________________
भिक्षु-सूत्र
( २७६ )
जो जाति का अभिमान नहीं करता; जो रूप का ग्रभिमान नही करता; जो लाभ का अभिमान नही करना, जो श्रुत (पाडित्य ) का अभिमान नहीं करता; जो सभी प्रकार के अभिमानों का परित्याग कर केवल धर्म-व्यान मे ही रत रहता है, वही भिक्षु है ।
१५३
( २८० )
जो महामुनि आार्यपद ( सद्धर्म) का उपदेश करता है, जो स्वय धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है, जो घर-गृहस्थी के प्रपच से निकल कर सदा के लिये कुशील लिंग (निन्द्यवेश) को छोड देता है, जो किसी के साथ हंसी-ठट्ठा नहीं करता, वही भिक्षु है ।
(२८१)
इस भाँति अपने को सदैव कल्याण - पथ पर खडा रखनेवाला भिक्षु अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में निवास करना हमेशा के लिये छोड़ देता है, जन्म-मरण के बन्धनो को सर्वथा काटकर पुनरागमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है ।