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इतनी ही; इस तीसरे की भी प्राय. इतनी छौंगी । यह संख्या कथमपि पर्याप्त नहीं है |
छः वर्षों चाद, गत अप्रैल मास मे, विशेष कार्यवश, मुझे कलकत्ता जाना पडा । वहाँ, कुछ जैन सज्जनोके निर्वघसे २७ अप्रैलको, सुन्दर और विशाल 'जैन उपाश्रयभवन 'मे महावीरजयंती के समारोहका प्रारंभ, एक प्रवचनसे करनेके लिये गया । प्रायः वारह सौ सज्जन और देवियाँ एकत्र थीँ। मैने पूछा कि 'महावीरवाणी' आप लोगोंने देखा है ? किसीने भी 'हाँ' नहीं कहा। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ । कलकत्तामें प्राय. पाँच सहस्र जैन परिवार, जिन मे पच्चीस सहस्र प्राणी होंगे, निवास करते हैं, ऐसा मुझे बतलाया गया । परमेश्वरकी दया से
अपनी व्यापारकुशलता और उत्साहसे, जैन सज्जन जैसे साक्षर है वैसे बहुवित्त धनी और कोई कोई कोटिपति भी हैं, यही दगा बंबई, राजस्थान, सौराष्ट्र आदि प्रान्तोंकी है; यदि उनके पास कोई प्रामाणिक सुख्यात सज्जन छपे परिपत्र लेकर जायँ तो निश्वयेन लाख रुपये इस उत्तम धर्मकार्यके लिये सहज मे मिल जाये, और एक लाख प्रतियाँका, नहीं तो कमसे कम पचास सहस्र का, उत्तम संस्करण, अच्छे पुष्ट कागज पर और अच्छी पुष्ट कपटे की जिन्द का, छप जाय, जैसा प्रथम [ ३७ ]