुष्य विषयासक्त होते ही उस तथा स्थावर जीवों को सताना शुरू कर देता है, और अन्त तक मतजन चेमतलब प्राणिसमूह की हिंसा करता रहता है ।
(१८३) मूर्स मनुष्य हिंसक, असत्य-गपी, मायावी, चुगलखोर और धूर्त हता है। यह मां-मध के खाने-पीने में ही अपना श्रेय समझता है।
(१८४) जो मनुष्य भरीर तथा वचन के बल पर मदान्ध है, धन तथा स्त्री आदि में ग्रामक है, वह राग और द्वेष दोनों द्वारा वैसे ही वर्म का संचय करता है, जैसे अलसिया मिट्टी का ।
(१८) पाप-कर्मो के फलस्वरूप जब मनुष्य अन्तिम समय में असाध्य रोगों से पीडित होता है, तब वह खिन्नचित्त होकर अन्दर-ही-अन्दर पन्त ता है और अपने पूर्वकन पाप-कर्मों को याद कर-कर के परलोक की विभीषिका से कांप उठता है ।
___ जो मूर्ख मनुष्य अपने तुच्छ जीवन के लिये निर्दय होकर पाप-कर्म करते हैं, वे महाभयंकर प्रगाढ़ अन्धकाराच्छन्न एवं तीन तापवाले तमित्र नरक में जाकर पड़ते हैं।
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महावीर वाणी
(१८७ )
"
जया य चयइ धम्मं धारणज्जों भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नावबुज्झई ॥१०॥
[ दश० चूलिंका १ गाट १]
१०८
(१८८)
निच्चुव्विग्गो जहा तेखो, अन्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसी मरणंडते वि, नाऽऽराहेइ संवरं ॥११॥
[ दश० अ० १३०२ गा० ३३ ]
( १८६ )
जे केइ पव्त्रइए, निद्दासीले
पगामसो ।
भोच्चा पिच्चा सुहं सुबइ, पावसमणि त्ति वुच्चइ ||१२||
[ उत्तरा० अ० १७ गा० ३ ]
(१६०)
वेराईं कुव्वइ बेरी, तओ वेरेहिं रज्जइ । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ||१३||
[ सूत्र० अ० अ० ८गा० ७ ] ( १६१ )
मासे मासे तु जो बाले, कुसग्गेणं तु भुजए । न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥१४ [ उत्तरा० अ० ६ ० ४४ ]
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१०६
चाल-सूत्र
(12) जय अनार्य मनुष्य काम-भोगों के लिये धर्म को छोड़ता है तत्र भोग-विजास में मूच्छित रहनेवाला वह मूर्स अपने भयंकर भविश्य को नहीं जानता।
(१८९) जिस तरह हमेशा भयभ्रान्न रहने वाला चोर अपने ही दुप्फमों के कारण दुःख उठाता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य अपने दुराचरणो के कारण दुख पाता है और अन्तकाल में भी संवर धर्म की धाराधना नहीं कर सकता।
(१८६) जो मितु प्राध्या लेकर भी अत्यन्त निद्राशील हो जाता है, खा-पीकर मजे से सोजाया करता है, वह पाप श्रमण' कहलाता है।
(१०) वैर रखने वाला मनुग्य हमेशा वैर ही किया करता है, यह वैर में ही मानन्द पाता है। हिंसा-कर्म पाप को उत्पन्न करनेवाले है, अन्त में दुस पहुंचाने वाले हैं।
(१६१) यदि अनानी मनुष्य महीने-महीने भर का घोर तप करे और पारणा के दिन घेवल कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सरपुरपो के बताये धर्म का प्राचरण करने वाले मनुष्य के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुँच सकता।
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११०
महावीर-वाणी
( १६२) इह जीवियं अनियमित्ता, पव्भहा समाहि-जोगेहिं ।' ते कामभोगरसद्धिा , उवयजन्ति आसुरे काये ॥१॥
[ उत्तरा० श्र०८ गा०1४]
(१६३ ) जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए ॥१६॥
[ उत्तरा० अ० ६ गा० १]
(१६४) वालाण अकामं तु मरणं असई भवे । पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेरण सई भवे ॥१७||
[उचरा: १०५ गा.३]
( १६५) वालस्स पस्स चालतं, अहम्म पडिबज्जिया। चिच्चा धम्म अहम्मिठे, नरए उबवज्जइ ॥१८॥
[ उपरा० श्र. ७ गा० २८]
(१६६) धीरस्स पस धीरत्तं सच्चधम्माणुषत्तिणो । चिच्च अधम्म धम्मिठे, देवेसु उववज्जइ ॥१६॥
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बाल-सूत्र
१११ (१२) जो मनुष्य अपने जीवन को अनियंत्रित ( उच्छ सन ) रखने के कारण समाधि योग से भ्रष्ट हो जाते है वे काम-भोगो मे श्रासरत होकर अन्त में शरयोनि में उत्पन्न होते हैं।
(१९३) संसार के सब अविहान् (मूर्ख) पुरुप दुःख भोगने वाले हैं। मूढ प्राणो धनत संसार में चार बार लुप्त होते रहते है-जन्मते और मरते रहते है।
(18) मूल जीवों का संसार में बार बार अकाम-मरण हुआ करता है, परन्तु पंदित पुरषों का सझाम मरण एक बार ही होता हैउनका पुनर्जन्म नहीं होता।
(१५) मूसं मनुष्य को भूसता तो देखो, जो धर्म छोड़कर, अधर्म को स्वीकार पर अधार्मिक हो जाता है, और अन्त में नरकगति को प्राप्त होता है।
(१६) सस्य धर्म के अनुगामी धीर पुरुष को धीरता देखो, जो अधर्म का परित्याग कर धार्मिक हो जाता है, और अन्त में देवजोक में उत्पन्न होता है।
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११२
महावीर-वाणी
(१६७) तुलियाण बालभावं, अबाल चेव पंडिए । चइऊण पालभावं, अवालं सेवई मुणो ॥२०॥
[ उत्तरा० अ० गा० २६-३०]
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बाल-सूत्र
११३
(१६७)
विद्वान् मुनि को बाल-भाव और अवाल- भाव का तुलनात्मक विचार कर बाल-भाव छोड देना चाहिये और ग्रवालभाव हो स्वोर करना चाहिये ।
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: १७ :
पंडिय - सुतं
(885)
समिक्ल पडिए तम्हा, पासजाइपहे वहू | अपणा सच्चमेसेज्जा, मेति भूएस कप
॥१॥
[ उत्तरा० ० ६ गा० २ ]
( १६६ )
जे य कंते पिए भोए, लद्ध े वि पिट्टीकुबई । साहीणे चयइ भोए, से हू चाइ ति वुचई ||२॥ [ दश० ० २ गा० ३ ]
( २०० ) इत्थिश्रो सगरणारिण
थ ।
वत्थगन्धमलकार, अच्छन्दा जे न भुजन्ति, न से चाइ ति वुच्चई ॥३॥
[ दश० ० २ गा० २ ]
( २०१ )
ढहरे य पाणे बुढ्ढे य पाणे,
ते अत पास सव्वलोए । उव्वेहई लोगमिणं महन्त,
बुद्धो पमत्तेसु परिव्वएना ||४||
[ सूत्र० श्रु० १ ० १२ गा० १८ ]
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पण्डित-सूत्र
(१९८) पण्डिन पुत्र को मंमार-भ्रमण के कारणरूप दुष्पर्म-पाशों ग भली भानि विचार कर अपने आप स्वतन्त्रल्प ने सत्य की ग्बोज वरना चाहिये और सब जीवों पर मैत्रीभाव रखना चाहिये।
(१६६) जे मनुष्य.मुन्दर और प्रिय भोगा को पाकर भो पोठ फेर लेता है, नव प्रकार से साधीन भंगा का परित्याग कर देता है, यही मच्चा त्यागी कहलाता है।
(२००) जो मनुष्य किसी परतन्त्रना के कारण वस्त्र, गन्ध, अलकार, को अंर शयन याद का उपभंग नहीं कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता ।
(२०१) जो बुद्धिमान मनुष्य मोहनिद्रा में सोते रहने वाले मनुष्यों के बीच रस र मगार के छटे-बटे सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देवता है, इममहान् विश्व का निरक्षण करता है, सर्वदाअप्रमत्तभाव से सयमाचरण में रत रहता है वही मोक्षगति का सच्चा अधिकारी है।
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११६
महावीर वाणी
( २०२ )
जे ममाइश्रम जहाइ, से जहाइ ममाइश्रं । से हु दिट्ठभए मुणी, जस्स नत्थि ममाइअं ॥ ५ ॥
[ श्राचा० १ ० ० २ उ० ६ सू० ६६ ] ( २०३ )
जहा कुम्मे अंगाई, सए देहे समाहरे | एवं पावाइ मेहावी, अज्मप्पेण समाहरे ॥ ६ ॥
[ सूत्र० श्रु० १०८ गा० १६ ] (208)
मासे मासे गवं दए । दिन्तस्स वि किंचण ॥ ७ ॥ [ उत्तरा० श्र० ६ गा० ४० ] ( २०५ )
जो सहस्सं सहस्साणं, तस्स वि संजमो सेयो
नागणस्स सव्वस्स पगासरणाय, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसरस य संखए,
एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ ८ ॥ ( २०६ )
तरसेस मग्गो मग्गो गुरुविद्धसेवा,
विवज्जणा वालजणस्स दूरा ।
य, मुत्तत्थसंचिन्तया धिई य ॥ ६ ॥
सम्भाय एगन्तनिसेवा
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पण्डित-सूत्र
११७ (२०२) जो ममत्व-बुद्धि का परित्यागकरता है, वह ममत्व का परित्याग करता है। वास्तव में वही ससार से सच्चा भय खाने वाला मुनि है, जिसे किसी भी प्रकार का ममत्व-भाव नहीं है ।
