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पूज्य-सूत्र
(२४५) जो आचार-प्राप्ति के लिये विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनो को सुनता है एव स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अशातना नहीं करता वही पूज्य है।
(२४६) जो केवल सयम-यात्रा के निर्वाह के लिये अपरिचितभाव से दोप-रहितं भिक्षावृत्ति करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता वही पूज्य है।
(२४७) जो सलारक, शय्या, श्रासन और भोजन-पान आदि का अविक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, सन्तोष की प्रधानता मे रत होकर अपने आपको सदा मनुए बनाये रखता है, वही पूज्य है।