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________________ चाल-सूत्र १०७ (1 ) मूर्स मनुष्य विषयासक्त होते ही उस तथा स्थावर जीवों को सताना शुरू कर देता है, और अन्त तक मतजन चेमतलब प्राणिसमूह की हिंसा करता रहता है । (१८३) मूर्स मनुष्य हिंसक, असत्य-गपी, मायावी, चुगलखोर और धूर्त हता है। यह मां-मध के खाने-पीने में ही अपना श्रेय समझता है। (१८४) जो मनुष्य भरीर तथा वचन के बल पर मदान्ध है, धन तथा स्त्री आदि में ग्रामक है, वह राग और द्वेष दोनों द्वारा वैसे ही वर्म का संचय करता है, जैसे अलसिया मिट्टी का । (१८) पाप-कर्मो के फलस्वरूप जब मनुष्य अन्तिम समय में असाध्य रोगों से पीडित होता है, तब वह खिन्नचित्त होकर अन्दर-ही-अन्दर पन्त ता है और अपने पूर्वकन पाप-कर्मों को याद कर-कर के परलोक की विभीषिका से कांप उठता है । ___ जो मूर्ख मनुष्य अपने तुच्छ जीवन के लिये निर्दय होकर पाप-कर्म करते हैं, वे महाभयंकर प्रगाढ़ अन्धकाराच्छन्न एवं तीन तापवाले तमित्र नरक में जाकर पड़ते हैं।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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