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पूज्य-सूत्र
(२४८) संसार में लोभी मनुष्य किसी विशेष अाशा की पूर्ति के लिये लौह-कंटक भी सहन कर लेते हैं, परन्तु जो बिना किसी
आशा-तृष्णा के कानों में तीर के समान त्रुभने वाले दुर्वचन- . रूपी कंटकों को सहन करता है, वहीं पूज्य है।
(२४६) . चिरधियों की ओर से पड़नेवाली दुर्वचन की चोटें कानों में पहुँचकर बड़ी मर्मान्तक पीड़ा पैदा करती है; परन्तु जो क्षमाशूर जितेन्द्रिय पुरुष उन चोटों को अपना धर्म जानकर समभाव से सहन कर लेता है, वही पूज्य है।
(२५०) जो परोक्ष में किसी की निन्दा नहीं करता, प्रत्यक्ष में भी कलहवर्धक अंट-संट बातें नहीं बकता, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली एवं निश्चयकारी भाषा नहीं बोलता, वही पूज्य है।
(२५१) जो रसलालुप नहीं है, इन्द्रजाली (जादू-टेना करनेवाला) नहीं है, मायावो नहीं है, चुगलखोर नहीं है, दोन नहीं है, दूसरों से अपनो प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं रखता, स्वयं भी अपने मुह से अपनी प्रशंसा नहीं करता, खेल-तमाशे अादि देखने का भी शौकीन नहीं है, वहीं पृष्य है।