SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिनु-सूत्र भली भांति समाधिस्थ करता है, जो सनार्य को पूरा जाननेवाला है, वहीं भिन्न है । (२७६ ) . जो अपने सयम-माधर उपरणों तक में भी गूळ (शाराति) नहीं रसता, जा लाली नहीं है, जोनात परिवारा के यहा से भिक्षा माँगता है, जो सयम-पय में बाधक होनेवाले दोपा से दूर रहना है, जो खरीदने बेचने और संग्रह करने के रहस्योचित धन्धा के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से नि.जग रहता है, वही भिनु। (२७७ ) जो मुनि अल'लुप है, जो रसा में अग्रत ह, जं. श्रमात कुल वी भिक्षा करता है, जो जीवन की चिन्ता नहीं करता, जो ऋहि, सत्कार और पूजा-प्रतिष्टा पा मोर छोट देता ८, जो स्थितागा तथा निस्पृही ६, वहीं भिन्न है । (२७) जो दुमरा को यह दुराचारी है ऐमा नहीं रहता, जो कटु वचन-जिनसे सुननेवाला सुब्ध है-नहीं बोलता, 'सब जाव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार हा नुस-द्ध ख भोगते हैं।' -ऐसा जानकर जा दूम। की निन्य चप्टायो पर लक्ष्य न देवर अपने मुवार की चिता करना , जा अपने-आपको उग्र तप और साग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिनु ।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy