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________________ अप्रमाद-सूत्र (१०२) जैसे चोर सेंध के द्वार पर पकडा जाकर अपने ही दुष्कर्म के कारण चीरा जाता है, वैसे ही पाप करनेवाला प्राणी भी इस बोक में तथा परजोक में-दोनो ही जगह-भयङ्कर दुःख पाता है । क्योंकि कृत कर्मों को भोगे बिना कभी छुटकारा नहीं हो सकता । (१०३) ससारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्नियो के लिए, बुरे से बुरे पाप-कर्म भी कर डालता, है, पर जम उनके दुष्फल भोगने का समय श्राता है, तब अकेला ही दुःख भोगता है, कोई भी भाईबन्धु उसका दुःख बंटानेवाला--सहायता पहुँचानेवाला नहीं होता। (१०४) भाशु-प्रज्ञ पंदित-पुरुष को मोह-निद्रा में सोते रहनेवाले समारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब ओर से जागरूक रहना चाहिए-किसीका विश्वास नहीं करना चाहिए । 'काल निर्दय है और शरीर निर्बत' यह जानकर भारएड पक्षी की तरह हमेशा अप्रमत्त भाव से विचरना चाहिए।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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