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________________ चतुरङ्गीय-मूत्र (६५) परन्तु जो तपस्वी मनुग्यस्य को पाकर, सद्धर्म का अरण कर, उसपर श्रद्धा जाता है और तदनुमार पुरुषार्थ कर आस्रव रहित हो जाता है, वह अन्तरात्मा पर ने कर्म रज को झटक देता है। (६६) जो मनुष्य निष्कपट एवं सरल होता है,जयो की आमा शुद्ध होती है। और, जिस की प्रारमा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है। घी में सीची हुई मग्नि जिस प्रकार पूर्ण प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल और शुद्ध साधक ही पूर्ण निर्वाण को प्राप्त होता है। कंगा पैदा करनेवाले कारण को हूँ टो-उका छेद करो, और फिर पमा प्रादि के द्वारा अभय यश का संचय करो। ऐमा करनेवाला मनुष्य इस पार्थिव शरीर को छोड़कर अर्ध्व-दिशा को पास करता है-अर्थान उच्च और श्रेष्ठ गति पाता है। (1) जो मनुष्य उक्त पार अंगो को दुर्लभ जानबर संयम मार्य स्वीकार करता है, वह तप के द्वारा बन कमांश का नाश कर सदा के लिये सिद्ध हो जाता है।
SR No.007831
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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