(२०३) जैसे कछुआ आपत्ति से बचने के लिये अपने अगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार पडितजन भी विषयों की ओर जातो हुई अपनो इन्द्रियाँ आध्यात्मिक ज्ञान से सिकोड़कर रखें।
(२०४) जो मनुष्य प्रतिमास लाखों गायें दान में देता है, उसकी अपेक्षा कुछ भी न देने वाले का सयमाचरण श्रेष्ठ है।
(२०५) सब प्रकार के ज्ञान को निर्मल करने से, अज्ञान और मोह के त्यागने से, तथा राग और द्वेष का क्षय करने से एकात सुखस्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है।
(२०६) सद्गुरु तथा अनुभवी वृद्धा की सेवा करना, मूखों के ससर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत् शास्त्रो का अभ्यास करना और उनके गम्भीर अर्थ का चिन्तन करना, और चित्त मे धृतिरूप अटल शान्ति प्राप्त करना, यह नि.श्रेयस का मार्ग है ।
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११८
महावीर-बाणी
(२८७) आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज,
सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्ग,
समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ १०॥
(२०८) न वा लभेजा निउण सहायं,
गुणाहियं वा गुणओ सम था। एक्को वि पावाई विवज्जयन्तो, विहरेज कामेसु असन्जमाणो ॥ ११ ॥
[उत्तरा० अ० ३२ गा० २-५]
(२८६) जाई च बुढि च इहऽज्ज पास,
भूएहिं सायं पडिलेह जाणे । तम्हाऽइविज्जो परमं ति नच्चा,
सम्मत्तदंसी न करेइ पावं ॥ १२ ॥ [आचा० श्रु०१ अ. ३ 3० २ गा० १]
(२१०) न कम्मुरणा कम्म खवेन्ति वाला,
अकम्मुणा कम्म खवेन्ति धीरा । मेहाविणो लोभ-भया वईया,
संतोसिणो न पकरेन्ति पावं ॥ १३ ॥
[सूत्र० श्रु० १ ० १२ गा० १५]
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पण्डित - सूत्र
( २०० )
समाधि की इच्छा रखने वाला तपस्वो भ्रमण परिमित तथा शुद्ध आहार ग्रहण करे, निपुण - बुद्धि के तत्वज्ञानी साथी की खोज करे, र ध्यान करने योग्य एकान्त स्थान में निवास करे ।
११६
( २०८ ) यदि अपने से गुणां में अधिक या समान गुणवाला साथी न मिले, तो पापक्रमों का परित्याग कर तथा काम भेगो मे सर्वथा अनासक्त रहकर अकेला ही विचरे । परन्तु दुराचारो का कभी भूल कर भी सग न करे ।
( २०६ )
ससार में नन्न-मरण के महान दुखो को देखकर और यह अच्छी तरह जानकर कि 'सत्र जोव सुख की इच्छा रखनेवाले हैं' हिंसा को मंक्ष का मार्ग समझकर सम्यक्त्वधार विद्वान कभी भी पाप कर्म नहीं करते ।
( २५० )
मूर्ख साधक कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, किन्तु पाप कर्मो से पाप कर्मों को कदापि ना नही कर सकते । बुद्धिमान् साधक वे हैं जो पाप कर्मो के परित्याग से पाप कर्मों को नम्र करते हैं । अतएव लभ और भय से रहित सर्वदा सन्तुष्ट रहने वाले मेधावी पुरुष किसी भी प्रकार का पाप कर्म नहीं करते ।
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: १८ :
अप्प-सुत्तं
(२११) अप्पा नई वेयवणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दनं वणं ॥१॥
[उत्तरा० अ० २० गा० ३६ ]
(२१२) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुप्पट्टिओ ॥२॥
[उत्तरा० अ० २० गा० ३७]
(२१३) अप्पा चेव दमेयन्वो, अप्पा हु खलु दुइमो। अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥३॥
[उत्तरा० अ० १ गा० १५ ]
(२१४) वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मन्दो, बन्धणेहिं वहेहि य ।।४।।
[उत्तरा० अ० १ गा० १६]
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: १८:
ओत्म-सूत्र
(२११) आत्मा हो नरक की वैनरणो नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष है । आत्मा ही स्वर्ग की कामदुधा घेनु तथा नन्दनवन है।
(२१२) श्रात्मा ही अपने दु खा और सुखो का कर्ता तथा भक्ता है। अच्छे मार्ग पर चलने वाला ग्रात्मा मित्र है, और बुरे मार्ग पर चलने वाला प्रारमा शत्रु है।
(२१३) अपने-यापको हो दमन करना चाहिये । वास्तव में यहो कठिन है । अपने-श्रापको दमन करनेवाला इस लोक तथा परलोक मे सुखों होता है।
(२१४) दूसरे लोग मेरा वध बन्धनादि से दमन करे, इसकी अपेक्षा तो मै सयम और तप के द्वारा अपने-आप हो अपना (यात्मा का) दमन करू', यह अच्छा है।
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१२२
महावीर-वाणी
(२१५) जो सहस्स सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एग जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥१॥
[उत्तरा० अ० ६ गा० ३४ ]
(२१६) अप्पाणमेव जुज्माहि किं ते जुज्मेण वज्झओ ?। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥६॥
(२१७) पचिन्दियाणि कोहे, माण मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाण, सव्यमप्पे जिए जियं ॥७॥
[उत्तरा० अ०६ गा० ३५-३६ ]
(२१८) न त अरी कंठ-छेत्ता करेइ, " जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिइ मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥८॥
[उत्तरा० अ० २० गा० ४८]
(२१६) जस्सेवमप्पा उ हवेज निच्छिओ,
चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं ।
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आत्म-सून
१२३
(२१५) जीव.र दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धानां को जीतता है, यदि वह एक अपनो आत्मा को जीत ले, तो यही उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय होगी।
श्रानो आत्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये, बाहरी स्थल शत्रयों के साथ युद्ध करने से क्या लान ? ग्राला द्वारा श्रात्मा को जीतने वाला ही वालय में पूर्ण मुखी देता है।
(२१७) पांच इन्द्रियों, ऋष, नान, माया, लोन तथा सबसे अधिक दुर्जय अपनी बालसा को जोतना चाहिये । एक यात्मा के जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।
(२२८) ___ तिर बाटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में लगी हुई अपनी आत्मा करती है । दयाशून्य दुराचारों को अपने दुराचरणों का पहले ध्यान नहीं याता; परन्तु जब वह मृत्यु के नुख में पहुँचता है, तब याने सब दुराचरणों को याद कर-कर पछताता है ।
(२.१६) जिस साधक की याला इस प्रकार सुनिश्चयो हं. कि मैं शरीर छोड़ सकता हूँ,परन्तु अपना धर्म-शासन छोड़ ही नहीं सकता;
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महावीर-वाणी तं तारिसं नो पयालेन्ति इन्दिया, उवेन्ति वाया व सुदसणं गिरि ॥धा
[दश० चूलिका १ गा० १७]
(२२८) अप्पा ख्लु सययं रक्खियम्बो,
सन्बिन्दिएहिं सुसमाहिएहिं । अरक्खिो जाइपह उवेइ, सुरक्खिो सव्वदुक्खाण मुच्चइ ॥१०॥
[दश० चूलिका २ गा० १६ ]
(२२१) सरीरमाहु नॉप त्ति, जीवों वुचई नावित्रो । संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो ॥१॥
[उत्तरा० अ० २३ गा० ७३]
(२२२) जो पबहत्ताण महन्वयाई,
सम्म च नो फासयई पमाया । अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्ध, न मूलओ छिन्दइ बन्धणं से ॥१२॥
[उत्तरा० अ० २० गा० ३६]
To A
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आत्म-सूत्र
१२५ उसे इन्द्रियों कभी विचलित नहीं कर सकती, जैसे-भीपण बवडर सुमेरु पर्वत को।
(२२०) समस्त इन्द्रियों को खूब अच्छी तरह समाहित करते हुये पापा से अपनी आत्मा की निरंतर रक्षा करते रहना चाहिये । पापों से अरक्षित श्रात्मा ससार में भटका करती है, और सुरक्षित अात्मा ससार के सब दुःखो से मुक्त हो जानी है।
(२२१) शरीर को नाव कहा है, जोव को नाविक कहा जाता है, और ससार को समुद्र बतलाया है । इसी ससार-समुद्र को महर्पिजन पार परते हैं।
(२२२) जो प्रवजित होकर प्रमाद के कारण पाच महावतो का अच्छी तरह पालन नहीं करता, अपने-अापको निग्रह में नहीं रखता, कामभोगो के रस में आसक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के बन्धन को जट से नहीं काट सकता ।
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:१६ .
