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दिया है, यह भी बहुत उत्तम काम किया है। कालके प्रभावसे, महावीरके समयकी प्राकृत भाषा (यथा उनके समकालीन बुद्धकी पाली) लुप्त हो गई है, किंतु संस्कृत उनसे सहस्रों वर्ष पहिले से आज तक भारत मे पढी, समझी, और विद्वन्मंडली मे कुछ कुछ बोली भी जाती है; अतः इस संस्करणका, उक्त संस्कृत अनुवादके हेतु, उस मंडलीमें अधिक प्रचार और आदर होगा, विशेष कर भारत के उन प्रांतों मे जहां हिन्दी अभी तक समझी नहीं जाती है, यद्यपि भारतके नये संविधान मे उसे 'राष्ट्रमापा' घोषित कर दिया है । स्मरणीय है कि महावीर निर्वाणके कुछ शतियाँ वाढ, जिनानुयायी धुरंघर प्रकांड विद्वानोने प्राकृतभापाका प्रयोग छोड़ दिया; क्योंकि प्राकृत भाषाऍ नित्य बदलती रहती हैं, यथा कालिदासादिके नाटकोंके समय की आठ प्राकृतों मे से एक का भी व्यवहार आज नहीं है; इन विद्वानोने अपने रचे ग्रंथों को चिरजीविता देने के लिये संस्कृतमें लिखा; यथा, उमास्वामी (द्वितीयशताब्दी ई०) ने नितांत प्रामाणिक 'तत्वार्थाधिगमसूत्र', जिसे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही मानते हैं; अकलंकने 'राजवार्तिक' नामकी टीका 'तत्त्वार्थाघिगमसूत्र' पर; 'कलिकालसर्वज्ञ' राजगुरु हेमचंद्राचार्य (१२वीं शती) ने 'प्रमाणमोमांसा', 'हैम-वृहदभिधान' नामक संस्कृत शब्दों का कोष, तथा अन्य कई विशालकाय ग्रंथ; हरिभद्र
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