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कपाय -सूत्र
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अनेक प्रकार के बहुमूल्य पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व यदि किसी मनुष्य को दे दिया जाये, तो भी वह सन्तुष्ट न होगा । श्रहो ! मनुष्य को यह तृष्णा बड़ी दुप्पूर है ।
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ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है । देखो न, पहले केवल दो मासे सुवर्ण की आवश्यकता थी; पर बाद में वह करोड़ों से भी पूरी न हो सकी ।
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क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति में जाता है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इस लोक तथा परलोक में मद्दान् भय है ।
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चाँदी और सोने के कैलास के समान विशाल श्रमंस्य पर्वत भी यदि पास में हों, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृष्णा श्राकाश के समान अनन्त है 1 ( १५० )
चॉल थोर जी आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथिवी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है - यह जानकर संग्रम का ही श्राचरण करना चाहिए ।