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अशरण-सूत्र
(१७३) यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, पहले या बाद में एक दिन इसे छोडना ही है, अत. इसके प्रति मुझे तनिक भी प्रीति ( आसक्ति) नहीं है।
(१७४) मावन-शरीर प्रसार है, अधि-व्याधियों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है, यतः मैं इसकी भोर से क्षणभर भी प्रसन्न नहीं होता।
(१७५) मनुष्य का जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चचल है । श्राश्चर्य है, हे राजन्, तुम इसपर मुग्ध हो रहे हो। क्यों नहीं परनोक का खयाल बरते?
(१७६) पापी जीव के दुःख को न जातिवाले बटा सस्ते हैं, न मिन्न वर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्धु । जब दुःस या पड़ता है, तव वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य रिसी के नहीं।
(१७७) चित्र-विचित्र भाषा श्रापत्तिकाल में त्राण नहीं, करती इसो प्रकार मंत्रात्मक भापा का अनुशासन भी त्राण करनेवाला कैसे हो सकता है ? श्रत भाषा और मान्त्रिक विद्या से त्राण पानेकी श्राशायाले पडितमाय मूढ न पापों में मग्न हो रहे हैं।