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________________ [ १७७ ] वाली विविध प्रकारको कुत्सित कथाएँ। मति--- इंद्रिय-जन्य ज्ञान । मनःपर्याय-दूसरोके मनकेभावोंको ठीक पहचाननेवाला ज्ञान। महात्रत-अहिंसाका पालन, सत्यका भाषण, अचौर्यवृत्ति, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महावत है। मोहनीय-मोहको उत्पन्न करनेवाले संस्काररूप कर्म मोहनीय कर्मके हो प्रावल्यसे आत्मा अपना स्वरूप नहीं पहचानता। रजोहरण-रजको हरनेवाला साधन-जो आजकल पतली ऊनकी डोरियोंसे बनाया जाता है—जैन साधु निरंतर पास रखते हैं-जहाँ बैठना होता है वहाँ उससे झाड़ कर बैठते है। जिसका दूसरा नाम 'ओघा'-'चरवला' है। लेश्या-आत्माके परिणाम--अध्यवसाय । बिडलोण-गोमूत्रादिक द्वारा पका हुआ नमक । वेदनीय—शरीरसे वा इंद्रियोंसे जिनका अनुभव होता है ऐसे ___ सुख या दुःखके साधनरूप कर्म । वैयावृत्त्य-बाल, वृद्ध, रोगी आदि अपने समान धर्मियोंकी सेवा। शैलेशी-शिलेश-हिमालय, हिमालयके समान अकंप स्थिति।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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