लोगतत्त-सुत्तं
(२२३) धम्गो अहम्मो श्रागासं, कालो पुगल जंतयो । एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरनसिहि ॥१॥
[उत्तरा० अ० २८ गा० ७]
गडलक्वणो धम्मो, अहम्मो टाणलक्खखयो । भायणं सचनमाण, नह ओगाहलक्खण ॥३॥
(२२५) वत्तणालखणो कालो, जीयो बनोगलखो। नाणेणं दंलगणं च, मुहेण य दुहेण च ॥३॥
(२२६) नाण च ईसण नेव, चरितं च तयो तहा। चीरिय उपयोगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ॥४॥
(२७) सदऽधयार-उज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इ वा । वएण-रस गन्ध-फासा, पुग्गलाण तु लक्षण ||शा
[उत्तरा०प०२८ गा०६-१२]
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: १६ :
लोकतन्त्र-सूत्र
(२२३) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छह द्रव्य हैं। केवलदर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सवको लोक कहा है ।
(२२४) धर्मद्रव्य का लक्षण गति है; अधर्मद्रव्य का लक्षण स्थिति है; सब पदार्थों को अवकाश देना—याकाश का लक्षण है।
(२२५) काल का लक्षण वर्तना है, अंर उपयोग जीव का लक्षण है। जीवात्मा ज्ञान से, दर्शन से, सुख से, तथा दुख से जाना-पहचाना - जाता है ।
(२२६) अतएव शान, दर्शन, चारित्र्य, तप, वीर्य र उपयोगये सब जीव के लक्षण हैं।
(२२७) शब्द, अन्धकार, उजाला, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये सब पुद्गल के लक्षण हैं ।
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१२८
महावीर-वाणी
(२२८) जीवाऽजीवा य वन्धो य पुरणं पावाऽसवो तहा । संवरो निन्जरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव ॥६॥
(२२६) तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं । भावेणं सदहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥७॥
[उत्तरा० अ०२८ गा० १४-१५]
(२३०) नाणेण जाणइ भावे, दसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिएहाइ, तवेण परिसुष्मा II
[उत्तरा० अ०८ गा० ३५ ]
नाण च दसणं चेत्र. चरित्तं च तवो तहा । एयं मगमगुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सुगाई ||
[उत्तरा० अ० २८गा० ३]
(२३२) तत्थ पचविहं नाणं, सुर्य आभिनिवोहियं । ओहिनाणं तु तइय, मणनाणं च केवलं ॥ १० ॥
उत्तरा० अ० २८ गा० ४]
(२३३-२३४) नाणसावरणिज्जं. दंसंगावरण तहा । वेयणिज्ज तहा मोह, आउकम्मं तहेव य ।।११॥ नामकम्मं च गोत्तं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अठेव उ समासो ।।१२।।
[उत्तरा० अ० ३३ गा० २-३]
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लोकतस्य सूत्र
१२६
(२८)
जीव, जीव, बन्व, पुण्य, पाप, ग्रास्त्रय, सवर, निर्जरा और
मौन-ये नव सत्य-तत्व है ।
---
( २२६ )
जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व में सद्गुरु के उपदेश से, अथवा स्वय ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व कहा गया है ।
( २३० )
मुमुक्ष ग्रात्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन मे श्रद्धान करता है, चारित्र्च से भोग-वासनाग्रा का निग्रह करता है, और ता में कमलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है । ( २३१ )
ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप-इस चतुष्टय श्रध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्ष जीव मोत्रम्प सद्गति पाते हैं । ( २३२ )
मति, श्रुन, अवधि, मन पर्याय र केवल इस माँति ज्ञान पांच प्रकार का है।
( २३३-२३४ )
ज्ञानवरणीय, दर्शनावरण य, बेढनीच, मोहनीय, ग्रायु, नाम, गोत्र और ग्रन्तराय - इस प्रकार सक्षेप में ये ग्राड कर्म बतलाये हैं ।
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महावीर-वाणी
(२३५) सो तवो दुविहो वुत्तों वाहिरव्भन्तरो तहा । बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमन्मन्नरो तवो ॥१॥
(२३६) अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया रसपरिचाओ। कायकिलेसी संलीया य, वझो तवो होई ॥१४॥
[उत्तरा० अ० ३० गा० ७-८]
(२३७) पायच्छित्तं विणो, वेयावच्च तहेव सभाओ। भाणं च विउस्सग्गो, एसो अन्भिन्तरों तवो ॥१५॥
[उत्तरा० अ० ३० गा० ३०]
(२३८) किएहा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छठ्ठा, नामाइ तु जहक्कम ॥१६॥
[उत्तरा० अ० ३४ गा० ३]
(२३६) किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, दुगाइ उववज्जइ ॥१७॥
(२४०) तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुगाई उववज्जइ ॥१८॥
[उत्तरा० अ० ३४ गा० ५६-५७]
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लोकतत्त्व-सूत्र
१३१
( २३५ )
तप दो प्रकार का बतलाया गया है— बाह्य और श्रभ्यतर | बाह्य तप छह प्रकार का कहा है, इसी प्रकार अभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है ।
( २३६ )
अनशन, ऊनं दरी, भिन्नाचरी, रमपरित्याग, काय क्लेश र सलेना ये बाह्य तप हैं ।
( २३७ )
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये अभ्यन्तर तप हैं ।
(२३८)
कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल ये लेश्यात्रा के क्रमश: छह नाम हैं ।
( २३६ )
कृष्ण, नील, कापोत ये तीन ग्रधर्म - लेश्याए हैं। इन तीना से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होना है ।
( २४० )
तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन धर्म - लेश्याए हैं। इन ते
. से युक्त जीव सद्गति में उत्पन्न होता है ।
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१३२ . महावीर-वाणी
(२४१) अटु पवयणमायाओ. समिई गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईओ, तो गुत्तीओ आहिया ॥१६॥
(२४२) इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥२०॥
[उत्तरा० अ० २४ गा० १-२]
(२४३) एयायो पंच समिईओ, चरणस्स य पचत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्यसो ||२||
(२४४) एसा पवयणमाया, जे सम्म आयरे मुणी । से खिप्पं सच्चसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ||२२||
[ उत्तरा० अ० २४ गा० २६-२७]
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लोकतत्त्व-सूत्र
१३३ ।
( २४१ )
पाच समिति और तीन गुप्ति इस प्रकार आठ प्रवचन-माता कहलाती हैं।
( २४२ )
ईर्या, भाषा, पणा, चादान-निक्षेप और उच्चार ये पाँच समितियाँ हैं । तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति – ये तीन गुप्तियाँ हैं । इस प्रकार दोनों मिलकर ग्राट प्रवचन - माताएँ है ।
( २४३ )
पाँच समिति या चारित्र की दया यादि प्रवृत्तियों मे काम याती हैं और तीन मिया सब प्रकार के अशुभ व्यापारो से निवृत्त हंने में सहायक होती है ।
( २४४ )
जो विद्वान् मुनि उक्त आठ प्रवचन-माताओ का च्छी तरह चाचरण करता है, वह शीघ्र हो अखिल संसार से सदा के लिए, मुक्त हो जाता है।
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:२०:
पुज्ज-सुत्तं
(२४५) आधारमा विणयं पउंजे,
सुस्सूसमाणो परिगिज्म वक्क । जहोवइ अभिकखमाणो, गुरु तु नासाययई स पुज्जो ॥१॥
(२४६) अन्नायउँछं चरइ विसुद्ध',
जवणहया समुयाणं च निच्च । अलद्ध यं नो परिदेवएज्जा, लद्धन विकत्थई स पुज्जो ॥२॥
(२४७) संथारसेज्जासणभत्तपाणे,
अप्पिच्छया अइलाभे वि सन्ते । नो एवमप्पाणऽभितोसएज्जा,
संतोसपाहरण स पुज्जो ॥३॥
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पूज्य-सूत्र
(२४५) जो आचार-प्राप्ति के लिये विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनो को सुनता है एव स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अशातना नहीं करता वही पूज्य है।
(२४६) जो केवल सयम-यात्रा के निर्वाह के लिये अपरिचितभाव से दोप-रहितं भिक्षावृत्ति करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता वही पूज्य है।
(२४७) जो सलारक, शय्या, श्रासन और भोजन-पान आदि का अविक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, सन्तोष की प्रधानता मे रत होकर अपने आपको सदा मनुए बनाये रखता है, वही पूज्य है।
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१३६
महावीर-वाणी
सक्का सहेउं ओसाइ कटया,
अोमया उच्छह्या नरेण । अणासए जो उ सहेज्ज_कटए, वईमए करणसरे स पुज्जो ||४||
(२४६) समावयन्ता वयणाभिघाया,
पणं गया दुम्मणियं नणन्ति । धम्मो त्ति किच्चा परमगसूरे, जिइन्दिए जो सहइ स पुज्जो ॥५॥
(२५०) अवएणवायं च परंमुहस्स,
पच्चक्खनो पडिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणिं च, भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥६॥
(२५१) 'अलोलुए अक्कुहए अमाई,
अपिसुणे या वि अदीणवित्ती । नो भावए नो वि य भावियप्पा,
अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ॥७॥
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१३७
पूज्य-सूत्र
(२४८) संसार में लोभी मनुष्य किसी विशेष अाशा की पूर्ति के लिये लौह-कंटक भी सहन कर लेते हैं, परन्तु जो बिना किसी
आशा-तृष्णा के कानों में तीर के समान त्रुभने वाले दुर्वचन- . रूपी कंटकों को सहन करता है, वहीं पूज्य है।
(२४६) . चिरधियों की ओर से पड़नेवाली दुर्वचन की चोटें कानों में पहुँचकर बड़ी मर्मान्तक पीड़ा पैदा करती है; परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुष उन चोटों को अपना धर्म जानकर समभाव से सहन कर लेता है, वही पूज्य है।
(२५०) जो परोक्ष में किसी की निन्दा नहीं करता, प्रत्यक्ष में भी कलहवर्धक अंट-संट बातें नहीं बकता, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली एवं निश्चयकारी भाषा नहीं बोलता, वही पूज्य है।
(२५१) जो रसलालुप नहीं है, इन्द्रजाली (जादू-टेना करनेवाला) नहीं है, मायावो नहीं है, चुगलखोर नहीं है, दोन नहीं है, दूसरों से अपनो प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं रखता, स्वयं भी अपने मुह से अपनी प्रशंसा नहीं करता, खेल-तमाशे अादि देखने का भी शौकीन नहीं है, वहीं पृष्य है।
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महावीर वाणी
(२५२)
गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिरहाहि साहू गुण मुञ्चऽसाहू 1
वियाणिया अपगमप्पए,
१३८
जो रागदो सेहिं समोस पुज्जो ||८||
( २५३ )
तहेव दहरं च महल्लगं वा, इत्थी म पव्वइयं गिहिं वा । नो होलए नो विथ खिसएज्जा,
थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ॥६॥
( २५४ )
तेसिं गुरुण गुणसायराणं, सोच्चारण मेहावी सुभासियाई । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चक्कसायावगए स पुज्जो ॥१०॥
[ दश० ० ६ ० ३ गा० २-४-५-६-८६१०-११-१२-१४ ]
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पूज्य-सूत्र
१३६ (२५२) गुणों ने साधु होता है और अगुणा से असाधु, अत हे मुमुक्षु । सद्गुण को ग्रहण कर और दुगुणों को छोड़। जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूपको पहचान कर राग और द्वेष दोना में तमभाव रखना है, वही पूज्य है।
(२५३)
जो बालक, वृद्ध, बी, पुरुष, साधु, और गृहस्थ अादि किसो का भी अपमान तथा निरस्कार नहीं करता, जो ऋाध और अभिमान का पूर्णर ने परित्याग करता है, वही पूज्य है।
(२५४) जो बुद्विमान मुनि मद्गुण-मिन्धु गुम्जनों के मुभाषिता को मुनकर तदनुसार गोत्र महामना में ग्त होता है, तीन गुप्तियों धारण करना है, और चार कपाय रे दूर रहना है, वही पूज्य है।
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: २१ :
माहण-मुत्तं
(२५५)
जो न सज्जइ आगन्तु, पव्वयन्तो न सोयई। रमइ अज्जवयणम्मिा त वयं बृम माहणं ॥१॥
(२५६)
जायरून जहामह, निद्वन्तमल-पावर्ग । राग-दोम-मयाईयं, त क्यं वूम माहणं ॥२॥
(२५७)
तवस्सियं किस दन्तं. अबचियमंससोणियं । सुचय पत्तनिव्वाणं, न वय बूम माहण ॥३॥
(२५८) तसपाणे वियाणित्ता; मंगहेण य थावरे । जो न हिंसह तिविहेण तं वयं वूम माहणं ॥४॥
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ब्राह्मगा-सूत्र
(२५५) जो अानेवाले स्नेही-जना में श्रासक्ति नहीं रखता, जो जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनों में सदा श्रानन्द पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
(२५६) जो अग्नि में डालकर शुद्ध किये हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेप तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
(२५७) जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है, जो इद्रिय-निग्रही है, उग्र तप साधना के कारण जिसका रक्त और मास मी सूख गया है, जो शुक्रती है, निमने निर्वाण ( आत्म-शान्ति ) पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
(२५८) जो स्थावर, जगम सभी प्राणियों को भलीभाँति जानकर, उनको तीनो हो प्रकार से कभी हिंमा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
• मन, वागी और शरीर से, अथवा करने, कराने और अनुमोदन से।
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१४२
महावीर-वाणी
(२५६)
कोहा वा जइ हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं वूम माहणं ॥२॥
चित्तमन्तमचित्तं वा, पापं वा जड वा बहुँ । न गिरहाइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं ॥६॥
(२६१) दिश्व-माणुस-तेरिच्छ, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा काय-ववकेण, तं वयं बूम माहणं ॥७॥
(२६२) जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्त कामेहि, तं वयं वूम माहणं ॥८॥
(२६३) अलोलुयं मुहाजीविं, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्येसु, तं वयं वूम माहणं ॥६॥
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ब्राह्मण-सूत्र
१४३ (२५६) जो क्रोध से, हास्य से, लोभ अथवा भय से—किसी भी मलिन संकल्प से असत्य नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
(२६०) जो सचित्त या अचित्त केई भी पदार्थ -~भले ही वह थोड़ा हो या अधिक, मालिक के सहर्ष दिये बिना चोरी से नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो देवता, मनुष्य तथा तियेच सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन का मन, वाणों और शरीर से कभी सेवन नहीं करता, उसे हम. ब्राह्मण कहते हैं।
(२६२) जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भो जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार में रहकर भी काम-भोगों से सर्वथा अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
(२६३) जो अलोलुप है, जो अनासक्त-जीवी है, जो अनगार (बिना घरवार का ) है, जो किचन है, जो गृहस्थों से अलिप्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
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१४४
महावीर-वाणी
(२६४) जहिता पुष-संजोग, नाइसंगे य बन्धवे । जो न सम्झइ भोगेसु, तं वयं वृम माहणं ॥१०॥
(३६५) न वि सुद्विारण समणो, न ओंकारेण चमणो । न मुरणी रएणवासेण, कुमचीरेण ण तावसो ॥११॥
(२६६) समयाए ममणो होड, बंभचरेण बंभणा । नाणण मुणी होड, नवेगण होउ नायमो ॥३
कम्मुणा भयो होड, कम्मुणा होइ वित्तियां । बदमो कम्मुरगा हाड, सुदो हवा कम्मुग्णा ॥१॥
(२६८) एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा । ते समस्या समुद्धत्तु, परमापाणमेव च ॥१४॥ [उरा ३५ गा० २०२६,३१-३२-३३.३५.]
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ब्राह्मण-सूत्र
( २६४ )
जो स्त्री-पुत्र आदि का स्नेह पैदा करनेवाले पूर्व सम्बन्धो को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को तथा बन्धु-जनों को एक बार त्याग देने पर उनमें किसी प्रकार की श्रासक्ति नहीं रखता, पुन कामभोगों मे नही फॅसता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
( २६५ )
सिर मुडा लेने मात्र से कोई श्रमण नही होता, 'श्रोम' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र मे कोई तपस्वी ही हो सकता है ।
( २६६ )
समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मरण होता है, ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बना जाता है । ( २६७ )
मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता हे, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्ध भी अपने किए गए कर्मों से ही होता है । ( श्रर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैना ही ऊंच या नीच हो जाता है । ) ( २६८ )
इस भाति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजेोत्तम [श्रेष्ठ ब्राह्मण ] हैं, वास्तव में वे हो अपना तथा दूसरों का उद्धार कर सकने में समर्थ हैं
१४५
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२२ :
भिक्खु-गुत्तं
( २६६ )
रोss नायपुत्त-वयणे,
समे मन्नज्ज छप्पिकाए ।
पंच य फासे महन्वयाइ',
पचासव संवरे जे स भिक्खू ||१||
(२७०)
चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी या हविज्ज बुद्धवयणे ।
ग्रहणे निज्जारूव-रयए.
गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खु ॥२॥
(२७१)
सम्यदिट्ठी सगा अमूढे,
हु नाणे तव - संजमे य ।
यत्थि तवसा धुराइ पुराण पावर्ग,
मरण - वय - कायसुसंवुडे जे स भिक्खू ||३||
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: २२ : भिक्षु-सूत्र
(२६६) जे ज्ञातपुत्र-मवान् महावर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छत् काय के जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, जो अहिंसा ग्रादि पाँच महावतों का पूर्ण रूप से पालन करता है, जो पाँच ग्रालयों का संवरण शार्थात् निरन मरता है, वहीं भित्तु है ।
(२७ ) जो सदा कच, गान, माया और लोग इन चार ब.पाय का परित्याग करता है, जो ज्ञानः पुत्रों के वचनों का दृढविश्वासी रहता है, जो. चाँदो, सेना ग्रादि किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, जो न हो के साथ कोई भी सांसारिक रनेह-सम्बन्ध नहीं जोड़ता, वहीं गिनु है ।
(२७१) जो सम्यग्दर्शी है, जो कर्तव्य-दिमृद नहीं है, जो ज्ञान, तप : और संयम का वृद्ध श्रद्धाल है, जो मन, वचन र शरीर को पाप-पथ पर जाने से रे.क रखता है, जो तप के द्वारा पूर्व-वृत पाप-कर्मों को ना व.र देता है, वही मितु है।
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१४८
महावीर-वाणी
(२५२) न य वुगहियं कहं कहिज्जा, ___ न य कुप्पे निहुइन्दिए पसन्ते । संजमधुवजोगजुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥४॥
(२७३) जो सहइ हु गामकंटए,
अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य । भय-भेरव-सह-सप्पहासे, समसुह-दुक्खसहे जे स भिक्खू ॥॥
(२७४) अभिभूय कारण परिसहाई,
समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाई--मरणं महन्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू घा
(२७५) हत्थसंजए पायसंजए,
वायसंजए संनइन्दिए।
पायस
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मितु-सूत्र
१४६ (२७२) जो कलहकारी वचन नहीं कहता, जो क्रोध नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अचचल है, जो प्रशान्त है, जो सयम में ध्रुवयोगी (सर्वया
तल्लीन ) रहता है, जो सकट आने पर व्याकुल नहीं होता, जो : कभी योग्य कर्तव्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है।
(२७३) जो कान में काटे के समान चुमनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारी को, तथा अयोग्य उपालभों को शान्तिपूर्वक सह लेता है,
जो भीषण अट्टहास और प्रचण्ड गर्जना वाले स्थानों में भी निर्भय · रहता है, जो सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिनु है।
(२७४) जो शरीर से परीपही को धैर्य के साथ सहन कर संसार-गत से अपना उद्वार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर मदा श्रमणे चित तपश्चरण में रस रहता है, वही भिन्तु है।
(२७) जो हाथ, पाँव, वाणी और इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में रत रहता है, जो अपने आपको
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महावीर-वाणी
अज्झ'परए गुसमाहिलाप्या, गुत्तत्थं च पियाणइ जे स भिक्खू ॥७॥
(२७६) उबाहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध,
अन्नायउछ, पुलनिप्पुलाए । कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्यसंगावगए य जे स भिक्रयू ।।८॥
(२७७) अलोल भिनखू न रसेसु गिद्ध, ____उंछ चरे जीविय नाभिकखे । इडिंढ च सक्कारण-पूयणं च, चए ठियप्पा आणिहे जे स भिनख ॥६॥
(२८) न परं वइज्जासि अयं कुसीले,
जेणं च कुपेज्ज न त वएज्जा । जाणिय पत्तेयं पुरण--पाव,
अत्ताण न समुवकसे जे स भिक्ख ॥१०॥
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मिनु-सूत्र भली भांति समाधिस्थ करता है, जो सनार्य को पूरा जाननेवाला है, वहीं भिन्न है ।
(२७६ ) . जो अपने सयम-माधर उपरणों तक में भी गूळ (शाराति) नहीं रसता, जा लाली नहीं है, जोनात परिवारा के यहा से भिक्षा माँगता है, जो सयम-पय में बाधक होनेवाले दोपा से दूर रहना है, जो खरीदने बेचने और संग्रह करने के रहस्योचित धन्धा के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से नि.जग रहता है, वही भिनु।
(२७७ ) जो मुनि अल'लुप है, जो रसा में अग्रत ह, जं. श्रमात कुल वी भिक्षा करता है, जो जीवन की चिन्ता नहीं करता, जो ऋहि, सत्कार और पूजा-प्रतिष्टा पा मोर छोट देता ८, जो स्थितागा तथा निस्पृही ६, वहीं भिन्न है ।
(२७) जो दुमरा को यह दुराचारी है ऐमा नहीं रहता, जो कटु वचन-जिनसे सुननेवाला सुब्ध है-नहीं बोलता, 'सब जाव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार हा नुस-द्ध ख भोगते हैं।' -ऐसा जानकर जा दूम। की निन्य चप्टायो पर लक्ष्य न देवर अपने मुवार की चिता करना , जा अपने-आपको उग्र तप और साग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिनु ।
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१५२
महावीर-धापी
(२७६)
न जाइमत्ते न य रूवमत्ते,
न लाभमत्ते न सुएण मन्ते । मयाणि सव्वाणि विवज्जयतो,
धम्मज्माणरए जे स भिक्खू ॥१२॥
(८०) पवेयए अजपयं महामुणी,
धम्मे ठिो ठावयई परं पि । निक्खम्म वज्जेज कुसीललिंग,
न यावि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥१२॥
(२८१ तं देहवास असुई सासयं,
सया चए निच्चहियट्ठियप्पा । छिदित्तु जाईमरणस्स वंधणं । उवेइ भिक्खू अपुणागमं गड ॥१३॥ [दश० अ०१० गा० ५-६-७-१०-११,
१४ से २१]
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भिक्षु-सूत्र
( २७६ )
जो जाति का अभिमान नहीं करता; जो रूप का ग्रभिमान नही करता; जो लाभ का अभिमान नही करना, जो श्रुत (पाडित्य ) का अभिमान नहीं करता; जो सभी प्रकार के अभिमानों का परित्याग कर केवल धर्म-व्यान मे ही रत रहता है, वही भिक्षु है ।
१५३
( २८० )
जो महामुनि आार्यपद ( सद्धर्म) का उपदेश करता है, जो स्वय धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है, जो घर-गृहस्थी के प्रपच से निकल कर सदा के लिये कुशील लिंग (निन्द्यवेश) को छोड देता है, जो किसी के साथ हंसी-ठट्ठा नहीं करता, वही भिक्षु है ।
(२८१)
इस भाँति अपने को सदैव कल्याण - पथ पर खडा रखनेवाला भिक्षु अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में निवास करना हमेशा के लिये छोड़ देता है, जन्म-मरण के बन्धनो को सर्वथा काटकर पुनरागमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है ।
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: २३ :
मोक्खमग्ग-सुतं
(२८२)
कह चरे ? कह चिढे १ कहमासे १ कह सए ? कह मुजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न यन्वइ ॥शा
(२८३)
जयं चरे जयं चिह जयमासे जय सए । जयं भुजन्तो भासन्तो पावं कम्म न बन्धइ ॥२॥
(२८४)
सबभूयापभूयम्स सम्मं भूयाइ पासप्रो । पिहियासवस्स दन्तस्स पार कम्म न वधइ ॥३॥
(२८५)
पढम नाणं तो दया एव चिठ्ठ सञ्चसजए । अन्नाणी कि काही किंवा नाहि छेय-पवागं ? ||४||
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: ३२
मोक्षमार्ग-सूत्र
:
( २८२ )
भन्ते । कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कसे बठे ? केसे सोये ? से भाजन करे ? कैसे नोले ?- जिससे कि पाप-नर्म का बन्ध न हो ।
( २८३)
श्रायुष्मन् । विवेक से चले, विवेक से खटा हो, विवेक से बैठे, विवेक से सोये, विवेक से भोजन करे, अर विवेक से ही बोले, तो पाप कर्म नहीं बॉब सकता |
( २८४ )
जो सब जीव को अपने समान समझता है, अपने-पराये, सबको समान से देखना है, जिराने सब यात्रा का निरोध कर लिया है, जो चचल इन्द्रिया का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बन्धन नही होता |
(२)
पहले ज्ञान है, बाद में दया । इसी क्रम पर समग्र त्यागीवर्ग अपनी सयम- यात्रा के लिये ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पान को वह से जान सकेगा ?
