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________________ आत्म-सूत्र १२५ उसे इन्द्रियों कभी विचलित नहीं कर सकती, जैसे-भीपण बवडर सुमेरु पर्वत को। (२२०) समस्त इन्द्रियों को खूब अच्छी तरह समाहित करते हुये पापा से अपनी आत्मा की निरंतर रक्षा करते रहना चाहिये । पापों से अरक्षित श्रात्मा ससार में भटका करती है, और सुरक्षित अात्मा ससार के सब दुःखो से मुक्त हो जानी है। (२२१) शरीर को नाव कहा है, जोव को नाविक कहा जाता है, और ससार को समुद्र बतलाया है । इसी ससार-समुद्र को महर्पिजन पार परते हैं। (२२२) जो प्रवजित होकर प्रमाद के कारण पाच महावतो का अच्छी तरह पालन नहीं करता, अपने-अापको निग्रह में नहीं रखता, कामभोगो के रस में आसक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के बन्धन को जट से नहीं काट सकता ।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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