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अप्रमाद-सूत्र
(१०८)
श्रात्म-विवेक भटपट प्राप्त नहीं हो जाता - इसके लिए भारी साधना को श्रावश्यकता है। महदि जनों को बहुत पहले से हो संयम पथ पर हदता से खड़े होकर काम-भोगों का परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी संहर की वास्तविकता को समकर अपनी श्रात्मा की पापों से रक्षा करते हुए सर्वदा अप्रमादीरूप से विचरना चाहिये ।
( १०६ )
मोह गुणों के साथ निरन्तर युद्ध करके विजय प्राप्त करनेवाले धमण को अनेक प्रकार के प्रतिकृत स्पर्शो का भी बहुत बार सामना करना पडता है । परन्तु भिक्षु उनपर तनिक भी अपने मन को तुच्ध न करे - शान्त भाव से अपने लक्ष्य को भीर हो असर होता रहे।
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( ११० )
संयम-जीवन में मन्दता जाने वाले काम-भोग बहुत ही लुभावने मालूम होते हैं । परन्तु संयमी पुरुष उनकी ओर अपने मन को कभी श्राकुष्ट न होने दे । श्रात्म-शोधक साधक का कर्त्तव्य है कि वह क्रोध को दबाए, भहकार को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ को छोड़ दे ।