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१५६
महावीर-वाणी
(२८६) सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावग । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥५॥
(२८७) जो जीवे वि न जाणइ, अजीवे वि न जाणइ । जोवाऽनीवे अयाणतो कह सो नाहीइ संजम' ॥॥
(२८) जो जीवे वि बियाणाइ, अजीवे वि बियाणइ । जीवाऽजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥७॥
(२६) जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सबजीवाण जाणइ ॥८॥
(२६०) जया गइ बहुविहं सव्वजीवाण जाणइ । तया पुण्णं च पावं च वंध मोक्खं च जाणइ ॥६॥
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मोक्षमार्म-सूत्र
१५७ (२८६) मुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है । सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनो ही मार्ग सुनकर जाने जाते हैं। बुद्विमान साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे ।
(२८७) जो न तो जीव (चेतनतत्व ) को जानता है, और न अजीव (जड़तत्व) को जानता है, वह जीव-अजीव के स्वरूप को न जाननेवाला साधक, भला किस तरह सयम को जान सकेगा ?
जो जीव को जानता है और अजीव को भी वह नीव और अजीव दोनो को भलीभाँति जानने वाला साधक हो सयम को जान सकेगा।
(मह) जब जीव और अजीब दोनो को भलीभांति जान लेता है, तब वह सब जीवो की नानाविध गति ( नरक तिथेच आदि) को भी जान लेता है।
(२६
)
जब वह सब जीवों की नानाविध गतिया को जान लेता है, तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है।
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१५८
महावीर-वाणी
जया पुरण च पावं च बंधं मोम्खं च जाणइ । तण निश्चिदए भोए जे दिव्ये जे व माणुने ॥१०॥
(२६२) जया निबिदए भोए जे दिवे जे च माणुसे । तया चयह स्जोगं सन्भिन्तरं बाहिरं ॥१॥
(६३)
जया चयइ संजोगं सब्भिन्तरं वाहिरं । तया मुण्डे भवित्ताणं पञ्चरइ अणगारिय ||
जया सुण्डे भवित्ताण पञ्चयइ अरणगारियं । तया संवरमुक्किट्ट धर्म फासे अणुत्तरं ॥१३||
(२५) जया सवरसुस्विट्ट धम्म फाले अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं अमेहिकलुसं कडं ॥१४॥
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मोक्षमार्ग-सूत्र १५६
(२६१) ज्य (साधक) पुण्य, पाप, बन्ध र मोक्ष को जान लेता है, तब देवता और मनुष्य सबन्धी काम-भोगों की निगुणता जान लेता है.अर्थात् उनसे विरक्त हो जाता है ।
(६२) जब देवता और मनुष्य संवन्धी समल काम-भोगो से (साधक) विरक्त हो जाता है. तब अन्दर और बाहर के सभी सासारिक सम्ब. न्धा को छेड देता है।
(२६) जब अन्दर श्रर बाहर के समस्त सासारिक सम्बन्धी को छेद देता है, तब मुरिजन (दोक्षित) होकर (सायक) पूर्णतया अनगार वृत्ति (मुनिचर्या) को प्राप्त करता है।
(२६४) जब मुण्डित हेर अनगार वृत्ति को प्राप्त करता है, तब (माधक) उत्कृष्ट संवर एव अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है
(२६५) जब (साधक) उत्कृष्ट सबर एव अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, तब (अन्तरात्मा पर से ) अजानकालिमाजन्य कर्म-गल को झाड देता है।
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महावीर-वाणी
((२६६) जया धुइण कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं । तया सब्बत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ ॥१५॥
(२६७) जया सन्चत्तर्ग नाणं दसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च जिणों जाणइ केवली ॥१६॥
( २६%)
जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली । वया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिबज्जइ ॥१७॥
( २६६)
जया जोगे निरु भित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं सिद्धिं गच्छद नीरओ ॥१८॥
(३००)
जया कम्म खवित्तारण सिद्धिं गच्छइ नीरो। . तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासो ॥१६॥
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१६१
मोक्षमार्ग-सूत्र
' (२६६) जब (अन्तरात्मा पर से) अज्ञानकालिमाजन्य कर्म-मल को दूर कर देता है, तब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
जब सर्वत्रगामी केवलनान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है।
(२६८) जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोकरूप समस्त ससार को जान लेता है, तब (आयु समाप्ति पर) मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध कर शैलेशी (अचल-अकम्प) अवस्था को प्राप्त होता है।
(२६६) जब मन, वचन और शरीर के योगा का निरोध कर अात्मा शैलेशी अवस्था पाती है-पूर्णरूप से स्पन्दन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों को क्षय कर-मर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होती है।
(३००) जब अात्मा सब कर्मों को क्षय कर-सर्वथा मलरहित होकर मिद्धि को पा लेती है, तब लोक के-मस्तक पर-~-ऊपर के अन भागपर स्थित होकर सदा काल के लिए मिद्ध हो जाती है।
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१६२
महावीर-वाणी
(३०१) सुहसायगस्स समएस्स सायाउलगरस निगामसाइस्स । उच्छोलणापहाविस्स दुल्लहा सोगई तारिसगस्स ॥२०॥
(३०२) तबोगुणपहारणस्स उन्जुमईखन्तिसंजमरयस्स । परीसहे जियन्तस्स सुलहा सोगाई तारिसगस्स ॥२॥
[दश० अ० ४ गा० ७ से २७]
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मोनमार्ग मूत्र
जो श्रमण भौतिस मुल को मारनता है, भविष्यकालिक सुख-साधनो के लिए व्याकुल रहता है, जब देखो तब सोता रहता है, तुन्दरता के फेर में रहकर हाथ, पैर, मुंह श्रादि घोने में लगा रहता है. उने मद्गति मिलनो बडी दुर्लभ है।
(३२) जो उत्कृष्ट तपश्चरण का गुण रखता है, प्रकृति से सरल है, समा और संयम मे स है. शाति के साथ तुधा श्रादि परोपही को जीतनेवाला है. उसे मदगति मिलनी बडी मुलभ है।
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:२४: जातिमद-निवारण-सुत्तं जैनसंघ में केवल जाति का कोई मूल्य नही, गुणों का ही मूल्य प्रधान है, अत एव जातिमद अर्थात् 'मै अमुक उच्च जाति में जन्मा हूँ' या 'अमुक उच्च कुलमें व गोत्र में जन्मा हूँ' ऐसा कहकर जो मनुष्य अपनी जाति का, कुल का व गोत्र का अभिमान करता है और इसी अभिमान के कारण दूसरों का अपमान करता है और दूसरों को नाचीज समझता है उसको मूर्ख, मूढ, अज्ञानी कह कर खूब फटकारा गया है सौ.जातिमद, कुलमद,गोत्रमद,जानमद,तपमद तथा धनमद आदि अनेक प्रकार के मदों को सर्वथा त्याग करने को जैन शास्त्रों में बार-बार कहा गया है। इससे यह सुनिश्चित है कि जैनसंघ में या जैनप्रवचन में कोई भी मनुष्य जाति कुल व गोत्र के कारण नीचा-ऊँचा नहीं है अथवा तिरस्कार-पात्र नहीं है और अस्पृश्य भी नहीं है। अतः इस सूत्र का नाम अस्पृश्यता निवारण सूत्र भी रखें तो भी उचित ही है]
