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ब्रह्मचर्य-सूत्र
(२८) काम-भोगो का रस जान लेनेवाले के लिए अ-ब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्मवर्य महानत का धारण करना, बडा कठिन कार्य है।
( ३६ ) जो मुनि सयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक मे रहते हुए भी दु सेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयकर अ-ब्रह्मचर्य का भी सेवन नहीं करते।
(४०) यह श्य-ब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महा-दोषों का स्थान है इसलिए म्यिन्य मुनि मैथुन-संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं।
श्रात्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का श्रृंगार, स्त्रियों का ससर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन~ सब तालपुट विष के समान महान् भयकर है।