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अशरए-सूत्र
(१६५) मूर्ख मनुष्य धन, पशु और जातिवानों को अपना शरण मानता है और समझता है कि ये मेरे है और मैं उनका हूँ। परन्तु इनमें से कोई भी आपत्तिकाल में त्राण तथा शरण नहीं दे सकता।
(१६६) जन्म का दुख है, जरा (बुहापा) का दुख है, रोग और मरण का दुस है। अहो । ससार दुःखरूर ही है ! यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक प्राणी जम देखो तब क्लेश हो पाता रहता है।
(१६७) यह शरीर अनित्य है, शुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुया है, दुख और क्लेशों का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ हो क्षणों के लिए निवास है, अाखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है।
(१६८) स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन, सब जोते जो के हो सायी हैं, मरने पर कोई भी साथ नहीं पाता ।