(३०३) एगमेगे खलु जीवे अईअद्धाए असइ उच्चागोए, असई नीयागोए। xxx
नो होणे, नो अइरित्ते, इति संखाए के गोयावाई के माणावाई ? कसि वा एगे गिज्मे ? तम्हा पंडिए नो हरिसे नों कुज्मे।
भूएहिं जाण पडिलेह सायं समिए एयागुपस्सी । [आचाराग सूत्र, द्वि० अध्ययन, उद्देशक तृ०, सूत्र १-२-३]
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: २४:
जातिमद-निधारण सूत्र
(३.३)
यह सुनिश्चित है कि प्रत्येक जीव भूतकाल मे यानी अपने पूर्व-जन्मों में अनेक बार ऊँचे गोत्र में जन्मा है और अनेक बार नत्र गोत्र में जनमा है।
केवल इमो कारण से वह न हीन है और न उत्तम। इस प्रकार , ममझ कर ऐसा कौन होगा जो गोत्रवाद का अभिमान रखेगाव · मानवाद को बढ़ाई करेगा ? ऐसी परिस्थिति में किस एकमे श्रामक्ति की जाय ? अर्थात् गत्र या जाति के कारण कोई भी मनुष्य प्राधक्ति करने योग्य नहीं है, इमी लिये समझदार मनुष्य जाति या गोत्र के कारण किसी पर प्रसन्न नहीं होता और कोप भी नहीं करता।
समझ-बूझ कर,सोच-विचार कर सब प्राणियों के साथ सहानुभूनि से वर्नना चाहिए और ऐसा समझने वाला ही ममतायुक्त है।
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१६६
महावीर-वाणी
(३०४) जे माहणे खत्तियजायए वा, तहुगापुत्ते तह लेच्छई वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थन्मति माणवद्ध ।
[सूत्रकृ० १, अ० १३, १०]
(३.५) जे आवि अप्प वसुमं ति मत्ता, संखायवायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाऽहं सहिउ ति मत्ता, अरणं जणं पम्सति विवभूयं ॥
[सूत्रकृ० १,१० १३,८]
(३.६)
न सस्स जाई व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिएणं । णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्म, ण से पारए होइ विमोयणाए ।
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जातिमद - निवारण सूत्र
१६७
( ३०४ )
जात्रा है, त्रियन है, तथा उम्र की सतान हे तथा लिच्छवी बश की प्रजा है ऐसा जो भिक्षा से थाजीवन रहने वाल भिन्नु है वह अभिमान मे बंधार अपने गांव का गर्व नहीं करता ।
( ३०५ )
जो ग्रुपने को घमह ने सयमयुक्त मानकर और अपनी बरावर परख न करके घमंड से अपने को ज्ञानी मान कर और मे कठोर तप कर रहा हूँ ऐसा घमंड करके दूसरे मनुष्य को केवल चीचा ( माचा) के समान समझता है अर्थात् तृणपुरुष के समान निकम्मा समझता है वह दुश्शील है, मृढ़ है, मूर्ख है और बाल है ।
( ३०६ )
बसे घमंडी की रक्षा उसकी कल्पित जाति से या कुल से नही हो मकनी, केवल मतका ज्ञान व सढाचरण ही रक्षा कर सकता है। ऐसा न समझकर जो त्यागी साधु होकर भी घमंड में चूर रहता है
ना नहीं है, गृहस्य है—मनार में लिपटा हुआ है और ऐसा मंत्री मुक्ति के मार्ग का पारगामी नहीं हो सकता ।
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१७८
महावीर-वाणी
(३०७) णिविकरणे भिक्खू सुलहूजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी । आजीवमेयं तु अधुज्ममाणे, पुरो पुरणो विपरियासुवेति ॥
[ सूत्रकृ० १, १३, गा० ११, १२ ]
(३०८) पन्नामयं चेत्र 'तबोमयं च, गिन्नामए गोयमयं च भिक्खू ।
आजीविगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोगले से ।।
( ३०६ ) एयाई मयाइ विगिंच धीरा! ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते सव्वगोत्तावगया महेसी, उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति ॥
[सूत्रक० १, १३ गा० ११, १६ ]
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जातिमद-निवारण सूत्र १६६
(३०७) भिन्नु, अकिंचन है, अपरिग्रहो है और रूखा-सूत्वा जो पाता है उससे ही अपनी जीवनयात्रा निभाता है। ऐसा भिन्तु होकर जो अपनी ग्राजीविका के लिये अपने उत्तम कुल, जाति व गान का उपयोग करता है अर्थात् 'मैं तो अमुक उत्तम कुल का था, अमुक उत्तम धराने का था, अमुक ऊँचे गोत्र का था व अमुक विशिष्ट वश का या दस प्रकार अपनी बडाई करके जीवन-यात्रा चलाता है वह तत्त्व को न समझना हुया वारवार विपर्यास को पाता है।
(३०८) जो भिन्नु-मानव-प्रश के मद को, तप के मद को, गोत्र के' मद को तया चौधे धन के मट की नमाता है अर्थात् छोडता है वह पटित है, वह उत्तम आत्मा है। .
(३०६) वीर पुष्प ! इन मदों को काट दे-विशेषरूप से काट दे, मुधीर धर्मवाले मानक उन मदो का सेवन नहीं करते। ऐसे मदों को जड़ से काटने वाले महर्पिजन लव गोत्रों से दूर होकर उस स्यान को पाते हैं जहाँ न जाति है, न गोत्र है और न वश है। अर्थात महर्षिजन ऐसी उत्तम गति पाते हैं।
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: २५ : ‘खामणासुतं
(३१०) सव्वस्स जीवरासिस्स भावो धम्मनिहिअनिअचित्तो। सव्वे खमावइत्ता खमामि सबस्स अहयं पि ॥१॥
(३११) सव्वस्स समणसघस्स भगवओ अजलि करिअ सीसे। सव्वे खमावइत्ता खमामि सञ्चस्स अयं पि ॥२॥
(३१२) आयरिए उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल-गणे य । ने मे केइ कसाया सम्वे तिविहेण खामेमि ॥शा
[ पचप्रति. पायरित्र० सू०३-२-१]
(३१३) खामेमि सम्वे जीवे सव्वे जीवा खमंतु मे। मिती मे सव्वभूएसु वेर मझ न केणेइ ||४||
[पचप्रति वंदित्त, सू० गा० ४६ ]
(३१४) जं जं मणेणे बद्ध' जं जं वायाए भासि पावं । जं जं कारण कयं मिच्छा मि दुक्कई तस्स !
[पचप्रति संथारासू० अंतिम गाथा]
.
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: २५ :
क्षमापन-सूत्र
(३१०) धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मै सद्भावपूर्वक नब जीवों के पास अपने श्राराधी की नमा मांगता हूँ और उनके मब अपराधों को मैं भी मदभावपूर्वक क्षमा करता हूँ।
(३११) मैं नतमस्तक होकर भगवत् श्रमणसप के पास अपने अपराधों की क्षमा मागता हूँ और उनको भी मैं क्षमा करता हूँ।
(३१२) श्राचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण और साधर्मी बन्युमो तथा कुल और गण के प्रति मैने जो क्रोधादियुक्त व्यवहार किया हो उसके लिये मन, वचन और काय से क्षमा मांगता हूँ।
(३१३) मैं ममत जोवा से क्षमा मांगता हूँ और मब जीव मुझे भी क्षमा-दान दे । सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्रीवृत्ति है, किसी के भी साथ मेरा वैर नहीं है।
(३१४) ___ मैने जो जो पाप मन से--संकल्पित किये है, वापी मे बोले है और शरीर से किये है, वे मेरे सब पार मिथ्या हो जा।
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[ १७३ ]
पारिभाषिक शब्दोंका अर्थ
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अकाम — अविवेक — अज्ञान - पूर्वक दुःखसुख आदि सहन करनेकी प्रवृत्ति या इच्छा न होने पर भी परवशतः सहन करनेकी प्रवृत्ति ।
अगृद्ध — अलोलुप |
अचित्त - सचित्तसे उलटा - निर्जीव ।
अनगार--- अन् + अगार, अगार=घर, जिसका अमुक एक घर नहीं है अर्थात् निरंतर सविधि भ्रमण-शील साधक, साधु । साधु, संन्यासी, भिक्षु, श्रमण ये सब ' अनगार 'के समनार्थ है ।
अनुत्तर— उत्तमोत्तम !
