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महावीर - वाणी
(७३-०४)
हहिं ठाणेहिं, सिक्खासीलि त्ति बुचर | अहस्सिरे सयाद न य मन्ममुदाहरे ॥४॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सचरए, सिक्खा सीलि त्ति वुञ्च ॥५शा
[ उत्तरा अः ११ गा० ४-६ ]
(52)
आणानिह सकरे, इंगियागार संपन्ने से
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गुरुणमुववायकारए ।
विणीए त्ति वुच्चइ ॥६॥
[ उत्तरा० अ० १ गा० २]
(७६-७६)
यह पन्नरसहि ठाणेहिं, सुविणीए त्तिं बुच्चइ | नीयावित्ती अचवले, माई अकुले ॥७॥ अपच अहिक्खिवई, पवन्धं च न कुबई । मेत्तिज्जमाणो भयइ, सुर्य लद्ध, न मज्जइ ||८|| नय पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुपइ | पिसाऽवि मित्तरस रहे कल्ला भास ॥६॥ कलहडमरवज्जिए, बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिसलीये, सुविरणीए ति वच्चइ ||१० ll [ उत्तरा० अ० ११ गा० १०-११-१२-१३ ]