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सत्य-सूत्र
(२५) श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरो को दुख पहुंचानेवाली वाणी न बोले ।
श्रेष्ठ मानव इसी तरह कोध, लोभ, भय और हास्य मे भो पापकारी वाणी न बोले । हंसते हुए भी पाप-वचन नहीं बोलना चाहिए।
(२६) शामा: साधक को दृष्ट (सत्य), परिसित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट-अनुभृत वाचालता-रहित, और किसी को भी उहिग्न न करनेवाली वाणी बोलना चाहिए ।
भाषा के गुण तथा टोपी को भली-भांति जानकर दृषित भाषा को सदा के लिए मोद देनेवाला, पटकाय जीवो पर सयत रहनेवाला, तया साधुन्ध-पान मे सदा तत्पर बुद्धिमान साधक केवल हितकारी मयुर भाषा बोले ।
श्रेज धीर पुरष स्वय जानकर अथवा गुरुजनों से सुनकर प्रजा का हित करनेवाले धर्मका उपदेश करे । जो श्राचरण निन्ध हों, निदानवाले हो, उनका भी सेवन न करे।