अवधि रूपादियुक्त परोक्ष या अपरोक्ष पदार्थको मर्यादित रीतिसे जान सकनेवाला विविध प्रकारका ज्ञान ।
आदाननिक्षेप —— किसीको किसी भी प्रकारका क्लेश न हो इस
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तरहका संकल्प धारण कर कोई भी पदार्थको धरना या उठाना |
आस्रव - आसक्ति युक्त अच्छी या बुरी प्रवृत्ति । आहार. अगन, पान, खादिम और स्वादिम, यह चार
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[ १७४ ]
प्रकारका भोजन, अशन कोई भी खाद्य पदार्थका भोजन, पान - कोई भी पेय पदार्थका पीना शरबत जल दूध आदि पीनेकी चीजोंको पीना, खादिम - फल, मेवा आदि, स्वादिम -मुखवास, लवंग, सुपारी आदि । इंगित - शारीरिक संकेत नेत्र, हाथ, आदिके इशारे । ईर्यागमन — आगमन आदि क्रिया, ईर्ष्या-समिति किसीको
किसी भी प्रकारका क्लेश न हो ऐसे संकल्पसे सावधानी पूर्वक चलना-फिरना आदि सब क्रियाभोका करना । उच्चार समिति — शौचक्रिया या लघुशंका अर्थात् किसी भी प्रकारका शारीरिक मल, मलका मानी उच्चार, मलको ऐसे स्थानमें छोडना जहाँ किसीको लेश भी कष्ट न हो और जहाँ कोई भी आता-जाता न हो और देख भी न सके इसका नाम उच्चार समिति है ।
उन्मेइमलोण —— उमेदिम - लवण - समुद्रके पानीसे बना हुआ सहज नमक ।
उनोदरी — भूखसे कुछ कम खाना —उदरको ऊन रखना - पूरा न भरना ।
एषणा — निर्दोष वस्त्र, पात्र और खानपानकी शोध करना, निर्दोषका मानी हिंसा, असत्य आदि दोषोंसे रहित ।
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[ १७५ ] एषणीय-शोधनीय-खोज करने लायक-जिनकी उत्पत्ति ___दूपित है या नहीं इस प्रकार गवेषणाके योग्य । औपपातिक–उपपात अर्थात् स्वर्गमें या नरकमें जन्म होना।
औपपातिक का अर्थ हुआ स्वर्गीय प्राणी या नारकी
प्राणी। कषाय-आत्माके शुद्ध स्वरूपको कप-नाश करनेवाला, ____ क्रोध, मान माया और लोभ ये चार महादोष । किंपाकफल-जो फल देखनेमें और स्वादमें सुन्दर होता है
पर खानेसे प्राणका नाश करता है। केवली-केवलज्ञान वाला-सतत शुद्ध आत्म-निष्ठ । गुप्ति----गोपन करना-संरक्षण करना; मन, वचन और शरीरको
दुष्ट कार्योंसे वचा लेना। तिर्यञ्चदेव, नरक और मनुष्यको छोड़कर शेष जीवोंका
नाम 'तिर्यच' है। त्रस-धूपसे त्रास पाकर हका और गीतसे त्रास पाकर ___ धूपका आश्रय लेने वाला प्राणी-त्रस। दर्शनावरणीय-दर्शन-शक्तिके आवरणरूप कर्म । नायपुत्त-भगवान महावीरके वंशका नाम 'नाय'-ज्ञात है
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[ १७६ ]
अतः नाययुक्त - ज्ञातपुत्र - भगवान महावीरका खास नाम है ।
निकाय - समूह, जीवनिकाय - जीवोंका समूह | निर्ग्रन्थ-गाँठ देकर रखने लायक कोई चीज़ जिनके पास नहीं है—अपरिग्रही साधु ।
निर्जरा -- कमको नाश करनेकी प्रवृत्ति - अनासक्त चित्तसे प्रवृत्ति करनेसे आत्माके सब कर्म नाश हो जाते है । परीषह — जब साधक साधना करता है तब जो जो विघ्न आते है उनके लिए ' परीषह' शब्द प्रयुक्त होता है । साधकको उन सब विघ्नोंको सहन करना चाहिए इसलिए उनका नाम 'परीषह' हुआ ।
पुद्गल - रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दवाले जड़ पदार्थ या या जड़ पदार्थ के विविध रूप ।
प्रमाद - विषय कषाय मद्य अतिनिद्रा और विकथा आदिका प्रसंग - पाँच इन्द्रियोंके शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पांच विषय, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय, मद्य – मद्य और ऐसी ही अन्य मादक चीजें, अतिनिद्रा घोर निद्रा, विकथा संयमको घात करने
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[ १७७ ] वाली विविध प्रकारको कुत्सित कथाएँ। मति--- इंद्रिय-जन्य ज्ञान । मनःपर्याय-दूसरोके मनकेभावोंको ठीक पहचाननेवाला ज्ञान। महात्रत-अहिंसाका पालन, सत्यका भाषण, अचौर्यवृत्ति,
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महावत है। मोहनीय-मोहको उत्पन्न करनेवाले संस्काररूप कर्म
मोहनीय कर्मके हो प्रावल्यसे आत्मा अपना स्वरूप
नहीं पहचानता। रजोहरण-रजको हरनेवाला साधन-जो आजकल पतली
ऊनकी डोरियोंसे बनाया जाता है—जैन साधु निरंतर पास रखते हैं-जहाँ बैठना होता है वहाँ उससे झाड़
कर बैठते है। जिसका दूसरा नाम 'ओघा'-'चरवला' है। लेश्या-आत्माके परिणाम--अध्यवसाय । बिडलोण-गोमूत्रादिक द्वारा पका हुआ नमक । वेदनीय—शरीरसे वा इंद्रियोंसे जिनका अनुभव होता है ऐसे ___ सुख या दुःखके साधनरूप कर्म । वैयावृत्त्य-बाल, वृद्ध, रोगी आदि अपने समान धर्मियोंकी सेवा। शैलेशी-शिलेश-हिमालय, हिमालयके समान अकंप स्थिति।
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[ १७८ ] श्रद्धान-श्रद्धा-स्थितप्रज्ञ वीतराग आप्तपुरुषमें दृढ विश्वास । श्रमण -- स्वपरके कल्याणके लिए श्रम करनेवाला । यह शब्द जैन और बौद्ध साधुओके लिए व्यवहारमें प्रचलित है ।
श्रुत सुना हुआ ज्ञान - शास्त्रज्ञान ।
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सकाम —— विवेक - ज्ञान - पूर्वक दुःख सुखादि सहन करने को प्रवृत्ति या स्वतंत्रविचारसे सहन करनेकी प्रवृत्ति | देखो
अकाम ।
सचित्त - चित्तयुक्त - प्राणयुक्त - जीवसहित कोई भी पदार्थ । समिति — शारीरिक, वाचिक और मानसिक सावधानता । संवर आश्रवोंको रोकना, अनासक्त आत्माकी प्रवृत्तिआत्माकी शुद्ध प्रवृत्ति ।
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सल्लेखना - मृत्यु ( शरीरान्त) तक चलनेवाली वह प्रवृत्ति जिससे कषायों को दूर करनेके लिए उनका पोषण और निर्वाह करनेवाले तमाम निमित्त कम किए जाते हों ।
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ज्ञानावरणीय -- ज्ञानके आवरणरूप कर्म ज्ञान, ज्ञानी या ज्ञानके साधनके प्रति द्वेषादि दुर्भाव रखनेसे ज्ञानावरणीय कर्म बंधते हैं ।
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८१
२६३
महावीर-वाणीके पद्योंकी अक्षरानुक्रमणिका पछका आदिवाक्य पछका अक पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक अचेइ कालो १६० । अभिक्खणं अझत्थ सव्वओ १६ ! अभिभूय २७४ अट्ठ पवयण- २४१ / अरई गण्डं १२३ अणसण- २३६ । अलोल भिक्खू २७७ अणाइकाल
अलोलए अक्कुहए २५१ अत्थंगयम्मि
अलोलुयं अदसणं चेव
अवण्णवायं २५० अधुवं जीवियं
अवि पावपरि-- ८२ अन्नायउंछं
असासए सरीरम्मि १७३ अप्पणछा
असंखयं जीविय अप्पा कत्ता २१२ | अह अहिं ७३ अप्पा चेव
२१३
| अह पनरसहि अप्पाणमेव २१६ । अह पंचर्हि अप्पा नई
अहीणपंचेन्दियत्तं ११९ अप्पा खलु
२२०
अहे वयंति १४८ अप्पं च अहि
अहिंस सच्चं च अबंभचरियं ३९ । अंगपञ्चंगसंठाणं
२४६
२२ ॥
م
७२
७७
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[१८०]
१३७
२४३
८९
२०७
*
पयका आदिवाक्य पद्यका अक । पद्यका आदिवाक्य पयका अक आणाऽनिदेसकरे ८० एमेव रूवम्मि आणानिदेसकरे ७५ । एयाई मयाई
३०९ आयरिए उवज्झाए ३१२ एयाओ पंच आयारमट्ठा
२४५
एवमावलोणीसु आहच
एविन्दियत्था य आहारमिच्छे
एवं खु नाणिणो
१८ इइ इत्तरियम्मि
एवं गुणसमाउत्ता २६८ इमं सरीरं
१६७ । एवं च दोस इरियाभासेसणा-- २४२ । एवं धम्मरस इह जीवियं १९२ । एवं धर्म उड्ढे अहे य
३५ । एवं भवसंसारे उदउल्लं बीय
| एस धम्मे धुवे उवउझिय मित्त-- १२६
एसा पवयणउवलेवो होइ १५७
कम्मसंगेहि उवसमेण हणे १४५
कम्माणं तु उवहिम्मि
२७६ कम्मुणा एगया खत्तियो
कलहडमर-- एगमेगे खल्ल ३०३ । कसिणं पि
१४६
११६
२४४
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[ १८१]
कुसग्गे
पद्यका आदिवाश्य पद्यका अंक | पद्यका आदिवाक्य पछका अक कहं चरे? २८२ चत्तारि परम- ८७ कामाणगिद्धि- ५५ । चत्तारि वमे २७० कायसा
१८४ चरे पयाई १०५ किण्हा नीला २३८,२३९ । चिच्चा दुपय १७० ११३ । चिचाणं घणं
१२५ कूइयं रुइयं ४७
चित्तमंतमचित्तं ३३, २६० कोहा वा नइ वा २५९ / चौराजिणं १५८ कोहो पीई १४४ छन्दनिरोहण
१०६ कोहो य माणो य १४२ | जगनिस्सिएहिं १४ कोहं च माणं च १५१ जणेण सद्धिं १८१ कोहं माणं च
जम्मं दुक्खं १६६ खणमेत्तसोक्खा १५४ जमिणं जगई खामेमि सञ्चे
३०० खिप्पं न सकेइ
जया गई वहुविहं
२९० गइलक्खणो
जया चयइ
२९३ गुणेहि साहू २५२ जया जीव- २८९ चउरंग
९८ / जया धुणइ २९६ चउँविहे वि ६८ / जया निविदए
२९२
१७२
