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पूज्य-सूत्र
१३६ (२५२) गुणों ने साधु होता है और अगुणा से असाधु, अत हे मुमुक्षु । सद्गुण को ग्रहण कर और दुगुणों को छोड़। जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूपको पहचान कर राग और द्वेष दोना में तमभाव रखना है, वही पूज्य है।
(२५३)
जो बालक, वृद्ध, बी, पुरुष, साधु, और गृहस्थ अादि किसो का भी अपमान तथा निरस्कार नहीं करता, जो ऋाध और अभिमान का पूर्णर ने परित्याग करता है, वही पूज्य है।
(२५४) जो बुद्विमान मुनि मद्गुण-मिन्धु गुम्जनों के मुभाषिता को मुनकर तदनुसार गोत्र महामना में ग्त होता है, तीन गुप्तियों धारण करना है, और चार कपाय रे दूर रहना है, वही पूज्य है।