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ब्राह्मण-सूत्र
( २६४ )
जो स्त्री-पुत्र आदि का स्नेह पैदा करनेवाले पूर्व सम्बन्धो को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को तथा बन्धु-जनों को एक बार त्याग देने पर उनमें किसी प्रकार की श्रासक्ति नहीं रखता, पुन कामभोगों मे नही फॅसता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
( २६५ )
सिर मुडा लेने मात्र से कोई श्रमण नही होता, 'श्रोम' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र मे कोई तपस्वी ही हो सकता है ।
( २६६ )
समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मरण होता है, ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बना जाता है । ( २६७ )
मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता हे, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्ध भी अपने किए गए कर्मों से ही होता है । ( श्रर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैना ही ऊंच या नीच हो जाता है । ) ( २६८ )
इस भाति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजेोत्तम [श्रेष्ठ ब्राह्मण ] हैं, वास्तव में वे हो अपना तथा दूसरों का उद्धार कर सकने में समर्थ हैं
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