! जया कम्म
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[ १८२ ]
२९८
पयका आदिवाक्य पद्यका अक | पद्यका आदिवाक्य पद्यका अक . जया पुण्णं च २९१ | जहा य किंपाग- १५६ जया मुंडे २९४ जहा लाहो १४७ जया चय
जहा सागडियो जया य चयइ
जहित्ता पुन्व- २६४ जया लोग
| जहेह सीहो १७१ जया लोगे २९९ जाई च वुढि २०९ जया सब्बत्तगं
जा जा बच्चा ७,८ . या संवर
जायरूवं
२५६ जयं चरे
जावन्तऽविजा जरा जाव
जावन्ति लोए १२ जरा-मरण--
जीवा-ऽजीवा य २२८ जस्संतिए
जीवियं चेव जस्सेवमप्पा २१९ । जे आवि अप्पं
३०५ जहा किंपाग--
जे केइ पव्व- १८९ जहा कुम्मे
जे केइ बाला १८६ जहा दवग्गी ५१ जे केइ सरीरे १५९ जहा पोम्म २६२ जे गिद्धे १७९ जहा य अंड- १३१ । जे याव- १००
१७५
Im
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[१८३]
पद्यका अक ३०२ २५८ २०६ २२९
३० २५३
पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक | पद्यका आदिवाक्य जे ममाइअमई २०२ / तवोगुणने माहणं ३०४ तसपाणे जे य कंने १९९ तस्सेस मग्गो जे संखया
तहियाणं तु जो जीवे २८७, २८८ । तहेव काणं जो न सजई २५५ / तहेव डहरं जो पञ्चइताण २२२ | तहेव फरसा जो सहइ २७३ / तहेव सावनजो सहसं २०४,२१५ । तिष्णो सि जंज मणेण ३१४ / तिव्वं तसे जं पि वत्थं च ६१ / दुलियाग उहरे व पाणे २०१ तेउ-पम्हागिकिंचणे ३०७ तेणे जहा तो पुठो १८५ तेसिं गुरुणं तओ से . १८२ तं अप्पणा तत्थ पञ्चविहं २३२ / तं देहवासं तथिम
११ / थंभा व कोहा तवत्सियं २५७ । दंतसोहण
२५ १२८
१९७
२४०
२५४
t:
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[१८४]
दुप्परिचया
घद्यका आदिवाक्य पद्यका अक | पद्यका आदिवाक्य पद्यका अक दाराणि सुया १६८ न जाइमत्ते २७९ दिट्ट मियं २६ न तस्स जाई ३०६ दिव्व-माणुस
न तस्स दुक्खं १७६ दुक्खं हयं १३३ । न तं अरी २१८ दुजए
५४ न परं वइनासि २७८
१६४ न य पावपरिक्खेवी ७८ नमपत्तए ११२ / न य बुग्गहियं २७२ दुल्लहे खल्ल ११५ / न रूवलावण्ण- ४२ देव-दाणव| न लवेज
२४ घण-धन
न वा लभेजा २०८ धम्मलद्धं
न वि मुंडिएण
२६५ धम्मो अहम्मो | न सो परिगहो ५८ धम्मो मङ्गल
नाणस सव्वस्स २०५ घम्स पि हु १२१ नाणसावरणिनं २३३ 'धीरस्स पस्स
नाणेणं जाणइ २३० न कम्मुणा २१० नाणं च दंसणं २२६, २३१ न कामभोगा १४०
नामकम्म न चित्ता १७७ / नासीले
७४
२३४
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[ १८५]
१७४
पथका आदिवाक्य पद्यका अक पद्यका आदिवाक्य . पथका क निच्चकाल- २१ । बुद्धस्स निसम्म १२९ निच्चुम्विग्गो
भासाए दोसे य २७ पइण्णवादी ८३ भोगामिसदोस-- १७८ पढमं नाणं २८५ मणपल्हायजणणी पनामयं ३०८ मन्दा य फासा ११० पणीयं भत्त--
मरिहिसि रायं! पमायं कम्म--
माणुसत्तम्मि परिजूरइ १२२ माणुसत्ते पवेयए अन्नपयं २८० माणुस्सं विग्गह ९२ पाणिवह-मुसावाया- ६९ मासे मासे १९१ पाणे य नाइ- ३ मुसाबाओ य पायच्छित्तं २३७ मुहं मुहं मोह- १०९ पुढवी साली
मूलमेयमहम्मस्स ४० पुरिसोरम १६२ मूलाओ खंघप्पपंचिंदिय--
| रसा पगार्म न १३४ वालस्स परस १९५ रागो य दोसो १३२ वालाणं अकामं १९४ | रुवाणुरत्तस्स १३६ बिडमुन्मेहमं
| रुवे विरत्तो
२३
१५०
२१७
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[१८६]
पद्यका अके
वोच्छिन्द
१३५
१२४ २४८
५३ २२७
सइंधयार
पद्यका आदिवाक्य पद्यका अंक । पद्यका आदिवाक्य रूवेसु जो रोइअनायपुत्त- २६९ | सक्का सहेर्ड लण वि ११७, ११८, | सद्दे सवे य
१२०
सन्तिमे वत्तणालक्खणो वत्थगन्ध-- वरं मे
६५
लोहस्सेस
१०७
स पुष्वमेवं समयाए समया सव्व
२२५ २००
२६६
२१४
२० २७१
सम्मदिट्ठी
समावयंता
९७
३१ १०१ १६५
समिक्ख समं च सयं तिवायए
१९८ ४५
विगिंच वितहं पि वित्तेण ताणं वित्तं पसवो विभूसा इत्थिसंविभूसं विरई अबंभ-- विवत्ती अविणी-- वैया अहोया न वेराई कुवइ
५२
सयं समेच्च
३
। सरीरमाहु
२२१
१५२
८६ | सल्लं कामा १६९ | सववसुद्धिं १९० | सव्वत्थुवहिणा
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[ १८७]
२४७
पद्यका आदिवाक्य पद्यका अक । पद्यका आदिवाक्य पयका अंक सव्वभूयप्पभूयस्स २८४ । सोचा जाणइ २८६ सवस्स जीव- ३१० । सो तवो २३५ सम्वत्स समण- ३११
सोही उज्जुय--
संथारसेन्नासव्वाहि अणुजु- १७
संबुझमाणे सव्वे जीवा
संवुझह किंन
१६३ सव्वं विलवियं ___ १५३
संसारमानन १०३ सुइं च लक्षु
हत्थसंजए २७५ सुत्तेसु
१०४
हत्थागया १८० सुवण्णरुप्पस्स १४९ हासं किडं सुहसायगस्स ३०१ | हिंसे वाले
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शुद्धिपत्रक
१
मूल गाथामें और हिन्दी अनुवादमें कई जगह टाइप बरावर ऊठे नहीं है तथा संख्याके अंक भी वरावर स्पष्ट छपे नहीं है तथा अनुस्वार, अक्षरके ऊपरकी मात्राएंदीर्धकी मात्रा, एकारकी मात्रा वगैरे मात्राएं-स्पष्टतया ऊठी नहीं हैं। व और व में भी छपनेमें संकरसा हो गया है। कई जगह टाइपके वाजुमें और ऊपरमें कुछ धब्बासा भी छप गया है।
२ ३
४ अक्षरके ऊपरके अनुस्वार कई जगह यथास्थान नहीं
छपे परंतु खिसकर छपे हैं। ५ . ऐसा शून्य भी स्पष्ट छपा नहीं है।
इस प्रकार मुद्रणकी भारी त्रुटिसे वाचकलोग गभराये नहीं परंतु उस तरफ उपेक्षाभाव रखकर ग्रंथको पढें ऐसी मेरी नम्र सूचना हैं।
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[ १८९]
शुद्ध
अशुद्ध चरंगी । जाति मदनिवारण, अर्हन्तकी धम-सूत्र सव्वं दिस्स, भयवेराओ सम्यज्ञान सवी एवं दुक्चर
चतुरंगीय (विषयसूची) जातिमदनिवारणसूत्र , अर्हन्तोंको (मंगलसूत्र-गरणः) धर्मसूत्र पृ० ११ सव्वं, दिस्स गा० १६ भय-वेराओ सम्यग्ज्ञान गा० १७ (अनुवाद)
सभी एवं दुक्कर मर्म
गा० १८
मर्म
गा० २१ गा० २४ (अनुवाद)
पि
त्रियोंका
गा० ३१
स्वादिष्ट पाणिहाणवं
स्त्रियोंका स्वादिष्ठ पणिहाणवं शृंगार
गा० ४१ (अनुवाद) गा० ४१ (,) गा० ५४ गा० ५२
श्रृंगार
श्रृंगारी वंभवारि
शंगारी
आगक्ति का
गा० ५६
सर्षि एवं
सप्पि
चंभयारि आसक्ति का गा० ५८
गा० ६० गा० ६७
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[ १९०]
अशुद्ध अरात्रि भोजन-
लोहो
लाते! पमत्त पंचिन्दिया विइय स्वादिष्ट लोहा परित्याग विणिअहेज पुणरवि सुवया राजन्, पंडितमन्य
अरात्रिभोजन- गा० ६४ (शीर्षक
अनुवाद) लाते गा० ९४ (अनुवाद) पमत्ते गा० १०१ पंचिन्दियया गा० ११८ बिइयं गा० १२६ स्वादिष्ठ गा० १३४ (अनुवाद)
गा० १४७ परित्याग गा० १५१ (अनुवाद) विणिअटेज गा० १६१ पुणरावि गा० १६३ सुव्वया गा० १६४ राजन् ! गा० १७५ (अनुवाद) पंडितंमन्य ___ गा० १७७ (,)
गा० १७९ (,) भयभ्रान्त गा० १८८ (अनुवाद) चिचा गा० १९६ उच्छृखल गा० १९२ (अनुवाद)
गा० १९८ गा० १९९
भयभ्रान चिच उच्छंखल पडिए
पंडिए
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[१९१]
मशुद्ध मुत्तत्थ सम तत्वज्ञानी वेयवणी कामदुधा अप्पाणमेव कोहे लक्खखणो चरितं जावस्स नाण ज्ञानवरणीय
कोहं
सुत्तत्थ
गा० २०६ सम गा० २०८ तत्त्वज्ञानी गा० २०७ (अनुवाद) वेयरणी गा० २११ कामदुधा गा० २११ (अनुवाद) अप्पणामेव गा० २१६
गा० २१७ लक्खणो गा० २२४ चरितं गा० २२६ जीवस्स नाणं गा० २३१. ज्ञानावरणीय गा० २३३, २३४
(अनुवाद) आशातना गा० २४५ (,) माहण गा० २५७ जइ वा हासा गा० २५९ वक्केणं गा० २६१ अकिंचन गा० २६३ (अनुवाद) रोइअनायपुत्त गा० २६९ पुराणपावगं गा० २७१ मत्ते गा० २७९
अशातना माहण जइ हासा ववकेणं अकिचन रोइस नायपुत्त पुराण पावगं मन्ते
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बंध
पुण्ण
धम्म
' [ १९२] अशुद्ध
शुद्ध छेयपवागं छेयपावगं गा० २८५ बंध
गा० २९० वत्व
तत्त्व गा० २८७ (अनुवाद अजीवको भी वह अजीवको भी जानता है वह
गा० २८८ (अनुवाद सब्भिन्तरं बाहिरं सब्भिन्तरवाहिरं गा० २९२, २९३
पुण्णं गा० २९१ धम्म
गा० २९४
धुणइ गा० २९६ कम्म
कम्म गा० २९९ नीच .
नं० ३०३ (सांचा) (चंचा) गा० ३०५ १७८
१६८ (पृष्ठांक) शब्दोंका शब्दोंके पृ० १७३
मोह दुक्ख काल घोर धारए क्षति मोहनीय र वियाणइ श्रमणोचित मोक्षमार्ग होनेमें दुःख जीत वाला सुखी वीर भोक्ता सया होता है लोहो रूप जार है दुःखी स्वाधीन भविष्य लोक वत्तिणो मुणी लो और परतंत्रता शरीर तपस्वी तत्व, ऐसे अनेकानेक श अस्पष्ट छपे है अत: सावधान होकर पढनकी नत्र सूचना है
धुइण
नीचे
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