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थरमाद-मूत्र
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(१२) विपुल धनराशि नया मित्र-मान्धवी को एपार स्वेच्छापूर्वक छोड़ार, अब दोबारा उनकी गवेपणा (पूजताछ ) न कर। हे गौतम । क्षय-मात्र भो'प्रमाद न कर।
(१२७) घुमावदार पिपम मार्ग को चोदकर तू सोधे और साफ मार्ग पर चल । विषम मार्ग पर चलनेवाले निर्मल भारवाहक की तरह बाद में पद्धतानेवाला न अन । है गौतम । क्षण-मात्र भी प्रमाद न कर।
(१२८) तू विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका है, अब भला किनारे श्रामर क्यों अटक रहा है ? उस पार पहुंचने के लिए जितनी भी हो सके शीघ्रता कर । हे गौतम ! इण-मात्र मी प्रमाद न कर ।
(१६) भगवान महावीर के इस भांति अर्थयुक्त पदोचाले सुभाषित वचनों को सुनकर श्री गौतम स्वामी राग तथा देष का छेदन कर सिद्-गति को प्राप्त हो ग्ये ।
॥भी बांदमलजी - मूलचन्दजी - खूनचन्दी सठिया - सुजानगढ़ - द्वारा प्रदा ॥