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काम-सूत्र
(१५६) जैसे किपाक फल रूप रग और रस की दृष्टि से शुरू में साते समय तो बढे अच्छे मालूम होते है, पर खा लेने के बाद जीवन के नामक है, वैसे ही कामभोग भी प्रारंभ में बड़े मनोहर लगते हैं, पर विपान-काल में सर्वनाश कर देते हैं।
(१५७) जो मनुष्य भोगी है-भोगासक्त है, वही कर्म-मल से लिप्त होता है, अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी ससार में परिभ्रमण किया करता है और अभोगी समार बन्धन से मुक्त हो जाता है।
(१५८) मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, वाटिका (चौद्ध भिक्षुओ का-सा उत्तरीय वस्त्र), और मुण्डन श्रादि कोई भी धर्मचिह दुःशील भिक्षु की रक्षा नही कर सकते।
(१५६) जो अविवेको मनुष्य मन, वचन और काया ले शरीर, वर्ण तथा रूप मे श्रासक्त रहते हैं, वे अपने लिए दुख उत्पन्न करते हैं।
(६०) फाल वढी द्रत गति से चला जा रहा है, जीवन की एक-एक करके सब राबियाँ बीतती जा रही हैं, फल-स्वरूप काम-भोग