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विनय-सूत्र
(२०) जो गुरु की आज्ञा का पालम नहीं करता, जो उनके पास नहीं रहता, जो उनसे शत्रुता का बर्ताव रखता है, जो वियेशून्य है, उसे अविनीत कहते हैं।
(८१-८३ ) जो वार-बार क्रोध करता है, जिसका क्रोध शीघ्र ही शान्त नहीं होता, जो मित्रता रखनेवालो का भो तिरस्कार करता है, जो शास्त्र पढ़कर गर्व करता है, जो दूसरों के दोषों को प्रकट करता रहता है, जो अपने मित्रों पर भी क्रुद्ध हो जाता है, जो अपने प्यारे-से-प्यारे मित्र को भी पीठ-पीछे घुराई करता है। जो मनमाना बोल उठता है-यस्वाती है, जो स्नेही-जनो से भी द्रोह रखता है, जो अहंकारी है, जो लुन्ध है, तो इन्द्रियनिग्रही नहीं, जो
आहार आदि पाकर अपने साधर्मी को न देकर अकेला ही खानेवाला अविसंभागी है जो सवको अप्रिय है. वह अविनीत कहलाता है।
(४) शिष्य का कर्तव्य है कि वह जिस गुरु से धर्म-प्रवचन सीखे, उसकी निस्तर वनय भक्ति करे। मस्तक पर अंजलि चढ़ाकर गुरु के प्रति सम्मान प्ररित घरे। जिस तरह भी होसके मन से, वचन से और शरीर से हमेशा गुरु की सेवा करे।