SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ अप्रमाद-सूत्र (१०८) श्रात्म-विवेक भटपट प्राप्त नहीं हो जाता - इसके लिए भारी साधना को श्रावश्यकता है। महदि जनों को बहुत पहले से हो संयम पथ पर हदता से खड़े होकर काम-भोगों का परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी संहर की वास्तविकता को समकर अपनी श्रात्मा की पापों से रक्षा करते हुए सर्वदा अप्रमादीरूप से विचरना चाहिये । ( १०६ ) मोह गुणों के साथ निरन्तर युद्ध करके विजय प्राप्त करनेवाले धमण को अनेक प्रकार के प्रतिकृत स्पर्शो का भी बहुत बार सामना करना पडता है । परन्तु भिक्षु उनपर तनिक भी अपने मन को तुच्ध न करे - शान्त भाव से अपने लक्ष्य को भीर हो असर होता रहे। aru ( ११० ) संयम-जीवन में मन्दता जाने वाले काम-भोग बहुत ही लुभावने मालूम होते हैं । परन्तु संयमी पुरुष उनकी ओर अपने मन को कभी श्राकुष्ट न होने दे । श्रात्म-शोधक साधक का कर्त्तव्य है कि वह क्रोध को दबाए, भहकार को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ को छोड़ दे ।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy