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(९वाँ)ने षड्दर्शनसमुच्चय' समंतमद्र (६वी )ने 'आप्तमीमांसा इति प्रभृति।
मुझे यह त्रुटि जान पड़ती है कि इस नये संस्करण का कागज वैसा अच्छा नहीं है जैसा प्रथम संस्करण का था। क्या किया जाय ? समयके फेरसे सभी वस्तुओं के मूल्य मे अतिवृद्धि, एक ओर; पुस्तक इतनी महर्ष न हो जाय कि अल्पवित्त सजन क्रय न कर सकें, दूसरी और; इन दो कठिनाइयों के बीच ऐसा करना पड़ा।
दूसरा खेद मुझे यह है की इस श्रेष्ठ ग्रंथ का प्रचार बहुत कम हुआ । सन् १९५१की जनगणना मे, जैनो की संख्या, स्थूल अंकों मे, समग्र भारत मे १३००००० (तेरहलाख)थी; सबसे अधिक वंबई राज्य मे, ५७२०००; फिर राजस्थान मे, ३२८०००; सौराष्ट्र मे, १२४०००; मध्यभारत मे, १०००००; उत्तरप्रदेशमे, ९८०००। तेरहलाख की संख्या प्रायः दो लाख परिवारों में बँटी हुई समझी जा सकती है। जैन परिवार प्रायः सभी साक्षर होते हैं। यदि दो कुलोके बीच मे भी एक प्रति रहै तो एक लक्ष प्रतियाँ चाहिये। सो, पहिले संस्करण की दो सहन प्रतियां छपी, स्यात् दूसरेकी भी [२६]